25 दिसंबर 2009

नकद और उधार-व्यंग्य क्षणिकाएं (nakad aur aur udhar-vyangya kavitaen)

 जेब में पैसा न हो तो भी

जश्न मना सकते हों उधार लेकर।

प्रचार महकमें के

दावों  में बह जाना आसान है

जो बाजार में खुशी खरीदने के लिये

सारे साधन जुटा लेता है

दुकान और कर्जेदार  का पता भी देता है

अगर भले हो तुम

पास नहीं आया नकद रुपया

तो भी चुकाओगे जान देकर।

--------------

उधार की रौशनी

कितनी देर चलेगी।

बाद में जिंदगी

ब्याज और किश्त की

अंधेरी गलियों में ही ढलेगी।

------

कभी बाजार में जेब में पैसा न हो तो भी

जश्न मना सकते हों उधार लेकर।

प्रचार महकमें के

दावों  में बह जाना आसान है

जो बाजार में खुशी खरीदने के लिये

सारे साधन जुटा लेता है

दुकान और कर्जेदार  का पता भी देता है

अगर भले हो तुम

पास नहीं आया नकद रुपया

तो भी चुकाओगे जान देकर।

--------------

उधार की रौशनी

कितनी देर चलेगी।

बाद में जिंदगी

ब्याज और किश्त की

अंधेरी गलियों में ही ढलेगी।

------

कभी बाजार में

आज नकद कल उधार की

तख्ती मिलती थी

अब किश्तों पर हर माल उपलब्ध

लिखा मिलता है।

कभी कभी तो लगता है कि

नकद माल बेचने से

सौदागर खुश नहीं होता

किश्तों पर ब्याज मिलने के ख्वाब से ही

उसका चेहरा खिलता है।



आज नकद कल उधार की

तख्ती मिलती थी

अब किश्तों पर हर माल उपलब्ध

लिखा मिलता है।

कभी कभी तो लगता है कि

नकद माल बेचने से

सौदागर खुश नहीं होता

किश्तों पर ब्याज मिलने के ख्वाब से ही

उसका चेहरा खिलता है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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19 दिसंबर 2009

स्यापा पसंद-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (syapa pasand-hindi vyangya kavita)

 कुछ लोगों की मौत पर

बरसों तक रोने के गीत गाते,

कहीं पत्थर तोड़ा गया

उसके गम में बरसी तक मनाते,

कभी दुनियां की गरीबी पर तरस खाकर

अमीर के खिलाफ नारे लगाकर

स्यापा पसंद लोग अपनी

हाजिरी जमाने के सामने लगाते हैं।

फिर भी तरक्की पसंद कहलाते हैं।

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लफ्जों को खूबसूरत ढंग से चुनते हैं

अल्फाजों को बेहद करीने से बुनते हैं।

दिल में दर्द हो या न हो

पर कहीं हुए दंगे,

और गरीब अमीर के पंगे,

पर बहाते ढेर सारे आंसु,

कहीं ढहे पत्थर की याद में

इस तरह दर्द भरे गीत गाते धांसु,

जिसे देखकर

जमाने भर के लोग

स्यापे में अपना सिर धुनते हैं।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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10 दिसंबर 2009

भ्रष्टाचार के विरुद्ध सम्मेलन क्यों नहीं करते-आलेख (Why not Conference against Corruption - hindi Article)

कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये कार्बन उत्सर्जन को लेकर एक
महासम्मेलन हो रहा है। पश्चिम के विकसित देश दुनियां की फिक्र बहुत करते
हैं। उनके न केवल फिक्र करना चाहिये बल्कि करते हुए दिखना भी चाहिये।
आखिर दुनियां के यह छह सात मुल्क ही पूरी सारे विश्व समुदाय रहनुमा बन
गये हैं। गरीब, विकासशील और एशियाई देशों के शिखर पुरुष हों या आम आदमी
उनकी तरफ आकर्षित होकर देखता रहता है। उनकी तूती बोलती है। चो जैसा
सम्मेलन बुलाओ। जब बुलाओ सभी देशों के प्रतिनिधि पहुंच जाते हैं। बहुत कम
लोगों को पताहोगा कि यह पश्चिमी देश भले ही औपचारिक रूप से अलग अलग हों
पर उनका ऐजेंडा एक ही है कि गरीब, विकासशील देशों के आर्थिक और प्राकृतिक
साधनों का दोहन इस तरह किया जाये कि उनकी खुद की अमीरी और ताकत बनी रहे।
इन देशों के नागरिकों को एक दूसरे के यहां आने जाने के लिये बहुत सारी छूट
है जबकि गरीब, विकासशील और एशियाई देशों के लिये ढेर सारे प्रतिबंध है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि ब्रिटेन और अमेरिका इन देशों के नेता है तो कभी
यह भी लगता है कि बाकी पश्चिमी राष्ट्र उनकी आड़ में अपनी ताकत दिखाते
हैं। कम से कम डेनमार्क के प्रस्ताव से-जिसमें विकसित राष्ट्रों को
कार्बन गैस उत्सर्जन के लिये तमाम छूटें देने और गरीब और विकासशील देशों
पर इस आड़ में अपना फंदा कसने वाली शर्ते शामिल हैं-यही लगता है। एक दम
व्यंग्य जैसा! इस प्रस्ताव को न केवल भारत ने बल्कि उसके साथ जुड़े जी 77
देशों के प्रतिनिधियों ने खारिज भी किया बल्कि यह भी बता दिया कि अगर यह
प्रस्ताव दोबारा उसने रखा तो वह इस बात को भूल जाये कि कोपेनहेगन का यह
सम्मेलन आगे भी जारी रहेगा।
चीन की प्रतिक्रिया थोड़ी आक्रामक हैं पर उसमें भी मजाक लगता है। उसने कहा
कि ‘वह आखिरी दम तक विकासशील देशों की हितों के लिये लड़ेगा।’
चीन की सदाशयता पर हम कोई आपत्ति नहीं कर रहे पर यह कमजोर व्यक्ति या देश
की प्रतिक्रिया लगती है जिसे मालुम है कि सामने वाला आखिर उसकी दम निकाल
सकता है। दूसरा यह भी कि अगर उसके पास को अंतिम समय रोकेगा पर अगर पास हो
गया तो वह सिर झुकाकर मान लेगा। इसकी जगह यह भी कहा जा सकता कि अगर
डेनमार्क इस प्रस्ताव को दोबारा रखेगा तो उसे काली सूची में डाल दिया
जायेगा, पर यह करने की ताकत किसी एशियाई देश में नहीं लगती भले ही वह इस
महाद्वीप का रहनुमा होने का दावा करता हों। यह एशियाई देशों की कमजोरी
है कि वह इन पश्चिमी देशों द्वारा आयोजित सम्मेलनों में उनके प्रस्तावों
पर ही विचार करते हुए समर्थन या विरोध करते हैं। अपनी तरफ से कोई नयी सोच
या समस्या वह सामने नहीं रखते। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्रसंध जैसी
संस्था जो कि केवल पश्चिमी देशों के वर्चस्व का बढ़ावा देती है उसकी
संस्थाओं में शामिल होकर अपने को गौरवान्वित समझते हैं। संयुक्त राष्ट्र
की सुरक्षा परिषद पिछले कई सालों से कोई उल्लेखनीय रूप से कार्य नहीं कर
पायी। अमेरिका चाहे जैसा प्रस्ताव पास करा लेता है और अगर विवादास्पद विषय
हो तो वह बिना प्र्रस्ताव के ही अपना काम करता है। इराक और अफगानिस्तान
युद्ध में सुरक्षा परिषद कोई भूमिका नहीं निभा पाया। इसके पांच स्थाई
सदस्य-अमेरिका, ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस और चीन हैं। जर्मनी, इजरायज
और जापान जैसे देश इसके स्थाई सदस्य नहीं है और न इसकी परवाह करते हैं।
पता नहीं अपने भारत देश के लो्ग इसका स्थाई सदस्य बनने के लिये क्यों
बेताब हैं। सुनने में यह भी आया कि अगर नये स्थाई सदस्य बने होंगे तो
उनके पास वीटो पावर नहीं होगा। अगर यह वीटो पावर नहीं है तो समझ लो कि
स्थाई सदस्य होना या न होना बराबर है। ऐसे में सुरक्षा परिषद की स्थाई
सदस्यता भीख की तरह लेना ही बेमानी है।
बहरहाल पश्चिम के देशों की अर्थव्यस्था का वजूद अपने आंतरिक आधारों पर कम
बाह्य आधारों पर अघिक टिका है इसलिये वह अन्य देशों को ऐसे कामों में
व्यस्त रखते हैं। कभी पर्यावरण पर सम्मेलन करेंगेतो कभी आतंकवाद पर!
जबकि इन समस्याओं के लिये वही अधिक जिम्मेदार हैं। आप पता कर लें एशिया
के उग्रपंथियों के ठिकाने किन देशों में हैं तो पश्चिमी देशों के नाम ही
सामने आयेंगे जो मानवाधिकार के पैरोकार होने का दावा करते हैं। कभी जलवायु
परिवर्तन का मामला उठायेंगे तो कभी व्यापार का ताकि दूसरे देशों पर रुतवा
जमा सकें।
विश्व भर में आतंकवाद, पर्यावरण प्रदू्रषण तथा अन्य अनेक संकट हैं। इन पर
विचार करना चाहिये पर यह भी देखना चाहिये कि पह किस वजह से हैं। बीमारी का
इलाज करने की बात समझ में आती है पर वह किस वजह से है यह जानना भी जरूरी
है। उस वजह से परे होने का उपाय करना भी जरूरी है। आतंकवाद और पर्यावरण
के साथ एक विश्वव्यापी समस्या है वह है भ्रष्टाचार। अनेक विद्वान कहते
हैं कि विकासशील देशों में भ्रष्टाचार चरम पर है। ऐसा नहीं है कि विकसित
राष्ट्र इससे अछूते हैं पर फिर भी वह इसका विचार नहीं करते न कोई सम्मेलन
करते हैं। विकासशील देशों का बहुत सारा पैसा इन देशों की बैंकों में
गुप्त रूप से पहुंचता है-गाहे बगाहे इसकी चर्चा समय समय पर होती है। कुछ
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि इसी पैसे से पश्चिम के विकसित राष्ट्र
अपना काम चला रहे हैं। वैसे अमेरिका में सरकारी रूप से चंदा लेना और देना
वैध माना जाता है कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि अंततः चंदा देने वालों को कोई
न कोई लाभ मिलता है। अधिक नहीं तो इतना तो मिल ही जाता है कि बाह्य
व्यापार करने वाले पूंजीपति अपनी सरकार के सहारे संबंधित देशोें का प्रभाव
डालते है-कहीं कहीं भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी देते हैं।
एक समय ब्रिटेन के बारे में कहा जाता था कि उसके राज्य में कभी सूर्य अस्त
नहीं होता है। इसका कारण यह था कि एशियाई देशों के एक बहुत बड़े भूभाग पर
उसका राज्य चलता था। धीरे धीरे वह छोटा होता गया। अलबत्ता अंग्रेजों ने
अपनी शिक्षा पद्धति कायम की। अंग्रेजों ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि
वह जो शिक्षा पद्धति इन देशों में स्थापित कर रहे हैं वह सदियों से उनके
लिये इस तरह गुलाम उपलब्ध करायेगी कि सब कुछ होते हुए भी यह देश कमजोर की
तरह ललकारेंगे ‘आखिरी दम तक लड़ेंगे।’
चीन एक ताकतवर मुल्क हैं वह धमका भी सकता था । वह यह भी डेनमार्क से पूछ
सकता था कि ‘यह प्रस्ताव तुमने रखा यह तो बाद की बात पहले यह बताओं कि इस
पर सोचा भी कैसे?’
कहने का तात्पर्य यह था कि भाषा कड़क भी हो सकती है। सुनने मे यह भी आया है
कि इस प्रस्ताव के पीछे ब्रिटेन की सोच काम कर रही थी। संभवतः ब्रिटेन को
यह लगा होगा कि आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से वह आज भाी इतना
ताकतवर है कि अन्य देश स्वतंत्र जरूर हैं पर उनका विवेक तथा पैसा तो उसका
गुलाम है इसलिये चाहे जैसा प्रस्ताव पास करा लेगा।
आतंकवाद, पर्यावरण प्रदूषण, मादक द्रव्य पदार्थों का व्यापार तथा अन्य
अनेक ऐसी समस्यायें हैं जिनकी जड़ में भ्रष्टाचार है। यह भ्रष्टाचार जब तब
नहीं मिटेगा तब कोई समस्या हल नहीं होगी मगर इसके विरुद्ध कोई सम्मेलन
नहीं करेगा। ब्रिटेन तो कभी नहीं क्योंकि उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था
से ही भ्रष्टाचार पनपा है और जिसके पास भी देश तथा समाज के प्रबंध का छोटा
भी अंश है वह अपने को राजा समझता है और बाकी को गुलाम। उनके लिये बैंकों
में जमा अपनी राशि इष्ट देवी है जिससे बढ़ते देख वह प्रसन होते हैं। फिर
जिस तरह अंग्रेजों ने इन एशियाई देशों से पैसा कमाकर अपने देश भेजा आज
उनके गुलाम यही काम रहे हैं। देखा जाये जो ब्रिटेन और अमेरिका ने आज तक
भी किसी परमाणु संपन्न राष्ट्र के खिलाफ युद्ध नहीं जीता पर फिर उसके चीन
जैसा प्रतिद्धंदी उसके सामने नम्र भाषा में बात करता है तब संदेह होता
है। यही कारण है कि इन विकसित राष्ट्रों ने भारत के प्रस्ताव को भी उसी
तरह खारिज किया जबकि वह विचारणीय था और उसमें व्यंग्य जैसा कुछ भी नहीं
था। बहरहाल विकासशील देशों के भ्रष्टाचार से अमीर हुए मुल्कों से यह आशा
करना ही बेकार है कि वह भ्रष्टाचार पर कभी कोई महासम्मेलन करेंगे।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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5 दिसंबर 2009

