21 सितंबर 2013

गांवों में पहुंच गया बेदर्द शहर-हिन्दी व्यंग्य कविता (gaanvon mein pahunch gaya bedard shahar)



बंदर दे रहा था धर्म पर प्रवचन
उछलकूद करते हुए तमाशा भी
दिखा रहा था
यह सनसनीखेज खबर है
उसके मुखौटे के पीछे
इंसान का चेहरा है
आंखें देखती हैं पर पहचानती नहीं
कान सुनते है मगर समझ नहीं इतनी
बंदर के बोलों में इंसान का ही स्वर है।
कहें दीपक बापू
ज़माना बंटा है टुकड़ों में
कोई दौलत के नशे में मदहोश है,
कोई गरीबी के दर्द से बेहोश है,
जज़्बात सभी के घायल है,
ख्वाबी अफसानों के फिर भी कायल है
दिल के सौदागरों के अपनी चालाकी से
रोते को हंसाने के लिये
खुश इंसान के दिमाग में प्यास बढ़ाने के लिये
मचाया इस जहान  में विज्ञापनों का  कहर है।
देखते देखते
गांवों की खूबसूरती हो गयी लापता
नहीं रही वहां भी पुरानी अदा
घर घर पहुंच गया बेदर्द शहर है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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12 सितंबर 2013

14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष लेख-राष्ट्रीय एकता में राष्ट्रभाषा का महत्व समझना होगा(14 september hindi diwas-ekta mein rashtrabhasha ka mahatva samjhna hoga)



          14 सितंबर 2014 को हिन्दी दिवस है यह बात मातृभाषा बोलने, लिखने तथा समझने वाले अधिकतर बुद्धिजीवियों को मालुम है।   इस लेखक ने अपने ब्लॉग पर अनेक लेख लिखे हैं इसलिये उन पर अनेक पाठक आ रहे है।  हिन्दी के महत्व शब्द से सर्च इंजिनों पर खोज अधिक होती दिखती है। हिन्दी के महत्व पर लिखे गये एक लेख पर अनेक प्रकार की प्रतिक्रियायें
प्राप्त हो रही हैं। उसमें पुराने लेख परक अक्सर एक शिकायत आती है कि उसमें आपने हिन्दी का महत्व तो बताया ही नहीं।  हमने उनको नजरअंदाज किया पर आज एक प्रतिक्रिंया मिली कि आप राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी का महत्व बतायें तो अच्छा रहेगा।  उस पाठक की इस प्रतिकिया ने इस लेख को लिखने की प्रेरणा दी।
                        राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में हिन्दी के महत्व का बखान बहुत लोगों ने किया है पर शायद ही कोई यह बता पाया हो कि आखिर राष्ट्रीय एकता की जरूरत किसे और क्यों है? इस एकता की जरूरत समाज को है या व्यक्ति को है? हमारा यह प्रश्न अटपटा जरूर लगता है पर चिंत्तन के संदर्भ में अत्यंत महतवपूर्ण है।  हमारे यह बुद्धिजीवियों का झुण्ड  अब राष्ट्र, प्रदेश, शहर, मोहल्ला, परिवार और व्यक्ति के क्रम में सोचता है और यही कारण है कि वह राजकीय संस्थाओं से ही हिन्दी के विकास का सपना देखता है।  हम व्यक्ति से राष्ट्र के क्रम में सोचते हैं। हमारा मानना है कि व्यक्ति मजबूत हो तो ही राष्ट्र मजबूत हो सकता है।  इस मजबूती को आधार  अपनी भूमि, भाव तथा भाषा के प्रति विश्वास दिखाने और उसे निभाने से ही मिल सकता है।  हम आज देश में अनेक प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक संकटों के आक्रमण का सामना कर रहे हैं।  समाज डोलता दिख रहा है। यही स्थिति हमारी राष्ट्रभाषा की भी है।  हमारा मानना है कि इस संकट का कारण यही है कि हम अपनी भाषा के प्रति उदासीन रवैया अपनाये हुए हैं  हर कोई हिन्दी  के विकास की बात कर  रहा है पर पुरस्कारों तथा सम्मान का मोह ऐसा है कि लोग अपनी भाषा की सच्चाई के प्रति उदासीन है। आखिर हिन्दी के प्रति हमें सतर्क क्यों होना चाहिये। इसी उत्तर की खोज ही राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का महत्व सिद्ध कर सकती है।
                        जब तक सरकारी नौकरी ही इस देश में मध्यम वर्ग का आधार था तब सरकारी कामकाज में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व था। उस समय इसकी आलोचना के जवाब में कहा जाता था कि हिन्दी को रोजगारमूलक बनाया जाना चाहिये।  कालांतर में  हिन्दी में कामकाज का प्रभाव बढ़ा। अब मध्यम वर्ग के लिये नोकरियां सरकारी क्षेत्र में कम हैं और निजी क्षेत्र इसके लिये आगे आता जा रहा है।  ले-देकर बात वहीं आकर अटकती है कि वहां हिन्दी वाले को कोई सफेद कॉलर वाली नौकरी नहंी मिल सकती।  यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी जो नौकरी का लक्ष्य लेकर पढ़ रही है वह अंगेजी के साथ आगे बढ़ रही है।  प्रश्न यह है कि क्या वह बिना हिन्दी के कितना आगे बढ़ पायेगी।  एक बात साफ कर दें कि नौकरी में योग्यता एक अलग मायने रखती है।  संभव है कि ग्यारहवीं पास अंग्रेजी न जानने वाला कहीं प्रबंधक बन जाये और उसके नीचे अंग्रेजीदां इंजीनियर काम करें।  प्रबंध कौशल अपने आप में एक अलग विधा है और जिनमें यह गुण है उनके लिये अंग्रेजी कोई मायने नहीं रखती। ऐसे में कहीं अगर किसी संस्थान में शक्ति का कें्रद्र किसी हिन्दी भाषी के पास रहा तो उसे अपनी भाषा में बातकर प्रभावित किया जा सकता हैं। सभी जानते हैं कि भारत में विकास के लिये कभी चाटुकारिता भी करनी होती है जो केवल हिन्दी में सहज हो सकती है।  ऐसे में व्यक्ति को अपनी विकास यात्रा के लिये हिन्दी भाषा न होने या अल्प होने से बाधा लगेगी तो वह क्या करेगा? अगर हिन्दी के सहारे कोई विकास करता है यकीनन वह राष्ट्र का ही कल्याण करेगा! उसका विकास अंततः कहीं न कहंी राष्ट्र के प्रति उसका आत्मविश्वास बढ़ाता है जिससे वह दूसरे लोगों के साथ एक होकर रहना चाहता है। 
                        दूसरी बात यह है कि हमारे देश में समय के साथ राष्ट्रीय स्तर पर इधर से उधर रोजगार के कारण पलायन बहुत  हुआ है। पहले हम अपने देश का मानसिक भूगोल समझें।  हमारा पूर्व क्षेत्र वन के साथ खनिज, पश्चिम उद्योग, उत्तर प्रकृति के साथ ही मनुष्य तथा दक्षिण बौद्धिक संपादा की दृष्टि अत्यंत संपन्न हैं। हम यहां उत्तर की  प्रकृति तथा मनुष्य संपदा की बात करेंगे। दरअसल हमारे उत्तरी मध्य क्षेत्र में कृषि संपदा है तो यहां जनसंख्या घनत्व भी अधिक है।  जहां जहां बौद्धिक रूप से श्रेष्ठता का प्रश्न हों वहां दक्षिणवासी लोगों का  कोई जवाब नहीं तो श्रम का प्रश्न हो तो उत्तर भारतीय लोगों को लोहा माना जाता है। खासतौर से बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से श्रम शक्ति पूरे भारत में फैली है। जिस तरह भारत से बाहर गये श्रमशील मनुष्यों ने हिन्दी का विदेश में विस्तार किया वैसे ही इन हिन्दी भाषी श्रमिकों ने भारत के अंदर ही हिन्दी का विस्तार किया है।  