28 जून 2008

रहीम के दोहे:कष्ट के समय बुरे वचन भी सहन करने पड़ते हैं


समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम


कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय


कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।


यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।

27 जून 2008

रहीम के दोहे:चन्द्रमा की तरह शीतलता देने वाला राज्य ही सराहनीय

रहिमन राज सराहिए ससिसम सुखद जो होय
कहा वापुरी भानु है, तपैं तरैवन खोय


कविवर रहीम कहते है की उसी राज्य की प्रशंसा करना चाहिऐ जो चन्द्रमा के समान शीतल सुखदाई है। उस सूरज की क्या कहैं जो तपने पर शीतलता को नष्ट कर देता है।

आज के संदर्भ में व्याख्या-आजकल देश में लोकतंत्र है। अब राजा तो नहीं है पर राजकाज चलाने के लिए लोग तो हैं। ऐसे में जिनके पास राजकाज है उनका आंकलन उनके कार्यों के आधार पर ही हो सकता है। जिनके कार्यों से लोग खुश हैं उनकी तो सराहना की जानी चाहिऐ पर जो अपने पद पर बैठकर अपना दायित्व भूलकर केवल उसके लाभ उठाना चाहते हैं पर अपने प्रयासों से आज आदमी को लाभ नहीं दिला सकते उनकी प्रशंसा कोई नहीं करता। सामने भले कोई कुछ नहीं कहता पर पीठ पीछे उनकी हर कोई निंदा करता है। यहाँ अब कोई एक राजा नहीं है बल्कि राजकाज चलाने वाले लोगों की ऊपर से लेकर नीचे तक एक पंक्ति है और उसमें सबके अपने पदनाम और दायित्व हैं।
राजकाज से जुडे लोग अपने अधिकारों की बात तो खूब करते हैं पर अपने दायित्वों का बोध उनको नहीं होता और न ही इस बात की परवाह है की उनकी लोगों में क्या छवि है। कई अपनी शक्ति दिखाते हैं। अपने से छोटे को दबाकर या उसकी उपेक्षा कर यह दिखाते हैं कि उनके पास क्या ताकत है? अपनी ताकत आम आदमी के प्रयोग में करने के काम को हेयसमझते हैं। राजकाज से संबधित कार्य करने वाले कुछ लोग फिर भी ऐसे होते हैं जो लोगों में लोकप्रिय होते हैं क्योंकि वह अपने दायित्व पूरे करते हैं। उनके बारे में लोग कहते हैं कि 'अमुक अधिकारी अच्छा है", ''अमुक अधिकारी और कर्मचारी का व्यवहार अच्छा है"। मैं बडे पदों के नाम इसलिए नहीं ले रहा क्योंकि आम आदमी के रूप में हमारा काम तो निचले पद वाले लोगों से ही पड़ता है। गाँवों में तो राजकाज के नाम पर वही लोग देखे और पहचाने जाते हैं।
इसलिए जनता से सीधे जुडे राजकाजी लोगों को अपना व्यवहार अच्छा रखना चाहिऐ और नहीं रखते हैं तो उन्हें भी यह समझना चाहिऐ कि वह किसी काम के नहीं है। लोग उनको पीठ पीछे कटुवचन कहते हुए उनकी निंदा करते हैं।

22 जून 2008

रेल में किताबें बेच सकते हैं, ज्ञान नहीं-आलेख


वृंदावन की यात्रा कर हम दोनों पति-पत्नी दोनों ही खुश होते हैं। इस बार जब हम दोनों वहां पहुंचे तो बरसात हो रही थी और ठहरने के स्थान पर सामान रखकर हम सबसे अंग्रेजों के मंदिर में गये क्योंकि वह अधिक पास था। हमारे साथ के परिचित सज्जन तो नहीं चले पर उनकी दस वर्षीय बेटी हमारे साथ वहां चली।

