22 जून 2016

भेड़िये की खाल में शेर-हिन्दी व्यंग्य कविता (Bhed ki Khal meih sher-Hindi Satire Poem)

अपने घर में शेर
शिकार पर बाहर निकले
ढेर हो गये।

पढ़ी चंद किताबे
वह अब मानने लगे कि
सवा सेर हो गये।

कहें दीपकबापू भाग्य का खेल
कहने से गुरेज क्यों करें
काबलियत के पैमाने
भूल गया ज़माना
भेड़िये की खाल में भी
कई शेर हो गये।
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11 जून 2016

किताब और अक्ल-हिन्दी व्यंग्य कविता (Kitab Aur Akla-Hindi Satire poem)

सड़क पर चलना
सीख नहीं पाये
चौपाये पर सवारी कर ली।

सोचना कभी आया नहीं
किताबें पढ़कर ही
अक्ल से यारी कर ली

कहें दीपकबापू अपना भार
जो कभी उठा नहीं सके
 ज़माने के उठाये बोझ से
गर्दन भारी कर ली।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

1 जून 2016

हर पल आदमी की नस्ल बदल जाती-दीपकबापूवाणी (aadmi ki Nasla-DeepakbapuWani)

कर्मकांड की गठरी सिर पर रखे हैं, धर्म के पाखंड में हर मिठाई चखे हैं।
‘दीपकबापू’ सर्वशक्तिमान का गायें भजन, मन में स्वाद के कांटे रखे हैं।।
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अपने हिस्से की खुशी उठा लेते हैं, फिर भी आगे के लिये जुटा लेते हैं।
‘दीपकबापू’ मुफ्त का चिराग ढूंढ रहे, अंधेरों में जो सब लुटा देते हैं।।
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मन विज्ञान न जाने भ्रम में अटके हैं, माया ज्ञान बिना लालच में भटके हैं।
‘दीपकबापू’ जुबान में भर लिये शब्द, अर्थ से बेखबर अपमान में लटके हैं।।
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मौके के मेलों में लोगों की भीड़ लगे, मन के बहलने में सब जाते ठगे।
‘दीपकबापू’ एकांत साधना करें नहीं, शोर में करें आशा शायद चेतना जगे।।
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हर पल आदमी की नस्ल बदल जाती, छोटी सोच से याद साथ नहीं आती।
ताकतवर डालें अपने पाप पर परदा, ‘दीपकबापू’ गरीब जुबां बोल नहीं पाती।।
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कोई काम न हो भलाई का व्यापार करें, सेवा का नाम लेकर घर में माल भरें।
‘दीपकबापू’ सजायें बाज़ार में अपनी छवि, विज्ञापन से चमके नाम चिंता न करें।।
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अपने ही मसलों के हल उन्हें नहीं सूझते, बेबसों के लिये वह कहीं भी जूझते।
‘दीपकबापू’ तख्त पाया गज़ब ढाया, अचंभित लोग विकास की पहेली नहीं बूझते।।
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बिना कालापीला किये अमीर नहीं बनते, धरा पर वार बिना शामियाने नहीं तनते।
‘दीपकबापू’ सभी को मान लेते ईमानदार, पकड़े गये चोर नहीं तो साहुकार बनते।।
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बड़े भाग्य माने अगर कोई पूछता नहीं, मुकुटहीन सिर से कोई विरोधी जूझता नहीं।
भीड़ से बेहतर लगे जिंदगी में एकांत, ‘दीपकबापू शोर में श्रेष्ठ विचार सूझता नहीं।।
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पुजते वही छवि जिनकी साफ दिखती, किसी की सोच पर नीयत नहीं टिकती।
‘दीपकबापू’ दौलत के गुलामों की मंडी में, औकात काबलियत से नहीं बिकती।।
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अपना कर्तव्य भूल अधिकार की बात करें, फल चाहें पर दायित्व लेने से डरें।
‘दीपकबापू’ मुख से शब्द बरसायें बेमौसम, दिल में कीचड़ जैसी नीयत धरें।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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