यहां यह भी बता दें भारत के बाहर नौकरी के लिये ही अं्रेग्रेजी का महत्व है वरना व्यापार में केवल बुद्धि की ही आवश्यकता होती है।  भारत के अनेक लोग ऐसे भी हैं जो गुलामी के समय में  विदेशों में गये और अंग्रेजी न आने के बावजूद व्यापार किया।  वह सफल और बडे व्यापारी बने।  पंजाब से गये अनेक लोगों ने बिना अंग्रेजी के अपना काम किया। स्थिति यह है कि अनेक लोग तो यह कहने लगे हैं कि विदेशों में कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां हिन्दी का प्रभाव साफ दिखता है।  इतना ही नहीं वहां आपसी संपर्क में हिन्दी का महत्वपूर्ण योगदान है।  हम भारत में भी यही देख सकते हैं।  अनेक गैर हिन्दी प्रदेशों में जाने पर वहां हिन्दी में वार्तालाप किया जा सकता है।  कहीं कहीं तो अंग्रेजी का ज्ञान न होने वालेे भी हैं पर हिन्दी में वहां भी काम हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही कोई हिन्दी न जानता हो पर उससे आप अपनी भाषा के कारण आत्मीय का व्यवहार तो पा ही सकते हो जो कि समय पड़ने पर अत्यंत आवश्यक होता है।
            हम देख रहे हैं कि भारत में कंपनियां अपना विस्तार सभी जगह कर रही है। वह चाहें या न चाहें उन्हें शारीरिक काम करने वाले लोगों  की आवश्यकता हो्रती है। तय बात है कि अंग्रेजी वालों में शारीरिक क्षमता अधिक नही हो्रती। अब सिथति यह भी हो सकती है कि कहीं प्रबंधक अंग्रेजीदां है तो बौद्धिक काम वालों को उसे प्रभावित करने के लिये अंग्रेजी का आवश्यकता पड़ सकती है पर अगर कहीं शारीरिक श्रम की बहुलता है तो  प्रबंधक को   भी श्रमिकों से काम लेने के लिये  हिन्दी पूर्णरूपेश आनी ही चाहिये। कहनें का मलब यही है कि पूंजी, श्रम और बुद्धि का तारतम्य अब इस देश में केवल हिन्दी भाषा से जम सकता है। औद्योगिक विकास के लिये तीनों की आवश्यकता होती है।  श्रम शक्ति पर निर्भर रहने वाले पढ़ाई नहीं करते या कम करते हैं उनसे काम लेने के लिये पूंजी और बौद्धिक वर्ग को उसकी भाषा आना चाहिये।
            हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि हम जब कृषि पर निर्भर थे तब जितनी हिन्दी भाषा की आवश्यकता थी। उससे ज्यादा अब है।  पूजी, बुद्धि और श्रम का तारतम्य अब हिन्दी के बिना संभव नही है। तय बात है कि जब तीनों के बीच एकरूपता होगी तो उनसे जुड़े तीनों व्यक्तियों को भी उसका प्रतिफल मिलेगा।  तब उनमें स्वयमेव एकता होगी। अगर भाषा संबंधी परेशानी रही तो तो तीनों परेशान होंगे।  अतः उनमें हिन्दी भाषा ही एकता ला सकती है। यहां हम बता दें एकता से हमारा आशय व्यक्तियों की एकता से ही है। खालीपीली राष्ट्रीय एकता का नारा लगाने वालो  में हम नहीं है।  इससे ज्यादा हम राष्ट्रीय एकता पर हम क्या लिखें? वैसे हम लिख तो गये पर यह तय नहीं कर पाये कि हमने हिन्दी का महत्व पूरी तरह से बताया कि नहीं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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7 सितंबर 2013

