25 नवंबर 2009

अब मत पूछना-हिंदी हास्य कविता (ab mat poochna-hindi haysa kavita)

 माशुका ने पूछा आशिक से

‘अगर शादी के बाद मैं

मर गयी तो क्या

मेरी याद में ताजमहल बनवाओगे।’

आशिक ने कहा

‘किस जमाने की माशुका हो

भूल जाओ चैदहवीं सदी

जब किसी की याद में

कोई बड़ी इमारत बनवाई जाती थी,

फिर समय बदला तो

किसी की याद में कहीं पवित्र जगह पर

बैठने के लिये बैंच लगती तो

कहीं सीढ़ियां बनवायी जाती थी,

अब तो किस के पास समय है कि

धन और समय बरबाद करे

अब तो मरने वाले की याद में

बस, मोमबत्तियां जलाई जाती हैं

दिल में हो न हो

बाहर संवेदनाएं दिखाई जाती हैं

हमारा दर्शन कहता है कि

जीवन और मौत तो

जिंदगी का हिस्सा है

उस पर क्या हंसना क्या रोना

अब यह मत पूछना कि

मेरे मरने पर मेरी अर्थी पर

कितनी मोमबतियां जलाओगे।’
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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16 नवंबर 2009

पहले देवत्व का प्रमाण दो-हिन्दी भाषा पर लेख (hindi article hindi controversy or dispute)

