30 अगस्त 2010

क्रिकेट मैच में हारने की कसम-हिन्दी व्यंग्य (cricket match men harne ki kasam-hindi vyangya)

पाकिस्तान के सात खिलाड़ी मैच फिक्सिंग के आरोपों में फंस गये हैं। फंसे भी क्रिकेट के जनक इंग्लैंड में हैं जहां पाकिस्तानी पहले से बदनाम हैं। यह खबरें तो उन्हीं प्रचार माध्यमों से ही मिल रही हैं जो उस बाज़ार के ही भौंपू हैं जिसके अनेक शिखर सौदागरों पर भूमिगत माफिया से संबंध रखने का आरोप है। कभी कभी ऐसी खबरें देखकर हैरानी होती है कि आखिर यह क्रिकेट जो इन प्रचार समाचार माध्यमों के रोजगार का आधार है क्योंकि इससे उनको प्रतिदिन आधे घंटे की सामग्री मिलती है तो कैसे उसे बदनाम करने पर तुल जाते हैं।
पहली बार पता चला कि नोबॉल भी फिक्स होती है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने गेंद फैंकते समय अपना पांव लाईन से इतना बाहर रखा था कि अंपायर के लिये यह संभव नहीं था कि वह उसकी अनदेखी करे। जब खिलाड़ी फिक्स हैं तो अंपायर भी फिक्स हो सकता है पर पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने इतना पांव निकाला कि नोबॉल न देने के लिये फिक्स करने वाला अंपायर भी कैमरें की वजह से उसे संदेह का लाभ नहीं दे सकता था।
आरोप लगे हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ी औरतों, पैसे तथा मस्ती करने के शौकीन हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ियों का चरित्र तो वहीं के लोग बयान करते हैं। कुछ पर तो मादक द्रव्य पदार्थों की तस्करी का भी आरोप है। जब पाकिस्तानी खिलाड़ी पकड़े जाते हैं तो उनकी एकाध प्रेमिका भी सामने आती है जो उनकी काली करतूतों का बयान करती है। एक चैनल के मुताबिक पाकिस्तान का एक गेंदबाज की प्रेमिका के अनुसार वह तो बिल्कुल अपराध प्रवृत्ति का और यह भी उसी ने बताया था कि ‘2010 में पाकिस्तानी कोई मैच जीतने वाला नहीं है, ऐसा तय कर लिया गया है। पिछले 82 मैचों से फिक्सिंग चल रही है। वगैरह वगैरह।
जिस बात पर हमारी नज़र अटकी वह थी कि ‘पाकिस्तान खिलाड़ियों ने 2010 में मैच न जीतने की कसम खा रखी है। संभवत आजकल उनको हारने के पैसे मिल रहे हैं। हां, यह क्रिकेट में होता है। श्रीलंका में हुए एक मैच में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान दोनों की टीमें मैच हारना चाहती थीं क्योंकि पर्दे के पीछे उनको अधिक पैसा मिलने वाला था। यानि जो जीतता वह कम पैसे पाता तोे बताईये पैसे के लिऐ खेलने वाले खिलाड़ी क्यों जीतना चाहेंगे। ऐसे आरोप टीवी चैनलों ने लगाये थे। बहरहाल पाकिस्तान टीम के खिलाड़ी अपनी आक्रामक छबि भुनाते हैं। उनके हाव भाव ऐसे हैं जैसे कि तूफान हो और इसलिये उनकी जीत पर अधिक पैसा लग जाता है। सट्टेबाज उसके हारने पर ही कमाते होंगे इसलिये ही शायद वह उनको हारने के लिये पैसा देते होंगे।
इधर अपने देश की बीसीसीआई की टीम भी लगातर जीतने में विश्वास नहंीं रखती। यकीनन इस टीम के कर्णधारों को पाकिस्तानी खिलाड़ियों की इस कसम का पता लगा होगा कि वह 2010 में जीतेंगे नहीं इसलिये उसके साथ न खेलने का फैसला किया होगा ।