वृंदावन में अनेक मंदिर हैं पर बांके बिहारी और अंग्रेजों (इस्कान) का मंदिर बहुत अधिक प्रसिद्ध हैं और हम दोनों भी वहां रहते हुए प्रतिदिन जाते हैं। अंग्रेजों के मंदिर में आरती के समय नाचते हुए लोगों का दृश्य भी अच्छा लगता है। हालांकि बरसों से जा रहे हैं पर अब वहां मैटल डिक्टेटर और अन्य कड़ी सुरक्षा सहित अन्य परिवर्तन देखकर हमें आश्चर्य होता है। वहां तमाम लोग आते हैं और ऐसा लगता है कि कुछ पिकनिक मनाने के लिए भी आते हैं तो कुछ केवल देखने भर के लिये चले आते हैं। कुछ लोग भक्ति भाव से आते हैं। अगर सीधे कहें तो वहां चारों तरह के भक्त आते हैं-आर्ती, अर्थाथी, जिज्ञासु और ज्ञानी। मैं तो वहां कर ध्यान लगाता हूं और मेरी पत्नी भीड़ में बैठकर तालियां बजाते हुए भजन गाती है।

बरसात बंद होने पर जो उमस का गुब्बार फूटा तो उसमें हम पसीना-पसीना हो गये थे। ग्यारस और अवकाश का दिन होने के कारण वहां भीड़ अधिक थी और मुझे ध्यान के लिये किसी अच्छी जगह की तलाश थी। मेरी पत्नी ने दीवार से रखे कूलर की तरफ इशारा किया और मैं वहां ध्यान लगाने बैठ गया और वह आगे बैठकर ताली बजाते हुए नाम जपने लगी। कुछ देर बाद हम बांके बिहारी के मंदिर जाने के लिये तैयार होकर बाहर निकलने लगे। वहां लगी दुकान पर किताबों का मैं निरीक्षण करने लगा। मेरी पत्नी किताबों में रुचि नहीं लेती वह फिर माला या कोई गले में डालने के लिये प्रतीकों के हार खरीदने के इरादे से खड़ी हो गयी।

मैं किताब की दुकान पर पहुंचा तो वहां धवल वस्त्र पहने एक सेल्समेन ने
मेरी तरफ चार पांच छोटी किताबों एक साथ आगे बढ़ाते हुए कहा-‘यह लीजिये सौ रुपये की हैं। दान समझकर लीजिये इससे आपको ज्ञान भी मिलेगा।’

मैंने उससे पूछा-‘क्या कबीर की रचनाओं का कोई अंग्रेजी संग्रह है?’

उसने तुरंत कहा-‘यहां तो केवल हमारी किताबें ही मिलती हैं।’

मैं वहां से चल पड़ा तो पत्नी ने कहा-‘जब आपको मालुम है तो फिर इन किताबोंे की दुकान पर जाते क्यों हैं?’
मैंने कहा-‘इस उम्मीद में शायद कोई किताब मिल जाये।’
वहां से बाहर निकलते हुए कम से कम तीन स्थानों पर ऐसी किताबें खरीदने के लिए हमारे समक्ष रखी गयी। अचानक मेरी पत्नी को याद आया कि कभी मैंने उससे इस्कान की श्रीगीता खरीदने की बात कही थी और उसने पूछा-‘आप खरीदते क्यों नहीं।’
मैंने उससे कहा-‘यह आज से पांच वर्ष पूर्व की बात है। तब तो मैंने अनेक संतों की व्याख्या वाली श्रीगीता खरीद ली थी, पर मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा था कि गोरखपुर प्रेस की वही गीता पढ़ना जिसमें केवल संस्कृत श्लोक का अनुवाद हो। किसी द्वारा की गयी व्याख्या या महात्म्य वाली मत पढ़ना क्योंकि उससे भ्रमित हो जाओगे।’ वह तो मेरे पास थी।’
पत्नी ने पूछा-‘ पर उसने ऐसा क्यों कहा था?’
मैंने कहा-‘उसने मेरा लिखा पढ़ा था और वह जानता था कि मैं स्वयं भी अपना सृजन कर सकता हूं। वह मुझे और मेरे लेखन का प्रशंसक था और नहीं चाहता था कि मैं किसी दूसरे की सोच पर चलूं। वह मुझसे आज भी मौलिक सोच और सृजन की आशा करता हैं।’
पत्नी ने पूछा-‘वैसे इस तरह किताबों को इस तरह बेचना ठीक लगता है। अरे, जिसे खरीदना है वह खरीद लेगा।’
मैंने कहा-‘हां, मुझे भी लगता है कि किताबें तो बेची जा सकती हैं पर ज्ञान नहीं बेचा जा सकता है।’