चिंताओं की गठरी-हिन्दी शायरी (chintaon ki gathri-hindi shayri)

 जो तुम भी चाहोगे

इंसानी बुत बनकर

बड़े कहलाओगे।

सीख लो नटों के इशारों की डोर पर नाचना

जमाने में मशहूर हो जाओगे।

आम इंसान की अगर

नसीब हुई है जिंदगी

करो उसी की बंदगी

आजादी में सांसें ले रहे हो

इसी पर करो फख्र

खुश रहो इस बात पर

कि नहीं है गिरने की फिक्र

बड़े बनकर

गंवा बैठोगे अपना अमन

कितनी भी ऊंचाई पर जाओ

चिंताओं की गठरी सिर पर उठाओगे।

पर्दे के पीछे बैठे काले चेहरों से

कभी मुंह नहीं फेर पाओगे
 
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25 नवंबर 2009

अब मत पूछना-हिंदी हास्य कविता (ab mat poochna-hindi haysa kavita)

 माशुका ने पूछा आशिक से

‘अगर शादी के बाद मैं

मर गयी तो क्या

मेरी याद में ताजमहल बनवाओगे।’

आशिक ने कहा

‘किस जमाने की माशुका हो

भूल जाओ चैदहवीं सदी

जब किसी की याद में

कोई बड़ी इमारत बनवाई जाती थी,

फिर समय बदला तो

किसी की याद में कहीं पवित्र जगह पर

बैठने के लिये बैंच लगती तो

कहीं सीढ़ियां बनवायी जाती थी,

अब तो किस के पास समय है कि

धन और समय बरबाद करे

अब तो मरने वाले की याद में

बस, मोमबत्तियां जलाई जाती हैं

दिल में हो न हो

बाहर संवेदनाएं दिखाई जाती हैं

हमारा दर्शन कहता है कि

जीवन और मौत तो

जिंदगी का हिस्सा है

उस पर क्या हंसना क्या रोना

अब यह मत पूछना कि

मेरे मरने पर मेरी अर्थी पर

कितनी मोमबतियां जलाओगे।’
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16 नवंबर 2009

पहले देवत्व का प्रमाण दो-हिन्दी भाषा पर लेख (hindi article hindi controversy or dispute)

हिंदी भाषा की चर्चा अक्सर विवादों के कारण अधिक होती है। विवाद यही कि हिंदी थोपी जा रही है या हिंदी वाले दूसरी भाषाओं को कमतर मानते हैं। ऐसे बहुत सारे विवाद हैं जो बरसों से थम नहीं रहे। होता यह है कि कोई शख्स उस विवाद को ढोते हुए बूढ़ा हो जाता है तो लगता है कि विवाद थम गया पर फिर कोई उसका वारिस उठ खड़ा होता है तो लगता है कि विवाद फिर नये रूप में आ गया है। ऐसे केवल भाषा के साथ ही नहीं बल्कि हर प्रकार के विवाद से है जो शायद खड़े ही इसलिये किये जाते हैं कि उनका कभी निराकरण ही न हो। हिंदी के विवाद का भी कोई निपटारा आगे बीस साल तक नहीं होना है। इसलिये हिंदी का चाल, चरित्र और चेहरा फिर से देखना जरूरी है जिसे बहुत कम लोग समझ पाते हैं।
हिंदी संस्कृत के बाद विश्व की दूसरी आध्यात्मिक भाषा है। इसका मतलब सीधा यही है कि जैसे जैसे लोगों की अध्यात्मिक ज्ञानपिपासा बढ़ेगी हिंदी का प्रभाव स्वतः बढ़ेगा। फिर संकट कहां हैं?
जो लोग अंतर्जाल पर सक्रिय नहीं है उनका क्या कहें जो सक्रिय है वह भी नहीं समझ पा रहे कि हिंदी अब सांगठनिक ढांचों के दायरे’-टीवी, किताब, फिल्म तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं-से बाहर निकल कर अनियंित्रत गति से अंतर्जाल पर बढ़ रही है। गूगल के प्रयासों को तो आप जानते हैं। इधर हिंदी में ही वेबसाईटों के पते होने की बात भी चल रही है। ऐसे में सांगठिनक ढांचों में सक्रिय खास वर्ग में चिंता फैली हुई है और हिंदी पर उठ रहे विवाद उसका एक प्रमाण हैं। घबड़ाहट हो रही है कि हिन्दी कहीं अंतर्जाल पर अंग्रेजी के समकक्ष न स्थापित हो जाये। अगर स्थापित हो तो फिर उस नियंत्रण अपना नियंत्रण रहे इसके लिये प्रयत्नशील हिंदी के विवादों पर अधिक बोल और लिख रहे हैं।
बात अधिक न करते हुए यह समझाना जरूरी है कि हिंदी के ठेकेदारी भले ही दिखावे के लिये कई लोग करते हैं पर हिंदी ऐसी अध्यात्मिक भाषा है जो साफ सुथरे चरित्र के साथ ही कथनी और करनी के भेद से परे रहने की शर्त रखती है। आप चाहे हिंदी में कितने भी उपन्यास, कहानियां, व्यंग्य या अन्य रचनायें लिखे आम हिंदी भाषी का यह स्वभाव है कि वह आपके चरित्र को देखता है। आप हिंदी के विकास का नारा लगायें खूब प्रचार मिलेगा पर हिंदी भाषियों का यह स्वभाव है कि जब तक आपकी रचनाओं के आध्यात्मिक ज्ञान और चरित्र में देवत्व का बोध नहीं होगा वह आपको हृदय से सम्मान नहीं देगा। हिंदी में यह भाव संस्कृत से ही आया है। सच बात तो यह है कि संस्कृत कभी की लुप्त हो गयी होती अगर उसमें अध्यात्मिक रचनाओं का खजाना नहीं होता।
कई लोगों को यह अजीब लगे पर जरा वह स्वयं अपने अंदर झांकें। भक्ति काल के कबीर, तुलसी, सूर, मीरा तथा अन्य कवियों को नाम जन जन में छाया हुआ मिलेगा भले ही उनकी रचनायें हिंदी में अनुवाद कर पढ़ी और सुनाई जाती हैं। इसके बाद भी इतने सारे कवि लेखक और चिंतक हुए पर उनको वही लोग जानते हैं जो अधिक शिक्षित हैं। भक्ति काल के कवियों का नाम गांव गांव में जाना जाता है मगर यह बात आप उसके बाद के कवियों और लेखकों के बारे में नहीं कह सकते। इससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदी भाषी लोग ऐसी रचनायें देखना चाहते हैं जिनसे कुछ जीवन में सीखने का अवसर मिले। साथ ही कवि या लेखक का चरित्र भी उनके लिये प्रेरक होना चाहिये। संस्कृत में वाल्मीकि, वेदव्यास तथा महर्षि शुक का नाम लेखक के रूप में नहीं बल्कि देवता की तरह लिया जाता है। अगर आप अपने जीवन में केवल लिखने के लिये ही लिखते हैं और यह बात प्रमाणित नहीं होती कि आपका चरित्र वैसा ही है तो हिंदी में आपको अधिक सम्मान नहीं मिलेगा भले ही आप कितनी भी संस्थाओं से पुरुस्कार जीत लें। समाज के आपसी समझौतों और द्वंद्वों के बीच में सामग्री ढूंढकर उस पर गद्य या पद्य लिखने से केवल आप सम्मानीय नहीं हो जायेंगे बल्कि उसमेें ऐसे निष्कर्ष भी रखने पड़ेंगे जिनमें अध्यात्मिकता का बोध होता हो।
यहां अध्यात्म से आशय भी स्पष्ट कर दें। श्रीमद्भागवत गीता में अध्यात्म हमारी देह के अंदर मौजूद वह तत्व है जो परमात्मा का अंश है। इसी को जानने समझने की प्रक्रिया का नाम अध्यात्मिकता है। इस प्रक्रिया से निकले संदेश को ही अध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है। देह से संबंधित सारे ज्ञान सांसरिक होते हैं जिनको आप विज्ञान भी कह सकते हैं। आप अपनी रचनाओं में सांसरिक बातों पर लिखकर खूब नाम और नामा कमा सकते हैं पर सामान्य हिंदी भाषी-यह नियम क्षेत्रीय भाषाओं पर भी लागू है-आपको देव लेखक नहीं मानेगा। इतना ही नहीं अगर आप हिंदी का विरोध भी करते हैं तो बहुत कम लोग उस पर विचलित होंगे। वजह हिंदी के स्वाभाविक अध्यात्मिक भाव से ओतप्रोत लोग यह जानते हैं कि जिसके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वही ऐसा करता है।
इसलिये हिंदी के समर्थक और विरोधियों को सामान्य हिन्दी भाषी से यह अपेक्षा बिल्कुल नहीं करना चाहिए कि वह उनके द्वंद्वों को देखकर उनको अनुग्रहीत करने वाला है। केवल हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि किसी भी भारतीय भाषा का भी यही स्वभाव है और हिन्दी का विरोध किसी भी भाषा का आम आदमी नहीं करेगा। आखिर इसमें भी उन्हीं पवित्र नामों का समावेश है-यथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक देव, शिवाजी, समर्थ रामदास, कबीर, तुलसी, रहीम, सूरदास, तथा सुब्रह्मण्यम भारती-जो कि अन्य भाषाओं में है। लोगों की भाषा अलग है पर उनके मन में बसे नाम वैसे ही हिंदी में है तो भला आम आदमी इसका क्यों अपमान करना चाहेगा?
इसलिये हिंदी के समर्थक अगर यह सोचते हों कि हिंदी बचाने के नारे पर सब उनके साथ आकर खड़े हों तो उनको अपने चरित्र में देवत्व का प्रमाण देना होगा। उसी तरह हिंदी के विरोध करने वालों को भी यह प्रमाणित करना होगा कि वह प्राचीन काल के देवताओं और दैत्यों से अधिक शक्तिशाली हैं। यह हिन्दी अध्यात्म की भाषा है जो बिना शब्द बोले भी गेय होती है-अरे, आपने देवताओं के नाम सुने तो होंगे उनके फोटो देखकर कोई भी पहचान जाता है कि यह किसका नाम है भले ही उस पर नाम न लिखा हो। उसी तरह मंदिर में जाकर कोई गैर हिंदी भाषी आदमी हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम करता है तो उसके पास खड़ा गैर हिन्दी भाषी यह जानते हैं कि वह भगवान को सादर प्रणाम कर रहा है। इस क्रिया को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जाता पर हाथ पांव उसकी अनुभूति करा देते हैं अगर आपको इस पर शक हो तो वृंदावन या हरिद्वार में जाकर ऐसे स्थानों-यथा बांके बिहारी मंदिर और हर की पौड़ी-पर जाकर देखें जहां अनेक लोग ऐसे आते हैं जिनको हिन्दी नहीं आती पर वह अपने लोगों के साथ वहां आकर अपने मन को प्रफुल्लित करते हैं। वहां हिन्दी अव्यक्त है पर उसका भाव सभी के मन में है।
अधिक क्या लिखें? सभी भारतीय भाषाऐं अध्यात्मिक ज्ञान से संपन्न हैं इसलिये उनके आपसी विरोध संभव नहीं है। हमें तो लगता है कि यह विवाद वह लोग योजनाबद्ध ढंग से जीवित रखना चाहते हैं जो हिन्दी या भारतीय भाषा बोलते हैं पर उसके अध्यात्मिक ज्ञान का उनमें अभाव है। यह हमारा मत है। हम कोई सिद्ध नहीं है। जो एक आम आदमी के रूप में आता है लिख देते हैं। कोई गल्ती हो उससे पीछे हटने में हमें संकोच नहीं होता क्योंकि अध्यात्मिक ज्ञान पढ़ते हुए हमने यही सीखा है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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13 नवंबर 2009

