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26 फ़रवरी 2012

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन रेल की तरह यार्ड में खड़ा है-हिन्दी लेख (bhrashtachar viodhi andolan, anti corrupiton movement a train rail stay in yard-hindi lekh or article)

          अन्ना हज़ारे का आंदोलन बाज़ार और प्रचार प्रबंधकों की सोची समझी योजना का एक भाग है-यह संदेह हमेशा ही अनेक असंगठित स्वतंत्र लेखकों को रहा है। जिस तरह यह आंदोलन केवल अन्ना हजारे जी की गतिविधियों के इर्दगिर्द सिमट गया और कभी धीमे तो कभी तीव्र गति से प्रचार के पर्दे पर दिखता है उससे तो ऐसा लगता है कि जब देश में किसी अन्य चर्चित मुद्दे पर प्रचार माध्यम भुनाने में असफल हो रहे थे तब इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की रूपरेखा इस तरह बनाई कि परेशान हाल लोग कहीं आज के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, कला, टीवी तथा फिल्म के शिखर पुरुषों की गतिविधियों से विरक्त न हो जायेे इसलिये उनके सामने एक जननायक प्रस्तुत हो जो वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने वाले विज्ञापनों के बीच में रुचिकर सामग्री निर्माण में सहायक हो। हालांकि अब अन्ना हज़ारे साहब का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अब जनमानस में अपनी छबि खो चुका है पर देखने वाली बात यह है कि प्रचार माध्यम अब किस तरह इसे नई साज सज्जा के साथ दृश्य पटल पटल पर लाते हैं।
           जब अन्ना हजारे का आंदोलन चरम पर था तब भी हम जैसे स्वतंत्र आम लेखकों के लिये वह संदेह के दायरे में था। यह अलग बात है कि तब शब्दों को दबाकर भाव इस तरह हल्के ढंग से लिखे गये कि उनको समर्थन की आंधी का सामना न करना पड़े। इसके बावजूद कुछ अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि वालों लोगों ने उसे भारी ढंग से लिया और आक्रामक टिप्पणी दी। इससे एक बात तो समझ में आयी कि हिन्दी में गूढ़ विषय को हल्के ढंग से लिखने पर भी यह संतोष मन में नहीं पालना चाहिए कि बच निकले क्योंकि अभी भी कुछ लोग हिन्दी पढ़ने में महारत रखते हैं। अभी अन्ना साहब को कहीं सम्मान मिलने की बात सामने आयी। सम्मान देने वाले कौन है? तय बात है कि बाज़ार और प्रचार शिखर पुरुषों के बिना यह संभव नहीं है। इसे लेकर कुछ लोग अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रायोजित होने का प्रमाण मान रहे तो उनके समर्थकों का मानना है कि इससे- क्या फर्क पड़ता है कि उनके आंदोलन और अब सम्मान के लिये पैसा कहां से आया? मूल बात तो यह है कि हम उनके विचारों से सहमत हैं।
             हमारी बात यहीं से शुरु होती है। कार्ल मार्क्स सारे संसार को स्वर्ग बनाना चाहते थे तो गांधी जी सारे विश्व में अहिंसक मनुष्य देखना चाहते थे-यह दोनों अच्छे विचार है पर उनसे सहमत होने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि इन विचारों को वास्तविक धरातल क्रियाशील होते नहीं देखा गया। भ्रष्टाचार पर इंटरनेट पर हम जैसे लेखकों ने कड़ी हास्य कवितायें तो अन्ना हजारे के आंदोलन से पहले ही लिख ली थीं पर उनसे कोई इसलिये सहमत नहीं हो सकता था क्योंकि संगठित बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये फोकटिया लेखक और समाजसेवक के प्रयास कोई मायने नहीं रखते। उनके लिये वही लेखक और समाजसेवक विषय वस्तु बन सकता है जिसे धनोपार्जन करना आता हो। सम्म्मान के रूप में भारी धनराशि देकर कोई किसी लेखक को धनी नहीं बनाता न समाज सेवक को सक्रिय कर सकता है। वैसे भी कहा जाता है कि जिस तरह हम लोग कूड़े के डिब्बे में कूड़ा डालते हैं वैसे ही सर्वशक्तिमान भी धनियों के यहां धन बरसाता है। स्वांत सुखाय लेखकों और समाजसेवकों को यह कहावत गांठ बांधकर रखना चाहिए ताकि कभी मानसिक तनाव न हो।
           उत्तर प्रदेश में चुनाव चल रहे हैं। विज्ञापनों के बीच में प्रसारण के लिये समाचार और चर्चा प्रसारित करने के लिये बहुत सारी सामग्री है। ऐसे में प्रचार समूहों को किसी ऐसे विषय की आवश्यकता नही है जो उनको कमाई करा सके। यही कारण है कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को वैसे ही यार्ड में सफाई आदि के लिये डालकर रखा गया है कि जब प्लेटफार्म पर कोइ गाड़ी नहीं होगी तब इसे रवाना किया जायेगा। यह गाड़ी प्लेटफार्म पर आयेगी इसकी यदाकदा घोषणा होती रहती है ताकि उसमें यात्रा करने वाले यात्री आशा बांधे रहें-यदा कदा अन्ना हजारे साहब के इस अस्पताल से उस अस्पताल जाने अथवा उनकी अपने चेलों से मुलाकात प्रसारित इसी अंदाज में किये जाते हैं। ऐसा जवाब हमने अपने उस मित्र को दिया था जो अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की स्थिति का आंकलन प्रस्तुत करने को कह रहा था।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

23 अक्टूबर 2011

लीबिया के गद्दाफी के नक्शे कदम पर चले अफगानिस्तान के हामिद करजई-हिन्दी लेख )ligiya ki gaddagi ki raah chale afaganistan ke hamid karjai-hindi lekh)

          गद्दाफी की मौत ने अमेरिका के मित्र राजनयिको को हक्का बक्का कर दिया है। भले ही गद्दाफी वर्तमान समय में अमेरिका का मित्र न रहा हो पर जिस तरह अपने अभियान के माध्यम से राजशाही को समाप्त कर लीबिया के राष्ट्रपति पद पर उसका आगमन हुआ उससे यह साफ लगता है कि विश्व में अपनी लोकतंत्र प्रतिबद्धताओं को दिखाने के लिये उसे पश्चिमी राष्ट्रों ने समर्थन दिया था। ऐसा लगता है कि फ्रांस के ज्यादा वह करीब था यही कारण संक्रमणकाल के दौरान उसके फ्रांस जाने की संभावनाऐं सामने आती थी। संभवत अपनी अकड़ और अति आत्मविश्वास के चलते उसने ऐसा नहीं किया । ऐसा लगता है कि उसका बहुत सारा धन इन पश्चिमी देशों रहा होगा जो अब उनको पच गया है। विश्व की मंदी का सामना कर रहे पश्चिमी देश अब इसी तरह धन का जुगाड़ करेंगे और जिन लोगों ने अपना धन उनके यहां रखा है उनके सामने अब संशय उपस्थित हो गया होगा। प्रत्यक्ष विश्व में कोई अधिक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दे रही पर इतना तय है कि अमेरिका को लेकर उसके मित्र राजनेताओं के हृदय में अनेक संशय चल रहे होंगे। मूल में वह धन है जो उन्होंने वहां की बैंकों और पूंजीपतियों को दिया है। हम पर्दे पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक दृश्य देखते हैं पर उसके पीछे के खेल पहले तो दिखाई नहीं देते और जब उनका पता लगता है तो उनकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाता है। इन सबके बीच एक बात तय हो गयी है कि अमेरिका से वैर करने वाला कोई राजनयिक अपने देश में आराम से नहंी बैठ सकता। ऐसे में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने अमेरिका और भारत से युद्ध होने पर पाकिस्तान का साथ देने की बात कहकर गद्दाफी के मार्ग पर कदम बढ़ा दिया है। उसका यह कदम इस बात का प्रमाण है कि उसे राजनीतिक ज्ञान नहीं है। वह घबड़ाया हुआ है और ऐसा अफलातूनी बातें कह रहा है जिसके दुष्परिणाम कभी भी उसके सामने आ सकते हैं।
        यह हैरानी की बात है कि जिन देशों के सहयोग से वह इस पद पर बैठा है उन्हें ही अपने शत्रुओ में गिन रहा है। इसका कारण शायद यह है कि अमेरिकी सेना अगले एक दो साल में वहां से हटने वाली है और करजई का वहां कोई जनाधार नहीं है। जब तक अमेरिकी सेना वहां है तब तक ही उसका राष्ट्रपति पद बरकरार है, उसके बाद वह भी नजीबुल्लाह की तरह फांसी  पर लटकाया जा सकता है। उसने किस सनक में आकर पाकिस्तान को मित्र बना लिया है यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि वहां  की खुफिया संस्था आईएसआई अपने पुराने बदले निकाले बिना उसे छोड़ेगी नहीं। अगर वह इस तरह का बयान नहीं देता तो यकीनन अमेरिका नहीं तो कम से कम भारत उसकी चिंता अवश्य करता। भारत के रणनीतिकार पश्चिमी राष्ट्रों से अपने संपर्क के सहारे उसे राष्ट्रपति पद से हटने के बाद किसी दूसरे देश में पहुंचवा सकते थे पर लगता है कि पद के मोह ने उसे अंधा कर दिया है। अंततः यह उसके लिये घातक होना है।
         अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटेगी पर वैकल्पिक व्यवस्था किये बिना उसकी वापसी होगी ऐसी संभावना नहीं है। इस समय अमेरिका तालिबानियों से बात कर रहा है। इस बातचीत से तालिबानी क्या पायेंगे यह पता नहीं पर अमेरिका धीरे धीरे उसमें से लोग तोड़कर नये तालिबानी बनाकर अपनी चरण पादुकाओं के रूप में अपने लोग स्थापित करने करने के साथ ही किसी न किसी रूप में सैन्य उपस्थिति बनाये रखेगा। अमेरिका दुश्मनों को छोड़ता नहीं है और जब तक स्वार्थ हैं मित्रों को भी नहीं तोड़ता। लगता है कि अमेरिका हामिद करजई का खेल समझ चुका है और उसके दोगलेपन से नाराज हो गया है। जिस पाकिस्तान से वह जुड़ रहा है उसका अपने ही तीन प्रदेशों में शासन नाम मात्र का है और वहां के बाशिंदे अपने ही देश से नफरत करते हैं। फिर जो क्षेत्र अफगानिस्तान से लगे हैं वहां के नागरिक तो अपने को राजनीतिक रूप से पंजाब का गुलाम समझते हैं। अगर पाकिस्तान को निपटाना अमेरिका के हित में रहा और उसने हमला किया तो वहीं के बाशिंदे अमेरिका के साथ हो लेंगे भले ही उनका जातीय समीकरण हामिद करजई से जमता हो। अमेरिका उसकी गीदड़ भभकी से डरेगा यह तो नहीं लगता पर भारत की खामोशी भी उसके लिये खतरनाक है। भारत ने संक्रमण काल में उसकी सहायता की थी। इस धमकी के बाद भारतीय जनमानस की नाखुशी को देखते हुए यहां के रणनीतिकारों के लिये उसे जारी रखना कठिन होगा। ऐसे में अफगानिस्तान में आर्थिक रूप से पैदा होने वाला संकट तथा उसके बाद वहां पैदा होने वाला विद्रोह करजाई को ले डूबेगा। वैसे यह भी लगता है कि पहले ही भारत समर्थक पूर्व राष्ट्राध्यक्षों की जिस तरह अफगानिस्तान में हत्या हुई है उसके चलते भी करजई ने यह बयान दिया हो। खासतौर से नजीबुल्लाह को फांसी देने के बाद भारत की रणनीतिक क्षमताओं पर अफगानिस्तान में संदेह पैदा हुआ है। इसका कारण शायद यह भी है कि भारत को वहां के राजनीतिक शिखर पुरुष केवल आर्थिक दान दाता के रूप में एक सीमित सहयोग देने वाला देश मानते हैं। सामरिक महत्व से भारत उनके लिये महत्वहीन है। इसके लिये यह जरूरी है कि एक बार भारतीय सेना वहां जाये। भारत को अगर सामरिक रूप से शक्तिशाली होना है तो उसे अपने सैन्य अड्डे अमेरिका की तरह दूसरे देशों में स्थापित करना चाहिए। खासतौर से मित्र पड़ौसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को सामरिक उपस्थिति के रूप में विश्वास दिलाना चाहिए कि उनकी रक्षा के लिये हम तत्पर हैं। यह मान लेना कि सेना की उपस्थिति रहना सम्राज्यवाद का विस्तार है गलत होगा। हमारे यहां कुछ विद्वान लोग इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सुना को उपनिवेशवाद मानते हैं पर वह यह नहीं जानते कि अनेक छोटे राष्ट्र अर्थाभाव और कुप्रबंधन के कारण बाहर के ही नहीं वरन् आंतरिक खतरों से भी निपटने का सामर्थ्य नहीं रखते। वहां के राष्ट्राध्यक्षों को विदेशों पर निर्भर होना पड़ता है। ऐसे में वह विदेशी सहायक के मित्र बन जाते हैं। भारत का विश्व में कहीं कोई निकटस्थ मित्र केवल इसलिये नहीं है क्योंकि यहां की नीति ऐसी है जिसमें सैन्य उपस्थिति सम्राज्य का विस्तार माना जाता है। सच बात तो यह है आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने का कोई मतलब नहीं है बल्कि सामरिक रूप से भी यह दिखाना आवश्यक है कि हम दूसरे की मदद कर सकते हैं तभी शायद हमारे लिये खतरे कम होंगे वरना तो हामिद करजई जैसे लोग चाहे जब साथ छोड़कर नंगे भूखे पाकिस्तानी शासकों के कदमों में जाकर बैठेंगे। यह बात अलग बात है कि ऐसे लोग अपना बुरा हश्र स्वयं तय करते हैं।
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लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

15 अक्टूबर 2011

भ्रष्टाचार जैसे जीवंत मुद्दे की आड़ में जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह कराने वाले मुर्दा प्रस्ताव उठाने का मतलब-हिन्दी लेख (issu of bhrashtachar or corrupition and janmat sangrah in jammu kashmir-hindi lekh)