रास्ते में एक जगह किताबों की दुकान पड़ी। वहां एक जगह हमारे साथ चल रही लड़की उसी दुकान के पास पानी पताशा खाने की जिद करने लगी तो मेरी पत्नी भी वहां रुक गयी। मैं पानी पताशा नहीं खाता इसलिये मेरी पत्नी ने उस किताब की दुकान की तरफ इशारा करते हुए बोली-‘आपको कोई किताब खरीदनी हो तो यहां देख लीजिये। आपकी पसंद की किताबें तो ऐसी ही दुकानों पर मिल पातीं हैं।’
मैं वहां जाकर किताबें देखने लगा। एक किताब ली। वहां से हम बांके बिहारी मंदिर में चले गये।

अगली सुबह हम वापस रवाना होने के लिये रेल्वे स्टेशन पर पहुंचे। वहां से हम एक ट्रेन में बैठे तो वहां इस्कान का ही एक गेहुंआ वस्त्र पहने व्यक्ति अपने हाथ में अपने संस्थान द्वारा प्रकाशित श्रीगीता और श्रीमद्भागवत सभी यात्रियों को दिखाकर उनको खरीदने के लिए प्रेरित करता हुआ हमारे पास आया। मेरे इंकार करने पर वह चला गया। मेरी पत्नी ने फिर हैरान होकर पूछा-‘यह क्या तरीका है?’
मैंने कहा-‘लगता है कि प्राईवेट कंपनियों की तरह इन पर भी टारगेट का बोझ है। शायद इन लोगों का अपने टारगेट पूरा करने पर ही आश्रमों मे बने रहने की छूट दी जाती होगी।

मुझे याद आ जब मैं छोटा था तब अपने माता पिता के साथ अंग्रेजों कें मंदिर में गया था उसके बाद उसमें बहुत विकास हुआ है। एक समय मैं सोचता था कि जो अंग्रेज भगवान श्रीकृष्ण के भक्त हैं वह शायद श्रीगीता को समझ पायें क्योंकि भारत में तो ऐसे लोग कम ही दिखते हैं। यहां तो ज्ञान का व्यापार होता। लगता है कि जाने अनजाने इस्कान के लोग भारतीय साधु संतों से अपने आपको बड़ा भक्त साबित करने के लिये ऐसा प्रयास कर रहे हैं जिनका कोई तार्किक आधार नहीं है। जहां तक किताबों का प्रश्न है जो जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त हैं वह तो स्वयं ही खरीद लेते हैं पर अर्थाथी या आर्ती हैं उनकी इन किताबों में कोई दिलचस्पी नहीं होती। इस रेल्वे की बोगियों में इस तरह पवित्र ग्रंथों का ज्ञान बेचने वाले भक्त किस श्रेणी के हैं यह मेरे समझ से परे है? वैसे रेल की बोगी में ज्ञान और भक्ति की किताबें बेच सकते हैं पर ज्ञान और भक्ति भाव किसी में स्थापित करना मुश्किल है।

20 जून 2008

रहीम के दोहे:बुरे समय पर ओछे वचन भी सहन करने पड़ते हैं


समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम


कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय


कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहंी है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।


यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।

7 जून 2008

आज के गुरु-शिष्य प्राचीन काल जैसे नहीं-आलेख



भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की और एक बार वहाँ से निकले तो फिर चल पड़े अपने जीवन पथ पर। फिर विश्वामित्र का सानिध्य प्राप्त किया और उनसे अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्होने अपना जीवन समाज के हित में लगा दिया न कि केवल गुरु के आश्रमों के चक्कर काटकर उसे व्यर्थ किया। भगवान श्री कृष्ण ने भी महर्षि संदीपनि से शिक्षा पाई और फिर धर्म की स्थापना के लिए उतरे तो वह कर दिखाया। न गुरु ने उन्हें अपने पास बाँध कर रखा न ही उन्होने हर ख़ास अवसर पर जाकर उनंके आश्रम पर कोई पिकनिक नहीं मनाई। अर्जुन ने अपने गुरु से शिक्षा पाई और अवसर आने पर अपने ही गुरु को परास्त भी किया। आशय यह है कि इस देश में गुरु-शिष्य की परंपरा ऐसी है जिसमें गुरु अपने शिष्य को अपना ज्ञान देकर विदा करता है और जब तक शिष्य उसके सानिध्य में है उसकी सेवा करता है। उसके बाद चल पड्ता है अपने जीवन पथ पर और अपने गुरु का नाम रोशन करता है।

भारत की इसी प्राचीनतम गुरु-शिष्य परंपरा का बखान करने वाले गुरु आज अपने शिष्यों को उस समय गुरु दीक्षा देते हैं जब उसकी शिक्षा प्राप्त करने की आयु निकल चुकी होती है और फिर उसे हर ख़ास मौके पर अपने दर्शन करने के लिए प्रेरित करते हैं। कई तथाकथित गुरु पूरे साल भर तमाम तरह के पर्वों के साथ अपने जन्मदिन भी मनाते हैं और उस पर अपने इर्द-गिर्द शिष्यों की भीड़ जमा कर अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं. यहाँ इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा की भारतीय जीवन दर्शन में जन्मदिन मनाने की कोई ऐसी परंपरा नहीं है जिसका पालन यह लोग कर रहे हैं.

भारत में गुरु शिष्य की परंपरा एक बहुत रोमांचित करने वाली बात है, पूरे विश्व में इसकी गाथा गाई जाती है पर आजकल इसका दोहन कुछ धर्मचार्य अपने भक्तो का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं वह उसका प्रतीक बिल्कुल नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में गुरु की आवश्यकता होती है और खासतौर से उस समय जब जीवन के शुरूआती दौर में एक छात्र होता है। अब गुरुकुल तो हैं नहीं और अँग्रेज़ी पद्धति पर आधारित शिक्षा में गुरु की शिक्षा केवल एक ही विषय तक सीमित रह गयी है-जैसे हिन्दी अँग्रेज़ी, इतिहास, भूगोल, विज्ञानआदि। शिक्षा के समय ही आदमी को चरित्र और जीवन के गूढ रहस्यों का ज्ञान दिया जाना चाहिए। यह देश के लोगों के खून में ही है कि आज के कुछ शिक्षक इसके बावजूद अपने विषयों से हटकर शिष्यों को गाहे-बगाहे अपनी तरफ से कई बार जीवन के संबंध में ज्ञान देते हैं पर उसे औपचारिक मान कर अनेक छात्र अनदेखा करते हैं पर कुछ समझदार छात्र उसे धारण भी करते हैं.

यही कारण है कि आज अपने विषयक ज्ञान में प्रवीण तो बहुत लोग हैं पर आचरण, नैतिकता और आध्यात्म ज्ञान की लोगों में कमी पाई जाती है। इस वजह से लोगों के दिमाग में तनाव होता है और उसको उससे मुक्ति दिलाने के लिए धर्मगुरू आगे आ जाते हैं। आज इस समय देश में धर्म गुरु कितने हैं और उनकी शक्ति किस तरह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में फैली है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। तमाम तरह के आयोजनों में आप भीड़ देखिए। कितनी भारी संख्या में लोग जाते हैं। इस पर एक प्रख्यात लेखक जो बहुत समय तक प्रगतिशील विचारधारा से जुडे थे का मैने एक लेख पढ़ा था तो उसमें उन्होने कहा था की ''हम इन धर्म गुरुओं की कितनी भी आलोचना करें पर यह एक वास्तविकता है कि वह कुछ देर के लिए अपने प्रवचनों से तनाव झेल रहे लोगों को मुक्त कर देते हैं।''