बात अगर पाकिस्तान की हो तो अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, खेल तथा कला जगत के शिखर पुरुषों के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। अगर संबंध अच्छे रखने हों तो कहना पड़ता है कि ‘इंसान सब कर सकता है पर पड़ौसी नहीं बदल सकता‘ या फिर ‘आम आदमी के आदमी से संपर्क करना चाहिऐ।’
अगर संबंध खराब करने हों तो आतंकवाद का मुद्दा एक पहले से ही तय हथियार है कहा जाता है कि ‘पहले पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादी का खत्मा करे।
पिछली बार आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया था तो देश के तमाम लोगों ने भारी विलाप किया था। यहां तक कि इस विलाप में वह लोग भी शामिल थे जो प्रत्यक्षः इन टीमों के मालिक माने जाते हैं-इसका सीधा मतलब यही था कि यह मालिक तो मुखौटे हैं जबकि उनके पीछे अदृश्य आर्थिक शक्तियां हैं जो इस खेल का अपनी तरीके से संचालन करती हैं।
बाद में आईपीएल में फिक्सिंग के आरोप लगे थे। उसमें पाकिस्तान के खिलाड़ियों का न होना इस बात का प्रमाण था कि अकेले पाकिस्तानी ही ऐसा खेल नहीं खेलते बल्कि हर देश के कुछ खिलाड़ी शक के दायरे में हैं। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बदनाम हैं तो उसके खिलाड़ियों को चाहे जब पकड़ कर यह दिखाया जाता है कि देखो बाकी जगह साफ काम चल रहा है। किसी अन्य देश का नाम नहीं आने दिया जाता क्योंकि उसकी बदनामी से मामला बिगड़ सकता है। पाकिस्तान के बारे में तो कोई भी कह देगा कि ‘वह तो देश ही ऐसा है।’ इससे प्रचार में मामला हल्का हो जाता है और प्रचार माध्यमों के लिये भी सनसनीखेज सामग्री बन जाती है।
पाकिस्तानी या तो चालाक नहीं है या लापरवाह हैं जो पकड़े जाते हैं। संभव है वह कमाई के लिये हल्के सूत्रों का इस्तेमाल करते हों। भारतीय प्रचार माध्यमों को तो सभी जानते हैं। निष्पक्ष दिखने के नाम पर तब इन खिलाड़ियों के कारनामों की चर्चा से बचते हैं जब यह भारत आते हैं। अभी पाकिस्तानी के एक खिलाड़ी ने एक भारतीय महिला खिलाड़ी से शादी की। वह भारत आया तो उसके लोगों ने ही उस पर आरोप लगाया था कि ‘वह तो फिक्सर है।’ मगर भारत की एक अन्य महिला ने जब उसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से विवाह होने की बात कही और बिना तलाक दिये दूसरी शादी का विरोध किया तो यह प्रचार माध्यम एक बूढ़े अभिनेता को पाकिस्तानी खिलाड़ी के समर्थन में लाये। मामला सुलट गया और भारतीय खिलाड़िन से उस खिलाड़ी का विवाह हुआ। वह बूढ़े अभिनेता भी उस शादी में गया। आज तक एक बात समझ में नहीं आयी कि इन फिल्म वालों से क्रिकेट वालों रिश्ते बनते कैसे हैं। संभवत कहीं न कहीं धन के स्त्रोत एक जैसे ही होंगे।
इस देश में क्रिकेट खेल का आकर्षण अब उतना नहीं रहा जितना टीवी चैनल और अखबार दिखा रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उनके पास मज़बूरी है क्योंकि इसके अलावा वह कुछ नया कर ही नहीं सकते।