हिन्दी दिवस पर विशेष लेख-हिन्दी का महत्व हम कैसे समझायें (hindi diwas or hindi divas par vishesh lekh-hindi ka mahatva kaise samjhayen)



                        हिन्दी दिवस 14 नवंबर 2013 को है पर इस लेखक के बीस ब्लॉग इस विषय पर लिखे गये पाठों पर जमकर पढ़े जा रहे हैं।  पता नहीं कब हमने एक लेख लिख डाला था, जिसका शीर्षक था हिन्दी भाषा का का महत्व समाज कब समझेगा? उस समय इस इतने पाठक नहीं मिले थे जितने अब मिलने लगे हैं। इससे एक बात तो जाहिर होती है कि इंटरनेट पर लोगों का हिन्दी मे रुझान बढ़ गया है, दूसरी यह भी कि हिन्दी दिवस के मनाये जाने का महत्व कम नहीं हुआ है।  एक तीसरी बात भी सामने आने लगी है कि लोग हिन्दी विषय पर लिखने या बोलने के लिये किताबों से अधिक इंटरनेट पर सामग्री ढूंढने में अधिक सुविधाजनक स्थिति अनुभव करने लगे हैं।  मूलतः पहले विद्वान तथा युवा वर्ग किसी विषय पर बोूलने या लिखने के लिये किताब ढूंढते थे। इसके लिये लाइब्रेरी या फिर किसी किताब की दुकान पर जाने के अलावा उनके पास अन्य कोई चारा नहीं था।  इंटरनेट के आने के बाद बहुत समय तक लोगों का  हिन्दी के विषय को लेकर यह भ्रम था कि यहां हिन्दी पर लिखा हुआ मिल ही नहीं सकता।  अब जब लोगों को हिन्दी विषय पर लिखा सहजता से मिलने लगा है तो वह किताबों से अधिक यहां अपने विषय से संबंधित सामग्री ढूंढने  लगे हैं।  ऐसे में किसी खास पर्व या अवसर पर संबंधित विषयों पर लिखे गये पाठ जमकर पढ़े जाते हैं। कम से कम एक बात तय रही कि हिन्दी अब इंटरनेट पर अपने पांव फैलाने लगी है।
                        हिन्दी ब्लॉग पर पाठकों की भीड़ का मौसम 14 सितंबर हिन्दी दिवस के अवसर पर अधिक होता है।  ऐसे में पुराने लिखे गये पाठों को लोग पढ़ते हैं।  हमने हिन्दी दिवस बहुत पाठ लिखे हैं पर उस यह सभी उस दौर के हैं जब हमें लगता था कि यहंा पाठक अधिक नहीं है और जो सीमित पाठक हैं वह व्यंजना विधा में कही बात समझ लेते हैं।  उससे भी ज्यादा कम लिखी बात को भी अपनी विद्वता से अधिक समझ लेते हैं।  कहते हैं न कि समझदार को इशारा काफी है।  इनमें कई पाठ तो भारी तकलीफ से अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड के माध्यम से  हिन्दी में लिखे गये।  अब तो हिन्दी टाईप के टूल हैं जिससे हमें लिखने में सुविधा होती है। लिखने के बाद संपादन करना भी मौज प्रदान करता है।
                        जिस दौर में अंग्रेजी टाईप करना होता था तब भी हमने बड़े लेख लिखे पर उस समय लिखने में विचारों का तारतम्य कहीं न कहंी टूटता था।  ऐसे में हिन्दी के महत्व पर लिखे गये लेख में हमने क्या लिखा यह अब हम भी नहंी याद कर पाते।  जो लिखा था उस पर टिप्पणियां यह  आती हैं कि आपने इसमें हिन्दी का महत्व तो लिखा ही नहीं।
                        यह टिप्पणी कई बार आयी पर हम आज तक यह नहीं समझ पाये कि हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता क्या आ पड़ी है? क्या हम इस देश के नहीं है? क्या हमें पता नहीं देश में लोग किस तरह के हैं?
                        ऐसे में जब आप हिन्दी का महत्व बताने के लिये कह रहे हैं तो प्रश्न उठता है कि आपका मानस  अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तरफ तो नहीं है।  आप यह जानना चाहते हैं कि हिन्दी में विशेषाधिकार होने पर आप विदेश में कैसे सम्माजनक स्थान मिल सकता है या नहीं? दूसरा यह भी हो सकता है कि आप देश के किसी बड़े शहर के रहने वाले हैं और आपको छोटे शहरों का ज्ञान नहीं है।  हिन्दी के महत्व को जानने की जरूरत उस व्यक्ति को कतई नहीं है जिसका वर्तमान तथा भावी सरोकार इस देश से रहने वाला है।  जिनकी आंखें यहां है पर दृष्टि अमेरिका की तरफ है, जिसका दिमाग यहां है पर सोचता कनाडा के बारे में है और जिसका दिल यहा है पर ं धड़कता इंग्लैंड के लिये है, उसे हिन्दी का महत्व जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस भाषा से उसे वहां कोई सम्मान या प्रेम नहीं मिलने वाला।  जिनकी आवश्यकतायें देशी हैं उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि इस देश में रहने के लिये हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होना आवश्यक है।
                        पहले तो यह समझना जरूरी है कि इस देश में हिन्दी का प्रभाव ही रहना है।  भाषा का संबंध भूमि और भावना से होता है। भूमि और भावना का संबंध भूगोल से होता है। भाषाओं का निर्माण मनुष्य से नहीं वरन् भूमि और भावना से होता है। मनुष्य तो अपनी आवश्यकता के लिये भाषा का उपयोग करता है जिससे वह प्रचलन में बढ़ती है।  हम यह भी कहते हैं कि इंग्लैंड में कभी हिन्दी राज्य नहीं कर सकती क्योंकि वहां इसके लिये कोई भूगोल नहीं है।  जिन लोगों में मन में हिन्दी और इंग्लिश का संयुक्त मोह है वह हिंग्लििश का विस्तार करने के आधिकारिक प्रयासों में लगे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक तो वह युवा वर्ग तथा उसके पालक जो चाहते हैं कि उनके बच्चे विदेश में जाकर रोजगार करें।  दूसरे वह लोग जिनके पास आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियां हैं तथा वह इधर तथा उधर दोनों तरफ अपना वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से भारत में स्थित  मानव श्रम का उपयोग अपने लिये करना चाहता है।  एक तीसरा वर्ग भी है जो किराये पर बौद्धिक चिंत्तन करता है और वह चाहता है कि भारत से कुछ मनुष्य विदेश जाते रहें ताकि देश का बोझ हल्का हो और उनके बौद्धिक कौशल का  विदेश में सम्मान हो।
                        हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं बन पायी न बनेगी।  हिन्दी लेखकों को दोयम दर्जे का माना जाता है और इसमें कोई सुधार होना संभव भी नहंी लगता।  जिन्हें लिखना है वह स्वांत सुखाय लिखें। हम यहां पर लिखते हैं तो दरअसल क्रिकेट, टीवी धारावाहिकों तथा फिल्मों से मिलने वाले मनोरंजन का वैकल्पिक उपाय ढूंढना ही उद्देश्य होता है।  एक बेकार धारावाहिक या फिल्म देखने से अच्छा यह लगता है कि उतने समय कोई लेख लिखा जाये।  हिन्दी हमारे जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये अध्यात्म की भाषा है। हम यहां लिखने का पूरा आनंद लेते हैं। पाठक उसका कितना आनंद उठाते हैं यह उनकी समस्या है।  ऐसे  फोकटिया लेखक है जो अपना साढ़े सात सौ रुपया इंटरनेट पर केवल इसलिये खर्च करता है कि उसके पास मनोरंजन का का दूसरा साधन नहीं है। बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये हम हिन्दी के कोई आदर्श लेखक नही है क्योंकि मुफ्त में लिखने वाले हैं।  यह हमारी निराशा नहीं बल्कि अनुभव से निकला निष्कर्ष है। सीधी बात कहें तो हिन्दी का रोजगार की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है अलबत्ता अध्यात्मिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी भाषा का ही महत्व रहने वाला है।