मतलब किसी धार्मिक विचारधारा के एकदम विरोधी उन जैसे लेखक को भी इनमें एक गुण नज़र आया। यह आज से पाँच छ:: वर्ष पूर्व मैने आलेख पढ़ा था और मुझे ताज्जुब हुआ-मेरा मानना था कि उन लेखक महोदय ने अगर भारतीय आध्यात्म का अध्ययन किया होता तो उनको पता लगता कि भारतीय आध्यात्म में वह अद्वितीय शक्ति है जिसके थोड़े से स्पर्श में ही आदमी का मन प्रूफुल्लित हो जाता है। मगर वह कुछ देर के लिए ही फिर निरंतर अभ्यास नो होने से फिर तनाव में आ जाते हैं।

एक बात बिल्कुल दावे के साथ मैं कहता हूँ कि अगर किसी व्यक्ति में बचपन से ही आध्यात्म के बीज नहीं बोए गये तो उमरभर उसमें आ नहीं सकते और जिसमें आ गये उसका कोई धर्म के नाम पर शोषण नहीं कर सकता। मैं स्वयं ही इस बात का उदाहरण देता हूँ। तमाम तरह के आध्यात्म ग्रंथ मैने बचपन में ही पढ़े और आज भी बड़ी रूचि के साथ पढ्ता हूँ। जब मेरी उम्र आठ साल थी तबा पडोस में रहने वाले एक पन्डित जी की बहू से मेरी माताजी ने पढ़ने के लिए तुलसीदास जी की श्री राम चरितमानस ली थी। मैं भी उसे पढ़ने लगा। मैने उसे धार्मिक भावना से नहीं कहानी की दृष्टि से पढ़ा। उसे कई बार पढ़ा। एक दिन पन्डित जी ने अपनी बहू से वह माँगी तो उसने उनको बताया की ''वह पडोस का लड्का है न वह उसे पढता है।''
उन्होने मुझे बुलाया और कहा'जब पढ़ लो तो वापस कर देना, पर इसको आदर से रखना। तुम इससे बहुत कुछ सीखोगे।''

फिर कभी उन्होने वह मुझसे वापस नहीं माँगी और जब हमने वह मकान खाली किया तब मैं उनको वापस कर आया, पर तब तक मेरे अंदर वह बीज अनुकुरित हो चुका था जिसकी कल्पना भी मैंने नहीं की थी। फिर तो मैने वाल्मीकि रामायण को पढ़ना शुरू किया और अपने जेब खर्च से मैं वह सब धार्मिक किताबें ले आया जो भारतीय अध्यात्म का आधार स्तंभ हैं। आज जब मैं किसी आध्यात्म विषय पर लिखता या बोलता हूँ तो अधिकतर लोग विद्वान होने का अहसास पाल लेते हैं। अब यह मैं नहीं जानता की ऐसा है कि नहीं पर मुझे अपने तर्क भी गढने की आदत भी है और में भी कभी-कभी ऐसे सत्संगों में जाता हूँ पर कुछ नया सुनने से अधिक कोई विचार नहीं आता. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि इतना ज्ञान तो मैं किताबों में पड़ चुका हूँ पर फिर भी वहाँ जाना मुझे अच्छा लगता है। इसलिए जब आज कल के तथाकथित बाबा लोग भारत के प्राचीनतम परंपरा के महिमा की बात करते हैं तो ऐसा लगता है की कोई ग्राहकों का समूह उनके सामने खड़ा है जिसे वह भारतीय आध्यात्म- जिसका कोई पेटेंट नहीं है- उसे बेच रहे हैं। वह हमेशा ही शिष्य को सिखाते रहते हैं और वह सीखता नहीं है और हर ख़ास मौके पर उनके दर्शन करने चला जाता है और वहाँ हर कोई अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेंट अपने धर्म का पालन करता है जिसका भारत की प्राचीन गुरु-परंपरा से कोई लेना-देना हो मुझे नहीं लगता। एक बात अपने निष्कर्ष के तौर पर कहना चाहता हूँ कि आज के तथाकथित गुरुओं को एकलव्य जैसा शिष्य चाहिऐ जो उनको आज के युग में अपना अंगूठा काटकर न भेंट करे-क्योंकि उससे उनकी आश्रम फाईव स्टार आश्रमों थोडे ही बन पायेगा- बल्कि दूसरों को अंगूठा दिखाकर जुटाए पैसे से उनको भेंट दे पर अर्जुन जैसा शिष्य नहीं चाहिए जो दुष्कर्म करने वालों का समर्थन करने पर उनका प्रतिवाद करे। इन संतो और भक्तों को पुरानी गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक नहीं है भले ही कितना भी बखान कर लें. (क्रमश:)