           भारत में महात्मा गांधी के चरणचिन्ह पर चल रहे लोगों को यह गलतफहमी कतई नहीं रखना चाहिए कि अहिंसा के हथियार का उपयोग देशी लोगों को तोड़ने के लिये किया जाये। उनको एक बात याद रखना चाहिए कि गांधी जी ने अंिहंसा का प्रयोग देश के लोगों को एकजुट करने के साथ ही विदेशों में भी अपने विषय को चर्चा योग्य बनाने के लिये किया था। उन्होंने अपनी अहिंसा से देश को जोड़ा न कि अलग होने के लिये उकसाया। जम्मू कश्मीर के मसले पर जनमत संग्रह की मांग का समर्थन कर अन्ना हजारे के सहयोगी ने ऐसा ही काम किया है जैसे कि अपनों का जूता देश अपनों की ही सिर। उनके बयान के कारण उनसे मारपीट हुई जिसकी निंदा पूरे देश में कुछ ही घंटे टीवी चैनलों पर चली जबकि उनके बयान के विरोध की बातें करते हुए दो दिन होने जा रहे हैं। अहिंसा की बात निहत्थे लोगों के लिये ठीक है पर जो हथियार लेकर हमला कर रहे उन उग्रवादियों से यह आशा करना बेकार है कि वह गांधीवाद को समझेंगे। फिर जम्मू कश्मीर का मसला अत्यंत संवेदनशील है ऐसे में अन्ना के सहयोगी का बयान अपने प्रायोजकों में अपनी छवि बनाये रखने के लिये जारी किया गया लगता है। अन्ना हजारे को भारत का दूसरा गांधी कहा जाता है पर वह गांधी नहंी है। इसलिये तय बात है कि अन्ना हजारे के किसी सहयोगी को भी अभी गांधीवाद की समझ नहंी है। महात्मा गांधी देश का विभाजन नहीं चाहते यह सर्वज्ञात है। ऐसे में गांधीवादी अन्ना हजारे के किसी सहयोगी का जम्मू कश्मीर के जनमत संग्रह कराने तथा वहां से सेना हटाने का बयान संदेह पैदा करता है। क्या गांधीजी ने कहा था कि अपने देश में कहीं किसी प्रदेश में सेना न रखो।
        बहरहाल कुछ लोगों को अन्ना के सहयोगी का बयान के साथ ही उसका विरोध भी प्रायोजित लग सकता है। अन्ना के सहयोगी के साथ मारपीट हुई यह दुःख का विषय है। प्रचार माध्यमों से पता चला कि आरोपियों की तो जमानत भी हो चुकी है। इसका सीधा मतलब है कि बयान के विरोधियों ने अन्ना के सहयोगी को उनके इसी बयान की वजह से खलनायक बनाने के लिये इस तरह का तरीका अपनाया जिससे उनके शरीर को अधिक क्षति भी न पहुंचे और उनकी छवि भी खराब हो। यह मारपीट भले ही अब हल्का विषय लगता हो पर यकीनन यह अंततः अन्ना के उस सहयोगी के लिये संकट का विषय बनने वाला है।
       भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के वजह से अन्ना हजारे की राष्ट्रीय छवि बनी तो तय था कि उसका लाभ उनके निकटस्थ लोगों को होना ही था। अन्ना के जिस सहयोगी के साथ मारपीट हुई वह उनके साथ उस पांच सदस्यीय दल का सदस्य था जो सरकारी प्रतिनिधियों के साथ जनलोकपाल विधेयक बनाने पर चर्चा करती रहीं। एक तरह से उसकी भी राष्ट्रीय छवि बनती जा रही थी जिससे अपने अन्य प्रतिबद्ध एजेंडों को छिपाने में सफल हो रहे थे। अब वह सामने आ गया है। इंटरनेट के एक दो हिन्दी ब्लॉग लेखकों ने जम्मू कश्मीर के मसले पर प्रथकतावादियों के साथ आयोजित एक कार्यक्रम में उनकी सहभागिता का जिक्र किया था तब हैरानी भी हुई थी। ऐसे में हमें संदेह भी हो रहा था कि अन्ना हजारे साहब की आड़ के कुछ ऐसे तत्व तो नहीं आगे बढ़ रहे जो राष्ट्रीय छवि के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय छवि तो नहीं बनाने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में अन्ना जी के सहयोगी ने ऐसा बयान इस तरह दे दिया कि जैसे वह आम बयान हो पर उनके विरोधियों के लिये इतना ही काफी था।
        एक बात निश्चित है कि कुछ अदृश्य शक्तियां अन्ना साहब के आंदोलन को बाधित करना चाहती होंगी पर जिस तरह अन्ना के सहयोगी अपने मूल उद्देश्य से अलग हटकर बयान दे रहे हैं उसे देखकर नहीं लगता कि उन्हें  प्रयास करने होंगे क्योंकि यह काम अन्ना के सहयोगी ही कर देंगे। अब एक सवाल हमारे मन में आता है कि अन्ना के सहयोगी ने यह बयान कहीं जानबूझकर तो नहीं दिया कि अन्ना जी का आंदोलन बदनाम हो। वह पेशेवर समाज सेवक हैं ऐसी बातें प्रचार माध्यम ही कहते हैं। अन्नाजी के अनेक सहयोगियों को विदेशों से भी अनुदान मिलता है ऐसा सुनने को मिलता रहता है। तब लगता है कि अन्ना के सहयोगी कहीं अपने प्रायोजकों के ऐजेंडे को बढ़ाने का प्रयास न करें। दूसरी यह भी बात है कि अन्ना साहेब का आंदोलन अभी लंबा चलना है। ऐसे में उनके निकटस्थ सहयोगियों के चेहरे भी बदलते नजर आयेंगे। यह देखकर स्वयं की पदच्युत होने की संभावनाओं के चलते कोई सहयोगी अफलातूनी बयान भी दे सकता है। कहा भी जाता है कि बिल्ली दूध पीयेगी भी तो फैला जरूर देगी।
        बहरहाल अगर अन्ना के सहयोगी का जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का बयान प्रायोजित है तो फिर यह मारपीट भी कम प्रायोजित नहीं लगती। प्रचार माध्यमों के अनुसार 24 या 25 सितम्बर को यह बयान दिया गया जबकि उनके साथ मारपीट 13 अक्टोबर को हुई। अक्सर देखा गया है कि संवेदनशील बयानों पर प्रतिक्रिया एक दो दिन मेें ही होती है पर यहां 18 दिन का अंतर देखा गया। संभव है आरोपियों ने यह घटना भावावेश में आकर की हो पर उनके प्रेरकों ने कहीं न कहीं यह हमला फिक्स किया होगा। उनके पीछे कौनसा समूह है यह कहना कठिन है। पहली बात तो यह अगर यह मारपीट नहीं होती तो बयान को 18 दिन बाद कोई पूछता भी नहीं। अब यह संभव है कि जम्मू कश्मीर के मसले पर भारत में प्रचार बनाये रखने वाले समूह का भी यह काम हो सकता हैं। दूसरा अन्ना के सहयोगी के ऐसे विरोधियों का भी यह काम हो सकता जो उनकी छवि बिगाड़ना चाहते रहे होंगे-यह अलग बात है कि उन्होंने स्वयं ही यह बयान देकर यह अवसर दिया।
आगे क्या होगा कहना कठिन है? इतना तय है कि अन्ना के यह सहयोगी अब जम्मू कश्मीर के मसले पर समर्थन कर भले ही अपने प्रायोजकों को प्रसन्न कर चुके हों पर भारतीय जनमानस उनके प्रति अब वैसे सद्भावना नहीं दिखायेगा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलनरत श्री अन्ना हजारे की टीम में फिलहाल उनकी जगह बनी हुई है पर विशुद्ध रूप से जनमानस के हार्दिक समर्थन से चल रहे अभियान को आगे चलाते समय उनके रणनीतिकारों के पास अपने विवादास्पद सहयोगी से पीछा छुड़ाने के अलावा कोई चारा नहीं रहने वाला। उनके साथ मारपीट करने वालों का उद्देश्य की उनका खून बहाना नहीं बल्कि छवि खराब करना अधिक लगता है। यह मारपीट अनुचित थी पर जिस लक्ष्य को रखकर की गयी वह भी अन्ना टीम के विरोधियों के हाथ लग सकता है। जनमानस की अनदेखी करना कठिन है। यह सही है कि महंगाई और भ्रष्टाचार देश में भयंकर रूप ले चुके हैं और जनमानस से विवादास्पद बयान भूल जाने की अपेक्षा की जा सकती थी पर यह काम तो अन्ना के वह कथित सहयोगी भी कर सकते थे। वरना संयुक्त राष्ट्रसंघ में धूल खा रहे प्रस्ताव की बात अब करने क्या औचित्य था? भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दे में ऐसे मुर्दा सुझाव का कोई मतलब नहीं था।
इस विषय पर कल दूसरे ब्लाग पर लिखा गया यह लेख भी अवश्य पढें।

             अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के लक्ष्यों को लेकर तो उनके विरोधी भी गलत नहीं मानते। इस देश में शायद ही कोई आदमी हो यह नहीं चाहता हो कि देश में भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो। अन्ना हजारे ने जब पहली बार अनशन प्रारंभ किया तो उनको व्यापक समर्थन मिला। किसी आंदोलन या अभियान के लिये किसी संगठन का होना अनिवार्य है मगर अन्ना दिल्ली अकेले ही मैदान में उतर आये तो उनके साथ कुछ स्वयंसेवी संगठन साथ हो गये जिसमें सिविल सोसायटी प्रमुख रूप से थी। इस संगठन के सदस्य केवल समाज सेवा करते हैं ऐसा ही उनका दावा है। इसलिये कथित रूप से जहां समाज सुधार की जरूरत है वहां उनका दखल रहता है। समाज सुधार एक ऐसा विषय हैं जिसमें अनेक उपविषय स्वतः शामिल हो जाते हैं। इसलिये सिविल सोसायटी के सदस्य एक तरह से आलराउंडर बन गये हैं-ऐसा लगता है। यह अलग बात है कि अन्ना के आंदोलन से पहले उनकी कोई राष्ट्रीय छवि नहंी थी। अब अन्ना की छत्रछाया में उनको वह सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसकी कल्पना अनेक आम लोग करते हैं। इसलिये इसके सदस्य अब उस विषय पर बोलने लगे हैं जिससे वह जुड़े हैं। यह अलग बात है कि उनका चिंत्तन छोटे पर्दे पर चमकने तथा समाचार पत्रों में छपने वाले पेशेवर विद्वानों से अलग नहीं है जो हम सुनते हैं।

           बहरहाल बात शुरु करें अन्ना हजारे से जुड़ी सिविल सोसायटी के सदस्य पर हमले से जो कि वास्तव में एक निंदनीय घटना है। कहा जा रहा है कि यह हमला अन्ना के सहयोगी के जम्मू कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने पर दिया गया था जो कि विशुद्ध रूप से पाकिस्तान का ऐजंेडा है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र में पारित उस प्रस्ताव का हिस्सा भी है जो अब धूल खा रहा है और भारत की सामरिक और आर्थिक शक्ति के चलते यह संभव नहीं है कि विश्व का कोई दूसरा देश इस पर अमल की बात करे। ऐसे में कुछ विदेशी प्रयास इस तरह के होना स्वाभाविक है कि भारतीय रणनीतिकारों को यह विषय गाहे बगाहे उठाकर परेशान किया जाये। अन्ना के जिस सहयोगी पर हमला किया गया उन्हें विदेशों से अनुदान मिलता है यह बात प्रचार माध्यमों से पता चलती रहती है। हम यह भी जानते हैं कि विदेशों से अनुदान लेने वाले स्वैच्छिक संगठन कहीं न कहीं अपने दानदाताओं का ऐजेंडा आगे बढ़ाते हैं।
           हमारे देश में लोकतंत्र है और हम इसका प्रतिकार हिंसा की बजाय तर्क से देने का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों को यह लगता है कि मारपीट कर प्रतिकार करें तो वह कानून को चुनौती देते हैं। इस प्रसंग में कानून अपना काम करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है।
           इधर अन्ना के सहयोगी पर हमले की निंदा का क्रम कुछ देर चला पर अब बात उनके बयान की हो रही है कि उसमें भी बहुत सारे दोष हैं। कहीं न कहीं हमला होने की बात पीछे छूटती जा रही है। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में हम अपनी बात कहें तो शायद कुछ लोगों को अजीब लगे। हमने अन्ना के सहयोगी के इस बयान को उन पर हमले के बाद ही सुना। इसका मतलब यह कि यह बयान आने के 15 दिन बाद ही घूल में पड़ा था। कुछ उत्तेजित युवकों ने मारपीट कर उस बयान को पुनः लोकप्रियता दिला दी। इतनी कि अब सारे टीवी चैनल उसे दिखाकर अपना विज्ञापनों का समय पास कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि कहीं यह उत्तेजित युवक यह बयान टीवी चैनलों पर दिखाने की कोई ऐसी योजना का अनजाने में हिस्सा तो नहीं बन गये। संभव है उस समय टीवी चैनल किसी अन्य समाचार में इतना व्यस्त हों जिससे यह बयान उनकी नजर से चूक गया हो। यह भी संभव है कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई बैंगलौर या अहमदाबाद जैसे महानगरों पर ही भारतीय प्रचार माध्यम ध्यान देते हैं इसलिये अन्य छोटे शहरों में दिये गये बयान उनकी नजर से चूक जाते हैं। इस बयान का बाद में जब उनका महत्व पता चलता है तो कोई विवाद खड़ा कर उसे सामने लाने की कोई योजना बनती हो। हमारे देश में अनेक युवक ऐसे हैं जो अनजाने में जोश के कारण उनकी योजना का हिस्सा बन जाते हैं। यह शायद इसी तरह का प्रकरण हो। हमला करने वाले युवकों ने हथियार के रूप में हाथों का ही उपयोग किया इसलिये लगता है कि उनका उद्देश्य अन्ना के सहयोगी को डराना ही रहा होगा। ऐसे में मारपीट कर उन्होंनें जो किया उसके लिये उनको अब अदालतों का सामना तो उनको करना ही होगा। हैरानी की बात यह है कि हमला करने वाले तीन आरोपियों में से दो मौके से फरार हो गये पर एक पकड़ा गया। जो पकड़ा गया वह अपने कृत्य पर शार्मिंदा नहीं था और जो फरार हो गये वह टीवी चैनलों पर अपने कृत्य का समर्थन कर रहे थे। हैरानी की बात यह कि उन्होंने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति समर्थन देकर अपनी छवि बनाने का प्रयास किया। इसका सीधा मतलब यह था कि वह अन्ना की आड़ में उनके सहयोगी के अन्य ऐजेंडों से प्रतिबद्धता को उजागर करना चाहते थे। वह इसमें सफल रहे या नहीं यह कहना कठिन है पर एक बात तय है कि उन्होंने अन्ना के सहयोगी को ऐसे संकट में डाल दिया है जहां उनके अपने अन्य सहयोगियों के सामने अपनी छवि बचाने का बहुत प्रयास करना होगा। संभव है कि धीरे धीरे उनको आंदोलन की रणनीतिक भूमिका से प्रथक किया जाये। कोई खूनखराबा नहीं  हुआ यह बात अच्छी है पर अन्ना के सभी सहयोगियों के सामने अब यह समस्या आने वाली है कि उनकी आलराउंडर छवि उनके लिये संकट का विषय बन सकती है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन निर्विवाद है पर जम्मू कश्मीर, देश की शिक्षा नीति, हिन्दुत्ववाद, धर्मनिरपेक्षता तथा आतंकवाद जैसे संवेदनशील विषयों पर अपनी बात सोच समझकर रखना चाहिए। यह अलग बात है कि लोग चिंत्तन करने की बजाय तात्कालिक लोकप्रियता के लिये बयान देते हैं। यही अन्ना के सहयोगी ने किया। स्थिति यह है कि जिन संगठनों ने उन पर एक दिन पहले उन पर हमले की निंदा की दूसरे दिन अन्ना के सहयोगी के बयान से भी प्रथक होने की बात कह रहे हैं। अन्ना ने कुशल राजनीतिक होने का प्रमाण हमले की निंदा करने के साथ ही यह कहकर भी दिया कि मैं हमले की असली वजह के लिये अपने एक अन्य सहयेागी से पता कर ही आगे कुछ कहूंगा।

            आखिरी बात जम्मू कश्मीर के बारे में की जाये। भारत में रहकर पाकिस्तान के ऐजेंडे का समर्थन करने से संभव है विदेशों में लोकप्रिय मिल जाये। कुछ लोग गला फाड़कर चिल्लाते हुए रहें तो उसकी परवाह कौन करता है? मगर यह नाजुक विषय है। भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान बना है। इधर पेशेवर बुद्धिजीवी विदेशी प्रायोजन के चलते मानवाधिकारों की आड़ में गाहे बगाहे जनमत संग्रह की बात करते हैं। कुछ ज्ञानी बुद्धिजीवी इस बात को जानते हैं कि यह सब केवल पैसे का खेल है इसलिये बोलते नहीं है। फिर बयान के बाद मामला दब जाता है। इसलिये क्या विवाद करना? अलबत्ता इन बुद्धिजीवियों को कथित स्वैच्छिक समाज सेवकों को यह बता दें कि विभाजन के समय सिंध और पंजाब से आये लोग हिन्दी नहीं जानते थे इसलिये अपनी बात न कह पाये न लिख पाये। उन्होंने अपनी पीड़ा अपनी पीढ़ी को सुनाई जो अब हिन्दी लिखती भी है और पढ़ती भी है। यह पेशेवर बुद्धिजीवी अपने उन बुजुर्गों की बतायी राह पर चल रहे हैं जिसका सामना बंटवारा झेलने वाली पीढ़ी से नहीं हुआ मगर इनका होगा। बंटवारे का सच क्या था? वहां रहते हुए और फिर यहां आकर शरणार्थी के रूप में कैसी पीढ़ा झेली इस सच का बयान अभी तक हुआ नहीं है। विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में सिंध, बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों में क्या जनमत कराया गया था? पाकिस्तान जम्मू कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करता और जनमत संग्रह की मांग करने वाले खुले रूप से उससे हमदर्दी रखते हैं। ऐसे में जनमत संग्रह कराने का मतलब पूरा कश्मीर पाकिस्तान को देना ही है। कुछ राष्ट्रवादियों का यह प्रश्न इन कथित मानवाधिकारियों के सामने संकट खड़ा कर सकता है कि ‘सिंध किसके बाप का था जो पाकिस्तान को दे दिया या किसके बाप का है जो कहता है कि वह पाकिस्तान का हिस्सा है’। जम्मू कश्मीर को अपने साथ मिलाने का सपना पूरा तो तब हो जब वह पहले बलूचिस्तान, सीमा प्रांत और सिंध को आजाद करे जहां की आग उसे जलाये दे रही है। यह तीनों प्रांत केवल पंजाब की गुलामी झेल रहे हैं। इन संकीर्ण बुद्धिजीवियों की नज़र केवल उस नक्शे तक जाती है जो अंग्रेज थमा गये जबकि राष्ट्रवादी इस बात को नहीं भूलते कि यह धोखा था। संभव है कि यह सब पैसे से प्रायोजित होने की वजह से हो रहा हो। इसी कारण इतिहास, भूगोल तथा अपने पारंपरिक समाज से अनभिज्ञ होकर केवल विदेशियों से पैसा देकर कोई भी कैसा भी बयान दे सकता है। यह लोग जम्मू कश्मीर पर बोलते हैं पर उस सिंध पर कुछ नहीं बोलते जो हमारे राष्ट्रगीत में तो है पर नक्शे में नहीं है।

लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

11 सितंबर 2011

हिन्दी भाषा का महत्व उसके अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण होने के कारण-हिन्दी दिवस पर लेख (hindi ka mahatva or importance and sanskrit-special article on hindi diwas or divas on 14 septembdar)

     संस्कृत देवभाषा कही गयी है जिसमें हमारे अध्यात्म दर्शन का बड़ा भारी खजाना जमा है। यह पता नहीं कि संस्कृत एक कठिन भाषा है इसलिये भारत में इसका विस्तार नहीं हुआ या अपने समय में इसे कुछ खास लोग ही लिखना पढ़ना जानते थे जो बिना इस परवाह किये अपने रचनाकर्म के आगे बढ़ते रहे कि आखिर उनकी बात समाज के पास पहुंच रही है इसलिये उन्होंने अपनी भाषा को आमजन का हिस्सा बनाने का प्रयास नहीं किया। संस्कृत के बारे में इतिहासकार क्या सोचते हैं यह एक अलग बात है पर हमारा मानना है कि किसी समय यह भाषा केवल रचनाकारों के लिये उपयुक्त मानी जाती रही होगी। आमजन की भाषा यह शायद ही कभी रही होगी। जब हम किसी समय के इतिहास को पढ़ते हैं तो उसमें वर्णित पात्रों के इर्दगिर्द ही हमारा ध्यान जाता है। उनसे जुड़े समाज या आमजन की वास्तविक स्थिति का आभास नहीं हो पाता। जब समाज या आमजन की एतिहासिक स्थिति जानना हो तो अपने वर्तमान को देखकर ही अनुमान किया जा सकता है। संस्कृत किस तरह इस देश में अपना स्थान बनाये रख सकी होगी इसका आज की हिन्दी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की स्थिति को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है।
     हिन्दी के बारे में कहा जाता है कि इसकी बोली हर पांच कोस पर बदल जाती है। अनेक भाषायें ऐसी हैं जिनको हिन्दी माना जाता है पर उनका आधार क्षेत्र विशेष है। अगर हम भक्ति काल का हिन्दी साहित्य देखें तो उसमे कहीं भी आधुनिक हिन्दी का बोध नहीं होता पर उनको हिस्सा तो हिन्दी साहित्य का ही माना गया। कहा जाता है कि देश की अनेक भाषायें संस्कृत से निकली हैं। हम हिन्दी को देखकर इसे नहीं मान सकते। उस समय भी संस्कृत ऐसे ही रही होगी जैसी आज हिन्दी! हर पांच कोस पर उसका रूप बदलता होगा। अगर हम आधुनिक हिन्दी की बात करें तो हमारा ग्रामीण समाज वैसी शुद्ध हिन्दी नहीं    बोलता। उसकी बोली में स्थानीय पुट रहता है।
     हमने शैक्षणिक काल के दौरान जिस हिन्दी का अध्ययन किया वैसी समाज में कम भी बोलती दिखी। जब लिखना शुरु किया तो प्रयास यह किया कि बोलचाल से प्रथक रचनाओं में कुछ साहित्यक पुट भाषा में दिखे। सच तो यह है कि जैसी हिन्दी प्रतिदिन बोलते हैं वैसी लिखते नहीं है। लेखक दिखने के लिये कुछ औपचारिकता आ ही जाती है और भाषा में कहीं न साहित्यक पुट स्वतः उत्पन्न होता है। जिन्होंने संस्कृत में रचनाऐं कीं उन्होंने अपने रचनाकर्म में  भाषा की मर्यादा रखी पर यह आवश्यक नहीं है कि वह बोलते भी वैसा ही हों जैसा लिखते थे। शायद इसी कारण ही संस्कृत को देव भाषा कहा गया। संस्कृत से देशी भाषायें निकली हैं यह कहना गलत लगता है पर उस समय यह देश के आमजन की भाषाओं की प्रतिनिधि भाषा रही होगी जैसी आज हिन्दी है। जब वाराणसी में संस्कृत लिखी जाती होगी तो वहां आमजन इसको बोलता होगा यह जरूरी नहीं है। उसी काल में तमिलनाडु या अन्य दक्षिण भारत में भी संस्कृत के वैसे ही विद्वान होंगे पर वहां कभी भाषा ऐसी रही होगी जिसमें स्थानीय भाषा के शब्द भी रहे होंगे। चूंकि पूर्व काल में संस्कृत भाषा को संस्थागत रूप से आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं हुआ इसलिये यह आमजन में प्रचलित नहीं हुई। हिन्दी के विकास में संस्थागत प्रयासों ने बहुत कम किया है इसलिये शुद्ध हिन्दी का स्वरूप सभी जगह एक जैसा दिखाई देता है।
       समय के अनुसार भाषाओं के रूप बदले होंगे तो उनमें अन्य भाषाओं के शब्द भी शामिल होकर उसकी शोभा बढ़ाते होंगे। एक बात तय है कि संस्कृत एक समय इस देश की अकेली भाषा नहीं  रही होगी अलबत्ता नेतृत्व उसका रहा होगा। देश की भौगोलिक, सामाजिक, भाषाई, सांस्कृतिक तथा एतिहासिक विविधता को देखते हुए यह बात साफ लगती है कि यहां कोई एक भाषा अस्तित्व बनाये नहीं रख सकती है।
       इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे देश का सांस्कृतिक आधार आज भी संस्कृत की रचनायें हैं। हिन्दी उसकी जगह ले सकती थी पर ऐसा नहीं हो सका। इसका कारण न केवल राजनीतिक और सामाजिक है बल्कि हिन्दी भाषी कर्णधारों का कमजोर रचनाकर्म भी है। भक्ति काल की रचनाओं के बाद ऐसी रचनायें नहीं आयी जो समाज को रास्ता दिखाती। हिन्दी रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की दिशा बदलना चाहते रहे पर वह पाठक या आमजन का नया लक्ष्य नहीं तय कर पाये। समाज को पश्चिम जैसा आधुनिक दिखने का संदेश देते रचनाकर्मी यह नहीं बता सके कि उससे क्या होना था? मुख्य बात यह कि आधुनिक हिन्दी रचनाकर्मी एक बात भूल गये कि भारतीय जनमानस अंततः अध्यात्म की तरफ जाता है। यह उसके खून में है। सबसे बड़ी बात यह कि हिन्दी में बड़ी बड़ी बातें लिखी जाती हैं। अनेक लोग तो तात्कालिक घटनाओं की विवेचना कर स्वनाम धन्य हो जाते हैं तो अनेक समाज की पीड़ा को बाहर लाकर उसके इलाज में लाचारी दिखाते हैं।
         वह स्वयं मुखर होते दिखना चाहते हैं पर भारतीय जानमानस बिना अध्यात्मिक तत्व के प्रभावित नहीं होता।
        ऐसा लगता है कि संस्कृत किसी समय में अध्यात्म की भाषा रही होगी। हिन्दी में महाकवि तुलसी को सबसे ऊंचा स्थान रामकथा के कारण ही मिला जिसे हम आज अपनी अध्यात्मिक धरोहर मानते हैं। इससे यह तो तय हो गया है कि संस्कृत की उतराधिकारिणी हिन्दी ही है। ऐसे में सभी हिन्दी लेखकों से यह अपेक्षा करना ठीक नहीं है कि सभी अध्यात्मिक ज्ञानी हो जायें पर भारतीय जनमानस को बदलना भी संभव नहीं है। संस्कृत से अनुवाद होकर ही भारतीय अध्यात्मिक रचनाऐं आम जनमानस का हिस्सा बनी। इस संबंध में गोरखपुर प्रेस की चर्चा करना आवश्यक है जिन्होंने अकेले ही संस्कृत की विरासत को हिन्दी में स्थापित कर दिया। इससे हिन्दी अध्यात्मिक भाषा ही बन गयी। सांसरिक या कल्पित विषय जनमानस को आज भी अधिक नहीं सुहाते। यही कारण है कि आजकल व्यवसायिक हिन्दी संस्थान, फिल्म और टीवी वाले हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द शामिल कर उसे वैश्विक भाषा बनाने में जुटे हैं ताकि वह अपने व्यवसाय के लिये नये आधार बना सकें। इस तरह व्यवसायिक हिन्दी बन रही है। दरअसल जिनको हिन्दी से पैसा कमाना है वह सोचते हैं कि कुछ अंग्रेजी के शब्द शामिल कर आज की युवापीढ़ी को अपना प्रयोक्ता बनाये। वह दावा करते हैं कि इससे हिन्दी का विकास होगा। यह सरासर बेकार बात है।
      हम दोष उनको भी नहीं देते। सभी लोग अध्यात्मिक विषय नहीं बेच सकते। इसलिये वह भाषा को आकर्षक बनाये रखने के लिये ऐसे प्रयास करेंगे। कभी अंग्रेजी तो कभी उर्दू के शब्द शामिल कर उसे चमकायेंगे।
      इसके विपरीत अनेक अध्यात्मिक संस्थान अपनी पत्रिकायें निकाल रहे हैं। वह शुद्ध हिन्दी का उपयेाग कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि उनको पाठकों में ग्राहक नहीं बल्कि भक्त ढूंढने होते हैं। ऐसे अध्यात्मिक संस्थान सफल भी हैं जो हिन्दी में पत्रिकायें निकाल रहे हैं। उनको भाषा में तोड़फोड़ करने की आवश्यकता इसलिये भी नही है क्योंकि उनका आधार अध्यात्मिक है जो यहां के जनमानस की मनोरंजन से पहले की पसंद है। शायद ही किसी ने इस बात को रेखांकित किया हो कि जितने बड़े पैमाने पर इन अध्यात्मिक संस्थानों की पत्रिकायें बिक रही हैं उसका मुकाबला शायद ही कोई व्यवसायिक पत्रिका कर पाये। इसलिये जब यह व्यवसायिक पत्रिकायें भाषा की तोड़फोड़ कर रही है तो चिंता नहीं रह जाती क्योंकि अंततः हिन्दी अध्यात्म की भाषा है और अध्यात्मिक संस्थान उसको बचा रहे हैं।
       मूल बात जो हम कह रहे है कि हिन्दी से दूर जाने का आशय होगा अपने आपसे दूर जाना। अंग्रेजी कभी इस देश में मुख्य स्थान नहीं बना पायेगी। फिर अब हमारे देश की स्थिति आज भी दिख रही है उसमें आज भी हमारा आधार ग्रामीण और श्रमशील समाज है। वह अंग्रेजी से दूर है। जिन लोगों को विदेश जाकर नौकरी करनी हो या देश में बड़ा चाटुकार बनना हो उसके लिये अंग्रेजी ठीक है पर जिसे आम जीवन गुजारना है उसकी भाषा हिन्दी वह भी शुद्ध होना जरूर है। अंग्रेजी भाषा जहां बहिर्मुखी और आक्रामक बनाती है वहीं हिन्दी अंतर्मुखी और सहज जीवन जीने में सहायक होती है। अंतर्मुखी और सहज भाव ही मनुष्य की अध्यात्मिक प्रवृत्तियों को बचाये रखने में सहायक होती हैं। जब हम हिन्दी भाषा के अध्यात्मिक होने की बात कह रहे हैं तो हमारा आशय उस भाषा से है जिसमें भले ही क्षेत्रीय भाषाओं को पुट तो हो पर अंग्रेजी और उर्दू के प्रचलित शब्द उसमें कतई शामिल न हों। इन दोनों भाषाओं का मूल भाव हिन्दी जैसा नहीं है यह बात याद रखने लायक हैं।
        संस्कृत को अनेक विद्वान बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर चूंकि उसका समग्र साहित्य हिन्दी में आ गया है इसलिये उसे भी वैसा ही सम्मान मिल रहा है। हिन्दी का महत्व अगर बखान करना हो तो केवल एक ही पंक्ति ही पर्याप्त है कि यह भारत की ही नहीं विश्व की अध्यात्मिक भाषा है। अगर अध्यात्मिक ज्ञान का सुख हृदय में प्राप्त करना है तो सिवाय हिन्दी भाषा के मस्तिष्क में धारण किये बिना वह संभव नहीं है।
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior

writer aur editor-Deepak 'Bharatdeep' Gwalior

17 फ़रवरी 2011

सवालकर्ताओं का स्तर भी चर्चा का विषय बनता है-हिन्दी लेख

एक प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री ने टीवी चैनल के संपादकों के साथ बातचीत करते हुए जो कहा उस पर तमाम तरह की टिप्पणियां और विचार देखने को मिले। उनके उत्तरों की विवेचना करने वाले अनेक बुद्धिमान अपने अपने हिसाब से टिप्पणियां दे रहे हैं पर हम उनसे किये गये सवालों पर दृष्टिपात करना चाहेंगे।
श्री वेद प्रकाश वैदिक ने प्रधानमंत्री से किये गये सवालों पर सवाल उठाये हैं जो दिलचस्प हैं। उन्होंने सबसे पहला सवाल यह किया कि क्या सवाल करने के लिये भ्रष्टाचार का मुद्दा ही था? नेपाल, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर इन संपादकों पत्रकारों के दिमाग में कोई विचार नहीं क्यों नहीं आया जबकि उनसे जुड़े मुद्दे भी अहम थे। यह सही है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा इस देश के आमजन में चर्चित है पर पत्रकार या संपादक आम आदमी से कुछ ऊंचे स्तर के बौद्धिक स्तर के माने जाते हैं। अगर वह केवल इसीलिये इस मुद्दे पर अटके रहे क्योंकि दर्शक इसी में ही भटक रहे हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है पर उनको यह पता नहीं हेाना चाहिए कि उनके समाचार चैनलों के दर्शक तो आम आदमी के रूप में हम जैसे निठल्ले ही हैं जो समाचार देखने में रुचि रखने के साथ ही संपादकों और पत्रकारों के विश्लेषणों को सुनकर अपना समय गंवाते हैं।
एक बात तय रही है कि इस देश में लेखन, संपादन तथा समाचार संकलन की कला में दक्ष होने से कोई पत्रकार या संपादक नहीं बनता क्योंकि यहां व्यक्तिगत संबंध और व्यवसायिक जुगाड़ का होना आवश्यक है। जुगाड़ से कोई बन जाये तो उसे अपनी विधा में पारंगत होने की भी कोई आवश्कयता नहीं है। बस, जनता के बीच पहले किसी विषय की चर्चा अपने माध्यमों से कराई जाये फिर उस पर ही बोला और पूछा जाये। ऐसा करते हुए अनेक महान पत्रकार बन गये हैं। पहले समाचार पत्र पत्रिकाओं में जलवे पेल रहे थे अब टीवी पर भी प्रकट होने लगे हैं। श्री वेद प्रकाश वैदिक अंग्रेजी की पीटीआई तथा हिन्दी की भाषा समाचार एजेंसी जुड़े रहे हैं और शायद पत्रकारिता के लिए एक ऐसे स्तंभ हैं जिनसे सीखा जा सकता है पर उनकी तरह नेपथ्य में बैठकर अध्ययन और ंिचतन करने की इच्छा और अभ्यास होना आवश्यक है। वह भी पर्दे पर दिखते हैं पर इसके लिये लालायित नहंी दिखते। न ही उनकी बात सुनकर ऐसा लगता है कि कोई पुरानी बात कह रहे हैं। यही कारण है कि कभी कभी ही उनके दर्शन टीवी पर हो जाते हैं। मगर जिनको अपना चेहरा रोज दिखाना है उनके लिए चिंतन, अध्ययन और मनन करना एक फालतू का विषय है। इसलिये इधर उधर से सुनकर अपनी बात कर वाह वाह करवा लेते हैं।
प्रधानमंत्री से पूछा गया कि ‘भारत में विश्व कप क्रिकेट कप हो रहा है, आप अपने देश की टीम को शुभकामनाऐ देना चाहेंगे।’
अब बताईये कोई प्रधानमंत्री इसका क्या जवाब क्या ना में देगा।
दूसरा सवाल यह कि आप का पसंदीदा खिलाड़ी कौन है?
सवालकर्ता भद्र महिला शायद यह आशा कर रही थीं कि वह टीवी चैनलों की तरह कुछ खिलाड़ियों को महानायक बनाकर विज्ञापनदाताओं का अपना काम सिद्ध कर देंगी।
मगर प्रधानमंत्री ने हंसकर इस सवाल को टालते हुए कहा कि किसी एक दो खिलाड़ी का नाम लेना ठीक नहीं है।
एक महान देश के प्रधानमंत्री से ऐसे ही चतुराईपूर्ण उत्तर की आशा करना चाहिए। वह पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं और किसी एक खिलाड़ी का नाम लेने का अर्थ था कि बाकी खिलाड़ियों को दुःख देना। मगर यहां सवालकर्ता के स्तर पर विचार करना पड़ता है। क्रिकेट पर प्रधानमंत्री से इतनी महत्वपूर्ण सभा में सवाल करना इस बात को दर्शाता है कि लोकप्रिय विषयों के आसपास ही हमारे प्रचार समूहों के बौद्धिक चिंतक घूम रहे हैं। कहते हैं कि आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत खराब है। क्रिकेट का प्रचार माध्यम चाहे कितना भी करते हों पर अब यह इतने महत्व का विषय नहीं रहा कि भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों की समक्ष इसे रख जा सके। इसकी जगह उनसे किसी विदेशी विषय पर ऐसा सवाल भी किया जा सकता था जिसे सुनकर देश के लोग कुछ चिंतन कर सकते। यह सवाल एक महिला पत्रकार ने किया था। ऐसे में नारीवादियों को आपत्ति करना चाहिए कि क्या महिला पत्रकार होने का मतलब क्या केवल यही है कि केवल हल्के और मनोरंजन विषय उठाकर दायित्व निभाने की पुरानी परंपरा निभाया जाये। क्या किसी महिला पत्रकार के लिये कोई बंधन है कि वह राजनीतिक विषय नहीं उठा सकती।
प्रधानमंत्री इस प्रेस कांफ्रेंस में बहुत संजीदगी से पेश आये पर टीवी चैनलों के संपादकों और पत्रकारों ने इसे एक प्रायोजित सभा बना दिया। विज्ञापनों के कारण शायद उनको आदत हो गयी है कि वह हर जगह प्रायोजित ढंग से पेश आते हैं। एक औपाचारिक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने प्रधानमंत्री जैसे उच्च पर बैठे व्यक्ति से जिस तरह उन्होंने सवाल किये उससे तो ऐसा लगा जैसे कि वह अपने स्टूडियो में बैठे हों। इतना बड़ा देश और इतने व्यापक विषय होते हुए भी केवल दो मुद्दों उसमें भी एक क्रिकैट का फालतू सवाल शामिल हो तो फिर क्या कहा जा सकता है। भारत में लोग गरीब हैं पर प्रचार माध्यमों के स्वामी और कार्यकर्ता तो अच्छा खासा कमा रहे हैं। उनसे तो अन्य देशों के लोग ईर्ष्या करते होंगे, खासतौर से यह देखकर उनसे कमतर भारतीय प्रचार स्वामी और और कार्यकर्ता कहीं अधिक धनी हैं।
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लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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30 जनवरी 2011

मेहमानवाजी का विज्ञापन अमेरिका में दिखायें-हिन्दी लघु व्यंग्य (mehmanwaji aur america-hindi vyangya)

मुंबई फिल्मों के उस अभिनेता का वह विज्ञापन अंग्रेजी में अनुवाद कर अमेरिका में भी दिखाया जाना चाहिए क्योंकि उसकी जरूरत भारत में कम वहीं ज्यादा दिखती है जहां 1655 भारतीय छात्रों के पांव में रेडियो कालर बांध दिया गया है। वैसे ही रेडियो कालर जो भारत में संरक्षित वन्य क्षेत्रों में पशुओं की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिये पहनाये जाते हैं। टीवी पर मुंबईया फिल्मों के इस अभिनेता का विज्ञापन आता है जिसमें वह लोगों को समझाता है कि विदेश से आये लोगों को मेहमान मानकर उनकी इज्जत करना चाहिए। एक जगह तो वह यह भी बताता है कि यह तो हमारी रोजी रोटी का आधार हैं।’’
यह अभिनेता पिछले कई दिनों से अपनी फिल्में अमेरिका में ऑस्कर के लिये भेज रहा है मगर अभी तक उसे वह नहीं मिला। वैसे देखा जाये तो वह क्या सारे अभिनेता विभिन्न पूंजीपतियों के प्रथक प्रथक समूहों का मुखोटा है जो क्रिकेट हो या फिल्म उससे कहंी न कहीं जुड़ जाते हैं। अवसर मिले तो राजनीति में भी चले आते हैं।
ऐसे में उस अभिनेता के बारे में यह माना जा सकता है कि वह किसी पूंजीपतियों के समूह का मुख हैं जो अमेरिका को खुश करना चाहता है। हम ऐसे ही उसके अज्ञात समूह के रणनीतिकारों को यही सलाह देंगे कि उसका यह मेहमानवाजी का उपदेश अब अमेरिका में भी दिखायें। हां, हम यह नहीं कह सकते कि इससे उनके अमेरिकी आका कहीं नाराज न हो जायें, और अभी तक ऑस्कर से उस अभिनेता की फिल्म विचार के लिये अपने यहां आने देते हैं फिर संभव है कि यह सुविधा भी बंद कर दें।
किस्सा यह है कि आंध्र प्रदेश के 1655 छात्र अमेरिका में स्थापित के विश्व विद्यालय में पढ़ने के लिये गये। इसके लिये उनको वीजा दिया गया जो कि अमेरिकी सरकार के जिम्मेदारी अधिकारियों बिना मिलना संभव नहीं था। पता लगा कि वह विश्वविद्यालय या यूनिवर्सिटी फर्जी है-यह भी बताया गया कि उसका पंजीयन नहीं हुआ इसलिये छात्रों का वीजा रद्द कर दिया गया। अमेरिकी अधिकारियों फर्जी विश्वविद्यालय के लिये वीजा कैसे जारी किया, इसकी जानकारी अभी तक नहीं मिला पर यह तय है कि कहीं न कहीं भ्रष्टाचार हुआ है।

यही छात्र जब अमेरिकी अधिकारियों से शिकायत करने पहुंचे तो उनको रेडियो कॉलर पहना दिया गया कि ताकि उन पर नज़र रखी जा सके। यह अलग से चर्चा का विषय हो सकता है कि अमेरिका में छात्र गये क्यों? क्या वह शैक्षणिक वीजा की आड़ में वहां कोई अपने रहने का जुगाड़ करना चाहते थे?
एक सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें अमेरिकी अधिकारी स्वयं शामिल हैं इसलिये वह अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। दूसरा यह भी कि जो लोग केवल भारतीयों को फर्जी काम करने वाला समझते हैं वह भी जान लें कि यह काम अमेरिकी भी करते है। 1655 भारतीय छात्रों के साथ पशुता का व्यवहार होने के लिये जहां भारत में अमेरिकी मोह तथा वहां के अधिकारियों के ईमानदार होने का भ्रम हो तो जिम्मेदार है पर साथ वहां के प्रशासन की पोल भी खोलता है।
भारत में विदेशी पर्यटकों को बड़ी हैरानी से देखा जाता है पर उतना दुर्व्यवहार नहीं होता जितना हमारे उन अभिनेता के विज्ञापन में दिखाया जाता है। यह अलग बात है कि सवारी आदि में उनसे पैसा ज्यादा ऐंठ लिया जाता हो पर यह दुर्व्यवहार की श्रेणी में नहीं आता। हम तो यहीं कहेंगे कि मेहमानवाजी के बारे में इस देश से ज्यादा विदेशियों को सिखाने की जरूरत है। यह भी स्पष्ट करें कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था विदेशों पर आधारित है फिर भी वहां भारतीयों का सम्मान नहीं है जबकि भारत में केवल सभ्य तबके में ही अमेरिका के प्रति आकर्षण है पर अर्थव्यवस्था का आधार अभी भी यहां की कृषि ही है। मतलब यह कि अगर विदेशी सहारा न हो तो कई लोगों के कमीशन बंद हो जायेंगे। स्विस बैंकों के खाते भी खाली हो सकते हैं पर भारतीय बैंक अपने देश की दम पर टिके रहेंगे। ंफिर भी विदेशी सैलानियों या नागरिकों के साथ ऐसी वैसी बातें नगण्य ही होती हैं। ऐसे में उस अभिनेता के अभिनीत विज्ञापन को अमेरिका और आस्ट्रेलिया में भी दिखाया जाये तो कुछ बात बने।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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14 दिसंबर 2010

भारतीय समाज की धारा स्वायत्त ढंग से बहना चाहिए-हिन्दी लेख (bhartiya samaj ki dhara-hindi lekh

अमेरिका में आठ साल रह चुके एक साफ्टवेयर इंजीनियर ने अपनी ही पत्नी की हत्या कर उसकी लाश के 72 टुकड़े कर फ्रिजर में डाल दिये। वह रोज एक टुकड़ा जंगल में फैंकने जाता था। इधर पत्नी के भाई को ईमेल पर वह बताता रहा कि उसकी बहिन से संबंध अच्छे हैं। उधर भाई को संदेह हुआ तो वह आ धमका। बहिन को न देखकर उसने पुलिस को शिकायत की। आखिर वह हत्या के जुर्म में पकड़ा गया। घटना वीभत्स है पर वहीं तक जहां कत्ल हुआ। लाश के टुकड़े टुकड़े करने में कोई भयानकता नहीं है क्योंकि मिट्टी हो चुकी यह देह संवेदनाओं से रहित हो जाती है। हमारे टीवी चैनल 72 टुकड़ों की बात कहकर सनसनी फैला रहे हैं क्योंकि इन टुकड़ों में उनके विज्ञापनों चलते हैं।
टीवी चैनलों पर मनोविज्ञान विशेषज्ञों को लाया गया। सभी ने अपने तमाम तरह के विचार दिये। इधर किसी अन्य महिला से भी कातिल पति के संबंध की चर्चा सामने आयी है हालांकि इस हत्या में वह एक वज़ह है इसमें संदेह है। कातिल पति ने बंदीगृह में भी टीवी चैनलों को साक्षात्कार दिया। उसकी बातों को अनदेखा करने का मतलब है कि हम अपने सामाजिक स्थिति से मुंह फेर रहे हैं। इसमें कई ऐसे मुद्दे हैं जिनकी चर्चा करना जरूरी है। मुख्य बात यह है कि कातिल पति और मृतक के बीच विवाद घरेलु हिंसा के मुकदमें के रूप में चल चुका था। इसी मामले में उसने पत्नी को बीस हजार रुपये खर्च देने की बात मंजूर की थी।
हत्या के बाद पकड़े जाने के बाद उसके पति ने यह तर्क दिया कि उसकी पत्नी उससे बीस हजार से अधिक खर्च की मांग कर रही थी।
उसने यह भी बताया कि उसकी पत्नी से मारपीट हुई तब धक्का लगा तो उसका सिर फूट गया चूंकि उस पर घरेलु हिंसा का उस पर मुकदमा चल रहा था इसलिये वह डर गया और उसने तत्काल घायल पत्नी के मुंह में रुई ठूंस दी और वह मर गयी। महत्वपूर्ण बात यह कि पत्नी के घायल होने पर वह घबड़ा गया था क्योंकि उस पर घरेलु हिंसा का मुकदमा चल चुका था। यह बात विचारणीय है कि उसने आखिर घायल पत्नी को बचाने की बजाय उसका मुंह बंद करना पंसद किया।
सच क्या है यह तो अभी पता चलना है पर हम यहां एक बात अनुभव करें कि इस तरह दहेज या घरेलु हिंसा के मामलों से हम भारत में जिस सभ्य समाज की आशा कर रहे हैं उनमें कितना दम है? दहेज के मामले में तो यह कानून बना दिया गया है कि आरोपी को अपने आपको ही निर्दोष साबित करना है, जो कि केवल आतंकवाद निरोधक कानून में ही शामिल है। दूसरी बात यह है कि जिन पुरुषों की पारिवारिक या सामाजिक स्थिति कमजोर है अगर उनका ऐसी नारी से पाला पड़ जाये जो आक्रामक प्रवृत्ति की है और वह कानून की आड़ लेने पर आमादा हो जाये तो परेशान कर डालती है। इन कानून के गलत इस्तेमाल की इतनी घटनायें हुई हैं कि बाकायदा पत्नी पीड़ित संगठन बन गये हैं। मुश्किल यह है कि इस कानून की आड़ लेते हुए अनेक महिलाओं ने ऐसे लोगो को भी फंसा देती हैं जो रिश्तेदार होते हैं और उनका विवादित परिवार के घर से कोई अधिक संबंध नहंी होता। महिला सहृदय होती हैं पर सभी नहीं! दूसरी बात यह कि अनेक महिलायें दूसरे की बातों में बहुत आसानी से आ जाती हैं। ऐसे में पीड़ित महिला को अगर कोई उकसाये तो वह ऐसे आदमी का भी नाम लेती हैं जो बिचारा कहीं दूर बैठा होता है। इतनी छूट महिलाओं को नहीं दी जाना चाहिए थी। भारत में नारियों को देवी माना जाता है पर सभी नहीं पूजी जातीं। हालांकि अब पुलिस को ऐसे मामलों में ध्यान से मामले दर्ज करने की हिदायतें दी गयी हैं जो कि अच्छी बात है। यह अलग बात है कि चैनल वालों को यह समझ में नहीं आती और कोई मामला सामने आते ही कथित अभियुक्तों की गिरफ्तारी की मांग करने लगते हैं।
अब आतें हैं दूसरी बात पर! इस तरह के कानून ने समाज़ को कमजोर किया है। हम उस कातिल पति और मृतका पत्नी के परिवार की तरफ देखें। दोनों के बीच विवाद चल रहा था पर पति के रिश्तेदार उससे दूर ही थे। आखिर क्यों नहीं वहां से इस मामले को सुलझाने के लिये आया। केवल पत्नी के रिश्तेदार ही इस विषय पर चर्चित क्यों हो रहे हैं?
यह एक प्रेम विवाह था। पति के रिश्तेदार इसे स्वीकार नहीं रहे थे। हमारा मानना है कि समझदारी का परिचय दे रहे थे। वह जानते होंगे कि यह प्रेम विवाह है और कालांतर में परिवार के झगड़े होंगे। ऐसे में दहेज अधिनियम और धरेलु हिंसा के कानूनों की आड़ लेकर उनको भी परेशान किया जा सकता है। पति भी अपने परिवार को अपने घर में शामिल नहीं कर रहा था क्योंकि ऐसी आशंका उसके मन में भी रही होगी। हमारा अनुमान गलत नहीं है तो कातिल पति मनोरोगी कतई नहीं लग रहा था। उसका कहना था कि ‘पत्नी रोज लड़ती थी और वह नहीं चाहता था कि बच्चे इस माहौल में रहें।
वह चाहता था कि बच्चे उसके साथ रहें या मां के साथ! वह अपने बच्चों को अनाथालय में पलते नहीं देखना चाहता था। मतलब यह कि वह इस रिश्ते को अब आगे बढ़ाने को तैयार नहीं था। उसने कत्ल किया तो गलत किया। इससे तो बेहतर होता कि वह तलाक के लिये अदालत चला जाता। मुश्किल यह भी है कि उस स्थिति में भी उसे दहेज और घरेलू हिंसा अधिनियमों से मुक्ति नहीं मिल सकती थी। मुख्य बात यह कि लड़के के परिवार से कोई अन्य आदमी आगे नहीं आ रहा था। संभव है कि नारीवादी विचारक इसे न समझें पर सच्चाई यह है कि इन दोनों कानूनों ने समाज को डरा दिया है। अब तो यह हालत है कि परिवार या रिश्तेदारी में कोई विवाद चल रहा हो तो दूर ही बैठे रहो। कहीं समझाने जाओ तो पता लगा कि हम ही झमेले में पड़ गये। कोई भी महिला जब आक्रामक हो तो वह किसी का भी नाम लिखा सकती है। इससे पारिवारिक विवादों के समाधान का मार्ग बंद होता है और छोटे छोटे विवाद परिवार को तबाह कर देते हैं।
दहेज देना भी जब अपराध है तब आखिर वह लोग कैसे बच जाते हैं जो यह कहते हैं कि हमने दहेज दिया। इस तरह एक व्यक्ति जो स्वयं अपराधी है दूसरे पर मुकदमा कर गवाह कैसे बन सकता है?
किसी को मारना या अपमानित करना तो वैसे ही अन्य कानूनों में है तब यह घरेलू हिंसा या दहेज निरोधक कानून की जरूरत क्या है? हमारे पास आंकड़े नहीं है पर आसपास की घटनाओं का कुल नतीज़ा यही है कि जिन लड़कियों ने इस कानून की आड़ ली उन्होंने न केवल अपनी बल्कि अपने ही परिवार वालों को भी तकलीफ में डाला बल्कि बाद में उनका जीवन भी कोई अधिक सुखद नहीं रहा। इन कानूनों की आड़ में अपने परिवार पर राज करने का आत्मविश्वास जिंदगी में लड़ने के आत्मविश्वास को समाप्त कर देता है।
आखिरी बात यह कि जब हमने पाश्चात्य सभ्यता का मार्ग चुना है तो पति पत्नी का रिश्ता खत्म करने का कानून बहुत आसान बना देना चाहिए। केवल एक दिन में तलाक की व्यवस्था होना चाहिए। मुख्य बात यह है कि नारी पुरुष का रिश्ता प्राकृतिक कारणों से होता है न कि सामाजिक कारणों से! ऐसे में अगर जिसको अलग होना है एक दिन में हो जाये और दूसरे दिन पति पत्नी अपना नया रिश्ता बनायें। कुछ लोगों को समाज़ की चिंता हो, पर यह बेकार है। अमेरिका में शादियां होती हैं पर सभी के तलाक नहीं होते। भारत में भी यही होगा पर ऐसे अधिनियम अगर खत्म हो जायें तो समाज के अन्य लोग परिवार बचाने के लिये भयमुक्त होकर सक्रिय हो सकते हैं। आधुनिक नारीवादियों को यह बात समझ में नहंी आयेगी क्योंकि वह भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में कही गयी बातों को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। अगर भारतीय समाज की धारा को स्वायत्त ढंग से बहते देना है तो इन कानूनों पर दोबारा विचार होना चाहिए। सामान्य पारिवारिक विवादों में राज्य और कानून का हस्तक्षेप अनेक तरह की समस्याओं का कारण है या नहीं अब इस पर विचार करना चाहिए। वरना तो आगे ऐसी बहुत सारी घटनायें आ सकती हैं जिनकी कल्पना नारीवादियों के बूते तक का नहीं है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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9 दिसंबर 2010

विकिलीक्स के संस्थापक की गिरफ्तारी-हिन्दी लेख (detaining of wikileeas modretor-hindi article)

विकिलीक्स का संस्थापक जूलियन असांजे को अंततः लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया। जैसे ही उसके ब्रिटेन में होने की जानकारी जग जाहिर हुई तभी यह अनुमान लगा कि उसकी आज़ादी अब चंद घंटे की है। वह जिस कथित सम्राज्यवादी अमेरिका से पंगा ले रहा था उसका सहयोगी ब्रिटेन उसे नहीं पकड़ेगा इसकी संभावना तो वैसे भी नगण्य थी पर अगर वह किसी अन्य देश में भी होता तो पता मिलने पर उसे गिरफ्तार होना ही था। मतलब यह कि वह अज्ञातवास में रहकर ही बचा रह सकता था।
इस दुनियां के सारे देश अमेरिका से डरते हैं। एक ही संभावना असांजे की आज़ादी को बचा सकती थी वह यह कि क्यूबा में वह अपना ठिकाना बना लेता। जहां तक अमेरिका की ताकत का सवाल है तो अब कई संदेह होने लगे हैं। कोई भी देश अमेरिका से पंगा नहीं लेना चाहता। अब इसे क्या समझा जाये? सभी उसके उपनिवेश हैं? इसका सहजता से उत्तर दिया जा सकता है कि ‘हां,।’
मगर हम इसे अगर दूसरे ढंग से सोचे तो ऐसा भी लगता है कि अमेरिका स्वयं भी कोई स्वतंत्र देश नहीं है। अमेरिका स्वयं ही दुनियां भर के पूंजीपतियों, अपराधियों तथा कलाकर्मियों (?) का उपनिवेश देश है जो चाहते हैं कि वहां उनकी सपंत्ति, धन तथा परिवार की सुरक्षा होती रहे ताकि वह अपने अपने देशों की प्रजा पर दिल, दिमाग तथा देह पर राज्य कर धन जुटाते रहें। चाहे रूस हो या चीन चाहे फ्रांस हो, कोई भी देश अमेरिकी विरोधी को अपने यहां टिकने नहीं दे सकता। जब ताकतवर और अमीर देशों के यह हाल है तो विकासशील देशों का क्या कहा जा सकता है जिनके शिखर पुरुष पूरी तरह से अमेरिका के आसरे हैं।
वैसे तो कहा जाता है कि अमेरिका मानवतावाद, लोकतंत्र तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति का सबसे ताकतवर ठेकेदार है पर दूसरा यह भी सच है कि दुनियां भर के क्रूरतम शासक उसकी कृपा से अपने पदों पर बैठ सके हैं। ईदी अमीन हो या सद्दाम हुसैन या खुमैनी सभी उसके ऐसे मोहरे रहे हैं जो बाद में उसके विरोधी हो गये। ओसामा बिन लादेन के अमेरिकी संपर्कों की चर्चा कम ही होती है पर कहने वाले तो कहते हैं कि वह पूर्व राष्ट्रपति परिवार का -जो हथियारों कंपनियों से जुड़ा है-व्यवसायिक साझाीदार भी रहा है। शक यूं भी होता है कि उसके मरने या बचने के बारे में कोई आधिकारिक जानकारी अमेरिका नहीं देता यह कहते हुए कि उसके पास नहीं है। जिस तरह अमेरिका की ताकत है उसे देखते हुए यह बात संदेहजनक लगती है कि उसे लादेन का पता नहीं है। स्पष्टतः कहीं न कहीं अपने हथियार नियमित रूप से बेचने के लिये वह उसका नाम जिंदा रखना चाहता है। इस बहाने अपने हथियारों का अफगानिस्तान में गाहे बगाहे प्रयोग कर विश्व बाज़ार में वह अपनी धाक भी जमाता रहता है। उसके कई विमान, टैंक, मिसाइल तथा अन्य हथियारों का नाम वहीं प्रयोग करने पर ही प्रचार में आता है जो अन्य देश बाद में खरीदते हैं।
जूलियन असांजे की विकीलीक्स से जो जानकारियां आईं वह हमारे अनुमानों का पुष्टि करने वाली तो थीं पर नयी नहीं थी। इस पर अनेक लोगों को संदेह था कि यह सब फिक्सिंग की तहत हो रहा है। अब असांजे की गिरफ्तारी से यह तो पुष्टि होती है कि वह स्वतंत्र रूप से सक्रिय था। असांजे मूलतः आस्ट्रेलिया का रहने वाला हैकर है। वह प्रोग्रामिंग में महारथ हासिल कर चुका है मगर जिस तरह उसने विकीलीक्स का संचालन किया उससे एक बात तो तय हो गयी कि आने वाले समय में इंटरनेट अपनी भूमिका व्यापक रूप से निभाएगा। अलबत्ता दुनियां भर में गोपनीयता कानून बने हुए हैं जो उसके लिये संकट होगा। गोपनीयता कानूनों पर बहस होना चाहिए। दरअसल अब गोपनीय कानून भ्रष्ट, मूर्ख, निक्कमे तथा अपराध प्रवृत्ति के राज्य से जुड़े पदाधिकारियों के लिये सुरक्षा कवच का काम कर रहे हैं-ईमानदार अधिकारियों को उसकी जरूरत भी नहीं महसूस होती। फिर आजकल के तकनीकी युग में गोपनीय क्या रह गया है?
मान लीजिये किसी ने ताज़महल की आकाशीय लोकेशन बनाकर सेफ में बंद कर दी। उसे किसी छाप दिया तो कहें कि उसने गोपनीय दस्तावेज चुराया है। आप ही बताईये कि ताज़महल की लोकेशन क्या अब गोपनीय रह गयी है। अजी, छोड़िये अपना घर ही गोपनीय नहीं रहा। हमने गूगल से अपने घर की छत देखी थी। अगर कोई नाराज हो जाये तो तत्काल गूगल से जाकर हमारे घर की लोकेशन उठाकर हमारी छत पर पत्थर-बम लिखते हुए डर लगता है-गिरा सकता है। सीधी सी बात है कि गोपनीयता का मतलब अब वह नहीं रहा जो परंपरागत रूप से लिया जाता है। फिर अमेरिका की विदेश मंत्राणी कह रही हैं कि उसमें हमारी बातचीत देश की रणनीति का हिस्सा नहीं है तब फिर गोपनीयता का प्रश्न ही कहां रहा?
बहरहाल अब देखें आगे क्या होता है? असांजे ने जो कर दिखाया है वह इंटरनेट लेखकों के लिये प्रेरणादायक बन सकता है। सच बात तो यह है कि उसकी लड़ाई केवल अमेरिका से नहीं थी जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। दरअसल विश्व उदारीकरण के चलते पूंजी, अपराध तथा अन्य आकर्षक क्षेत्रों के लोग अब समूह बनाकर या गिरोहबंद होकर काम करने लगे हैं। मूर्ख टाईप लोगों को वह बुत बनाकर आगे कर देते हैं और पीछे डोरे की तरह उनको नचाते हैं। अमेरिका के रणनीतिकारों की बातें सुनकर हंसी अधिक आती है। यहां यह भी बता दें कि उनमें से कई बातें पहले ही कहीं न कहीं प्रचार माध्यमों में आती रहीं हैं। ऐसा लगता है कि दुनियां भर के संगठित प्रचार माध्यम जो ताकतवर समूहों के हाथ में है इस भय से ग्रसित हैं कि कहीं इंटरनेट के स्वतंत्र लेखक उनको चुनौती न देने लगें इसलिये ही असांजे जूलियन को सबक सिखाने का निर्णय लिया गया है। यही कारण है कि एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मसीहा अमेरिका की शहर पर दूसरे मसीहा ब्रिटेन में उसे गिरफ्तार किया गया। अमेरिका को उसका मोस्ट वांटेड उसे कितनी जल्दी मिल गया यह भी चर्चा का विषय है खास तौर से तब जब उसने एक भी गोली नहीं दागी हो। जहां तक उसके प्रति सदाशयता का प्रश्न है तो भारत के हर विचारधारा का रचनाकार उसके प्रति अपना सद्भाव दिखायेगा-कम से कम अभी तक तो यही लगता है। हमारे जैसे आम और मामूली आदमी के लिये केवल बैठकर तमाशा देखने के कुछ और करने का चारा भी तो नहीं होता।
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21 नवंबर 2010

ईश निंदा रोकने के कानून से धर्म के ठेकेदारों की रक्षा-हिन्दी लेख (dharma ki ninda aur aur abhivyakti-hindi lekh)

पाकिस्तान में एक ईसाई महिला ने राष्ट्रपति से क्षमादान की अपील की है। उस पर ईश निंदा के तहत मामला दर्ज था और जाहिर है सजा मौत से कम क्या हो सकती है? उस पर तरस आया क्योंकि उसकी स्थिति इस दुनियां के शर्म की बात है? आखिर यह ईश निंदा का मामला क्या है? पाकिस्तान तो मज़हबी राष्ट्र होने के कारण बदनाम है पर दुनियां के सभ्य देश भी धार्मिक आलोचना को लेकर असंवेदनशील है। जब अपने देश में देखता हूं तब यह सोचता हूं कि किसी भी धर्म की आलोचना किसी को भी करने की छूट होना चाहिए! अगर किसी धर्म की आलोचना या व्यंग्य से बवाल फैलता है तो रचनाकार पर नहीं बल्कि उपद्रव करने वालों पर कार्यवाही करना चाहिए। कुछ लोग शायद इसका विरोध करें कि अभिव्यक्ति की सुविधा का लाभ इस तरह नहीं उठाना चाहिए कि दूसरे की धाार्मिक आस्था आहत हो।
जिन लोगों ने इस लेखक के ब्लाग पढ़े हैं उनको पता होगा कि उन पर हिन्दू धर्म से संबंधित बहुत सारी सामग्री है। महापुरुषों के संदेश वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या सहित अनेक पाठ प्रकाशित हैं! सामान्य भाषा में कहें कि यह लेखन धार्मिक प्रवृत्ति का है और आस्था इतनी मज़बूत है कि इंटरनेट पर हिन्दू धर्म की निंदा पढ़कर भी विचलित नहीं होती। वजह साफ है कि अपने धर्म के मूल तत्व मालुम है और यह भी कि आलोचक तो छोड़िये धर्म के प्रशंसक भी उनको नहीं समझ पाते। आलोचक भारतीय धर्मग्रंथों के वही किस्से सुनाकर बदनाम कर रहे है जिनको पढ़ते सुनते भी तीस बरस हो गये हैं। मुख्य बात तत्व ज्ञान की है जिसे भारतीय क्या विदेशी तक भागते नज़र आते हैं।
ईश या धर्म निंदा पर हमला या कार्यवाही करना इस बात का प्रमाण है कि हमारी आधुनिक सभ्यता पहले से कहीं अधिक असहिष्णु हुई है। अगर आज कबीरदास जी होते तो पता नहीं उन पर कितने मुकदमे चलते और शायद ही उनको कोई वकील मुकदमा लड़ने के लिये नहीं मिलता। स्थिति यह है कि हम उनके कई दोहे इसलिये नहीं लिखते क्योंकि असहिष्णुता से भरे समाज में ऐसी लड़ाई अकेले लड़ना चाणक्य नीति की दृष्टि से वर्जित है।
आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में धर्म के ठेकेदारों के माध्यम से समाज को नियंत्रित किया जा रहा है। वह समाज की बजाय राज्य से अधिक निकट हैं और उसकी वजह से उनको अपना नियंत्रण करना आसान लगता है। सर्वशक्तिमान के किसी भी स्वरूप के नाम का दरबार बना लो, चंदा आयेगा, राज्य भी सहायता देगा और जरूरत पड़ी तो बागी पर ईश निंदा का आरोप लगा दो। सच बात तो यह है कि महापुरुषों के नाम पर धर्म चलाने वाले ठेकेदार अपनी राजनीति कर रहे हैं। आखिर ईश निंदा को खौफ किसे है? हमें तो नहीं है। मनुस्मृति पर इतनी गालियां लिखी जाती हैं पर इस लेखक ने उनके बहुत सारे संदेशों को पढ़ा है जो आज भी प्रासांगिक है उनको छांटकर व्याख्या सहित प्रकाशित किया जाता है। मनुस्मृति के समर्थकों का कहना है कि उसमें वह सब बातें बाद में जोड़ी गयी हैं जिनकी आलोचना होती है। इसका मतलब साफ है कि किसी समय में राज्य की रक्षा की खातिर ही विद्वानों से वह सामग्री बढ़ाई गयी होगी।
यह आश्चर्य की बात है कि जो पश्चिमी देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं वह उसे इस कानून को हटाने का आग्रह नहीं करते क्योंकि उनको भी कहीं न कहीं उसके धर्म की सहायता की आवश्यकता है। उसके सहधर्मी देशों में तेल के कुऐं हैं जो इस तरह के कानूनों के हामी है और पश्चिमी देशों के तेल तथा धन संपदा के मामले में सहायक भी हैं। इतना ही नहीं पश्चिमी देश भी अपने ही धर्म की आलोचना सहन नहीं  कर पाते। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि वह आधुनिक सभ्यता के निर्माण के बहाने अपना धर्म बाज़ार के माध्यम से ला रहे हैं।
आखिर धर्म के ठेकेदार ऐसा क्यों करते हैं? अपने धर्म की जानकारी किसी ठेकेदार को नहीं है। समयानुसार वह अपनी व्याख्या करते हैं। अगर बागी कोई माफिया, नेता या दौलत वाला हुआ तो उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं पर आम आदमी हुआ तो उस राज्य का दंडा चलवाते हैं। यह अलग बात है कि आज समाज के शिखर पुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं धर्म के ठेकेदारों को समाज पर लादते हैं जो उनके हितैषी हैं। दूसरी बात यह भी है कि भारतीय अध्यात्म को छोड़ दें तो विश्व की अधिकतर विचाराधारायें नये संदर्भों के अप्रसांगिक होती जा रही हैं। भारतीय अध्यात्म में श्रीमद्भागवत गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है जो आज भी निर्विवाद है। उसके बाद आता है पतंजलि योग दर्शन का नंबर। रामायण, वेद, उपनिषद, पुराण, रामचरित मानस तथा अन्य बहुत सारे ग्रंथ हैं पर अपने रचनाकाल के परिप्रेक्ष्य में उनकी संपूर्ण सामग्री भले ही श्रेष्ठ रही हो पर कालांतर में समाज के बदलते स्वरूप में उनमें वर्णित कई घटनायें तथा दर्शन अजीब लगता है। संभव है कि रचना के बाद कुछ ग्रंथों में बदलाव हुआ हो या फिर उनका भाव वैसा न हो जैसा हम समझते हैं, पर उनकी आलोचना होती है। होना चाहिए और इसका उत्तर देना आना चाहिए। वेदों की आलोचना पर तो इस लेखक का स्पष्ट कहना है कि श्रीमद्भागवत गीता में सभी ग्रंथों का उचित सार शामिल हो गया है इसलिये उसके आधार पर वेदों का अध्ययन किया जाये। मज़े की बात यह है कि हिन्दू धर्म का कोई भी आलोचक श्रीमद्भागवत गीता को नहीं पढ़ता जिसमें भेदात्म्क बुद्धि को अज्ञान का प्रतीक माना गया है। मतलब मनुष्य में जाति, धर्म, लिंग, भाषा, धन तथा शिक्षा के आधार पर भेद करना और देखना ही तामस बुद्धि का प्रमाण है।
भारत में ऐसे सारे कानूनों पर भी विचार होना चाहिए जो धार्मिक आलोचना को रोकते हैं। यह जरूरी भी नहीं है कि किसी धर्म की आलोचना उस धर्म का ही आदमी करे दूसरे को भी इसका अधिकार होना चाहिए। दंगे फैलने की आशंका का मतलब यह है कि कहींे न कहीं हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि राज्य ऐसे झगड़ों से निपटने के लिये तैयार नहीं है। धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर मलाई तो खाते हैं पर आलोचना का प्रतिकार करने की क्षमता उनमेें नहीं है। इस समय देश में जो वातावरण है वह दमघोंटु बना दिया गया है। कहीं किसी को तस्वीर से एतराज है तो कहीं किसी को निबंध से चिढ़ होती है। जो दावा करते हैं कि हमारा समाज नयापन और खुलापन ले रहा है वह इस बात को भूल जाते हैं कि संत कबीर और रहीम ने बहुत पहले ही सभी धर्मो और उनके ठेकेदारों पर उंगली उठाई है। आज की पीढ़ी खुलेपन वाली है तो फिर यह धार्मिक आलोचना पर रोक लगाने का काम क्यों और कौन कर रहा है? हमारा मानना है कि जो धार्मिक ठेकेदार मलाई खा रहे हैं उनको इन आलोचनाओं के सामने खड़ा कर उसका मुकाबला करने के लिये प्रेरित या बाध्य करो। यह क्या हुआ कि शंाति भंग की आशंका से ऐसे मामलों में कार्टूनिस्टों, लेखकों और पत्रकारों पर कार्यवाही की जाये?
भारत के बुद्धिजीवी पाकिस्तान की कार्यप्रणाली पर टिप्पणियां तो करते हैं पर अपने देश की स्थिति को नहीं देखते जहां धर्म के नाम पर आलोचना रोककर अभिव्यक्ति को आतंकित किया जा रहा है। पाकिस्तान में तो यह आम हो गया है। अगर समाचार पत्रों में छपी विभिन्न खबरों को देखें तो ऐसा लगता है कि लोग अपनी धार्मिक किताब को कबाड़ी के यहां बेच देंगे। उसमें अगर अपने धर्म का आदमी सेव बेचे तो कोई बात नहीं अगर दूसरा बेचे तो लगा दो ईश निंदा का आरोप। मज़े की बात यह कि यह खबर भारत में पढ़ी है पर उसमें ईश निंदा लिखी है पर यह नहीं बताया कि वह किस तरह की है। स्पष्टतः डर की वजह से यह छिपाया गया है। यह खौफ खुलेपन के दावे की पोल खोलकर रख देता है। क्या यह माना जाये कि इस देश में दो तरह के लोग रहते हैं एक असहिष्णु और दूसरे डरपोक।
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27 मई 2010

उनका लक्ष्य हिन्दी ब्लाग जगत की आलोचना करना ही है-हिन्दी संपादकीय (critism of hindi blog)

गजरौला टाईम्स में छपी इस ब्लाग लेखक को अपनी कविता एक ब्लाग पर पढ़ने को मिली। एक पाठक की तरह उसे पढ़ा तो मुंह से अपनी तारीफ स्वयं ही निकल गयी कि ‘क्या गज़ब लिखते हो यार!’
अपनी पीठ थपथपाना बुरा माना जाता है पर जब आप कंप्यूटर पर अकेले बैठे हों तो अपना मनोबल बढ़ाने का यह एक अच्छा उपाय है।
पिलानी के एक विद्यालय ने अपनी एक पत्रिका के लिये इस ब्लाग लेखक की कहानी प्रकाशित करने की स्वीकृति मांगी जो उसे सहर्ष दी गयी। अनुमति मांगने वाले संपादक ने यह बताया था कि ‘यह कहानी जस की तस छपेगी।’ जब इस लेखक ने स्वयं कहानी पढ़ी तो उसमें ढेर सारे शब्द अशुद्ध थे। तब उसमें सुधार कर उसे फिर से तैयार किया गया। वह कहानी पिलानी के उस विद्यालय के संपादक को भेजने के बाद यह लेखक सोच रहा था कि बाकी के ब्लाग पर पढ़ने लायक रह क्या गया? एक बेहतर कहानी थी वह भीे हाथ से निकल कर दूसरे के पास पहुंच गयी।
अपने लिखे पर अपनी राय करना व्यर्थ का श्रम है। उससे ज्यादा बुरी बात यह है कि अपने लिखे पर स्वयं ही फूलना-ऐसी आत्ममुग्धता वाले अधिक समय तक नहीं लिख पाते। अपनी लेखकीय जिम्मेदारी पूरी कर सारे संकट पाठकों के लिये छोड़ देना चाहिये। जब अधिक लिखेंगे तो उच्च, मध्यम तथा निम्न तीनों श्रेणियों का ही लेखन होगा। संभव है कि आप अपना लिखा जिसे बेहतर समझें उसके लिये पाठक निम्न कोटि का तय करें और जिसे आप निम्न कोटि का पाठ समझें वह पाठक दर पाठक जुटाता जाये-कम से कम इस लेखक का अनुभव तो यही कहता है।
यही स्थिति पढ़ने की है। आप किसी के पढ़े को निकृष्ट समझें पर अधिकतर लोग उसे सराहें, ऐसी संभावना रहती है। ऐसे में किसी दूसरे के लिखे पर अधिक टिप्पणियां नहीं करना चाहिये क्योंकि अगर आपको किसी ने चुनौती दी कि ऐसा लिखकर तो बताओ’, तब आपकी हवा भी खिसक सकती है। अगर आप लेखक नहीं है तो लिखने की बात सुनकर मैदान छोड़कर भागना पड़ेगा और लेखक हैं तो भी लिख नहीं पायेंगे क्योंकि ऐसी चुनोतियां में लिखना सहज काम नहीं है। लेखकीय कर्म एकांत में शांति से ही किया जा सकता है।
हिन्दी ब्लाग जगत पर लिखने वालों की सही संख्या का किसी को अनुमान नहीं है। स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के लिये यहां श्रम साधना केवल एक विलासिता जैसा है। ऐसे में उनकी प्रतिबद्धतायें केवल स्वांत सुखाय भाव तक सिमटी हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि संगठित प्रचार माध्यमों से -टीवी चैनल, समाचार पत्र पत्रिकायें तथा व्यवसायिक संस्थाऐं- अधिक क्षमतावान लेखक यहां हैं। कुछ लेखक तो ऐसे हैं कि स्थापित प्रसिद्ध लेखक कर्मियों से कहंी बेहतर लिखते हैं। सच बात तो यह है कि अंतर्जाल पर आकर ही यह जानकारी इस लेखक को मिली है कि स्थापित और प्रसिद्ध लेखक कर्मी अपने लेखन से अधिक अपनी प्रबंधन शैली की वजह से शिखर पर हैं। शक्तिशाली वर्ग ने हिन्दी में अपने चाटुकारों या चरण सेवकों के साथ ही अपने व्यवसायों के लिये मध्यस्थ का काम करने वाले लोगों को लेखन में स्थापित किया है। परंपरागत विद्याओं से अलग हटकर ब्लाग पर लिखने वालों में अनेक ऐसे हैं जिनको अगर संगठित प्रचार माध्यमों में जगह मिले तो शायद पाठकों के लिये बेहतर पठन सामग्री उपलब्ध हो सकती है मगर रूढ और जड़ हो चुके समाज में अब यह संभावना नगण्य है। ऐसे में समाचार पत्र पत्रिकाऐं यहां हिन्दी ब्लाग जगत पर जब बुरे लेखन की बात करते हैं तो लगता है कि उनकी मानसिकता संकीर्ण और पठन पाठन दृष्टि सीमित है। यह सही है कि इस लेखक के पाठक अधिक नहीं है। कुल बीस ब्लाग पर प्रतिदिन 2200 से 2500 के लगभग पाठक आते हैं। महीने में 70 से 75 हजार पाठक संख्या कोई मायने नहीं रखती। यही कारण है कि अपने पाठों की चोरी की बात लिखने से कोई फायदा भी नहीं होता। बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि एक स्तंभकार ने एक अखबार में अपना पूरा पाठ ही इस लेखक के तीन लेखों के पैराग्राफ से सजाया था। एक अखबार तो अध्यात्म विषयों पर लिखी गयी सामग्री बड़ी चालाकी से इस्तेमाल करता है। शिकायत की कोई लाभ नहीं हुआ। संपादक का जवाब भी अद्भुत था कि ‘आपको तो खुश होना चाहिए कि आपकी बात आम लोगों तक पहुंच रही है।’
उस संपादक ने इस लेखक को अपने हिन्दी लेखक होने की जो औकात बताई उसे भूलना कठिन है। किसी लेखक को केवल लेखन की वजह से प्रसिद्ध न होने देना-यह हिन्दी व्यवसायिक जगत की नीति है और ऐसे में ब्लाग जगत की आलोचना करने वाले सारे ब्लाग पढ़कर नहीं लिखते। इसकी उनको जरूरत भी नहीं है क्योंकि उनका उद्देश्य तो अपने पाठकों को यह बताना है कि हिन्दी ब्लाग पर मत जाओ वहां सब बेकार है। इंटरनेट पर भी उसका रोग लग चुका है। इसके बावजूद यह सच है कि जो स्वयंसेवी हिन्दी लेखक ब्लाग पर दृढ़ता से लिखेंगे उनकी प्रसिद्धि रोकना कठिन है। अलबत्ता आर्थिक उपलब्धियां एक मुश्किल काम है पर पुरस्कार वगैरह मिल जाते हैं पर उसमें पुरानी परंपराओं का बोलबाला है-उसमें वही नीति है जो निकट है वही विकट है।
हिन्दी ब्लाग जगत पर कूड़ा लिखने वालों के लिये को एक ही जवाब है कि भई, समाचार पत्र पत्रिकाओं में क्या लिखा जा रहा है? ओबामा और ओसामा पर कितना लिखोगे। क्या वही यहां पर लिखें? ओबामा का जादू और ओसामा की जंग पर पढ़ते पढ़ते हम तो बोर हो गये हैं। इससे तो अच्छा है कि हिन्दी ब्लाग जगत के छद्म शाब्दिक युद्ध पढ़े जो हर रोज नये रूप में प्रस्तुत होता है। कभी कभी तो लगता है कि आज से दस बीस साल ऐसे पाठों पर कामेडी धारावाहिक बनेंगे क्योंकि संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा तय किये गये नायक तथा खलनायकों का कोई अंत नहीं है और लोग उनसे बोर हो गए हैं। स्थिति यह है कि नायक की जगह उसका बेटा लायें तो ठीक बल्कि वह तो  खलनायक के मरने से पहले ही उसके बेटे का प्रशस्ति गान शुरु कर देते हैं ताकि उनके लिए भविष्य में सनसनी वाली सामग्री उपलब्ध होती रहे। कम से कम हिन्दी ब्लाग जगत में नाम, धर्म, तथा जाति बदलकर तो ब्लाग लेखक आते हैं ताकि उनके छद्मयुद्ध में नवीनता बनी रहे। हालांकि हिन्दी ब्लाग जगत के अधिकतर लेखक ऐसे छद्म युद्धों से दूर हैं पर समाचार पत्र पत्रिकाओं के स्तंभकार अपनी लेखनी में उनकी  वजह से ही   समूचे हिन्दी ब्लाग जगत को बुरा बताते हैं। दूसरे विषयों पर नज़र नहीं डालते। ब्लाग दिखाने वाले फोरमों के हाशिए पर (side bar) हिट दिखाये जा रहे इन ब्लाग को देखकर अपनी राय कायम करते हैं। बाकी ब्लाग देखने के लिए उनके पास न समय हा न इच्छा । देखें भी क्यों? उनका लक्ष्य तो आलोचना करना ही है!
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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22 फ़रवरी 2010

इल्जाम से डरते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (ilzam-hindi satire poem)

विश्वास तो करते हैं
पर साथ में धोखे की
गुंजायश भी रखते हैं।
वफा का आसरा करते हमेशा
पर घाव की मरहम भी साथ रखते हैं।
टूटे और बिखरे हैं कई बार
फिर भी कभी इरादा नहीं बदला
कोई हम पर धोखे और बेवफाई का इल्जाम लगाए
इस बात से डरते हैं।
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अपने गुस्से और घमंड से
लोगों को जिंदगी में हारते देखा है,
लूट के सामान से सजाया जिन्होंने घर अपना
बंद अंधेरी कोठरी में उनको रोते देखा है।
मेहनतकशों और ईमानदारों का
पसीना गिरते देखा जमीन पर
मगर आंसु बहाते किसी को नहीं देखा है।

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30 जनवरी 2009

सभी पियक्कड़ हो जाते, जो पहुंचे मधुशाला-व्यंग्य

हिंदी भाषा के महान कवि हरिबंशराय बच्चन ने मधुशाला लिखी थी। अनेक लोगों ने उसे नहीं पढ़ा। कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने उसे थोड़ा पढ़ा। कुछ लोगों ने जमकर पढ़ा। हमने उसके कुछ अंश एक साहित्यक पत्रिका में पढ़े थे। एक बार किताब हाथ लगी पर उसे पूरा नहीं पढ़ सके और लायब्रेरी में ं वापस जमा कर दी। मधुशाला के कुछ काव्यांश प्रसिद्ध हैं और देश की एकता के लिये उनका उपयेाग जमकर किया जाता है। उनका आशय यह है कि सर्वशक्तिमान के नाम पर बने सभी प्रकार के दरबार आपस में झगड़ा कराते हैं पर मधुशाला सभी को एक जैसा बना देती है। मधुशाला को लेकर उनका भाव संदेशात्मक ही था। एक तरह से कहा जाये तो उन्होने मधुशाला की आड़ में समाज को एकता का संदेश दिया था। हमने अभी तक उसके जितने भी काव्यांश देखे है उनमें मधुशाला पर लिखा गया है पर मद्यपान पर कुछ नहीं बताया गया। सीधी भाषा में कहा जाये तो मधुशाला तक ही उनका संदेश सीमित था पर मद्यपान में उसमें गुण दोषों का उल्लेख नहीं किया गया।
अब यह बताईये कि मधुशाला में मद्यपान नहीं होगा तो क्या अमृतपान होगा?बहुत समय तक लोग एकता के संदेशों में मधुशाला के काव्यांशों का उल्लेख करते हैं पर मद्यपान को लेकर आखें मींच लेते हैं। उनमें वह भी लोग हैं जो मद्यपान नहीं करते। नारों और वाद पर चलने का यह सबसे अच्छा उदाहरण है। मधुशाला पवित्र और एकता का संदेश देने वाली पर मद्यपान..............यानि देश में गरीबी का एक बहुत बड़ा कारण। इससे आंखें बंद कर लो। चिंतन के दरवाजे मधुशाला से आगे नहीं जाते क्योंकि वहां से मद्यपान का मार्ग प्रारंभ होता है ं।

चलिये मधुशाला को जरा आज के संदर्भ में देख लें। बीयर बार और पब भी आजकल की नयी मधुशाला हैं। जब से यह शब्द प्रचलन में आये हैं तब से मधुशाला की कविताओं का प्रंचार भी कम हो गया है। पिछले दिनों हमने पब का अर्थ जानने का प्रयास किया पर अंग्रेजी डिक्शनरी में नहीं मिला। तब एक ऐसे सभ्य,संस्कृत और आधुनिक शैली जीवन के अभ्यस्त आदमी से इसका अर्थ पूछा तब उन्होंने बताया कि ‘आजकल की नयी प्रकार की कलारी भी कह सकते हो।’ कलारी से अधिक संस्कृत शब्द तो मधुशाला ही है। दरअसल आजकल कलारी शब्द देशी शराब के संबंध में ही प्रयोग किया जाता है। बहरहाल मधुशाला का अर्थ अगर मद्यपान का केंद्र हैं तो पब का भी आशय यही है।

स्व. हरिबंशराय बच्चन की मधुशाला में कई बातें लिखी गयी हैं जिनमें यह भी है कि मधुशाला एक ऐसी जगह है जहां पर जाकर हर जाति,वर्ण,वर्ग,भाषा,धर्म और क्षेत्र का आदमी हम प्याला बन जाता है। उन्होंने यह शायद कहीं नहीं लिखा कि वहां स्त्रियों और पुरुष भी ं एक समान हो जाते है। अगर वह अपने समय में भी ऐसी बातें लिखते तो उनका जमकर विरोध हो जाता क्योंकि उस समय स्त्रियों के वहां जाने का कोई प्रचलन नहीं होता। मधुशाला प्रगतिवादियों की मनपसंदीदा पुस्तक है मगर मुश्किल है कि मद्यपान से आदमी का मनमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है और उस समय सारी नैतिकता और नारे एक जगह धरे रह जाते हैंं।

आजकल पब का जमाना है और उसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही जाने लगे हैं। मगर पब मेें ड्रिंक करने पर भी वहीं असर होता है जो कलारी में दारु और मधुशाला में मद्यपान करने से होता है। पहले लोग कलारियों के पास अपना घर बनाने ये किराये पर लेने से इंकार कर देते थे पर आजकल पबों और बारों के पास लेने में उनको कोई संकोच नहीं होता। मगर दारु तो दारु है झगड़े होंगे। पीने वाले करें न न पीने वाले उनसे करें। जिस तरह पबों का प्रचलन बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि आगे ‘आधुनिक रूप से’ फसाद होंगें। ऐसा ही कहीं झगड़ा हुआ वहां सर्वशक्तिमान के नाम पर बनी किसी सेना ने महिलाओं से बदतमीजी की। यह बुरी बात है। इसके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही होना चाहिये पर जिस तरह देश के बुद्धिजीवी और लेखक इस घटना पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं वह गंभीरता की बजाय हास्य का भाव पैदा कर रहा है। हमने देखा कि इनमें कुछ बुद्धिजीवी और लेखक मधुशाला के प्रशंसक रहे हैं पर उनको मद्यपान के दोषों का ज्ञान नहीं है। पहले भी कलारियों पर झगड़े होते थे पर उनमें लोग वर्ण,जाति,भाषा और धर्म का भेद नहीं देखते थे-क्योंकि मधुशाला के संदेश का प्रभाव था और सभी झगड़ा करने वाले ‘हमप्याला’ थे। मगर अभी एक जगह झगड़ा हुआ उसमें पब में गयी महिलाओं से बदतमीजी की गयी। यह एक शर्मनाक घटना है और उसके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही भी की जा रही पर अब इस पर चल रही निरर्थक बहस में ं दो तरह के तर्क प्रस्तुत किया जा रहे हैं।

1.कथित प्रगतिवादी लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग इसमें अपनी रीति नीति के अनुसार महिलाओं पर अनाचार का विरोध कर रहे हैं क्योंकि मधुशाला में स्त्रियों और पुरुषों के हमप्याला होने की बात नहीं लिखी।
2.गैरप्रगतिवादी लेखक और बुद्धिजीवी महिलाओं के शराब पीने पर सवाल उठा रहे हैं। कुछ दोनों का हमप्याला होने पर आपत्ति उठा रहे हैं।
हम दोनों से सहमत नहीं हैं।

जहां तक घटना का सवाल है तो हमें यह जानकारी भी मिली है कि वहां कुछ पुरुषों के साथ बदतमीजी की गयी थी। इसलिये केवल महिलाओं के अधिकारों की बात करना केवल सतही विचार है। महिलाओं को शराब नहीं पीना चाहिये तो शायद इस देश के कई जातीय समुदायों के लोग सहमत नहीं होंगे क्योकि उनमें महिलायें भी मद्य का अपनी प्राचीन परंपराओं के अनुसार सेवन करती हैं। किसी घटना पर इस तरह की सोच इस बात को दर्शाती हैं कि लोगों की सीमित दायरे में कुछ घटनाओं पर लिखने तक ही सीमित हो रहे हैं। मजे की बात यह है कि मधुशाला पढ़ने वाले हमप्यालों के एक होने पर तो सहमत हैं पर झगड़े होने पर तमाम तरह के पुराने भेद ढूंढ कर बहस करने लगते हैं। बहरहाल इस पर हमारी एक कुछ काव्य के रूप में पंक्तियां प्रस्तुत हैं।

किसी भी घर का बालक हो या बाला
पियक्कड़ हो जाते जो पहुंचे मधुशाला
मत ढूंढों जाति,धर्म,भाषा,और लिंग का भेद
सभी को अमृतपान कराती मधुशाला
नशे में टूट गया, एक जो था गुलदस्ता
हर फूल को अपने से उसने अलग कर डाला
जो खुश होते थे देखकर रोज वह मंजर देखकर
करने लगे आर्तनाद,भूल गये वह थी मधुशाला
मद्यपान की जगह होगी जहां, वहां होंगे फसाद
नाम पब और बार हो या कहें अपनी मधुशाला
...................................................

आदमी हो या औरत पीने का मन
किसका नहीं करता
यारों, चंद शराब के कतरों की धारा में
संस्कृति नहीं बहा करती
आस्था और संस्कारों की इमारत
इतनी कमजोर नहीं होती
टूट सकती है शराब की बोतल से
जो संस्कृति वह बहुत दिन
जिंदा रहने की हक भी नहीं रखती
अपने इरादों पर कमजोर रहने वाला इंसान ही
यकीन को जिंदा रखने के लिये जंग की बात करता

..........................................

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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3 जनवरी 2009

असली फिल्म के नायक और खलनायक-व्यंग्य

युद्ध और आंतक पर बहुत सारी सामग्री टीवी चैनलों, समाचार पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर पढ़ने को मिल जाती है। सभी में तमाम तरह के वाद विवाद और प्रतिवाद पढ़ने, देखने और सुनने को मिल जते हैं। मगर ऐसा लगता है कि कुछ छूट रहा है। विद्वान गण केवल जो दिख रहा है या दिखाया जा रहा है उसी पर ही ध्यान केंद्रित किये हुऐ है। अपनी तरफ से न तो कोई उनका अनुमान लगाते हैं और नहीं कोई राय रखते हैं। यह बात केवल हिंदी में दर्ज सामग्री पर हो रही है। इसलिये अंग्रेजी पढ़ने और लिखने वाले शायद इस बात से इतफाक न रखें कि सब कुछ प्रायोजित लग रहा हैं । ऐसा लग रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही सब कुछ ऐसा प्रायोजित किया जा रहा है कि विद्वान लोग उसे देखकर ही लिखते हैं।

इस लेखक को गुरूजी ने जो ज्ञान दिया था। वह यह था कि ‘जो तस्वीर दिखाई जा रही है उसके पीछे जाकर देखो। तस्वीर सामने से आकर्षक होती है इसलिये लोग उसे दिखाते है पर उसके पीछे जो पुट्ठा या कागज होता है वह नहीं दिखाते। अगर तुम लेखक बनना चाहते हो तो किसी समाचार, घटना या दृश्य को देखकर उस पर विचार तो करो पर फिर उसके पीछे क्या है या क्या हो सकता है इस पर भी नजर डालो।’

अब हम जैसा अल्पबुद्धि वाला आदमी जो हमेशा ज्ञान की तलाश में रहता है अगर उसे लगे कि यह बात ज्ञान की तो गांठ से बांध लेता है। सो बांध ली। अपने लिखे पर कई बार हास्यास्पद स्थिति का सामना भी करना पड़ता है। लोग कटाक्ष करते हैं कि ‘यार बहुत गहराई से सोचते हो।’
तब यह बात मजाक लगती है क्योंकि उस सोच में कहीं गहराई नहीं होती । बस! होता है जो सामने दिख रहा है उसके पीछे झांकने की कोशिश भर होती है। युद्ध और आंतक पर पढ़ पढ़ कर हमेशा ऐसा सोचते हैं आखिर कौनसी चीज है जो दिख नहीं रही और दिख रही हो तो फिर उसके पीछे और क्या हो सकता है। अपने साधन सीमित है सो कही उड़कर अमेरिका या इजरायल तो जा नहीं सकते। आम आदमी है सो बड़े संपर्क कुछ बताने के लिये उपलब्ध नहीं है। सो अपना दिमाग चल गया तो बस चल गया।

एक ब्लाग पर एक विद्वान महोदय का लेख पढ़ लिया। इजरायल और फलस्तीन संधर्ष पर था। नाम वगैरह इसलिये नहीं दे रहे क्योंकि जो लिख रहे हैं वह मूर्खतापूर्ण ही लग रहा है। उसमें लिखा गया था कि गाजापट्टी की पंद्रह लाख जनता परेशान है। वहां गरीबी है और उनकेत अपने संगठन हमास में दिलचस्पी न होने के बावजूद आम लोग इजरायल के हमले झेल रहे हैं। उसमें इजरायल और अमेरिका दोनों को कोसा गया है।

हम सोच रहे थे कि आखिर पूरे विश्व में आतंक के विरुद्ध यह दोनों देश ही क्येां आका्रमक होते दिख रहे है? दूसरा कोई होता है तो उनको सांप सूंघ जाता है। सो दिमाग धूमने लगा। अरे यह क्या? हमारी एक बात पर तो नजर गयी नहीं। अमेरिका और इजरायल दोनों आधुनिक हथियारों के निर्माता और विक्रेता हैं। जब अमेरिका की किसी से खटकती है या वह स्वयं ही खटकता है तो पचहत्तर हजार फीट ऊपर से बमबारी करता है। हजारों मील दूर से मिसाइलें फैंकता है। इजरायल भी गाहे बगाहे फलस्तीन पर बरसता है। कहीं यह तो नहीं कि यह अपने लिये हथियारों की प्रयोगशाला चुनते हों। अमेरिका तो इधर उधर परमाणुरहित देश ढूंढता है पर इजरायल को तो स्थाई रूप से प्रयोगशाला मिली हुई है।

शक की गुंजायश पूरी है। उस दिन एक हिंदी में बेवसाइट देखी। उसमें अमेरिका के कुछ प्रोफेसरों ने अपने विचार कुछ इसी तरह दिये थे। उस समय लगा कि वाकई वहां बोलने की आजादी है क्योंकि उनके विचार हमारे देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों से मेल खाते हैं। वह अपने ही देश की इराक की नीतियों से संतुष्ट नहीं थे। हमारे देश में देशभक्ति से ओतप्रोत होने के कारण बुद्धिजीवी ऐसे विचार रखने से कतराते हैं और जो रखते हैं तो उनसे लोग नाराज हो जाते है। हालांकि ऐसे नाराज लोगों में हम स्वयं भी होते हैं। उस लेख को पढ़कर लगा कि वाकई किसी के विचार लिखने पर उत्तेजित नहीं होना चाहिए। वैसे विश्व क अनेक विद्वान अमेरिका पर ऐसे आरोप लगाते हैं कि वह युद्ध के लिये वजहें बनाता है।

बहरहाल इन दोनों देशों की ताकत भी कम नहीं है। अपने देश में ही इन दोनों देशों के ढेर सारे समर्थक है। हम तो किसी के न विरोधी हैं न समर्थक पर जो दिख रहा है उसके पीछे जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि जो देश हथियार निर्यातक देश हैं उनकी गतिविधियों पर दृष्टिपात करना चाहिये। इजरायल आतंकवाद से प्रभावित अनेक देशों को अपने हथियार और उपकरण बेच रहा है। उसकी तकनीकी क्षमता भी अब काफी प्रसिद्ध हो गयी है। इतनी कि हाल में अखबारों में एक चर्चा पढ़ने को मिली कहीं मृत आंतकवादियों के शव का परीक्षण कर यह बताया जा सकता है कि वह किस देश के किस प्रांत और शहर का है-ऐसी तकनीकी इजरायल ने बनाई है। तय बात है कि वह पहले परीक्षण कर बतायेगा और फिर उसे बेचेगां। अब अगर विश्व में आतंकवाद ही नहीं होगा तो उसके हथियार और तकनीकी कौन खरीदेगा? संभव है कि फलस्तीन में वह इसलिये उग्र होता हो कि पूरे विश्व में उसकी प्रतिक्रिया हो और लोग दूसरी जगह आतंकवाद फैलायें। प्रसंगवश दुनियां में आंतक का पहला शिकार इजरायल ही था और पहला आतंकवादी भी वहीं का था। ओलंपिक में इजरायल के फुटबाल टीम के सात सदस्यों की हत्या करने वाला कार्लोस कभी इजरायल के हाथ नहीं आया या उसने ऐसी कोशिश ही नहीं की-कहना मुश्किल है। मगर उसके बाद हम देख रहे हैं कि अमेरिका हो या इजरायल अपने जिन जाने पहचाने दुश्मनों से लड़ने निकलते हैं वह कभी उनक हाथ नहीं आते पर वह बढ़ते ही जाते हैं और मरते हैं उनके दुश्मनों के अनुयायी-अब वह होते हैं या नहीं यह अलग बात है।

यानि हम उनके दुश्मनों पर भी उतनी ही नजर डालें। उस लेख में चर्चा थी कि हमास ने अपने यहां ईरानी मिसाइलों का जमावड़ा किया और वह इजरायल पर बरसाईं। हमास एक मामूली संगठन है और अगर वह इजरायल पर हमला करता है तो उस पर भी शक तो होगा ही। मारे गये तो आम लोग पर हमास के नेताओं का क्या हुआ? क्या यह आंतकवाद और युद्ध किसी संाठगांठ का नतीजा है। ईरान की तकनीकी कोई अधिक प्रभावी हो ऐसी जानकारी नहीं है। उसकी मिसाइलें लेकर हमास ने अगर इजरायल पर हमला किया तो संदेह होता है कि कहीं दोनों तरफ से कमीशन तो नहीं खाया। एक तरफ ईरान ने कहा हो कि जरा हमारे उत्पाद का उपयोग कर देखो कि उनका क्या प्रभाव होता है। इजरायल तो खैर स्थाई दुश्मन( भले ही उसने फिक्स किया हो) है ही। शक इसलिये होता है कि नये साल में पूरे विश्व में इजरायल की आक्रामता की चर्चा होती रही। हमने कुछ ब्लाग पढे हैं जिनमें तमाम तरह की घटनाओं और दुर्घटनाओं की तारीख पर ही सवाल उठाया जाता है। ऐसा कहने वाले कहते हैं कि आप देखिये यह घटनायें तभी होती हैं जब अमेरिका में सुबह होती है दूसरा यह कि उनका अवकाश निकट होता है। वर्ष पुराना होने और नये पर आने के बीच कुछ ऐसा होता है जो अमेरिका और इजरायल के लोगों में चर्चा का विषय होता है-कहने का मतलब है कि यह ब्लाग लिखने वाले भी पता नहीं क्यों अमेरिका और इजरायल के लोगों को मानसिक खुराक देने के लिये समाचार प्रायोजित करने का संदेह व्यक्त करते हैं।
नहीं यह केाई आरोप नहीं हैं। समझ में यह बात नहीं आती कि आखिर क्या यह युद्ध और आतंक भी कहीं फिक्स तो नहीं होते? क्योंकि यहां जो खलनायक हैं वह अमरत्व प्राप्त कर लेते हैं और कहीं न दिखाई देते हैं न पकड़ाई आते हैं। अगर मर खप भी जायें तो कई वर्षों तक उनके अनुयायी उनको जीवित बताकर माल बटोरते रहेंगे। अगर कोई अन्य देश लड़ने को तैयार होता है तो यह उसकी मदद को भी नहीं जाते भले ही वह हथियार खरीदता हो। कहीं ऐसा तो नहीं यह दिखाते कोई हथियार हों और बेचते कोई और हों। अगर इनसे हथियार खरीदने वाला देश किसी अन्य देश से उलझ गया और हथियार तयशुदा गारंटी के अनुरूप कारगर नहीं हुए तो पोल खुल जाने का खतरा इनको सताता हों। इस देश में पूराने लोगों को आज भी कार्लोस की याद है और वह आखिरी तक फ्रंास में रहा। इजरायल ने उसे वापस लेने का कोई गंभीर प्रयास किया हो ऐसा याद नहीं आतां अमेरिका के शत्रू भी अभी तक पकड़ से बाहर हैं।

कभी कभी तो यह लगता है कि जिस तरह विश्व में पूंजीपति और हथियार कंपनियां ताकतवर है उनके लिये तो एक तरह से अपने व्यवसाय के लिये वास्तविक फिल्में बनाना आवश्यक हैं। इसलिये वह नायक और खलनायक प्रायोजित करती हैं और दुनियां भर के बुद्धिजीवी जो फिल्म नहीं देखते वही उनके लिये समीक्षक हो जाते हैं। कुछ लोग नायक के करतब देखकर ताली बजाते हैं तो कई खलनायक के प्रति सहानुभूति जताते हैं। सैट पर नायक और खलनायक का अभिनय करने के दौरान आपस में लडते हैं फिर एक हो जाते हैं। फिल्मी समीक्षक उनके अभिनय पर समीक्षायें लिखते हैं। अभी अमेरिका में नये नायक का आगमन हो रहा है कुछ विद्वान तो यही कह रहे हैं कि वह भी तयशुदा पटकथा के अनुरूप चले इसलिये ही यह सब हो रहा है। सच क्या है? कोई नहीं जानता। अब हमारा सोच पता नहीं विद्वतापूर्ण है कि मूर्खतापूर्ण यह नहीं जानते पर तस्वीर के पीछे जाकर द्रेखते हैं तो ऐसे ही ख्याल आते हैं।
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15 दिसंबर 2008

जूते को अस्त्र कहा जाये या शस्त्र-व्यंग्य

जूते का उपयोग सभी लोग पैर में पहनने के लिये करते हैं इसलिये उसकी अपनी कोई इज्जत नहीं है। हमारे देश में कोई स्त्री दूसरे स्त्री को अपने से कमतर साबित करने के लिये कहती है कि ‘वह क्या है? मेरी पैर की जूती के बराबर नहीं है।’

वैसे जूते का लिंग कोई तय नहीं किया गया है। अगर वह आदमी के पैर में है तो जूता और नारी के पैर में है तो जुती। यही जूती या जूता जब किसी को मारा जाता है तो उसका सारा सम्मान जमीन पर आ जाता है। अगर न भी मारा जाये तो यह कहने भर से ही कि ‘मैं तुझे जूता मारूंगा’ आदमी की इज्जत के परखच्चे उड़ जाते हैं भले ही पैर से उतारा नहीं जाये। अगर उतार कर दिखाया जाये तो आदमी की इज्जत ही मर जाती है और अगर मारा जाये तो तो आदमी जीते जी मरे समान हो जाता है।

इराक की यात्रा में एक पत्रकार ने अपने पावों में पहनी जूतों की जोड़ी अमेरिका के राष्ट्रपति की तरफ फैंकी। पहले उसने एक पांव का और फिर दूसरे पांव का जूता उनकी तरफ फैंका। यह खबर दोपहर को सभी टीवी चैनल दिखा रहे थे। दुनियां के सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर यह प्रहार भारत का ही नहीं बल्कि विश्व के हर समाज का ध्यान आकर्षित करता है। यानि कम से कम एक बात तय है कि जूता फैंकना विश्व के हर समाज में बुरा माना जाता है।

पत्रकार ने जिस तरह जूता फैंका उससे लगता था कि वह कोई निशाना नही लगा रहा था और न ही उसका इरादा बुश को घायल करने का था पर वह अपना गुस्सा एक प्रतीक रूप में करना चाहता था। वहां उसे सुरक्षा कर्मियों ने पकड़ लिया और वह भी दूसरा जूता फैंकने के बाद। अभी तक बंदूकों और बमों से हमलों से सुरक्षा को लेकर सारे देश चिंतित थे पर अब उसमें उनको जूते के आक्रमण को लेकर भी सोचना पड़ेगा। आखिर सम्मान भी कोई चीज होती है। हमारा दर्शन कहता है कि ‘बड़े आदमी का छोटे के द्वारा किया गया अपमान भी उसके लिये मौत के समान होता है।

इस आक्रमण के बाद बुश पत्रकारों से कह रहे थे कि ‘यह प्रचार के लिये किया गया है। अब देखिये आप उसके बारे में मुझसे पूछ रहे हैं।’

हमेशा आक्रमक तेवर अपनाने वाले उस राष्ट्रपति का चेहरा एकदम बुझा हंुआ था। उससे यह लग रहा था कि उनको अपने अपमान का बोध हो रहा था। उनका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे कि गोली से बचे हों।
हमारी फिल्मों में दस नंबर जूते की चर्चा अक्सर आती है पर मारे गये जूते का साइज अगर सात भी तो कोई अपमान का पैमाना कम नहीं हो जाता।

दुनियां में सभी महत्वपूर्ण स्थानों की सुरक्षा वहां मैटल डिटेक्टर से केवल बारूद की जांच की जाती है और अगर इसी तरह जूतों से आक्रमण होते रहे तो आने वाले समय में जूतों से भी सुरक्षा का उपाय होगा।

युद्ध में अस्त्र शस्त्र का प्रयोग होता है। जिनका उपयोग हाथ रखकर किया जाता है उनको अस्त्र और जिनका फैंक कर किया जाता है उनको शस्त्र कहा जाता है। अभी तक जूते को अस्त्र शस्त्र की श्रेणी में नहीं माना जाता अलबत्ता इसके अस्त्र के रूप में ही उपयोग होने की बात कही जाती है। जूतों से मारने की बात अधिक कही जाती है पर यदाकदा ही ऐसा कोई मामला सामने आता है। लोग आपस में लड़ते हैं। एक दूसरे को तलवार से काटन या गोली से उड़ाने की बात कही जाती है पर जूते से मारने की बात केवल कमजोर से कही जाती है वह भी अगर अपना हो तो।

एक सेठ जी के यहां अनेक नौकर थे पर वह अक्सर अपने एक प्यारे नौकर को ही गलती होने पर जूते से मारने की धमकी देते थे। वह नौकर भी चालू था। सुन लेता था क्योंकि वह वेतन के अलावा अन्य तरह की चोरियां और दांव पैंच कर भी अपनी काम चलाता था। उसका वेतन कम था पर आय सबसे अधिक करता था। बाकी नौकर यह सोचकर खुश होतेे थे कि चलो हमें तो कभी जूते से मार खाने की धमकी नहीं मिलती। कम से कम सेठ हमारी इज्जत तो करता है और इसलिये सतर्कता पूर्वक काम करते ताकि कभी उनको उसकी तरह से बेइज्जत न होना पड़े। उनको यह पता ही नहीं था कि सेठ उनको साधने के लिये ही उस नौकर को जूते से मारने की धमकी देता था। इज्जत सभी को प्यारी होती है । कई लोग गोली या तलवार से कम जूते की मार खाने से अधिक डरते हैं। तलवार या गोली खाकर तो आदमी जनता की सहानुभूति का पात्र बन जाता है पर जूते से मार खाने पर ऐसी सहानुभूति मिलने की संभावना नहीं रहती । उल्टे लोगों को लगता है कि चोरी करने या लड़की छेड़ने-यही दोनों आजकल जघन्य अपराध माने जाते हैं जिसमें पब्लिक मारने को तैयार रहती है-के आरोप में पिट रहा है। यानि इससे पिटने वाला आदमी हल्का माना जाता है।

एक बात तय रही कि जूता मारने वाला हाथ में पकड़े ही रहता है फैंकता नहीं है-अगर विरोधी के हाथ लग जाये और वह भी उससे पीट दे तो अपमान करने पर प्रतिअपमान भी झेलना पड़ सकता है। एक बात और है कि गोली या तलवार से लड़ चुके दुश्मन से समझौता हो सकता है पर जूते मारने या खाने वाले से समझौता करने में भी संकोच होता है। एक सज्जन को हमेशा ही गुस्से में आकर जूता उठाने की आदत है-अलबत्ता मारा किसी को नहीं है। अपने जीवन में वह ऐसा चार पाचं बार कर चुके हैं। वही बतातेे हैं कि जिन पर जूता उठाया है अब वह कहीं मिल जाने पर देखकर ऐसे मूंह फेर लेते हैं जैस कि कभी मिले ही न होंं न ही मेरा साहस उनको देखने का होता है।

जूता मारना या मारने के लिये कहना ही अपने आप में एक अपराध है। ऐसे में अगर कहीं जूता उठाकर मारा जाये तो वह भी किसी महान हस्ती पर तो उसकी चर्चा तो होनी है। वह भी सर्वशक्तिमान देश के राष्ट्रपति पर एक पत्रकार जूता फैंके। पत्रकार तो बुद्धिजीवी होते हैं। यह अलग बात है कि सबसे अधिक जूता मारने की बात भी वही कहते हैं कि उनकी बंदूक या तलवार चलाने की बात पर यकीन कौन करेगा? यह कृत्य इतना बुरा है कि जूता फैंकने वाले पत्रकार के साथियों तक ने कह डाला कि वह पूरे इराक का प्रतिनिधि नहीं है। कुछ लोगों ने घर आये मेहमान के साथ इस अपमानजनक व्यवहार की कड़ी निंदा तक की है

यह लगभग उस देश पर हमले जैसा है पर कोई देश उसका जवाब देने का सोच भी नहीं सकता। कोई वह जूते उठाकर उस पत्रकार की तरफ फैंकने वाला नहीं था। उसे सुरक्षा कर्मी पकड़ कर ले गये और यकीनन वह बिना जूतों के ही गया होगा। उसकी हालत भी ऐसे ही हुई होगी जैसी कि आतंकवादियों की बंदूक के बिना हो जाती है।

इतिहास में यह शायद पहली मिसाल होगी जब जूते का शस्त्र के रूप में उपयोग किया गया होगा। अब आखिर उन जूतों का क्या होगा? वह पत्रकार को वापस तो नहीं दिये जायेंगे। अगर दे दिये तो वह उन जूतों को नीलाम कर भारी रकम वसूल कर लेगा। पश्चिम में ऐसी ही चीजों की मांग है। उन जूतों को उठाकर ले जाने की समस्या वहां के प्रशासन के सामने आयेगी। अगर वह कहीं असुरक्षित जगह पर रखे गये तो तस्करों की नजर उस पड़ सकती है। अब वह जूते एतिहासिक हो गये हैं कई लोग उन जूतों पर नजर गड़ाये बैठेंगे। भारत की अनेक एतिहासिक धरोहरों पश्चिम में पहुंच गयीं हैं और यह तो उनकी खुद की धरोहर होगी। भारत की धरोहर का प्रदर्शन तो वह कर लेते हैं पर इस धरोहर का प्रदर्शन करना संभव नहीं है।

वैसे अपने देश में जूता मारने के लिये कहने की कई लोगों में आदत है पर इसका अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग करने की चर्चा कभी नहीं हुई। अब लगता है कि आने वाले इस सभ्य युग में यह भी एक तरीका हो सकता है पर यह पश्चिम के लिये ही है। अपने देश में तो हर आदमी क्रोध में आने पर जूता मारने की बात करता है पर हर कोई जानता है कि उसके बाद क्या होगा? वैसे यहां कोई नई बात नहीं है। किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि तीसरा युद्ध पत्थरों से लड़ा जायेगा। लगता है नहीं! शायद वह जूतों से लड़ा जायेगा। अमेरिका ने परमाणु बम का ईजाद कर जापान पर उसका उपयोग किया पर जूता परमाणु बम से अधिक खतरनाक है। परमाणु बम की मार से तो आदमी मर खप जाता है या कराह कराह कर जीता है पर जूते की मार तो ऐसी होती है कि अगर एक बार फैंका भी जाये तो कोई भी जूता देखकर वह मंजर नजर आता है। या मरने या कराहने से भी बुरी स्थिति है। अब सवाल यह है कि जूते को अस्त्र कहा जाये कि शस्त्र? दोनों की श्रेणी में तो उसे रखा नहीं जाता। या यह कहा जाये कि जूते को जूता ही रहने तो क्योंकि उसकी मार अस्त्रों शस्त्रों से भी गहरी होती है।

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