                        विश्व में भौतिकतवाद अपने चरम पर है। लोगों के पास धन, पद तथा प्रतिष्ठा का शिखर है पर फिर भी बेचैनी हैं। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करने वालों की बनकर आयी हैं।  विश्व के अनेक देशों में भारतीय या भारतीय मूल के लोगों ने विज्ञान, साहित्य, राजनीति, कला तथा व्यापार के क्षेत्र में भारी सफलता अर्जित की है और उनके नामों को लेकर हमारे प्रचार माध्यम उछलते भी है।ं पर सच यह है कि विदेशें में बसे प्रतिष्ठित भारती  हमारे देश की पहचान नहंी बन सके हैं।  प्रचार माध्यम तो उनके नामों उछालकर एक तरह से देश के युवाओं को यह संदेश देते हैं कि तुम्हारा यहां कोई भविष्य नहीं है बल्कि बाहर जाओ तभी कुछ होगा। लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वतंत्र जीवन जीने की बजाय उनको विदेशियों  चाकरी के लिये यहां उकसाया जाता है।  सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक उन्नति को ही जीवन का सवौच्च स्तर बताने वाले इन प्रचार माध्यमों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये कि वह अध्यात्म के उच्च स्तर का पैमाना बता सकें।
                        यहीं से हिन्दी का मार्ग प्रारंभ होता है।  जिन युवाओं ने अंग्र्रेजी को अपने  भविष्य का माध्यम बनाया है उनके लिये अगर विदेश में जगह बनी तो ठीक, नहंी बनी तो क्या होगा? बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वह रोजगार पाकर भी खुश होगा।  अध्यात्म जिसे हम आत्मा कहते हैं वह मनुष्य से अलग नहीं है। जब वह पुकारता है तो आदमी बेचैन होने लगता है। आत्मा को मारकर जीने वाले भी बहुत है पर सभी ऐसा नहीं कर सकते।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो लोग अंग्रेजी के मुरीद हैं वह सोचते किस भाषा में है और बोलते किस भाषा में है यह बात समझ में नहीं आयी। हमने सुना है कि कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहां अंग्रेजी में न बोंलने पर छात्रों को प्रताड़ित किया जाता है।  अंग्रेजी में बोलना और लिखना उन विद्यालयों का नियम है। हमें इस बात पर एतराज नहीं है पर प्रश्न यह है कि वह छात्रों के सोचने पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। तय बात है कि छात्र पहले हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा में सोचते और बाद में अंग्रेजी में बोलते होंगे।  जो छात्र अंग्रेंजी में ही सोचते हैं उन्हें हिन्दी भाषा को महत्व बताने की आवश्यकता ही नहीं है पर जो सोचते हैं उन्हें यह समझना होगा कि हिन्दी उनके अध्यात्म की भाषा है जिसके बिना उनका जीवन नारकीय होगा। अतः उन्हें हिन्दी के सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। मुंबईया फिल्मों या हिंग्लिश को प्रोत्साहित करने वाले पत्र पत्रिकायें उनकी अध्यात्मिक हिन्दी भाषा की संवाहक कतई नहीं है।  भौतिक विकास से सुख मिलने की एक सीमा है पर अध्यात्म के विकास बिना मनुष्य को अपने ही अंदर कभी कभी पशुओं की तरह लाचारी का अनुभव हो सकता है। अगर आत्मा को हमेशा सुप्तावस्था में रहने की कला आती हो तो फिर उन्हें ऐसी लाचारी अनुभव नहीं होगी। 
                        हिन्दी में टाईप आना हम जैसे लेखकों के लिये सौभाग्य की बात हो सकती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है कि वह इसे सीखें।  हम न केवल हिन्दी भाषा की शुद्धता की बात करते हैं वरन् हिन्दी टाईप आना भी महत्वपूर्ण मानते हैं।  यह जरूरी नही है कि हमारी बात कोई माने पर हम तो कहते ही रहेंगे।  हिन्दी भाषा जब अध्यात्म की भाषा होती है तब ऐसा आत्मविश्वास आ ही जाता है कि अपनी बात कहें पर कोई सुने या नहीं, हम लिखें कोई पढ़े या नहीं और हमारी सोच का कोई मखौल उड़ाया या प्रशंसा, इन पर सोचने से ही बेपरवाह हो जाते हैं। आखिरी बात यह कि हम हिन्दी के महत्व के रूप में क्या लिखें कि सभी संतुष्ट हों, यह अभी तक नहीं सोच पाये। इस हिन्दी दिवस के अवसर पर फिलहाल इतना ही।

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