एक दो नहीं पूरे सात पाकिस्तनी खिलाड़ी ब्रिटेन से मैच हारना चाहते थे। हारे भी! इससे उनके धार्मिक लोग नाराज़ हो गये हैं। इसलिये नहीं कि पैसा खाकर हारे बल्कि धर्म का नाम नीचा किया। कट्टर लोग धमकियां दे रहे हैं। कोरी धमकियां ही हैं क्योंकि इन कट्टर धार्मिक लोगों को पैसा भी उन लोगों से मिलता है जो क्रिकेट में मैदान के बाहर से इशारों में खिलाड़ियों को नचाते हैं और फिर उनको रैम्प पर भी नाचने का अवसर प्रदान करते हैं।
बहरहाल पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने 2010 में हारने की कसम खाई है। यह आरोपी सात खिलाड़ी हटे तो दूसरे नये लोग आकर भी उस कसम को निभायेंगे। इधर बीसीसीआई की टीम भी तब तक नहीं उनके साथ खेलेगी जब तक उनकी कसम खत्म की अवधि नहीं होती। आखिर बीसीसीआई के खिलाड़ी जीत कर थक जायेंगे तो उनको तो हराकर कर विश्राम कौन देगा। पाकिस्तानी खिलाड़ी यह अवसर देने को तैयार नहीं लगते। यही कारण है कि आतंक का मुद्दे की वजह से दोनों नहीं ख्ेाल रहे अब यह बात बड़े लोग कहते हैं तो माननी पड़ती है। 2011 में फिर मित्रता का नारा लगेगा क्योंकि तब पाकिस्तानी खिलाड़ियों की कसम की अवधि खत्म हो जायेगी। इधर आईपीएल की तैयारी भी चल रही है। लगता नहीं है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को इस बार भी मौका मिलेगा। कहीं किसी क्लब को जीतने का आदेश हो और उसमें अपनी कसम से बंधे एक दो पाकिस्तानी खिलाड़ी हारने के लिए खेले तो.......अब तो उनके लिये 2011 में ही दरवाजे खुल सकते हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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23 अगस्त 2010

हकीक़त से अनजाना-हिन्दी (hakikat se anjana-hindi shayari)

दूसरे की आस्था को कभी न आजमाना,
शक करता है तुम पर भी यह ज़माना।
अपना यकीन दिल में रहे तो ठीक,
बाहर लाकर उसे सस्ता न बनाना।
हर कोई लगा है दिखाने की इबादत में
फिर दुनियां हैरान क्यों, जरा बताना।
सिर आकाश में तो पांव जमीन पर हैं,
हद में रहकर, अपने को गिरने से बचाना।।
अपनी राय बघारने में कुशल है सभी लोग,
जिंदगी की हकीकत से हर कोई अनजाना।
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16 अगस्त 2010

दिखाने के लिये दोस्ताना जंग-हास्य व्यंग्य (dikhane ki liye dostana-hasya vyangya)

दृश्यव्य एवं श्रव्य प्रचार माध्यमों के सीधे प्रसारणों पर कोई हास्य व्यंगात्मक चित्रांकन किया गया-अक्सर टीवी चैनल हादसों रोमांचों का सीधा प्रसारण करते हैं जिन पर बनी इस फिल्म का नाम शायद............ लाईव है। यह फिल्म न देखी है न इरादा है। इसकी कहानी कहीं पढ़ी। इस पर हम भी अनेक हास्य कवितायें और व्यंगय लिख चुके हैं। हमने तो ‘टूट रही खबर’ पर भी बहुत लिखा है संभव है कोई उन पाठों को लेकर कोई काल्पनिक कहानी लिख कर फिल्म बना ले।
उस दिन हमारे एक मित्र कह रहे थे कि ‘यार, देश में इतना भ्रष्टाचार है उस पर कुछ जोरदार लिखो।’
हमने कहा-‘हम लिखते हैं तुम पढ़ोगे कहां? इंटरनेट पर तुम जाते नहीं और जिन प्रकाशनों के काग़जों पर सुबह तुम आंखें गढ़ा कर पूरा दिन खराब करने की तैयारी करते हो वह हमें घास भी नहीं डालते।’
उसने कहा-‘हां, यह तो है! तुम कुछ जोरदार लिखो तो वह घास जरूर डालेेंगे।’
हमने कहा-‘अब जोरदार कैसे लिखें! यह भी बता दो। जो छप जाये वही जोरदार हो जाता है जो न छपे वह वैसे ही कूंड़ा है।’
तब उसने कहा-‘नहीं, यह तो नहीं कह सकता कि तुम कूड़ा लिखते हो, अलबत्ता तुम्हें अपनी रचनाओं को मैनेज नहीं करना आता होगा। वरना यह सभी तो तुम्हारी रचनाओं के पीछे पड़ जायें और तुम्हारे हर बयान पर अपनी कृपादृष्टि डालें।’
यह मैनेज करना एक बहुत बड़ी समस्या है। फिर क्या मैनेज करें! यह भी समझ में नहीं आता! अगर कोई संत या फिल्मी नायक होते या समाज सेवक के रूप में ख्याति मिली होती तो यकीनन हमारा लिखा भी लोग पढ़ते। यह अलग बात है कि वह सब लिखवाने के लिये या तो चेले रखने पड़ते या फिर किराये पर लोग बुलाने पड़ते। कुछ लोग फिल्मी गीतकारों के लिये यह बात भी कहते हैं कि उनमें से अधिकतर केवल नाम के लिये हैं वरना गाने तो वह अपने किराये के लोगों से ही लिखवाते रहे हैं। पता नहंी इसमें कितना सच है या झूठ, इतना तय है कि लिखना और सामाजिक सक्रियता एक साथ रखना कठिन काम है। सामाजिक सक्रियता से ही संबंध बनते हैं जिससे पद और प्रचार मिलता है और ऐसे में रचनाऐं और बयान स्वयं ही अमरत्व पाते जाते है।
अगर आजकल हम दृष्टिपात करें तो यह पता लगता है कि प्रचार माध्यमों ने धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक शिखरों पर विराजमान प्रतिमाओं का चयन कर रखा है जिनको समय समय पर वह सीधे प्रसारण या टूट रही खबर में दिखा देते हैं।
एक संत है जो लोक संत माने जाते हैं। वैसे तो उनको संत भी प्रचार माध्यमों ने ही बनाया है पर आजकल उनकी वक्रदृष्टि का शिकार हो गये हैं। कभी अपने प्रवचनों में ही विदेशी महिला से ‘आई लव यू कहला देते हैं’, तो कभी प्रसाद बांटते हुए भी आगंतुकों से लड़ पड़ते हैं। उन पर ही अपने आश्रम में बच्चों की बलि देने का आरोप भी इन प्रचार माध्यमों ने लगाये। जिस ढंग से संत ने प्रतिकार किया है उससे लगता है कि कम से कम इस आरोप में सच्चाई नहंी है। अलबत्ता कभी किन्नरों की तरह नाचकर तो कभी अनर्गल बयान देकर प्रचार माध्यमों को उस समय सामग्री देतेे हैं जब वह किसी सनसनीखेज रोमांच के लिये तरसते हैं। तब संदेह होता है कि कहीं यह प्रसारण प्रचार माध्यमों और उन संत की दोस्ताना जंग का प्रमाण तो नहीं है।
एक तो बड़ी धार्मिक संस्था है। वह आये दिन अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों के लिये अनर्गल फतवे जारी करती है। सच तो यह है कि इस देश में कोई एक व्यक्ति, समूह या संस्था ऐसी नहंी है जिसका यह दावा स्वीकार किया जाये कि वह अपने धर्म की अकेले मालिक है मगर उस संस्था का प्रचार यही संचार माध्यम इस तरह करते हैं कि उस धर्म के आम लोग कोई भेड़ या बकरी हैं और उस संस्था के फतवे पर चलना उसकी मज़बूरी है। वह संस्था अपने धर्म से जुड़े आम इंसान के लिये कोई रोटी, कपड़े या मकान का इंतजाम नहंी करती और उत्तर प्रदेश के एक क्षेत्र तक ही उसका काम सीमित है पर दावा यह है कि सारे देश में उसकी चलती है। उसके उस दावे को प्रचार माध्यम हवा देते हैं। उसके फतवों पर बहस होती है! वहां से दो तीन तयशुदा विद्वान आते हैं और अपनी धार्मिक पुस्तक का हवाला देकर चले जाते हैं। जब हम फतवों और चर्चाओं का अध्ययन करते हैं तो संदेह होता है कि कहीं यह दोस्ताना जंग तो नहीं है।
एक स्वर्गीय शिखर पुरुष का बेटा प्रतिदिन कोई न कोई हरकत करता है और प्रचार माध्यम उसे उठाये फिरते हैं। वह है क्या? कोई अभिनेता, लेखक, चित्रकार या व्यवसायी! नहीं, वह तो कुछ भी नहीं है सिवाय अपने पिता की दौलत और घर के मालिक होने के सिवाय।’ शायद वह देश का पहला ऐसा हीरो है जिसने किसी फिल्म में काम नहीं किया पर रुतवा वैसा ही पा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि प्रचार माध्यमों के इस तरह के प्रसारणों में हास्य व्यंग्य की बात है तो केवल इसलिये नहीं कि वह रोमांच का सीधा प्रसारण करते हैं बल्कि वह पूर्वनिर्धारित लगते हैं-ऐसा लगता है कि जैसे उसकी पटकथा पहले लिखी गयी हों हादसों के तयशुदा होने की बात कहना कठिन है क्योंकि अपने देश के प्रचार कर्मी आस्ट्रेलिया के उस टीवी पत्रकार की तरह नहीं कर सकते जिसने अपनी खबरों के लिये पांच कत्ल किये-इस बात का पक्का विश्वास है पर रोमांच में उन पर संदेह होता है।
ऐसे में अपने को लेकर कोई भ्रम नहीं रहता इसलिये लिखते हुए अपने विषय ही अधिक चुनने पर विश्वास करते हैं। रहा भ्रष्टाचार पर लिखने का सवाल! इस पर क्या लिखें! इतने सारे किस्से सामने आते हैं पर उनका असर नहीं दिखता! लोगों की मति ऐसी मर गयी है कि उसके जिंदा होने के आसार अगले कई बरस तक नहीं है। लोग दूसरे के भ्रष्टाचार पर एकदम उछल जाते हैं पर खुद करते हैं वह दिखाई नहीं देता। यकीन मानिए जो भ्रष्टाचारी पकड़े गये हैं उनमें से कुछ इतने उच्च पदों पर रहे हैं कि एक दो बार नहीं बल्कि पचास बार स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र, गांधी जयंती या नव वर्ष पर उन्होंने कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि की भूमिका का निर्वाह करते हुए ‘भ्रष्टाचार’ को देश की समस्या बताकर उससे मुक्ति की बात कही होगी। उस समय तालियां भी बजी होंगी। मगर जब पकड़े गये होंगे तब उनको याद आया होगा कि उनके कारनामे भी भ्रष्टाचार की परिधि में आते है।
कहने का अभिप्राय यह है कि लोगों को अपनी कथनी और करनी का अंतर सहजता पूर्वक कर लेते हैं। जब कहा जाये तो जवाब मिलता है कि ‘आजकल इस संसार में बेईमानी के बिना काम नहीं चलता।’
जब धर लिये जाते हैं तो सारी हेकड़ी निकल जाती है पर उससे दूसरे सबक लेते हों यह नहीं लगता। क्योंकि ऊपरी कमाई करने वाले सभी शख्स अधिकार के साथ यह करते हैं और उनको लगता है कि वह तो ‘ईमानदार है’ क्योंकि पकड़े आदमी से कम ही पैसा ले रहे हैं।’ अलबत्ता प्रचार माध्यमों में ऐसे प्रसारणों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह दोस्ताना जंग है। यह अलग बात है कि कोई बड़ा मगरमच्छ अपने से छोटे मगरमच्छ को फंसाकर प्रचार माध्यमों के लिये सामग्री तैयार करवाता  हो या जिसको हिस्सा न मिलता हो वह जाल बिछाता हो । वैसे अपने देश में जितने भी आन्दोलन हैं भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि उसके बंटवारे के लिए होते हैं । इस पर अंत में प्रस्तुत है एक क्षणिका।
एक दिन उन्होंने भ्रष्टाचार पर भाषण दिया
दूसरे दिन रिश्वत लेते पकड़े गये,
तब बोले
‘मैं तो पैसा नहीं ले रहा था,
वह जबरदस्ती दे रहा था,
नोट असली है या नकली
मैं तो पकड़ कर देख रहा था।’

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13 अगस्त 2010

इज्ज़त और महंगाई-हिन्दी हास्य कविता (izzat aur mahanga par hindi hasya kavita)

वह महंगाई पर कुछ यूं बोले
‘यह तो महंगाई अधिक बढ़ेगी,
तभी हमारी विकास की तस्वीर
विश्व के मानस पटल पर चढ़ेगी,
हमारा लक्ष्य पूरे समाज को
पांच सौ और हजार का नोट
उपयोग करने लायक बनाना है,
आखिर उनको भी तो ठिकाने लगाना है,
यह क्या बात हुई
पचास से सौ रुपये किलो सब्जी बिक रही है,
चाय की कीमत भी चार रुपये दिख रही है,
भरी जाती है एक रुपये में साइकिल में हवा,
पांच रुपये में भी मिल जाती है बीमारी की दवा,
हो जायेंगी सभी चीजें महंगी,
खत्म हो जायेगी पैसे की तंगी,
बड़े नोट होंगे तो
कोई अपने को गरीब नहीं कह पायेगा,
हमारा देश अमीरों की सूची में आ जायेगा,
देश का नाम बढ़ाने के लिये
त्याग तो करना होगा,
भले ही एक समय रोटी खाना पड़े
देश का नाम विकसित सूची में तो भरा होगा,
तभी अपनी इज्जत दुनियां में बढ़ेगी।’’
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9 अगस्त 2010

> जंग और सुविधा-हिन्दी व्यंग्य कविता (jang aur suvidha-hindi vyangya kavitaq)

भ्रष्टाचार, गरीबी, और शोषण के खिलाफ
जंग करने के नारे सभी लगा रहे हैं,
मिलकर समाज को जगा रहे हैं।
बैठे बैठे सभी चीखकर
छेड़ रहे है जाग्रति अभियान
सुविधाभोगी बुद्धिमान बनकर
ढूंढ रहे सम्मान,
कोशिश यही है कि कोई
दूसरा वीर बनकर गर्दन कटाये,
हम क्रांतिकारी प्रसिद्ध हो, बिना पसीना बहाये,
परायी औलादों को झौंक रहे मैदान में
अपनी को सुविधा संचय के लिये भगा रहे हैं।
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4 अगस्त 2010

एक शब्द से हिल जाते हैं-व्यंग्य चिंतन (ek shabd se hil jate hain-hindi vyangya chinttan)

अकादमिक हिन्दी लेखक, आलोचक और विद्वानों की स्थिति भाषा की दृष्टि से बहुत रोचक है। पहली बात तो यह है कि अकादमिक हिन्दी वाले भाषा के शिखर संगठनों, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा टीवी चैनलों पर इस तरह कब्जा किये बैठे हैं कि जैसे हिन्दी भाषा की कल्पना उनके बिना नहीं की जा सकती। दूसरी बात यह है कि आम हिन्दी भाषी पाठकों में कोई उनका नाम भी नहीं जानता। इस लेखक ने अनेक नाम तो अब जाकर अंतर्जाल पर पढ़कर सुने हैं। इससे पहले भी कुछ लेखकों का नाम समाचार पत्र पत्रिकाओं में पढ़ा पर उनकी रचनायें पढ़ने को नहीं मिली। ऐसे लेखकों ने खूब किताबें लिखी। कुछ को शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में भी जगह मिली, पर वह आम दुकानों में उनके दर्शन नहीं हुए। सरकार द्वारा संपोषित लाईब्रेरियों के अलावा अन्य कहीं भी उनको पाना कठिन है।
हम इधर आम पाठक को देखते हैं तो वह बाज़ार, रेल्वे स्टेशन और बस स्टैंडों पर जो किताबें खरीदता है वह इनका नाम तक नहीं जानता। दिलचस्प बात यह है कि अकादमिक लेखक उसे महत्व भी नहीं देते। कई तो कह देते हैं कि ‘लोगों को पढ़ने की तमीज़ नहीं है।’