हिंदी भाषा की चर्चा अक्सर विवादों के कारण अधिक होती है। विवाद यही कि हिंदी थोपी जा रही है या हिंदी वाले दूसरी भाषाओं को कमतर मानते हैं। ऐसे बहुत सारे विवाद हैं जो बरसों से थम नहीं रहे। होता यह है कि कोई शख्स उस विवाद को ढोते हुए बूढ़ा हो जाता है तो लगता है कि विवाद थम गया पर फिर कोई उसका वारिस उठ खड़ा होता है तो लगता है कि विवाद फिर नये रूप में आ गया है। ऐसे केवल भाषा के साथ ही नहीं बल्कि हर प्रकार के विवाद से है जो शायद खड़े ही इसलिये किये जाते हैं कि उनका कभी निराकरण ही न हो। हिंदी के विवाद का भी कोई निपटारा आगे बीस साल तक नहीं होना है। इसलिये हिंदी का चाल, चरित्र और चेहरा फिर से देखना जरूरी है जिसे बहुत कम लोग समझ पाते हैं।
हिंदी संस्कृत के बाद विश्व की दूसरी आध्यात्मिक भाषा है। इसका मतलब सीधा यही है कि जैसे जैसे लोगों की अध्यात्मिक ज्ञानपिपासा बढ़ेगी हिंदी का प्रभाव स्वतः बढ़ेगा। फिर संकट कहां हैं?
जो लोग अंतर्जाल पर सक्रिय नहीं है उनका क्या कहें जो सक्रिय है वह भी नहीं समझ पा रहे कि हिंदी अब सांगठनिक ढांचों के दायरे’-टीवी, किताब, फिल्म तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं-से बाहर निकल कर अनियंित्रत गति से अंतर्जाल पर बढ़ रही है। गूगल के प्रयासों को तो आप जानते हैं। इधर हिंदी में ही वेबसाईटों के पते होने की बात भी चल रही है। ऐसे में सांगठिनक ढांचों में सक्रिय खास वर्ग में चिंता फैली हुई है और हिंदी पर उठ रहे विवाद उसका एक प्रमाण हैं। घबड़ाहट हो रही है कि हिन्दी कहीं अंतर्जाल पर अंग्रेजी के समकक्ष न स्थापित हो जाये। अगर स्थापित हो तो फिर उस नियंत्रण अपना नियंत्रण रहे इसके लिये प्रयत्नशील हिंदी के विवादों पर अधिक बोल और लिख रहे हैं।
बात अधिक न करते हुए यह समझाना जरूरी है कि हिंदी के ठेकेदारी भले ही दिखावे के लिये कई लोग करते हैं पर हिंदी ऐसी अध्यात्मिक भाषा है जो साफ सुथरे चरित्र के साथ ही कथनी और करनी के भेद से परे रहने की शर्त रखती है। आप चाहे हिंदी में कितने भी उपन्यास, कहानियां, व्यंग्य या अन्य रचनायें लिखे आम हिंदी भाषी का यह स्वभाव है कि वह आपके चरित्र को देखता है। आप हिंदी के विकास का नारा लगायें खूब प्रचार मिलेगा पर हिंदी भाषियों का यह स्वभाव है कि जब तक आपकी रचनाओं के आध्यात्मिक ज्ञान और चरित्र में देवत्व का बोध नहीं होगा वह आपको हृदय से सम्मान नहीं देगा। हिंदी में यह भाव संस्कृत से ही आया है। सच बात तो यह है कि संस्कृत कभी की लुप्त हो गयी होती अगर उसमें अध्यात्मिक रचनाओं का खजाना नहीं होता।
कई लोगों को यह अजीब लगे पर जरा वह स्वयं अपने अंदर झांकें। भक्ति काल के कबीर, तुलसी, सूर, मीरा तथा अन्य कवियों को नाम जन जन में छाया हुआ मिलेगा भले ही उनकी रचनायें हिंदी में अनुवाद कर पढ़ी और सुनाई जाती हैं। इसके बाद भी इतने सारे कवि लेखक और चिंतक हुए पर उनको वही लोग जानते हैं जो अधिक शिक्षित हैं। भक्ति काल के कवियों का नाम गांव गांव में जाना जाता है मगर यह बात आप उसके बाद के कवियों और लेखकों के बारे में नहीं कह सकते। इससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदी भाषी लोग ऐसी रचनायें देखना चाहते हैं जिनसे कुछ जीवन में सीखने का अवसर मिले। साथ ही कवि या लेखक का चरित्र भी उनके लिये प्रेरक होना चाहिये। संस्कृत में वाल्मीकि, वेदव्यास तथा महर्षि शुक का नाम लेखक के रूप में नहीं बल्कि देवता की तरह लिया जाता है। अगर आप अपने जीवन में केवल लिखने के लिये ही लिखते हैं और यह बात प्रमाणित नहीं होती कि आपका चरित्र वैसा ही है तो हिंदी में आपको अधिक सम्मान नहीं मिलेगा भले ही आप कितनी भी संस्थाओं से पुरुस्कार जीत लें। समाज के आपसी समझौतों और द्वंद्वों के बीच में सामग्री ढूंढकर उस पर गद्य या पद्य लिखने से केवल आप सम्मानीय नहीं हो जायेंगे बल्कि उसमेें ऐसे निष्कर्ष भी रखने पड़ेंगे जिनमें अध्यात्मिकता का बोध होता हो।
