29 मार्च 2014

तोहफों का मतलब से रिश्ता-हिन्दी व्यंग्य क्षणिकायें(tohfon ka matlab se rishta-hindi short saitre poem's)



जिस तरफ मतलब के रास्ते जाते हैं,
लोग तोहफों को अपनी सवारी बनाते हैं।
कहें दीपक बापू फरिश्तों की बस्ती तो आकाश है
धरती पर जिंदगी जीते वही शान से
जो लेने देने का सिद्धांत अपनाते हैं।
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वह तोहफा लेकर हाथ में खड़े थे
देने से पहले अपने मतलब का मुद्दा बताया,
हमने ना की तो वह वापस चल दिये,
किसी दूसरे को तोहफा देने के लिये।
कहें दीपक बापू मतलब से तोहफों का
रिश्ता हमने देखा है
खड़े हैं खाली हाथ इसलिये।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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25 मार्च 2014

सड़क से महल तक-हिन्दी व्यंग्य कविता(sakas se mahal tak-hindi vyangya kavita)



कुछ दिन सड़क पर  प्रदर्शन करने से मिल जाता है महल,
कुछ दिन हाथ ही तो जोड़ना है फिर लोग स्वयं करेंगे पहल।
ऊंची आवाज में नारे जोर से वादों के गीत  धीमे से मंच पर गाने हैं,
तख्त पर चढ़े गये तो फिर कौन लोग सवाल  पूछने आने हैं,
जज़्बातों के बाज़ार में सपने बहुत आसानी से बिकते हैं,
कीमत लेकर खिसकते है सौदागर फिर कहां वह टिकते हैं,
आदर्श की बातें करते हुए पर्दे पर खबर की तरह उनको चलना है,
चर्चा में उगते सूरज की तरह बने रहना कभी नहीं  ढलना है,
कहें दीपक बापू देखते आ रहे बरसों से समाज सेवकों की चालाकियां
उनकी अदाओं और शब्दों से ही ज़माना जाता है बहल।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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18 मार्च 2014

खामोशी से आनंद-हिन्दी व्यंग्य कविता(khamoshi se anand)



हैरानी नहीं होती जब तख्त के लिये दोस्त ही दुश्मन हो जाते हैं,
इतिहास गवाह है बेटे भी बादशाहों के कातिल हो जाते हैं।
हर इंसान की ख्वाहिश होती है वह ज़माने पर हुकुमत करे,
उसका दबदबा हो इतना कि हर इंसान उसके नाम से डरे,
मतलबपरस्ती में फंसे लोग तारीफ पाने के लिये तरसते हैं,
कमजोर शरीर है जुबान से ताकतवर की तरह बरसते हैं,
रोटी के जुगाड़ करने से ज्यादा काबलियत जिसने कभी पाई नहीं,
फरिश्ते की तरह जहान में मशहूर होने की इच्छा भी छिपाई नहीं,
कहें दीपक बापू जब जूझ रहे हों लफ्जों की जंग में दो शब्दवीर
अक्लमंद मैदान में दर्शक की तरह खामोशी से आनंद पाते हैं।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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12 मार्च 2014

न सतयुग था न कलियुग है-हिन्दी व्यंग्य कविता(n satyug tha n kaliyug hai-hindi vyangya kavita)



दूसरों के दर्द दिखाकर अपनी छवि महान इंसान  जैसी बनाते है,
कुछ लोग चढ़ जाते तख्त पर तब वादों की जगह दावे जताते हैं,
बेबस आदमी को बंदर की तरह कुछ लोग नचा रहे हैं,
राजरोग के शिकार खाने से परहेज पर मजे से पैसा पचा रहे हैं,
इंसानों के भीड़ उनके लिये कामयाबी का सबूत है,
आदर्शवाद की बात करते है वही जिनकी पाखंड से भरी करतूत हैं,
होठों  पर लाते मासूम मुस्कराहट मन में छिपी मतलबपरस्ती,
झौंपड़ियों में  एक बार करें गरीब की आरती पाते महल की मस्ती,
कहें दीपक बापू सच यह है न कभी सतयुग था न अब कलियुग है
कुछ ही इंसानों में फरिश्ते जैसे होते गुण वरना पशु ही पाये जाते हैं।
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6 मार्च 2014

ख्वाब देखने की आदत-हिन्दी व्यंग्य कविता(khawab dekhne ke aadat-hindi vyangya kavita)



कभी उदास कभी मुस्कराती है जिंदगी
एक पल दर्द है दूसरे पल ही
खुशी मुस्कराती चली आती है,
समय ठहरता नहीं है
फिर भी खुशनुमा पलों के रुकने की
ख्वाहिश मन को सताती है।
कहें दीपक बापू
लोग चाल बदलते हैं अपने मतलब के लिये,
अंधेरों के हमदर्द  बाद में बनते हैं
पहले अपने घर के रौशन कर दिये,
धोखा देना आसान है इस दुनियां में
करता है जब ज़माना पत्थरों पर आस,
कमाने की चाहत वालों से वफादारी की उम्मीद बेकार
दलालें का देवता न सोना होता न देवी होती घास,
मुसीबत से लड़ने फरिश्ते आकाश से नहीं आते
सच्चाई से मुंह फेर कर
ख्वाब देखने की आदत इंसान को सताती है।
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