महापुरुषों का अनुसरण-हिंदी हास्य कविता (anusaran-hindi hasya kavita)

अपने विरोधी पर
शब्द प्रहार करते हुए उन्होंने कहा
‘वह बरसों जनता की सेवा में लगे हैं
लोग भी अब उनके चेहरे से थके हैं
नया चेहरा सामने नहीं आने देते
जहां मौका मिलता वहीं
अपने लिये हाथ फैला लेते हैं।
हमें देखो
अब तो सब छोड़ दिया है
नये चेहरों को जनता से जोड़ दिया है
बेटी को सौंप दिया है
पत्रकारिता का जिम्मा
बेटे को की जनसेवा की विरासत
अब हमारे घर में
कोई नहीं बचा युवा पीढ़ी में निकम्मा
हम तो करते हैं
महापुरुषों का अनुसरण
जो नयी पीढ़ी को आगे आने का मौका देते हैं।
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5 नवंबर 2009

अभिव्यक्ति की ताकत-कविता और लघु आलेख ( abhivyakti ki taqat-kavita aur alekh)

अक्सर लोग आपस में अपने दर्द की चर्चा करते हुए जी हल्का कर लेते हैं। उनकी ढेर सारी शिकायत अपने और गैर लोगों से होती हैं। उनके सामने कहते हुए कहीं संकोच तेा कहीं डर होता है कि वह व्यक्ति नाराज न दुःखी न हो जाये जिसके प्रतिकूल बात कह रहे हैं। फिर हम देख रहे हैं कि सदियों से बड़े लोगों द्वारा छोटे लोगों पर अनाचार की ढेर सारी कहानियां हैं। जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर होने वाले संघर्षों में हमेशा आम आदमी निशाना बना है। इस संघर्ष से लगने वाली आग में आम इंसान के घर और झोंपड़ियां जली हैं। कभी महलों के जलने की चर्चा नहीं सुनने में नहीं आती। कभी कभी तो निराशा होती है पर कभी यह देखकर दिल प्रफुल्लित होता है कि आज भी समाज में दरियादिल लोग हैं जो धर्म के नाम पर होने वाले कार्यक्रमों में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते हैं। लोग धर्म के नाम पर छोटे कार्यक्रम कर अपने लिये खुशियां जुटाते हैं।
सच तो यह है कि गरीबों के कल्याण के नाम पर अनेक पेशेवर लोग अपने अभियान चलाते हैं। उनके दो उद्देश्य ही होते हैं एक तो उसके नाम पर अमीरों से चंदा वसूल करें और गरीब से पहले ही दाम वसूल कर लेते हैं या फिर उनको मुफ्त में अपने अभियान में पैदल दौड़ लगवाते हैं अलबत्ता उनके भले का काम धेले भर का नहीं होता।
हमारा देश धार्मिक प्रधान माना जाता है। धर्म के नाम पर सत्संग और सम्मेलन इतने होते हैं कि उसे देखकर लगता ही नहीं है कि यहां कोई राक्षस भी है। सभी जगह देवताओं के समूह दिखाई देते हैं। यह सत्संग या सम्मेलन केवल भारत में ही उत्पन्न विचाराधाराओं को मानने वाले लोगों द्वारा आयोजित नहीं किये जाते बल्कि बाहर उत्पन्न विचाराधाराओं के लोग भी करते हैं। सभी प्रकार के धर्म सम्मेलनों में गरीबों के खाने पीने के इंतजाम किये जाते हैं। अगर धार्मिक जुलूस हों तो जगह जगह पानी और प्रसाद की व्यवस्था का दौर सभी धर्म के लोग करते हैं। ऐसा नहंी लगता कि विदेशों में रहने वाले भारतीय या अन्य धर्मी ऐसे कार्यक्रंम करते हों। यही कारण है कि धर्म जितनी शिद्दत से यहां माना जाता है कहीं अन्य नहीं। धार्मिक संवदेनाओं के कारण यहां वाद विवाद भी अधिक होते हैं।
धर्म प्रधान होने के बावजूद भी इस समाज में ही भ्रष्टाचार, अनाचार, व्याभिचार तथा दुव्र्यवहार की घटनायें इतनी अधिक होती हैं कि उनकी कहानियों पर अनेक ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। देश की छबि विदेश में क्या देश में ही खराब हो गयी है। इसका कारण यह है कि लोग आवेश, लालच, मोह तथा अहंकार में प्रतिदिन ऐसे काम करने से बाज नहीं आते तो हर धर्म की दृष्टि से गलत हैं। सभी धर्म, जातियों, भाषाओं और क्षेत्र के नाम पर बने समूहों के झंडे तले ऐसी घटनायें होती हैं कि कोई यह दावा कर ही नहीं सकता कि उसके समूह के सभी सदस्य पवित्र तथा उदार हैं। आखिर ऐसा क्यों?
इसका उत्तर यही है कि लोग अपने को उस समय अभिव्यक्त नहीं करते जब उचित समय हो। जहां एक आम आदमी पर अनाचार होता है तो वहां दूसरा यह सोचकर मुंह फेर लेता है कि स्वयं के साथ तो नहीं हो रहा है। जब उसके साथ होता है तो दूसरा भी ऐसा ही करता है। परिणामस्वरूप पूरे समाज में बड़े वर्ग का अनाचार, भ्रष्टाचार, तथा व्याभिचार निर्बाध गति से चलता रहता है। इसका कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है। जरूरत है अपनेे अंदर के भय समाप्त करने की तभी आम आदमी कोई लडाई लड़ सकता है। उसे अपनी जुबान का सही समय पर उपयेाग करना चाहिये और अपनी पीड़ा सभी के सामने कहकर हल्का होने की बजाय वहां कहना चाहिये जहां समस्या का हल होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सामान्य लोग धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय आधार बने समूहों के पिछलग्गू होने की बजाय व्यक्ति आधार पर एक दूसरे से संपर्क बनायें तथा अपनी सामूहिक अभिव्यक्ति का एक स्वर दें। प्रस्तुत है इस पर एक स्वरचित शेर
आखिर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा।
यूं जमाना खास लोगों के जुर्म सहेगा।
शायद जब तक कुदरत से तोहफे में मिली
जुबान से अपना दर्द पूरी ताकत से नहीं कहेगा।।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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31 अक्तूबर 2009

बहार और कगार-हिंदी कविता (bahar aur kagar-hindi kavita)

ज़िन्दगी के देखे दो ही रास्ते
एक बागों की बहार
दूसरा उजाड़ की कगार का.

चलती है टांगें
मकसद तय करता है मन
दुश्मन की शान में गुस्ताखी करना
या तारीफ के अल्फाज़ कहकर
दिल खुश करना यार का..

फिर भी समझ का फेर तो
होता है इंसान में अलग अलग
कहीं रौशनी देखकर अंगारों में
अपने पाँव जला देता है
कहीं प्यार के वहम में
अपनी अस्मत भी लुटा देता है
जिंदगी है उनकी ही साथी
जो आगे कदम बढ़ाने से पहले
अनुमान कर लेता है
समय और हालत की धार का..

