हमारे यहां आजकल एक कथित संत की समाधि पर चर्चा चल रही है। इन संत को पहले
रुगणावस्था में चिकित्सकों के पास ले जाया गया जहां उनको मृत घोषित कर दिया। उनके पास अकूत संपत्ति है जिस पर उनके ही कुछ
लोगों की दृष्टि है इसलिये कथित भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की आड़ में उन संत को
समाधिस्थ घोषित कर दिया। दस महीने से उनका
शव शीत यंत्र में रखा गया है और उनके कथित अनुयायी यह प्रचार कर रहे हैं कि वह
समाधिस्थ है। अब न्यायालय ने उनका अंतिम संस्कार करने का आदेश दिया है पर कथित
शिष्य इसके बावजूद अपनी आस्था की दुहाई देकर संत की वापसी का दावा कर रहे हैं।
हमारे देश में धर्म के नाम पर जितने नाटक होते हैं उससे भारतीय अध्यात्मिक
दर्शन से लोग दूर हो जाते हैं। सत्य यह है
कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन तार्किक रूप से प्रमाणिक हैं पर कर्मकांडों और आस्था के
नाम पर होने वाले नाटकों से भारतीय धर्म और संस्कृति की बदनामी ही होती हैं। जब हम
उन संत की कथित समाधि की चर्चा करते हैं तो अभी तक इस प्रश्न का उत्तर उनके
शिष्यों ने नहीं दिया कि वह उन्हें चिकित्सकों के पास क्यों ले गये थे? तब उन्हें समाधिस्थ क्यों नहीं माना गया था?
इस पर चल रही बहसों में अनेक विद्वान संत को समाधिस्थ नहीं मानते पर समाधि
के माध्यम से दूसरे की काया में प्रवेश करने के तर्क को स्वीकृति देते हैं। यह हैरानी की बात है कि पतंजलि योग साहित्य तथा
श्रीमद्भागवत गीता के पेशेवर प्रचारक हमारे देश में बहुत है पर उनका ज्ञान इतना ही
है कि वह अपने लिये भक्त के रूप में ग्राहक जुटा सकें। स्वयं उनमें ही धारणा शक्ति
का अभाव है इसलिये उन्हें ज्ञानी तो माना ही नहीं जा सकता।
पतंजलि योग
साहित्य में कहा गया है कि
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जन्मौषधिधिमन्त्रतपःसमाधिजाः
सिद्धयः।
हिन्दी में अर्थ-जन्म, औषधि,
मंत्र तथा तप से होने वाली समाधि से सिद्धियां
प्राप्त होती हैं।
भावार्थ-समाधि के यह चार प्रकार ही प्रमाणिक माने जा
सकते हैं। जन्म से समाधि से आशय यह है कि जब साधक एक योनि से दूसरी यौनि में
प्रवेश करता है तो उसके अंदर असाधारण शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं। इसका आशय यही है कि जब कोई मनुष्य एक देह का
त्याग कर वह दूसरा जन्म लेता है तब अपनी योग शक्ति से अपना भविष्य तय कर सकता
है। यह कतई नहीं है कि किसी जीव के शरीर
में बिना प्रवेश कर सकता है। औषधि से
समाधि किसी द्रव्य या भौतिक पदार्थ के सेवन से होने वाली समाधि है। इसके अलावा मंत्र और तप से भी समाधि की अवस्था
प्राप्त की जा सकती है।
योग साधक जब अपने अभ्यास में परिपक्व हो जाता है तब वह चाहे जब समाधि ले
सकता है। उसके चार प्रकार है पर समाधि की
प्रक्रिया के बाद उसकी देह, मन, बुद्धि तथा विचार में
प्रकाशमय अनुभव होता है। जितना ही कोई
साधक समाधिस्थ होने की क्रिया में प्रवीण होता है उतना ही वह अंतमुर्खी हो जाता
है। वह कभी भी देवता की तरह धर्म के बाज़ार में अपना प्रदर्शन करने का प्रयास नहीं
करता। शिष्य, संपत्ति अथवा सुविधाओं का संचय करने की बजाय अधिक से अधिक अपने अंदर ही
आनंद ढूंढने का प्रयास करता है। परकाया में प्रवेश करने की इच्छा तो वह कर ही नहीं
सकता क्योंकि उसे अपनी काया में आनंद आता है। समाधि एक स्थिति है जिसे योग साधक
समझ सकते हैं पर जिन्हें ज्ञान नहीं है वह इसे कोई अनोखी विधा मानते हैं। यही कारण है कि अनेक कथित संत बड़े बड़े आश्रम
बनवाकर उसमें लोगों के रहने और खाने का मुफ्त प्रबंध करते हैं ताकि उनके भोगों के
लिये भीड़ जुटे जिसके आधार पर वह अधिक प्रचार, पैसा तथा प्रतिष्ठा
प्राप्त कर सकें। हम इन संत की समाधि पर पहले भी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि प्राण
तथा चेतना हीन समाधि पतंजलि योग साहितय के आधार पर प्रमाणिम नहीं मानी जा सकती।
यहां हम यह भी स्पष्ट कर दें कि लोग अज्ञानी हो सकते हैं पर मूर्ख या मासूम
नहीं कि ऐसे पेशेवर संतों के पास जायें ही नहीं।
मु्फ्त रहने और खाने को मिले तो कहीं भी भीड़ लग जायेगी। इसी भीड़ को भोले भाले या मूर्ख लोगों का समूह
कहना स्वयं को धोखा देना है।
पतंजलि
योग साहित्य में समाधि से दूसरे की काया में प्रवेश की बात नहीं कही गयी-हिन्दी
चिंत्तन
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर