11 सितंबर 2011

हिन्दी भाषा का महत्व उसके अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण होने के कारण-हिन्दी दिवस पर लेख (hindi ka mahatva or importance and sanskrit-special article on hindi diwas or divas on 14 septembdar)

     संस्कृत देवभाषा कही गयी है जिसमें हमारे अध्यात्म दर्शन का बड़ा भारी खजाना जमा है। यह पता नहीं कि संस्कृत एक कठिन भाषा है इसलिये भारत में इसका विस्तार नहीं हुआ या अपने समय में इसे कुछ खास लोग ही लिखना पढ़ना जानते थे जो बिना इस परवाह किये अपने रचनाकर्म के आगे बढ़ते रहे कि आखिर उनकी बात समाज के पास पहुंच रही है इसलिये उन्होंने अपनी भाषा को आमजन का हिस्सा बनाने का प्रयास नहीं किया। संस्कृत के बारे में इतिहासकार क्या सोचते हैं यह एक अलग बात है पर हमारा मानना है कि किसी समय यह भाषा केवल रचनाकारों के लिये उपयुक्त मानी जाती रही होगी। आमजन की भाषा यह शायद ही कभी रही होगी। जब हम किसी समय के इतिहास को पढ़ते हैं तो उसमें वर्णित पात्रों के इर्दगिर्द ही हमारा ध्यान जाता है। उनसे जुड़े समाज या आमजन की वास्तविक स्थिति का आभास नहीं हो पाता। जब समाज या आमजन की एतिहासिक स्थिति जानना हो तो अपने वर्तमान को देखकर ही अनुमान किया जा सकता है। संस्कृत किस तरह इस देश में अपना स्थान बनाये रख सकी होगी इसका आज की हिन्दी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की स्थिति को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है।
     हिन्दी के बारे में कहा जाता है कि इसकी बोली हर पांच कोस पर बदल जाती है। अनेक भाषायें ऐसी हैं जिनको हिन्दी माना जाता है पर उनका आधार क्षेत्र विशेष है। अगर हम भक्ति काल का हिन्दी साहित्य देखें तो उसमे कहीं भी आधुनिक हिन्दी का बोध नहीं होता पर उनको हिस्सा तो हिन्दी साहित्य का ही माना गया। कहा जाता है कि देश की अनेक भाषायें संस्कृत से निकली हैं। हम हिन्दी को देखकर इसे नहीं मान सकते। उस समय भी संस्कृत ऐसे ही रही होगी जैसी आज हिन्दी! हर पांच कोस पर उसका रूप बदलता होगा। अगर हम आधुनिक हिन्दी की बात करें तो हमारा ग्रामीण समाज वैसी शुद्ध हिन्दी नहीं    बोलता। उसकी बोली में स्थानीय पुट रहता है।
     हमने शैक्षणिक काल के दौरान जिस हिन्दी का अध्ययन किया वैसी समाज में कम भी बोलती दिखी। जब लिखना शुरु किया तो प्रयास यह किया कि बोलचाल से प्रथक रचनाओं में कुछ साहित्यक पुट भाषा में दिखे। सच तो यह है कि जैसी हिन्दी प्रतिदिन बोलते हैं वैसी लिखते नहीं है। लेखक दिखने के लिये कुछ औपचारिकता आ ही जाती है और भाषा में कहीं न साहित्यक पुट स्वतः उत्पन्न होता है। जिन्होंने संस्कृत में रचनाऐं कीं उन्होंने अपने रचनाकर्म में  भाषा की मर्यादा रखी पर यह आवश्यक नहीं है कि वह बोलते भी वैसा ही हों जैसा लिखते थे। शायद इसी कारण ही संस्कृत को देव भाषा कहा गया। संस्कृत से देशी भाषायें निकली हैं यह कहना गलत लगता है पर उस समय यह देश के आमजन की भाषाओं की प्रतिनिधि भाषा रही होगी जैसी आज हिन्दी है। जब वाराणसी में संस्कृत लिखी जाती होगी तो वहां आमजन इसको बोलता होगा यह जरूरी नहीं है। उसी काल में तमिलनाडु या अन्य दक्षिण भारत में भी संस्कृत के वैसे ही विद्वान होंगे पर वहां कभी भाषा ऐसी रही होगी जिसमें स्थानीय भाषा के शब्द भी रहे होंगे। चूंकि पूर्व काल में संस्कृत भाषा को संस्थागत रूप से आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं हुआ इसलिये यह आमजन में प्रचलित नहीं हुई। हिन्दी के विकास में संस्थागत प्रयासों ने बहुत कम किया है इसलिये शुद्ध हिन्दी का स्वरूप सभी जगह एक जैसा दिखाई देता है।
       समय के अनुसार भाषाओं के रूप बदले होंगे तो उनमें अन्य भाषाओं के शब्द भी शामिल होकर उसकी शोभा बढ़ाते होंगे। एक बात तय है कि संस्कृत एक समय इस देश की अकेली भाषा नहीं  रही होगी अलबत्ता नेतृत्व उसका रहा होगा। देश की भौगोलिक, सामाजिक, भाषाई, सांस्कृतिक तथा एतिहासिक विविधता को देखते हुए यह बात साफ लगती है कि यहां कोई एक भाषा अस्तित्व बनाये नहीं रख सकती है।
       इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे देश का सांस्कृतिक आधार आज भी संस्कृत की रचनायें हैं। हिन्दी उसकी जगह ले सकती थी पर ऐसा नहीं हो सका। इसका कारण न केवल राजनीतिक और सामाजिक है बल्कि हिन्दी भाषी कर्णधारों का कमजोर रचनाकर्म भी है। भक्ति काल की रचनाओं के बाद ऐसी रचनायें नहीं आयी जो समाज को रास्ता दिखाती। हिन्दी रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की दिशा बदलना चाहते रहे पर वह पाठक या आमजन का नया लक्ष्य नहीं तय कर पाये। समाज को पश्चिम जैसा आधुनिक दिखने का संदेश देते रचनाकर्मी यह नहीं बता सके कि उससे क्या होना था? मुख्य बात यह कि आधुनिक हिन्दी रचनाकर्मी एक बात भूल गये कि भारतीय जनमानस अंततः अध्यात्म की तरफ जाता है। यह उसके खून में है। सबसे बड़ी बात यह कि हिन्दी में बड़ी बड़ी बातें लिखी जाती हैं। अनेक लोग तो तात्कालिक घटनाओं की विवेचना कर स्वनाम धन्य हो जाते हैं तो अनेक समाज की पीड़ा को बाहर लाकर उसके इलाज में लाचारी दिखाते हैं।
         वह स्वयं मुखर होते दिखना चाहते हैं पर भारतीय जानमानस बिना अध्यात्मिक तत्व के प्रभावित नहीं होता।
        ऐसा लगता है कि संस्कृत किसी समय में अध्यात्म की भाषा रही होगी। हिन्दी में महाकवि तुलसी को सबसे ऊंचा स्थान रामकथा के कारण ही मिला जिसे हम आज अपनी अध्यात्मिक धरोहर मानते हैं। इससे यह तो तय हो गया है कि संस्कृत की उतराधिकारिणी हिन्दी ही है। ऐसे में सभी हिन्दी लेखकों से यह अपेक्षा करना ठीक नहीं है कि सभी अध्यात्मिक ज्ञानी हो जायें पर भारतीय जनमानस को बदलना भी संभव नहीं है। संस्कृत से अनुवाद होकर ही भारतीय अध्यात्मिक रचनाऐं आम जनमानस का हिस्सा बनी। इस संबंध में गोरखपुर प्रेस की चर्चा करना आवश्यक है जिन्होंने अकेले ही संस्कृत की विरासत को हिन्दी में स्थापित कर दिया। इससे हिन्दी अध्यात्मिक भाषा ही बन गयी। सांसरिक या कल्पित विषय जनमानस को आज भी अधिक नहीं सुहाते। यही कारण है कि आजकल व्यवसायिक हिन्दी संस्थान, फिल्म और टीवी वाले हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द शामिल कर उसे वैश्विक भाषा बनाने में जुटे हैं ताकि वह अपने व्यवसाय के लिये नये आधार बना सकें। इस तरह व्यवसायिक हिन्दी बन रही है। दरअसल जिनको हिन्दी से पैसा कमाना है वह सोचते हैं कि कुछ अंग्रेजी के शब्द शामिल कर आज की युवापीढ़ी को अपना प्रयोक्ता बनाये। वह दावा करते हैं कि इससे हिन्दी का विकास होगा। यह सरासर बेकार बात है।