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20 अक्तूबर 2009

जल्दी जीतने की कोशिश-व्यंग्य कविता (jaldi jeetne ki koshish-hindi vyangya kavita)

भीड़ में अपनी पहचान ढूंढते हुए
क्यों अपना वक्त बर्बाद करते हो.
भीड़ जुटाने वाले सौदागरों के लिए
हर शख्स एक बेजान शय है
अपनी हालातों पर तुम
क्यों लंबी गहरी साँसें भरते हो.
सौदागरों के इशारे पर ही
अपनी अदाएं दिखाओ
चंद सिक्के मिल सकते हैं खैरात में
पर इज्जत की चाहत तुम क्यों करते हो.
अपने हाथ से अपनी कामयाबी पर
जश्न मनाने में देर लग सकती है,
जल्दी जीतने की कोशिश में
सौदागरों के हाथ में अपनी
आजादी क्यों गिरवी रखते हो.

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17 अक्तूबर 2009

अपनी असलियत मत बदलना-हिंदी व्यंग्य कविता (apni asliyat mat badlana-hindi vyangya kavita)

सारे जहां की प्यास मिटा सको
तुम वह समंदर बनना.
भेजे जो आकाश में पानी भरकर मेघ
जहां लोग पानी को तरसे
वहीँ समन्दर से लाया अमृत बरसे
अपने किये का नाम कभी न करना.

गंगा पवित्र नदी कहलाती है,
पर अपने किनारे की ही प्यास बुझाती है,
देवी की तरह पुजती पर
लाशों से मैली भी की जाती है,
जब तक समन्दर तक पहुँचती
तब तक समेटती है दूसरों के पाप,
जहां है इज्जत का वरदान
वहां साथ लगा है बदनामी का शाप,
तुम बने रहना हमेशा खारे
किनारे आये प्यासों की प्यास बुझाने के लिए
दिखावे के पुण्य की लालच में
अपनी असलियत मत बदलना.

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5 अक्तूबर 2009

उनके लिए एक शय-हिंदी कविता (ek shay-hindi kavita)

वह शर्मिन्दा नहीं
चाहे तुम्हें वह रास्ता बताया
जिस पर खुद कभी चले नहीं.
तुम्हारे पांवों के छाले बतलाते हैं
कि उनके कहने पर ही कदम-दर-कदम
अपने बढ़ाते रहे उस मंजिल की तरफ
जो जमीन पर नहीं बसी थी
ख्यालों में थी उनके कहीं.
उन्हें वास्ता था
तुम्हारी लाचारी से
जिस पर हमदर्दी दिखाकर
वह अपने लिए इज्जत जुटा रहे थे
उनकी अदाओं पर
लोग वाह वाह लुटा रहे थे
तुम उनके लिए एक शय से ज्यादा कभी थे ही नहीं
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फुटबाल और हवा-हिंदी व्यंग्य लघुकथा (khel aur hava-hindu laghu katha)

उसने एक फुटबाल ली और उस पर लिख दिया धर्म। वह उस फुटबाल के साथ एक डंडा लेकर उस मैदान में पहुंच गया जहां गोल पोस्ट बना हुआ था। तमाम लोग वहां तफरी करने आते थे इसलिये वह पहले जोर से चिल्लाया और बोला-‘है कोई जो सामने आकर मुझे गोल करने से रोक सके।’
उसने अपनी आंखों पर चश्मा लगा लिया था। उसका डीलडौल और हाथ में डंडा देखकर लोग डर गये और फिर वह शुरु हो गया उसके गोल करने का सिलसिला। एक के बाद एक गोल कर वह चिल्लाता रहा-है कोई जो मेरा सामना कर सके। देखों धर्म को मैं कैसे लात मारकर गोल कर रहा हूं।’
लोग देखते और चुप रहते। कुछ बच्चे शोर बचाते तो कुछ बड़े कराहते हुए आपस में एक दूसरे का सांत्वना देते कि कोई तो माई का लाल आयेगा जो उसका गोल रोकेगा।’
उसी समय एक ज्ञानी वहां से निकला। उसने यह दृश्य देखा और फिर उसके पास जाकर बोला-‘क्या बात है? सामने कोई गोल पर तो है नहीं जो गोल किये जा रहे हो।’
वह बोला-‘तुम सामने आओ। मेरा गोल रोककर दिखाओ। यह फुटबाल मैंने एक कबाड़ी से खरीदी है और मैं चाहता हूं कि कोई मेरे से गोल गोल खेले।

ज्ञानी ने कहा-‘ यह होता ही है। अगर फुटबाल है तो खेलने का मन होगा। डंडा है तो उसे भी किसी को मारने का मन आयेगा। ऐसे में तुम्हारे साथ कोई नहीं खेलने आयेगा।’
उसने कहा-‘तुम ही खेल लो। दम है तो आ जाओ सामने।’
ज्ञानी ने उससे फुटबाल हाथ में ली और उसकी हवा भरने के मूंह पर जाकर उसका ढक्कन खोल दिया। वह पूरी हवा निकल गयी।
वह चिल्लाने लगा और बोला-‘अरे, डरपोक हवा निकाल दी। अभी डंडा मारता हूं।’
ज्ञानी ने कहा-‘फंस जाओगे। यहां बहुत सारे लोग हैं। फुटबाल पर तुमने धर्म लिखकर लोगों की भावनाओं को संशकित कर दिया था पर अब वह यहीं आयेंगे। देखो वह आ रहे हैं।’
उसने देखा कि लोग उसकी तरफ आ रहे हैं। ज्ञानी ने कहा-‘तुम अब घर जाओ। यह तुम नहीं फुटबाल थी जो तुमसे खेल रही थी। फुटबाल में हवा भरी थी जो उसके साथ तुम्हें भी उड़ा रही थी। वैसे तुम्हारी देह भी हवा से चल रही है पर यह हवा तुम्हारे दिमाग को भी चला रही थी। अब न यह फुटबाल चलेगी न डंडा।’
वह ज्ञानी ऐसा कहकर चल दिये तो तफरी करने आये एक सज्जन ने पूछा-‘पर आपने सब क्यों और कैसे किया?’
ज्ञानी ने कहा-‘मैंने कुछ नहीं किया। यह तो हवा ने किया है। उसे फुटबाल में भरी हवा ने बौखला दिया था। वह निकल गयी तो उसके लिये अपना यह नाटक जारी रखना कठिन था। मुझे करना ही क्या था? उसके कहने पर उसके साथ फुटबाल खेलने से अच्छा है कि उसकी हवा निकाल कर मामला ठंडा कर दो। फुटबाल खेलता तो वह गोल रोकने को लेकर विवाद करता। मेरे गोल पर आपत्तियां जताता। उसको छोड़ कर जाता तो वह यहां भीड़ के लोगों को बेकार में डराता। इससे अच्छा है कि धर्म नाम लिखकर झगड़ा बढ़ाने की उसकी योजना को फुटबाल में से हवा निकाल कर बेकार कर दिया जाये।’
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hindi article, hindi sahitya, shori story, कला, मनोरंजन, मस्त राम, मस्ती, समाज, हिंदी साहित्य

1 अक्तूबर 2009

दो तरह के लोग-हिंदी कविता (two type of man-hindi poem

धरती पर अपने कदम दर कदम
चलते हुए जब
नजर करता हूं नीचे की तरफ
तब जहां तक देखता हूं
वहीं तक ख्याल चलते हैं
दुनियां बहुत छोटी हो जाती है।

आंखें उठाकर देखता हूं जब आकाश में
चारों तरफ घुमते हुए
उसके अनंत स्वरूप के दृश्य से
इस दुनियां के बृहद होने की
अनुभूति स्वतः होने लग जाती है।
ख्यालों को लग जाते हैं पंख
सोचता हूं मेरे पांव भले ही
नरक में चलते हों
पर कहीं तो स्वर्ग होगा
तब अधरों पर मुस्कान खेल जाती है।

दृष्टि से बनता जैसा दृष्टिकोण
वैसा ही दृश्य सामने आता है
मगर दृष्टिकोण से जब बनती है दृष्टि
तब हृदय को छू लें
ऐसे मनोरम दृश्य सामने आते हैं
शायद यही वजह है
इस संसार में रहते दो प्रकार के लोग
एक जो बनाते हैं अपनी दुनियां खुद
दूसरे वह जिनको दूसरी की
बनी बनायी लकीर चलाती है।
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27 सितंबर 2009

मनोरंजन में खलल-हास्य व्यंग्य क्षणिकायें (manoranjan-hasya vyangya kavitaen)

इंसान के जज्ब़ात शर्त से
और समाज के सट्टे के भाव से
समझे जाते हैं।
नये जमाने में
जज़्बात एक शय है
जो खेल में होता बाल
व्यापार में तौल का माल
नासमझी बन गयी है
जज़्बात का सबूत
जो नहीं फंसते जाल में
वह समझदार शैतान समझे जाते हैं
............................
एक दोस्त ने फोन पर
दूसरे दोस्त से
‘क्या स्कोर चल रहा है
दूसरा बिना समझे तत्काल बोला
‘यार, ऐसा लगता है
मेरी जेब से आज फिर
दस हजार रुपया निकल रहा है।’
...................................
छायागृह में चलचित्र के
एक दृश्य में
नायक घायल हो गया तो
एक महिला दर्शक रोने लगी।
तब पास में बैठी दूसरी महिला बोली
‘अरे, घर पर रोना होता है
इसलिये मनोरंजन के लिये यहां हम आते हैं
पता नहीं तुम जैसे लोग
घर का रोना यहां क्यों लाते हैं
अब बताओ
क्या सास ने मारकर घर से निकाला है
या बहु से लड़कर तुम स्वयं भगी
जो हमारे मनोरंजन में खलल डालने के लिये
इस तरह जोर जोर से रोने लगी।’
.....................................




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20 सितंबर 2009

भारतीय प्रचारतंत्र और चीन-हिंदी व्यंग्य (indian media and china-hindi vyangya)

मीडिया यानि टीवी चैनल और समाचार पत्र-जिनकों हम संगठित प्रचारतंत्र भी कह सकते हैं-बिना सनसनी के नहीं चल सकते कम से कम उनमें काम करने वाले लोगों की मान्यता तो यही है। राई का पहाड़ और पहाड़ से निकली चुहिया को हाथी बनाने की कला ही प्रचारतंत्र का मूल मंत्र है। अब यह कहना कठिन है कि कितनी सनसनी खबरें प्रायोजित या स्वघटित हैं।
अभी कुछ दिनों पहले एक विदेशी चैनल का एक पत्रकार लोगों की हत्या कराकर उनके समाचारों को सनसनी ढंग से प्रसारित करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। वह अपने व्यवसाय के सफलता के लिये ऐसी हरकतें कर रहा था। अभी हमारे देश के प्रचार तंत्र के लोगों की आत्मा मरी नहीं है कि वह ऐसी हरकतें करें पर ऐसी खबरें तो प्रायोजित करने के साथ प्रसारित कर ही सकते हैं जिससे किसी को शारीरिक हानि न पहुंचे न ही अपराध हो।
आखिर यह चल तो विदेशी ढर्रे पर ही रहे हैं। हो सकता है ऐसा न हो पर इधर चीन को लेकर जो सनसनी फैली है उसका तो न ओर मिल रहा है न छोर।

प्रचारतंत्र ने कह दिया कि घुसपैठ हुई। उसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई तो अनेक तरह के कथित प्रमाण लाये गये। आधिकारिक रूप से खंडन होते रहे हैं पर प्रचार तंत्र है कि बस अड़ा ही हुआ है कि घुसपैठ हुई। करीब दो सप्ताह से सनसनी फैली रही तब जाकर चीन की नींद खुली। मुश्किल यह है कि चीनी अपनी भाषा के अलावा दूसरी भाषा सीखते नहीं है इसलिये हिंदी के प्रचारतंत्र का उनको पता नहीं कि क्या चल रहा है?
किसी हिंदी भाषी ने ही उनको चीनी भाषा में लताड़ते हुए इन खबरों के बारे में पूछा होगा तब चीन ने आधिकारिक तौर पर भारतीय प्रचारतंत्र पर दुष्प्रचार का आरोप जड़ा। अभी तक भारत के रणनीतिकारों पर आक्रमण करने वाला चीन इतना बदहवास हो गया कि उसने सीधे ही प्रचारतंत्र को घेरे में ले लिया।
भारत की परवाह न करने वाला चीन पहली बार इतने तनाव में आया इस बात पर भारतीय प्रचारतंत्र को कुछ श्रेय दिया ही जाना चाहिए। इस प्रचारतंत्र को लेकर चीन भारतीय रणनीतिकारों से यह तो कह नहीं सकता कि इन पर नियंत्रण करो क्योंकि यह प्रचारतंत्र सरकारी नहीं है। भारत चीन से कह सकता है कि तुम अपने प्रचारतंत्र पर नियंत्रण करो क्योंकि वहां पर सरकार ही उसकी मालिक है। चीन का प्रचारतंत्र भी तो भारत के विरुद्ध विषवमन करता है और उसका सीधा आशय यही है कि वहां की सरकार यही चाहती है।
मगर इस बार चीन को भारतीय प्रचारतंत्र के रूप में जो असंगठित प्रतिद्वंद्वी मिला है उससे उसका पार पाना संभव नहीं है। सरकारी तौर पर नियंत्रण से परे इस प्रचारतंत्र की खूबी यह है कि कहता ही रहता है सुनता कुछ नहीं देखता है। एक शब्द देख लिया उस पर पूरा कार्यक्रम बना डाला। कहते हैं कि चीनी सुनते अधिक परबोलते कम हैं जबकि हमारा यह स्वतंत्र प्रचारतंत्र बोलता अधिक है सुनता कम। चीनी भी आखिर कुछ बोलेंगे पर उनका एक ही शब्द उनको परेशान कर डाल सकता है अगर भारतीय प्रचारतंत्र ने उसका नकारात्मक अर्थ लिया।
जब भारतीय प्रचारतंत्र उसके खिलाफ आग उगल रहा है तब कोई वहां के प्रचारतंत्र चुप बैठा हों यह संभव नहीं है मगर वह भारतीय प्रचारतंत्र का प्रसारण तो देखेंगे पर भारतीय प्रचारतंत्र उनकी तरफ नहीं देखेगा। यह उपेक्षासन का गुण भारतीय प्रचारतंत्र को विजेता बनाये हुए है। अपने विरुद्ध ऐसा प्रचार देख और सुनकर चीनी आग बबूला होकर कार्यक्रम बनायेंगे पर यहां देखेगा कौन? इससे उनकी आग और बढ़ जाती होगी।

इस प्रचार का ही नतीजा है कि दिल्ली में चीन के राजनयिक इधर उधर भागदौड़ करते रहे। एक तरह से चीन इस प्रचारतंत्र को लेकर भारत पर दबाव डाल रहा है पर यह उसके लिये परेशानी का कारण ही बनने वाला है। हो सकता है कि अभी यह प्रचारतंत्र चुप हो जाये पर अब चीन को आगे यह सब झेलना पड़ सकता है।
अपने प्रचारतंत्र का एक विषय पाकिस्तान तो बना ही हुआ है। उसके यहां अपने देश तथा विदेश के जो खुराफाती तत्व सक्रिय हैं उन पर हमारा प्रचारतंत्र अपनी बहुत सारी रील और शब्द खर्च कर चुका है। लोग उससे उकता गये हैं। लोगों को व्यस्त रखने के लिये एक दुश्मन तो चाहिये न! मुश्किल यह है कि चीन बहुत खौंचड़ी है पर उसने अपने यहां अपराधियों को पनाह नहीं दी है जिसको प्रचारतंत्र हीरो बना दे। वहां की हीरो तो बस सरकार ही है! अमेरिकी आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि उसकी विकासदर में अपराध के पैसे का भी योगदान है। ऐसे में वहां के किसी अपराधी का महिमामंडन तो यहां हो नहीं सकता। लेदेकर एक ही विषय बचता है ‘सीधा हमला’। भारतीय सैन्य विशेषज्ञ स्वयं मानते हैं कि सीमा का आधिकारिक अभिलेख न होने के कारण दोनों के सामने ऐसी समस्या आती है। जब भारत को समस्या आयी तो उसे इस तरह सीधा हमला प्रसारित कर प्रचारतंत्र ने जो गजब की फुर्ती दिखाई उसके लिये वह प्रशंसा के काबिल है क्योंकि उसने उस देश को हिला दिया जो किसी से डरता नहीं है। इसका यह भी नतीजा आ सकता है कि आगे चीन ऐसी गल्तियां न करे जिससे तिल का ताड़ बने।
वैसे एक खबर एक चैनल ने दूसरी खबर भी चलाई कि भारतीय बाघ का दुश्मन चीन। दरअसल वहां शेर की खाल से शराब बनती है और आरोप लग रहा है कि नेपाल के तस्करी के जरिये भारत से खाल चीन जाती है। शेरों का शिकार करने कोई चीनी नहीं आते बल्कि अपने ही देश के लोग यह काम करते हैं। इसमें चीन का पूरा दोष नहीं है पर तस्करी के द्वारा इस तरह शेरों की खाल जाने की जिम्मेदारी से वह बच भी नहीं सकता। फिलहाल दोस्ताना रूप से यह बात तो चैनल वाले मान भी रहे हैं पर यह दोस्ताना आगे जारी रहेगा-यह चीनियों को सोचना भी नहीं चाहिए। अपने देश में शेरों की हत्या कर देना कोई सामान्य मामला नहीं है पर जिस तरह चीन को लक्ष्य कर यह कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया उससे तो लग रहा है कि चीन पर प्रचारतंत्र की नजर पड़ गयी है। आने वाले समय में ऐसे बहुत सारे कार्यक्रम आ सकते हैं जिस पर चीन बौखला सकता है। इसकी वजह यह है कि वहां की हर गतिविधि के लिये सरकार सीधे जिम्मेदार मानी जाती है। अभी कुछ दिनों पहले भारत के नाम से नकली दवाईयां नाइजीरिया में भेजने के मामले में चीन फंस चुका है। भारतीय प्रचारतंत्र अभी तक चीन को समझता नहीं था पर अब उसे लगने लगा कि वहां की सरकार भारत को परेशान करने के लिए अपराध की हद तक जा सकती है। अपराध की भनक भी प्रचारतंत्र के कान खड़े कर सकती है क्योंकि सनसनी तो उसी ही फैलती है न! यहीं से चीन भी अब उसके दायरे में आ गया है क्योंकि उसके साफसुथरे और संपन्न होने का तिलिस्म भारतीय प्रचारतंत्र के सामने खत्म हो गया है। अब चीन के सामने एक केवल एक मार्ग है वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष से भारत के विरुद्ध अपराध होने को रोक दे नहीं तो जितना वह करेगा उससे अधिक तो भारतीय प्रचारतंत्र बतायेगा। इसे रोकना किसी के लिये संभव नहीं है।
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16 सितंबर 2009

बुतों के पेट से बुत-व्यंग्य कविता (buton ke pet se but-vyangya kavita)

चौराहे पर खड़े पत्थर के बुत पर
कंकड़ लगने पर भी लोग
भड़क जाते हैं।
अगला निशाना खुद होंगे
यह भय सताता है
या पत्थर के बुत से भी
उनको हमदर्दी है
यह जमाने को दिखाते हैं।

कहना मुश्किल है कि
लोग ज्यादा जज्बाती हो गये हैं
या पत्थरों के बुतों के सहारे ही
खड़े हैं उनके घर
जिनके ढहने का रहता है डर
जिसे शोर कर वह छिपाते हैं।
यह मासूमियत है जिसके पीछे चालाकी छिपी
जो लोग कंकड़ लगने से कांप जाते हैं।
............................
बुतों के पेट से ही
बुत बनाकर वह बाजार में सजायेंगे।
समाज में विरासत मिलती है
जिस तरह अगली पीढ़ी को
उसी तरह खेल सजायेंगे।
जज्बातों के सौदागर
कभी जमाने में बदलाव नहीं लाते
वह तो बेचने में ही फायदा पायेंगे।
करना व्यापार है
पर लोगों के जज्बातों की
कद्र करते हुए सामान सजायेंगे।

....................................
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13 सितंबर 2009

बड़े आदमी के दर्शन-हास्य व्यंग्य कविता (bade admi ke darshan-hindi hasya poem)

सुना है बड़े लोग भी अब
रेलों और विमानों की
सामान्य श्रेणी में यात्रा करेंगे।
आम आदमी हो रहे परेशान
यह सोचकर कि
पहले ही वहां भीड़ बहुत है
अब यात्रा के समय
हम अपना पांव कहां धरेंगे।
पहले तो जल्दी टिकट मिल जाया
करता था
पर अब टिकट बेचने वाले
किसी बड़े आदमी के लिये
अपने पास रखे रहेंगे।
यह भी चल जायेगा पर
जिस आम आदमी को
हो गये बड़े आदमी के दर्शन
वह तो इतरायेगा
यह कैसे सहेंगे।
................................

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9 सितंबर 2009

खिचड़ी समाचार-हास्य व्यंग्य (khichdi samachar-hindi hasya vyangya)

उस क्रिकेट माडल ने टीवी वाले पत्रकारों के साथ बदतमीजी की। यह खबर भी टीवी चैनल वालों ने दी हैं। क्रिकेट माडल यानि वह खिलाड़ी जो खेलने के साथ ही विज्ञापन में भी करते हैं। अब टीवी चैनल वाले उस पर शोर मचा रहे हैं कि उसने ऐसा क्यों किया?’
अब उनका यह प्रलाप भी उस तरह प्रायोजित है जैसा कि उनके समाचार या वास्तव में ही वह दुःखी हैं, कहना कठिन हैं। एक जिज्ञासु होने के नाते समाचारों में हमारी दिलचस्पी है पर टीवी समाचार चैनल वाले समाचार दिखाते ही कहां हैं?
इस मामले में उन पर उंगली भी कोई नहीं उठाता। कहते हैं कि हमारा चैनल समाचारों के लिये बना है। टी.आर.पी रैटिंग में अपने नंबरों के उनके दावे भी होते हैं। इस पर आपत्ति भी नहीं की जानी चाहिये पर मुद्दा यह है कि उनको यह सम्मान समाचार के लिये नहीं बल्कि मनोंरजन के लिये मिलता है ऐसे में जो चैनल केवल समाचार देते हैं उनका हक मारा जाता है। सच तो यह है कि अनेक समाचार चैनल तो केवल मनोरंजन ही परोस रहे हैं पर अपनी रेटिंग के लिये वह समाचार चैनल की पदवी ओढ़े रहते है। अगर ईमानदारी से ऐसे मनोरंजन समाचार चैनल का सही आंकलन किया जाये तो उनको पूर्णतः समाचार और मनोरंजन चैनलों के मुकाबले कोई स्थान ही नहीं मिल सकता। अलबत्ता यह खिचड़ी चैनल है और उनके लिये कोई अलग से रैटिंग की व्यवस्था होना चाहिए।
जिस क्रिकेट माडल ने उनको फटकारा वह खिचड़ी चैनलों के चहेतोें में एक है। अपने इन मनोरंजक समाचार चैनलों के पास फिल्मी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और क्रिकेट खिलाड़ियों के जन्म दिनों का पूरा चिट्ठा है। जिसका वह रोज उपयोग करते हैं। उस दिन जन्म दिन वाला फिल्मी और क्रिकेट माडल तो संभवतः इतना बिजी रहता होगा कि वह शायद ही उनके प्रसारण देख पाता हो। इससे भी मन नहीं भरता तो प्रायोजित इश्क भी करवा देते हैं-समाचार देखकर तो यही लगता है कि कभी किसी अभिनेत्री को क्रिकेट खिलाड़ी से तो कभी अभिनेता से इश्क करवाकर उसका समाचार चटखारे लेकर सुनाते हैं।
यह मनोरंजक समाचार चैनल जो खिचड़ी प्रस्तुत करते हैं वह प्रायोजित लगती है। अब भले ही उस क्रिकेट माडल ने टीवी पत्रकार को फटकारा हो पर उसका प्रतिकार करने की क्षमता किसी में नहीं है। वजह टीवी चैनल और क्रिकेट माडल के एक और दो नंबर के प्रायोजक एक ही हैं। अगर चैनल वाले गुस्से में उसे दिखाना बंद कर दें या उसकी खिचड़ी लीलाओं-क्रिकेट से अलग की क्रियाओं- का बहिष्कार करें तो प्रायोजक नाराज होगा कि तुम हमारे माडल को नहीं दिखा रहे काहे का विज्ञापन? उसका प्रचार करो ताकि उसके द्वारा अभिनीत विज्ञापन फिल्मों के हमारे उत्पाद बाजार में बिक सकें।
खिलाड़ी स्वयं भी नाराज हो सकता है कि जब मेरी खिचड़ी गतिविधियों-इश्क और जन्मदिन कार्यक्रम- का प्रसारण नहीं कर रहे तो काहे का साक्षात्कार? कहीं उसके संगी साथी ही अपने साथी के बहिष्कार का प्रतिकार उसी रूप में करने लगे तो बस हो गया खिचड़ी चैनलों का काम? साठ मिनट में से पचास मिनट तक का समय इन अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और क्रिकेट खिलाड़ियों की खिचड़ी गतिविधियों के कारण ही इन चैनलों का समय पास होता है। अगर आप इन चैनल वालों से कहें कि इस तरह के समाचार क्यों दे रहे हैं तो यही कहेंगे कि ‘दर्शक ऐसा हीं चाहते हैं’। अब इनसे कौन कहे कि ‘तो ठीक है तो अपने आपको समाचार की बजाय मनोरंजन चैनल के रूप में पंजीकृत क्यों नहीं कराते।’
हो सकता है कि यह कहें कि इससे उनको दर्शक कम मिलेंगे क्योंकि अधिकतर समाचार जिज्ञासु फिर धोखे में नहीं फंसेंगे न! मगर इनके कहने का कोई मतलब नहीं है क्योकि सभी जानते हैं कि यह चैनल दर्शकों की कम अपने प्रायोजकों को की अधिक सोचते हैं। यह उनका मुकाबला यूं भी नहीं कर सकते क्योंकि जो इनके सामने जाकर अपमानित होते हैं वह पत्रकार सामान्य होते हैं। उनमें इतना माद्दा नहीं होता कि वह इनका प्रतिकार करें। उनके प्रबंधक तो उनके अपमान की चिंता करने से रहे क्योंकि उनको अपने प्रायोजक स्वामियों का पता है जो कि इन फिल्म और खेलों के माडलों के भी स्वामी है।
वैसे आजकल तो फिल्म वाले क्रिकेट पर भी हावी होते जा रहे हैं। पहले फिल्म अभिनेत्रियां अपने प्रचार के लिये कोई क्रिकेट खिलाड़ी से इश्क का नाटक रचती थीं पर वह तो अब टीम ही खरीदने लगी हैं जिसमें एक नहीं चैदह खिलाड़ी होते हैं और उनकी मालकिन होने से प्रचार वैसे ही मिल जाता है। क्रिकेट, फिल्म और समाचार की यह खिचड़ी रूपरेखा केवल आम आदमी से पैसा वसूलने के लिये बनी हैं।
क्रिकेट खिलाड़ी और फिल्म अभिनेता अभिनेत्रियां करोड़ों रुपये कमा रहे हैं और उसका अहंकार उनमें आना स्वाभाविक है। उनके सामने दो लाख या तीन लाख माहवार कमाने वाले पत्रकार की भी कोई हैसियत नहीं है ओर फिर उनको यह भी पता है कि अगर इन छोटे पत्रकारों को फटकार दिया तो क्या बिगड़ने वाला है? उनके प्रबंधक भी तो उसी प्रायोजित धनसागर में पानी भरते हैं जहां से हम पीते हैं।
इधर हम सुनते आ रहे हैं कि विदेशों में एक चैनल के संवाददाता ने अपनी सनसनी खेज खबरों के लिये अनेक हत्यायें करा दी। हमारे देश में ऐसा हादसा होना संभव नहीं है पर समाचारों की खिचड़ी पकाने के लिये चालबाजियां संभव हैं क्योंकि उनमें कोई अपराधिक कृत्य नहीं होता। इसलिये लगता है जब कोई खेल या फिल्म की खबर नहीं जम रही हो तो यह संभव है कि किसी प्रायोजक या उसके प्रबंधक से कहलाकर फिल्मी और क्रिकेट माडल से ऐसा व्यवहार कराया जाये जिससे सनसनी फैले। हमारे देश के संचार माध्यमों के कार्यकर्ता पश्चिम की राह पर ही चलते हैं और यह खिचड़ी पकाई गयी कि फिक्स की गयी पता नहीं।
अब यह तो विश्वास की बात हो गयी। वैसे अधिकतर टीवी पत्रकार आम मध्यमवर्गीय होते हैं उनके लिये यह संभव नहीं है कि स्वयं ऐसी योजनायें बनाकर उस पर अमल करें अलबता उनके पीछे जो घाघ लोग हैं उनके लिये ऐसी योजनायें बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है। यही कारण है कि खिचड़ी समाचार ही पूर्ण समाचार का दर्जा पाता है।
...................


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6 सितंबर 2009

टूटी खबर (ब्रेकिंग न्यूज) बनानी है-हास्य व्यंग्य कविता (breaking news and rating-hasya kavita)

चैनल के प्रमुख ने
सभी कार्यकताओं को बुलाकर
प्रतिस्पर्धात्मक स्तर में
नंबर एक पर पहुंचने का नुस्खा बताया।
और कहा-‘
‘‘अब आ रहा है त्यौहारों का मौसम
इसे मत करो जाया।
फिल्मी सितारों
क्रिकेट खिलाड़ियों
तथा सभी प्रसिद्धि हस्तियों के घर के द्वार पर
कर दो अपने कैमरों की छाया।
गणेश चतुर्थी और नवदुर्गा के अवसर पर कोई मूर्ति
बाहर से घर ले आयेगा
तो फिर कोई उसे छोड़ने जायेगा।
कोई दोनों ही काम न करे तो भी
मंदिर में जाकर दर्शन के बहाने प्रचार चाहेगा।
इधर चल रहा है रमजान का महीना
कोई इफ्तार की दावत से
और बाद में ईद से
अपना मेहमानखाना भी सजायेगा।
फिर आ रहा है दशहरा और दिवाली
नहीं जाना चाहिये कोई मौका खाली
इससे जुड़ी हर खबर
टूटी खबर (ब्रेकिंग न्यूज) बनानी है
किसी तरह अपने टीआरपी रैकिंग बढ़ानी है
अगर पूरी तरह सफल रहे तो
समझो अच्छा बोनस मिल जायेगा।
किसी दूसरे चैनल ने बाजी मारी तो
वेतन का भी टोटा पड़ जायेगा।
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1 सितंबर 2009

हास्य कवि ने किया सच का सामना-हिंदी हास्य कविता (comedy satire poet and sach ka samana)

उन सज्जन ने सच की पहचान करने वाली
मशीन की दुकान लगाई
पर उसके उद्घाटन के लिये
कोई तैयार नहीं हुआ भाई।
न नेता
न अभिनेता
न अधिकारी
न व्यापारी
उसे जो भी मिले सभी थे
दिखाने के लिये सच के भक्त
पर थे झूठे दरबारी
तब उसे याद आया अपना
भूला बिसरा दोस्त
जो करता था हास्य कविताई।
उसने हास्य कवि से आग्रह किया
‘करो मेरी सच की मशीन का उद्घाटन
तो करूं कमाई।
कोई नहीं मिला
इसलिये तुम्हारी याद आई।
फ्लाप कवि हो तो क्या
हिट है जों उनकी असलियत भी देख ली
अब तुम दिखाओ अपना जलवा
मत करना ना कर बेवफाई।’

सुनकर हास्य कवि बोला-
‘मेरे भूले बिसरे जमाने के मित्र
तुम्हें अब मेरी याद आई।
तुम्हारे धोखे की वजह से
करने लगा था मैं हास्य कविताई।
वैसे भी तुम पहले नहीं थे
न तुम आखिरी हो जिससे धोखा खाया
फिर दाल रोटी के चक्कर में
बहुत से सच सामने आते हैं
उन्हें भुलाने के लिये शब्द भी चले आते हैं
लिखते नहीं नाम किसी का
इशारों में तो बहुत कुछ कह जाता हूं
लोग भागते हैं
पर मैं अपने सच से स्वयं लड़ता जाता हूं
मुझे तो कोई डर नहीं है
सच पहचाने वाली मशीन की
गर्म कुर्सी पर बैठ जाऊंगा
पर जो जेहन में हैं मेरे
उन लोगों के नाम भी आ जायेंगे
उनमें तुम्हारा भी होगा
बोलो झेल सकोगे जगहंसाई।’

मित्र भाग निकला यह सुनकर
फिर पीछे देखने की सोच भी उसमें न आई।

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30 अगस्त 2009

लहरों की अठखेलियां और तूफान-हिंदी कविता (lahren aur toofan-hindi kavita)

अक्ल रख दी गिरवी
ख्वाब दिखाने वालों के पास
नयी सोच से घबड़ाते है
करते अवतार की आस
ऐसे लोग क्या इशारा समझेंगे।
किनारे पर ही खड़े
जो लहरों की अठखेलियां देख डर रहे हैं
वह मझधार में उनके तूफान से क्या लड़ेंगे।
.............................
मन तो चंचल है
उसे स्वयं ही बहलाओ
नहीं तो कोई दूसरा उसे
बहकाकर ले जायेगा
तुम भी बंधे चले जाओगे।
फिर तरसोगे आजादी के लिये
जिसे केवल सपने में ही देख पाओगे।
............................

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25 अगस्त 2009

चिंतन चितेरा-आलेख (chintan chitera-hindi lekh)

स्थापित प्रचार माध्यमों, लेखक, विद्वान और बुद्धिजीवियो का तिलिस्म टूटने लगा है। अंतर्जाल पर अनेक बार हिंदी और अंग्रेजी में पाठ पढ़कर ऐसा लगता है कि पिछले एक सदी से इस देश में भ्रम को सच कहकर बेचा गया है। यह प्रचार माध्यम, लेखक, विद्वान और बुद्धिजीवी-इनको हम संगठित प्रचारक भी कह सकते हैं- एक तरफ पश्चिमी विकास की तरफ देखते हुए भविष्य के विकास का सपना देखने के लिये प्रेरित करते हैं या फिर अतीत के कुछ चुने हुए मुद्दो पर ही अपनी राय रखते हैं-क्योंकि उनको अपनी संकीर्ण मानसिकता तथा संक्षिप्त बौद्धिक क्षमता के कारण अधिक मुद्दे चयन करने में असुविधा होती है। कभी कभी प्रचार पाने के लिये वह विवादास्पद मुद्दों को ही सामने लाते हैं।
अब यह कहना मुश्किल है कि यह योजनाबद्ध प्रयास है या अनजाने में प्रचार पाने का स्वभाविक मोह जिससे देश के मुख्य मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाया जाता है या उनको यह आम आदमी के लिये संदेश है कि उसकी समस्यायें कोई महत्व नहीं रखती। इधर अंतर्जाल पर जहां कुछ लेखक लीक से हटकर लिखते हुए दिख रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो इन्हीं संगठित प्रचारकों की छाया बन गये हैं।
एक तरफ आप देखें कि सामान्य भारतीय चैतरफा परेशानियों से घिरा है। पहले तो समस्या यह थी कि जेब में पैसा है पर सामान महंगा है पर अब तो यह भी समस्या है कि वह जेब का पैसा असली है या नकली। देश में नकली मुद्रा का प्रचलन फौजी हमले से अधिक खतरनाक है यह बात आज तक किसने लिखी है। आतंकवाद से लड़ना आसान है पर यह नकली मुद्रा उस देश का अस्तित्व ही खतरे में डाल रही है जिस पर हम गर्व करते हैं। इधर सूखे की मार है। देश में बीमारियों की संख्या कम नहीं है पर जंग लड़ी जा रही है केवल ‘स्वाइन फ्लू के खिलाफ!
अंतर्जाल पर कई बार अनेक पाठ संवेदनशील और वैचारिक पाठ पढ़कर मन चिंतन करने को तैयार हो जाता है पर वर्तमान सच्चाईयां बहुत जल्दी सामने खड़ा होकर बेबस करती हैं। लिखने वाले मित्रों के पाठ कभी कभी प्रभावित करते हैं पर बहुत जल्दी उनका प्रभाव समाप्त होने लगता है। कुछ अंतर्जाल लेखक तो संगठित प्रचाकरों द्वारा सुझाये गये उन विषयों को ढो रहे हैं जिनसे समाज का सीधा कोई सरोकार नहीं है।
आज ही एक खबर पढ़ी कि अनेक देशी आतंकवादी संगठनों के नेता बाहर जाने के लिये आसरा ढूंढ रहे हैं ताकि सुरक्षा भी मिले और वह हफ्ता वसूली का पैसा अन्य व्यवसायों में लगा सकें। कितनी अजीब बात है कि गरीबों और मजदूरों की रक्षा के नाम पर आतंक फैलाने वाले यह संगठन अपने उगाहे पैसे को उन्हीं पूंजीपतियों को सौंपना चाहते हैं जिनसे उन्होंने वसूला है। हैरानी की बात है कि प्रचार माध्यमों में उनके समर्थक लेखक उनके सैद्धांतिक आधार बताते हैं और अब अंतर्जाल पर भी यही होने लगा है।

इस प्रसंग में एक टिप्पणीकर्ता की याद आ रही है। प्रसंग था श्रीलंका में एक उग्रवादी नेता के मारे जाने का था। उस पर इस लेखक ने एक पाठ लिखा था। उस पर एक प्रतिक्रिया आयी कि ‘इस खेल को भारत के लोग समझ नहीं रहे। दरअसल चीन ने श्रीलंका ने को हथियार तथा सैनिक दिये हैं और श्रीलंका में उग्रवादियों के गुटों के सफाये के साथ ही भारत के दुश्मन चीन ने हिन्द महासागर में अपने पांव फैला दिये हैं।’
कुछ संगठित प्रचारकों ने भी यही विचार व्यक्त किया। उस दिन अखबार में पढ़ने को मिला कि श्रीलंका को आधुनिक हथियार ब्रिटेन ने दिये थे और अब उनको वापस मांग रहा है। सच क्या है यह पता नहीं पर ब्रिटेन और चीन एक साथ किसी मोर्च पर काम नहीं कर सकते और दूसरा यह कि चीन का तो केवल हौव्वा है जबकि उसके हथियारों की श्रेष्ठता उसके सामानों की तरह प्रमाणिक नहीं है।
कहने का तात्पर्य यह है कि तयशुदा मुद्दों में चीन भी शामिल है जिसका हौव्वा खड़ा किया जाता है। हम जब केवल अंतर्राष्ट्रीय खतरों की बात करते हैं तब आंतरिक खतरों की बात से मूंह छिपा रहे होते हैं। क्या अपना यह इतिहास भूल गये हैं कि इस देश को आक्रांतों ने कम अपने ही गद्दारों ने अधिक त्रस्त किया। नकली नोट, घी, दूध, तथा खून की बातें केवल समाचार का विषय नहीं है बल्कि उन पर आंतकवाद से अधिक विचार कर उसका मुकाबला करने की आवश्यकता है। देश की समस्याओं पर चाहे जिस धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र के आदमी का समर्थन चाहिए मिल जायेगा पर लगता है कि इसकी किसी को जरूरत नहीं है। सब एक विषय पर समर्थन देंगे तो एक समाज बन जायेंगे जबकि आतंकवाद के आधार पर उसमें विभाजन कर उस पर दैहिक और बौद्धिक रूप से शासन किया जा सकता है-यही प्रवृत्ति संगठित प्रचारकों की नजर आती है।
बड़े लेखक, बुद्धिजीवी और विद्वान देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता पर वाद और नारों के साथ बोलकर अपनी प्रसिद्धि हासिल कर रहे हैं पर उनका लाभ क्या है कोई नहीं बोलता? नकली मुद्रा उस देश को नष्ट करने जा रही है जिसकी स्वतंत्रता का दावा हम करते हैं और नकली घी, दूध, खून और खाद्य सामग्री इस देश के उन इंसानों के को संक्रमित करती जा रही है जिसको हम गौरवान्वित करना चाहते हैं। फिर यह गौरव और सम्मान का बखन किसलिये?
ऐसे में हिंदी ब्लाग पर ऐसे लेख देखकर तसल्ली होती है कि संगठित प्रचारकों के सतही विषयों से अधिक चिंतन क्षमता उनके लेखकों में है। वह संख्या में कम हैं। उनको पढ़ने वाले कम हैं। उनका नाम कोई नहीं जानता पर इससे क्या? जिनकी संख्या अधिक है, पढ़े भी अधिक जाते है। उनके नाम भी आकाश पर चमक रहे हैं पर उनका लिखा न तो समाज के किसी मतलब का है न ही भविष्य की पीढ़ी के लिये किसी काम का है। यह लेखक भी क्या करे? इधर इतिहास, साहित्य, और अन्य विषयों पर बिना मतलब का लेखन पढ़कर और उधर समाज की सच्चाईयां देखकर जो दूरी दिखाई देती है उसके बीच में जब चिंतन चितेरा फंस जाता है तब यह तय करना कठिन होता है कि हम किस पर लिखें?
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22 अगस्त 2009

जिन्न, भिन्न और खिन्न-हास्य कविताएँ (jinna, bhinna aur khinna-hasya kavitaen)

लिखो कोई किताब
नायक बनाओ कोई जिन्न।
चाहे जो भाषा हो
चाहे जैसे शब्द हों
मतलब से परे हो सारी सामग्री
पर दिखना चाहिए कुछ भिन्न।
किसी के जख्म सहलाना
या दर्दनाक गीत गाना
अब हिट होने का फार्मूला नहीं रहा
जीत लो दुनियां अपने शब्दों से
करके लोगों का मन खिन्न।
.................................
गढ़े हुए मुर्दे जमीन में खाक हो गये
कुछ जलकर राख हो गये
मगर फिर भी उनके नाम की
पट्टिका अपनी किताब पर लगाओ।
जिंदा आदमी पर लिखे शब्दों के लिये
आज का जमाना प्रमाण मांगता है
जिस पर लिखो
वह भी अपनी हांकता है
मरे हुए लोगों के नाम
अपने शब्दों में सजाकर सफल लेखक कहलाओ।
मुर्दे बोलते नहीं हैं
जज्बाती लोग भी उनका चरित्र तोलते नहीं है
इसलिये कोई मुर्दा नायक बनाओ।

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9 अगस्त 2009

मसला भेदभाव का-आलेख (bhedbhav ka masla-hindi article)