1 जून 2008

मनु स्मृति:चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ

1. वेद स्मृति के अनुसार चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि गृहस्थाश्रम में रहने वाला ही आदमी इन तीन आश्रमों में रहने वालों का पालन करता है।
2.वेद मंत्रों का जाप सभी को अभीष्ट फल प्रदान करता है, चाहे ज्ञानी करें या अज्ञानी, स्वर्ग के सुखों की इच्छा करने वाला करे अथवा मोक्ष की इच्छा करने वाला। संकलन कर्ता का अभिमत है यहाँ स्वर्ग के सुखों से आशय यह नहीं है जो मरने के बाद प्राप्त होते है वरन इस इहलोक में भी हम वह तमाम आनंद इन मंत्रों के हृदय से उच्चारण कर प्राप्त कर सकते हैं जो इस देह के लिए अभीष्ट होते हैं।
3. धर्म के दस लक्षण हैं १.धैर्य रखना २.क्षमा करना ३.मन पर नियंत्रण करना ४,चोरी नहीं करना ५.मन,वचन और कर्म करना ६.ज्ञानेद्रियाँ एवं कामेद्रियाँ अर्थात सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण करना ७.शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना ८.ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना ९.सच बोलना १०.क्रोध नहीं करना।
4. आत्म साक्षात्कार कर लेने वाला योगी कर्मों के बंधनों में नहीं पड़ता। जो ब्रह्म के दर्शन नहीं कर पाता वही कर्तापन के अहंकार से अच्छे-बुरे कर्मों के परिणाम स्वरूप आवागमन के चक्र में पड़ता है।

रहीम के दोहे:कपट वाले स्थान से दूर रहें

रहिमन वहां न आइए, जहां कपट को हेत
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत

कविवर रहीम कहते हैं कि वहां कतई न जाईये जहां कपट होने की संभावना है। रात भर ढेंकली कोई किसान चलाता रहे पर कोई कपटी उसके खेत का पानी अपनी खेत की तरफ कर ले ऐसा भी होता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-छलकपट तो पहले भी था पर अब तो आधुनिक तरीके आ गये हैं और इस तरह छलकपट होता है कि कई बार पता भी नहीं चलता कि हमने क्या और क्यों गंवाया? पहले तो आमने-सामने ही कपट होता था पर अब तो मोबाइल और इंटरनेट के आने से तो वह व्यक्ति हमारी आंखों के सामने भी नहीं होता जो हमें ठगता है। खासतौर से उन युवक और युवतियों को सजग रहना चाहिए जो अपने लिये जीवन साथी ढूंढते है। यहंा तो इतना झूठ बोला जा सकता है कि जिसे पकड़ना संभव ही नहीं है। कोई छद्म नाम रखकर, किसी बड़े परिवार से संबंध बताकर या अपने को बहुत व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत कर धोखा देना बहुत आसान है। एक की जगह दूसरे की फोटो भी रखी जा सकती है। ऐसे सैंकड़ों मामले हैं। अभी कई लोगों का यह पता भी नहीं होगा कि हिंदी में ब्लाग लिखे जाते हैं और वह इन कपटों की जानकारी बहुत अच्छी तरह रखते हैं। जो लोग इंटरनेट पर सक्रिय हैं उनको नित-प्रतिदिन हिंदी के ब्लाग पढ़ना चाहिए क्योंकि जिस तरह के धोखेबाजी की जानकारी यहां मिल जाती है अखबारों में भी नहीं मिल पाती।

इसीलिये कपट से बचने के लिए जितना हो सके सावधानीपूर्वक अपने संबंध बनाने चाहिए। नई तकनीकी ने आजकल धोखे के नये तरीकों को जन्म दिया है जिससे यह आसान हो गया है कि न नाम का पता चले न शहर की जानकारी हो और किसी से भी धोखे का शिकार जाये।

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