यहां अध्यात्म से आशय भी स्पष्ट कर दें। श्रीमद्भागवत गीता में अध्यात्म हमारी देह के अंदर मौजूद वह तत्व है जो परमात्मा का अंश है। इसी को जानने समझने की प्रक्रिया का नाम अध्यात्मिकता है। इस प्रक्रिया से निकले संदेश को ही अध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है। देह से संबंधित सारे ज्ञान सांसरिक होते हैं जिनको आप विज्ञान भी कह सकते हैं। आप अपनी रचनाओं में सांसरिक बातों पर लिखकर खूब नाम और नामा कमा सकते हैं पर सामान्य हिंदी भाषी-यह नियम क्षेत्रीय भाषाओं पर भी लागू है-आपको देव लेखक नहीं मानेगा। इतना ही नहीं अगर आप हिंदी का विरोध भी करते हैं तो बहुत कम लोग उस पर विचलित होंगे। वजह हिंदी के स्वाभाविक अध्यात्मिक भाव से ओतप्रोत लोग यह जानते हैं कि जिसके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वही ऐसा करता है।
इसलिये हिंदी के समर्थक और विरोधियों को सामान्य हिन्दी भाषी से यह अपेक्षा बिल्कुल नहीं करना चाहिए कि वह उनके द्वंद्वों को देखकर उनको अनुग्रहीत करने वाला है। केवल हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि किसी भी भारतीय भाषा का भी यही स्वभाव है और हिन्दी का विरोध किसी भी भाषा का आम आदमी नहीं करेगा। आखिर इसमें भी उन्हीं पवित्र नामों का समावेश है-यथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक देव, शिवाजी, समर्थ रामदास, कबीर, तुलसी, रहीम, सूरदास, तथा सुब्रह्मण्यम भारती-जो कि अन्य भाषाओं में है। लोगों की भाषा अलग है पर उनके मन में बसे नाम वैसे ही हिंदी में है तो भला आम आदमी इसका क्यों अपमान करना चाहेगा?
इसलिये हिंदी के समर्थक अगर यह सोचते हों कि हिंदी बचाने के नारे पर सब उनके साथ आकर खड़े हों तो उनको अपने चरित्र में देवत्व का प्रमाण देना होगा। उसी तरह हिंदी के विरोध करने वालों को भी यह प्रमाणित करना होगा कि वह प्राचीन काल के देवताओं और दैत्यों से अधिक शक्तिशाली हैं। यह हिन्दी अध्यात्म की भाषा है जो बिना शब्द बोले भी गेय होती है-अरे, आपने देवताओं के नाम सुने तो होंगे उनके फोटो देखकर कोई भी पहचान जाता है कि यह किसका नाम है भले ही उस पर नाम न लिखा हो। उसी तरह मंदिर में जाकर कोई गैर हिंदी भाषी आदमी हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम करता है तो उसके पास खड़ा गैर हिन्दी भाषी यह जानते हैं कि वह भगवान को सादर प्रणाम कर रहा है। इस क्रिया को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जाता पर हाथ पांव उसकी अनुभूति करा देते हैं अगर आपको इस पर शक हो तो वृंदावन या हरिद्वार में जाकर ऐसे स्थानों-यथा बांके बिहारी मंदिर और हर की पौड़ी-पर जाकर देखें जहां अनेक लोग ऐसे आते हैं जिनको हिन्दी नहीं आती पर वह अपने लोगों के साथ वहां आकर अपने मन को प्रफुल्लित करते हैं। वहां हिन्दी अव्यक्त है पर उसका भाव सभी के मन में है।
अधिक क्या लिखें? सभी भारतीय भाषाऐं अध्यात्मिक ज्ञान से संपन्न हैं इसलिये उनके आपसी विरोध संभव नहीं है। हमें तो लगता है कि यह विवाद वह लोग योजनाबद्ध ढंग से जीवित रखना चाहते हैं जो हिन्दी या भारतीय भाषा बोलते हैं पर उसके अध्यात्मिक ज्ञान का उनमें अभाव है। यह हमारा मत है। हम कोई सिद्ध नहीं है। जो एक आम आदमी के रूप में आता है लिख देते हैं। कोई गल्ती हो उससे पीछे हटने में हमें संकोच नहीं होता क्योंकि अध्यात्मिक ज्ञान पढ़ते हुए हमने यही सीखा है।
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13 नवंबर 2009