      हम दोष उनको भी नहीं देते। सभी लोग अध्यात्मिक विषय नहीं बेच सकते। इसलिये वह भाषा को आकर्षक बनाये रखने के लिये ऐसे प्रयास करेंगे। कभी अंग्रेजी तो कभी उर्दू के शब्द शामिल कर उसे चमकायेंगे।
      इसके विपरीत अनेक अध्यात्मिक संस्थान अपनी पत्रिकायें निकाल रहे हैं। वह शुद्ध हिन्दी का उपयेाग कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि उनको पाठकों में ग्राहक नहीं बल्कि भक्त ढूंढने होते हैं। ऐसे अध्यात्मिक संस्थान सफल भी हैं जो हिन्दी में पत्रिकायें निकाल रहे हैं। उनको भाषा में तोड़फोड़ करने की आवश्यकता इसलिये भी नही है क्योंकि उनका आधार अध्यात्मिक है जो यहां के जनमानस की मनोरंजन से पहले की पसंद है। शायद ही किसी ने इस बात को रेखांकित किया हो कि जितने बड़े पैमाने पर इन अध्यात्मिक संस्थानों की पत्रिकायें बिक रही हैं उसका मुकाबला शायद ही कोई व्यवसायिक पत्रिका कर पाये। इसलिये जब यह व्यवसायिक पत्रिकायें भाषा की तोड़फोड़ कर रही है तो चिंता नहीं रह जाती क्योंकि अंततः हिन्दी अध्यात्म की भाषा है और अध्यात्मिक संस्थान उसको बचा रहे हैं।
       मूल बात जो हम कह रहे है कि हिन्दी से दूर जाने का आशय होगा अपने आपसे दूर जाना। अंग्रेजी कभी इस देश में मुख्य स्थान नहीं बना पायेगी। फिर अब हमारे देश की स्थिति आज भी दिख रही है उसमें आज भी हमारा आधार ग्रामीण और श्रमशील समाज है। वह अंग्रेजी से दूर है। जिन लोगों को विदेश जाकर नौकरी करनी हो या देश में बड़ा चाटुकार बनना हो उसके लिये अंग्रेजी ठीक है पर जिसे आम जीवन गुजारना है उसकी भाषा हिन्दी वह भी शुद्ध होना जरूर है। अंग्रेजी भाषा जहां बहिर्मुखी और आक्रामक बनाती है वहीं हिन्दी अंतर्मुखी और सहज जीवन जीने में सहायक होती है। अंतर्मुखी और सहज भाव ही मनुष्य की अध्यात्मिक प्रवृत्तियों को बचाये रखने में सहायक होती हैं। जब हम हिन्दी भाषा के अध्यात्मिक होने की बात कह रहे हैं तो हमारा आशय उस भाषा से है जिसमें भले ही क्षेत्रीय भाषाओं को पुट तो हो पर अंग्रेजी और उर्दू के प्रचलित शब्द उसमें कतई शामिल न हों। इन दोनों भाषाओं का मूल भाव हिन्दी जैसा नहीं है यह बात याद रखने लायक हैं।
        संस्कृत को अनेक विद्वान बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर चूंकि उसका समग्र साहित्य हिन्दी में आ गया है इसलिये उसे भी वैसा ही सम्मान मिल रहा है। हिन्दी का महत्व अगर बखान करना हो तो केवल एक ही पंक्ति ही पर्याप्त है कि यह भारत की ही नहीं विश्व की अध्यात्मिक भाषा है। अगर अध्यात्मिक ज्ञान का सुख हृदय में प्राप्त करना है तो सिवाय हिन्दी भाषा के मस्तिष्क में धारण किये बिना वह संभव नहीं है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

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