कहने का अभिप्राय यह है कि अकादमिक हिन्दी और आम हिन्दी में बहुत अंतर है। अकादमिक हिन्दी वालों को यह भ्रम पता नहीं कैसे रहता है कि वह हिन्दी का विकास कर रहे हैं। यह लोग अखबार में छपते जरूर है पर उसे स्वयं पढ़ते नहीं। अगर पढ़ते होते तो पता चलता कि आजकल अखबारों के शीर्षकों में धड़ल्ले से देवनागरी लिपि में अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करें-यथा‘ अपने फिगर मेन्टेन करें’, ‘बरसात का एंजोयमेंट‘ और ‘अपना होम स्वीट बनायें’, आदि आदि।
इसका मतलब साफ है कि हिन्दी के अकादमिक लेखक, विद्वान तथा आलोचक हिन्दी को साफ सुथरी भाषा के रूप में बनाये रखने में नाकाम रहे हैं जैसा कि वह उनके चेले दावा करते हैं। इससे ज्यादा बुरी बात क्या हो सकती है कि अधिकतर बड़े अखबार अंग्रेजी लेखकों के आलेख अपने हिन्दी संस्करणों में छापकर कृतकृत्य हो रहे हैं। मतलब यह कि हिन्दी में तो सामयिक लेखक पैदा होना ही बंद हो गये हैं भले ही अखबार, टीवी चैनल और प्रकाशन संस्थानों की कृपा पाने हिन्दी लेखकों की कमी नहीं है। कहते हैं हिन्दी में पाठक नहीं मिलते क्योंकि सभी मस्तराम और सविता भाभी जैसा साहित्य चाहते हैं। इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता क्योंकि आज भी श्रीबाल्मीकि रामायण, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पौराणिक ग्रंथ लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं।
कभी कभी तो लगता है कि इस देश के आर्थिक, सामाजिक तथा संस्कृति पुरुषों ने मिलकर यही प्रयास किया है कि अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का साहित्य जनमानस से विस्मृत किया जाये मगर भला हो धार्मिक प्रकाशनों का जिन्होंने ऐसा नहीं होने दिया। अभिप्राय यह है कि एक तरफ मस्तराम तथा सविताभाभी नुमा साहित्य आधुनिक बाज़ार ने लिखवाया तो वहीं क्लिष्ट शब्दों तथा निरर्थक संदेशों वाली ऐसी सामग्री को तैयार करवाया जिससे हिन्दी का आम पाठक समझ ही न सके।
यहां अकादमिक लेखकों से आशय भी स्पष्ट कर दिया जाये तो ठीक है। वह लेखक जो सरकार से सहायता प्राप्त संस्थाओं, प्रतिबद्ध वैचारिक संगठनों अथवा निजी प्रकाशकों की कृपा से किताबें छपवाते हैं वह अकादमिक लेखकों की श्रेणी में आते हैं। जो लेखक अपने निजी पैसे से किताबें छपवाते हैं या उनके लिये यह कार्य दृष्कर है वह आम लेखक हैं। इस आम लेखक की स्थिति तो बड़ी दयनीय है। अकादमिक लेखक उनको भीड़ की भेड़ की तरह अपने कार्यक्रमों में बुलाते हैं। चाहे कितनी भी रचनायें आम लेखक लिख चुका हो वह उसे लेखक नहीं मानते। अगर किसी ने निजी सहारे से किताब छपवाई है तो पूछा जाता है-‘इसकी कुछ प्रतियां बिकी हैं क्या?’
अगर छपवाई और सरकारी संस्था या निजी प्रकाशन से समर्थन नहीं मिला तो उसका लेखक कुछ भी नहीं है। जिसने नहीं छपवाई उसे तो लेखक ही नहीं माना जाता। चलिऐ यह सब ठीक है मगर अब पता चला है कि अकादमिक लेखक, विद्वान और आलोचक लिखते चाहें कितना भी हों, आपस में एक दूसरे की प्रशंसा करते हों पर सच यह है कि वह पढ़ते बिल्कुल नहीं हैं। पांच सौ शब्दों में एक शब्द ही उनकी हालत खराब कर देता है।
‘‘यह शब्द क्यों लिखा या कहा है?’’
एक शब्द को समूची मानव सभ्यता से जोड़ देते हैं।
किसी अकादमिक लेखक ने कह दिया कि
‘आज के कुछ लड़के छिछोरे या आवारा हैं।’
बस मच गया बवाल! समूची मानव सभ्यता पर खतरा और हमला! यहां यह भी स्पष्ट कर दें कि ऐसे बयान अकादमिक लेखकों में भी विकासवादियों, नारीवादियों, जनकल्याण वादियों के ही छपते हैं। ऐसे में आम लेखक और पाठक किंकर्तव्यमूढ़ होकर देखता और पढ़ता है। अब वह पहले किसी का विवादास्पद लेखक या बयान पढ़े या उसमें लिखे गये अप्रिय शब्द को लेकर लग रहे नारों को देखे।
‘कुछ’ पर की गयी टिप्पणी को पूरी मानव जाति से जोड़ लिया। आम पाठक क्या कहे? आम लेखक तो लिखने से भी डरता है क्योंकि कई खेमों में बंटे इन अकादमिक लेखकों में उसकी कोई पहचान नहीं होती। अपनी अकादमिक पहचान रखने वाले इन महिला तथा पुरुष लेखकों का पूरी मानव सभ्यता ही क्या बल्कि अपने ही देश के हिन्दी समुदाय का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। इनकी संख्या चाहे कितनी भी हो पर उनसे हजार गुणा संख्या तो उन स्वतंत्र लेखकों की है जिनको इन अकादमिक लेखकों की वजह से अपने लिखा छपवाने से वंचित हो जाना पड़ता है।
ऐसे ही अकादमिक पुरुषों तथा महिलाओं के बीच झगड़ा चल पड़ा है। एक अकादमिक पुरुष ने कह दिया कि ‘कुछ महिला लेखिकाओं के लेखन का स्तर बहुत खराब है और उनमें बुरे सा बुरा दिखने की होड़ लगी है।’
अकादमिक न होने के कारण हमने उस शब्द का उपयोग नहीं किया जो उस हिन्दी के महापुरुष ने कहा है। अब चूंकि वह हिन्दी के महान विद्वानों का आपसी विवाद है-क्योंकि किताबें छपवाना कोई आसान काम नहीं है चाहे महिला हो या पुरुष-अतः कहना कठिन है कि आगे क्या होगा? वैसे वह बयान पढ़ने से पता चलता है कि इसमें प्रचार पाने के लिये फिक्सिंग भी हो सकती है क्योंकि जहां उस महापुरुष को खूब प्रचार मिला वहीं अनेक अकादमिक महिला लेखिकाओं ने भी इसका लाभ उठाया।
मजे की बात यह है कि हिन्दी की एक बहुत बड़ी अकादमी की पत्रिका में यह साक्षात्कार छपा। अंक का नाम बताया गया है ‘बेवफाई-भाग 2’। यह हिन्दी के सर्वौच्च पुरस्कार भी बांटती है। जिन स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के दिमाग में कभी ऐसे पुरस्कार पाने की ख्वाहिश हो वह इस बात पर ध्यान दें कि कि वह महापुरुष एक कुलपति होने के साथ इस संस्था की प्रवर समिति में भी हैं। इतनी बड़ी अकादमिक संस्था ‘बेवफाई’ जैसे शब्द का उपयोग करती है और उसी से जुड़ा महापुरुष महिलाओं के लिये घटिया शब्द का इस्तेमाल करता है तब उससे सामान्य हिन्दी भाषियों का हितैषी कैसे माना जा सकता है। वह इन अकादमिक लेखकों के एक समूह के पितृपुरुष हैं और अब उसी के लोगों से उनकी ठन भी गयी है। यह लड़ाई एकदम निजी है पर जैसा कि अकादमिक लेखकों की प्रवृत्ति है वह समूची मानव सभ्यता को इससे जोड़ रह हैं।
आखिरी बात यह है कि उन कथित विद्वान ने एक जगह कुछ महिला लेखिकाओं की ओर इंगित करते हुए कहा है कि उनकी किताबों के शीर्षक का नाम ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’ होना चाहिए। संभव है कि कोई अकादमिक लेखक इस शीर्षक की किताब लिख डालें क्योंकि उनके संगठन बहुत प्रभावशाली है। मुश्किल यह होगी कि इन लेखकों के लिखे हुए को आम आदमी पढ़ता नहीं और पाठकीय दृष्टि से यह लेखक स्वयं भी कोई उच्च स्तरीय नहीं है। उनके बयान का मतलब तो वही जाने या उनके समूह के लोग, पर उनके कथन में उस शब्द के अलावा भी अन्य शब्द भी हैं। हालांकि उन्होंने बुरे शब्द का उपयोग किया पर संदर्भ को देखें तो उसकी जगह दूसरा बुरा शब्द भी हो सकता था। मगर मुश्किल वही कि अकादमिक लेखकों को एक ही शब्द हिला देता है और दूसरी बात यह कि किसी अकादमिक लेखक या लेखिका पर उंगली उठाना उनको गवारा नहीं-आम लेखिका और लेखक तो उनके लिये भीड़ की भेड़ की तरह है। हमें क्या? देखते हैं कौन लिखता है ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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