महापुरुषों का अनुसरण-हिंदी हास्य कविता (anusaran-hindi hasya kavita)

अपने विरोधी पर
शब्द प्रहार करते हुए उन्होंने कहा
‘वह बरसों जनता की सेवा में लगे हैं
लोग भी अब उनके चेहरे से थके हैं
नया चेहरा सामने नहीं आने देते
जहां मौका मिलता वहीं
अपने लिये हाथ फैला लेते हैं।
हमें देखो
अब तो सब छोड़ दिया है
नये चेहरों को जनता से जोड़ दिया है
बेटी को सौंप दिया है
पत्रकारिता का जिम्मा
बेटे को की जनसेवा की विरासत
अब हमारे घर में
कोई नहीं बचा युवा पीढ़ी में निकम्मा
हम तो करते हैं
महापुरुषों का अनुसरण
जो नयी पीढ़ी को आगे आने का मौका देते हैं।
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5 नवंबर 2009

अभिव्यक्ति की ताकत-कविता और लघु आलेख ( abhivyakti ki taqat-kavita aur alekh)

अक्सर लोग आपस में अपने दर्द की चर्चा करते हुए जी हल्का कर लेते हैं। उनकी ढेर सारी शिकायत अपने और गैर लोगों से होती हैं। उनके सामने कहते हुए कहीं संकोच तेा कहीं डर होता है कि वह व्यक्ति नाराज न दुःखी न हो जाये जिसके प्रतिकूल बात कह रहे हैं। फिर हम देख रहे हैं कि सदियों से बड़े लोगों द्वारा छोटे लोगों पर अनाचार की ढेर सारी कहानियां हैं। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर होने वाले संघर्षों में हमेशा आम आदमी निशाना बना है। इस संघर्ष से लगने वाली आग में आम इंसान के घर और झोंपड़ियां जली हैं। कभी महलों के जलने की चर्चा नहीं सुनने में नहीं आती। कभी कभी तो निराशा होती है पर कभी यह देखकर दिल प्रफुल्लित होता है कि आज भी समाज में दरियादिल लोग हैं जो धर्म के नाम पर होने वाले कार्यक्रमों में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते हैं। लोग धर्म के नाम पर छोटे कार्यक्रम कर अपने लिये खुशियां जुटाते हैं।
सच तो यह है कि गरीबों के कल्याण के नाम पर अनेक पेशेवर लोग अपने अभियान चलाते हैं। उनके दो उद्देश्य ही होते हैं एक तो उसके नाम पर अमीरों से चंदा वसूल करें और गरीब से पहले ही दाम वसूल कर लेते हैं या फिर उनको मुफ्त में अपने अभियान में पैदल दौड़ लगवाते हैं अलबत्ता उनके भले का काम धेले भर का नहीं होता।
हमारा देश धार्मिक प्रधान माना जाता है। धर्म के नाम पर सत्संग और सम्मेलन इतने होते हैं कि उसे देखकर लगता ही नहीं है कि यहां कोई राक्षस भी है। सभी जगह देवताओं के समूह दिखाई देते हैं। यह सत्संग या सम्मेलन केवल भारत में ही उत्पन्न विचाराधाराओं को मानने वाले लोगों द्वारा आयोजित नहीं किये जाते बल्कि बाहर उत्पन्न विचाराधाराओं के लोग भी करते हैं। सभी प्रकार के धर्म सम्मेलनों में गरीबों के खाने पीने के इंतजाम किये जाते हैं। अगर धार्मिक जुलूस हों तो जगह जगह पानी और प्रसाद की व्यवस्था का दौर सभी धर्म के लोग करते हैं। ऐसा नहंी लगता कि विदेशों में रहने वाले भारतीय या अन्य धर्मी ऐसे कार्यक्रंम करते हों। यही कारण है कि धर्म जितनी शिद्दत से यहां माना जाता है कहीं अन्य नहीं। धार्मिक संवदेनाओं के कारण यहां वाद विवाद भी अधिक होते हैं।
धर्म प्रधान होने के बावजूद भी इस समाज में ही भ्रष्टाचार, अनाचार, व्याभिचार तथा दुव्र्यवहार की घटनायें इतनी अधिक होती हैं कि उनकी कहानियों पर अनेक ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। देश की छबि विदेश में क्या देश में ही खराब हो गयी है। इसका कारण यह है कि लोग आवेश, लालच, मोह तथा अहंकार में प्रतिदिन ऐसे काम करने से बाज नहीं आते तो हर धर्म की दृष्टि से गलत हैं। सभी धर्म, जातियों, भाषाओं और क्षेत्र के नाम पर बने समूहों के झंडे तले ऐसी घटनायें होती हैं कि कोई यह दावा कर ही नहीं सकता कि उसके समूह के सभी सदस्य पवित्र तथा उदार हैं। आखिर ऐसा क्यों?
इसका उत्तर यही है कि लोग अपने को उस समय अभिव्यक्त नहीं करते जब उचित समय हो। जहां एक आम आदमी पर अनाचार होता है तो वहां दूसरा यह सोचकर मुंह फेर लेता है कि स्वयं के साथ तो नहीं हो रहा है। जब उसके साथ होता है तो दूसरा भी ऐसा ही करता है। परिणामस्वरूप पूरे समाज में बड़े वर्ग का अनाचार, भ्रष्टाचार, तथा व्याभिचार निर्बाध गति से चलता रहता है। इसका कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है। जरूरत है अपनेे अंदर के भय समाप्त करने की तभी आम आदमी कोई लडाई लड़ सकता है। उसे अपनी जुबान का सही समय पर उपयेाग करना चाहिये और अपनी पीड़ा सभी के सामने कहकर हल्का होने की बजाय वहां कहना चाहिये जहां समस्या का हल होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सामान्य लोग धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय आधार बने समूहों के पिछलग्गू होने की बजाय व्यक्ति आधार पर एक दूसरे से संपर्क बनायें तथा अपनी सामूहिक अभिव्यक्ति का एक स्वर दें। प्रस्तुत है इस पर एक स्वरचित शेर
आखिर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा।
यूं जमाना खास लोगों के जुर्म सहेगा।
शायद जब तक कुदरत से तोहफे में मिली
जुबान से अपना दर्द पूरी ताकत से नहीं कहेगा।।

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