जहां तक नस्ल, जाति, भाषा और धर्म के आधार पर भेदभाव का प्रश्न है तो यह एक विश्वव्यापी समस्या है। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि यह एक मानवीय स्वभाव है कि मनुष्य समय पड़ने पर अपनी नस्ल, जाति, भाषा और धर्म से अलग व्यक्ति पर प्रतिकूल टिप्पणी करता है और काम पड़े तो उससे निकलवाता भी है। भारत के बाहर नस्लवाद एक बहुत गंभीर समस्या माना जाता है पर जाति, भाषा और धर्म के आधार पर यहां भेदभाव होता है-इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि किसी भी व्यक्ति के साथ यह भेदभाव सामयिक होता है और इसका शिकार कोई भी हो सकता है। मुश्किल यह है कि इस देश में अग्रेजों ने जो विभाजन के बीज बोये वह अब अधिक फलीभूत हो गये हैं। फिर स्वतंत्रता के बाद भी जाति, धर्म और भाषा के नाम पर विवाद चलाये गये ताकि लोगों का ध्यान उनमें लगा रहे-यह इस लेखक के सोचने का अपना यह तरीका हो सकता है। इसके साथ ही बुद्धिजीवियों का एक वर्ग विकास का पथिक तो दूसरा वर्ग परंपरारक्षक बन गया। दोनों वर्ग कभी गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पाये और जमीन वास्तविकताओं से परे होकर केवल नारे और वाद के सहारे चलते रहे। प्रचार माध्यमों में भी यही बुद्धिजीवी हैं जिनके पास जब कोई काम या खबर नहीं होता तो कुछ खबरें वह फिलर तत्वों से बनाते हैं। फिलर यानि जब कहीं अखबार में खबर न हो तो कोई फोटो या कार्टून छाप दो। इनमें एक जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव का भी है।
अभी एक अभिनेता ने शिकायत की थी कि उसको धर्म के कारण मकान नहीं मिल पा रहा। सच तो वही जाने पर उसकी बात पर शुरु से ही हंसी आयी। यकीन नहीं था कि ऐसा हो सकता है-इसके बहुत सारे तर्क हैं पर उनकी चर्चा करना व्यर्थ है।
आज से 22 वर्ष पूर्व जब हम अपना मकान छोड़कर किराये के मकान में गये तो यह सोचकर परेशान थे कि समय कैसे निकलेगा? बहरहाल दो साल उस किराये के मकान में गुजारे। फिर एक दिन मकान मालिक से एक रात झगड़ा हुआ। हमने घोषणा कर दी कि परसों शाम तक मकान खाली कर देंगे।
हमने यह घोषणा की थी झगड़ा टालने के लिये पर मकान मालिक ने कहा कि-‘ अगर नहीं किया तो..............’’
हमने मकान ढूंढ लिया। हम मकान देखने गये वहां मालकिन से बात हुई। जातिगत या कहें कि भाषाई दृष्टि से अलग होने के बावजूद एक समानता थी कि दोनों के पूर्वज विभाजन के समय इधर आये थे-भारत पाकिस्तान विभाजन पर हमारी राय कुछ अलग है उस पर फिर कभी। यह हमारी किस्मत कहें कि मकान मिल गया। अगले दिन हम मकान खाली कर सामान गाड़ी से लेकर उस मकान में पहुंचे। सामान उतारने से पहले हमने उस मकान का दरवाजा खटखटाया तो मकान मालिक बाहर निकले। हमने कहा-‘ हम सामान ले आयें हैं।’
पीछे मकान मालकिन भी आ गयी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ लग रहा था। मकान मालिक ने कहा-‘भाई साहब हम आपको जानते नहीं है। इसलिये.....’’
इसी बीच एक अन्य सज्जन भी बाहर आये और मुझे देखकर बोले-’’अरे, तुम यहां कैसे? अरे, भई यह तो बहुत बढ़िया लड़का है।’
वह उस मकान मालिक के बहनोई थे और व्यापारिक रिश्तों की वजह से हमें जानते थे। यह अलग बात है कि तब हम व्यापार से अलग हो चुके थे।
बहरहाल हम मकान के अंदर पहुंच गये। माजरा कुछ समझ में नहीं आया।
बाद में मकान मालिक ने बताया कि ‘आपको तो हमारे पति वापस भेजने वाले थे। वह तो हमारे ननदोई जी ने आपको अच्छी तरह पहचान लिया इसलिये इन्होंने नहीं रोका। यह आपके आने से चिंतित थे इसलिये अपने बहनोई को बुला लिया था कि किसी तरह आपको वापस भेज दें। हमारे पति कह रहे थे कि ‘उनकी जाति/भाषा वाले लोग झगड़ालू होते हैं।’
हम उनके मकान में दो किश्तों में चार साल रहे। पहले वह मकान खाली किया और फिर लौटकर आये। वह मकान मालिक मुझे आज भी अपना छोटा भाई समझते हैं। मान लीजिये उस दिन उनके बहनोई नहीं आते या पहचान के नहीं निकलते तो...................हमें उस मकान से बाहर कर दिया जाता। तब हम कौनसे और क्या शिकायत करते।
अपने मकान के बाद फिर अपने मकान पहुंचने में हमें बारह बरस लगे। चार मकान खाली किये। चार मकान देखे। कुछ मकान मालिकों ने प्याज खाने की वजह से तो कुछ लोगों ने जाति की वजह से मकान देने से मना किया। हर हाल में रहे हम लेखक ही। जानते थे कि यह सब झेलने वाले हम न पहले हैं न आखिरी! हमारा जीवन संघर्ष हमारा है और वह हमें लड़ना है।
हो सकता है कई लोग मेरी इस बात से नाराज हो जायें कि हमने बचपन से बकवास बहुत सुनी है जैसे जनकल्याण, प्रगति, सामाजिक धार्मिक एकता, संस्कार और संस्कृति की रक्षा, समाज का विकास और भी बहुत से नारे जो सपनों की तरह बिकते हैं। इस देश में आम आदमी का संघर्ष हमेशा उसकी व्यक्तिगत आधार पर निर्भर होता है। अपने जीवन संघर्ष में हमने या तो अपनी भाषा और जाति से बाहर के मित्रों से सहयोग पाया या फिर अपने दम पर युद्ध जीता। एक जाति के आदमी ने सहयोग नहीं दिया पर उसी जाति के दूसरे आदमी ने किया। सभी प्रकार की जातियों और अलग अलग प्रदेशों के लोगों से मित्रता है-इस लेखक जैसे इतने विविध संपर्क वाले लोग इस देश में ही बहुत कम लोग होंगे भले ही विविधता वाला यह देश है। लेखक होने के नाते सभी से सम्मान पाया। जिस तरह धर्म और भक्ति एकदम निजी विषय हैं वैसे ही किसी व्यक्ति का व्यवहार! आप एक व्यक्ति के व्यवहार के संदर्भ में पूरे समाज पर उंगली उठाते हैं तो हमारी नजर में आप झूठ बोल रहे हैं या निराशा ने आपको भ्रमित कर दिया है।
मुश्किल यही है कि बुद्धिजीवियों का एक तबका इसी भेदभाव को मिटाने की यात्रा पर निकलकर देश में प्रसिद्ध होता रहा है तो बाकी उनकी राह पर चलकर यही बात कहते जाते हैं। इधर विश्व स्तर पर कुछ ऐसे लेखक पुरस्कृत हुए हैं तो फिर कहना ही क्या? आप ऐसे विषयों पर रखी बातें इस लेखक के सामने रख दीजिये तो बता देगा कि उसमें कितना झूठ है। पांचों उंगलियां कभी बराबर नहीं होती। एक परिवार में नहीं होती तो समाज में कैसे हो जायेंगी? फिर एक बात है कि सामाजिक कार्य में निष्क्रिय लोगों की संख्या अधिक हो सकती है पर मूर्खों और दुर्जनों की नहीं। भेदभाव करने वाले इतने नहीं है जितना समभाव रखने वाले।
अभी एक ब्लाग लेखक ने लिखा कि एक हिन्दू ने मूंह फेरा तो दूसरे ने मदद की। अब उसका लिखना तो केवल मूंह फेरने वाले पर ही था। वह उसी परिप्रेक्ष्य में भेदभाव वाली बात कहता गया। हम आखिर तक यही सोचते रहे कि उस मदद करने वाले की मदद कोई काम नहीं आयी। यह नकारात्मक सोच है जो कि अधिकतर बुद्धिजीवियों में पायी जाती है। हमने सकारात्मक सोच अपनाया है इसलिये यही कहते हैं कि सभी एक जैसे नहीं है। हां, अगर लिखने से नाम मिलता है तो लिखे जाओ। हम भी तो अपनी बात लिख ही रहे हैं।
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8 अगस्त 2009

देशभक्ति को सस्ता मत बनाओ-आलेख (deshbhakti & google-hindi lekh)

हम बचपन में 15 अगस्त और 26 जनवरी पर स्कूल में जाते थे तब पहले रेडियो पर तथा बाद में राह चलते हुए दुकानों पर देशभक्ति के गीत सुनते हुए मन में एक जोश पैदा होता था। स्कूल में झंडावदन करते हुए मन में देश के लिये जो जज्बा पैदा होता था वह आज भी है। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम यह मान लें कि यह हमारे अंदर ही है और इसलिये बाकी सभी में जगाते फिरें। वैसे भी आपातकाल में देश धर्म, जाति, भाषा या और क्षेत्रीय समूहों का मोह छोड़कर देशभक्ति दिखाते हैं। इसलिये सामान्य समय में होने वाले झगड़ों को देखकर यह भ्रम नहीं पालना चाहिये कि देश की एकता को खतरा है। इन्हीं सामान्य समयों में हल्के फुल्के अंतराष्ट्रीय वाद विवादों पर यह भी नहीं करना चाहिये कि देश के लोगों से उनको देशभक्ति का भाव जाग्रत करने का अभियाना बिना किसी योजना के प्रारंभ कर दें। इस देश को हर नागरिक संकट के समय बचाने आयेगा-भले ही वह अपनी रक्षा के स्वार्थ का भाव रखे या निष्काम भाव-इस पर विश्वास रखना चाहिए।

मगर कुछ लोगों के मन में देशभक्ति का भाव कुछ अधिक ही रहता है। उनकी प्रशंसा करना चाहिये। मगर जब सामान्य समय में वह हर छोटे मोटे विवाद पर देश में देशभक्ति का भाव दिखाते हुए दूसरे से भी तत्काल ऐसी आशा करते हैं कि वह भी ऐसी प्रतिक्रिया दे तब थोड़ा अजीब लगता है। अंतर्जाल पर हमारे ही एक मित्र ब्लाग लेखक ने भी ऐसा उतावलापन दिखाया। हमें हैरानी हुई। मामला है गूगल द्वारा अपने मानचित्र में भारत के अधिकार क्षेत्र को चीन में दिखाये जाने का! यह खबर हमने आज एक होटल में चाय पीते हुए जी न्यूज में भी देखी थी। बाद में पता लगा कि इस पर हमारे मित्र ने बहुत जल्दी अपनी प्रतिक्रिया दे दी। गूगल के ओरकुट से अपना परिचय हटा लिया। ब्लागर से ब्लाग उड़ा दिये। बोल दिया गूगल नमस्कार!
उन्होंने ऐसा नहीं कहा कि सभी ऐसा करें पर उनकी प्रतिष्ठता और वरिष्ठता का प्रभाव यह है कि अनेक ब्लाग लेखकों ने अपनी तलवारें निकाल ली-आशय यह है कि अपनी टिप्पणियों में देशभक्ति का भाव दिखाते हुए आगे ऐसा करने की घोषणा कर डाली।
एक ब्लागर ने असहमति दिखाई। इसी पाठ में ब्लाग लेखक के मित्र भ्राताश्री ने ही यह जानकारी भी दी कि गूगल के प्रवक्ता ने अपनी गलती मानी है और वह इसे सुधारेगा। समय सीमा नहीं दी।’
अब यह पता नहीं है कि आगे दोनों भ्राता क्या करने वाले हैं? मगर हिंदी ब्लाग आंदोलन को जारी रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है और इसी कारण लोग उन्हें अपनी मुखिया भी मानते हैं इसलिये उनके इस तरह के प्रयासों का ब्लाग जगत पर प्रभाव पड़ता है। मुख्य बात यह है कि इस तरह देशभक्ति का सस्ता बनाने का प्रयास लगता है।
इस तरह के अनेक विवादास्पद नक्शे आते रहते हैं और सरकारी तौर पर उसका विरोध होने पर बदलाव भी होता है। ऐसे में गूगल के विरुद्ध इस तरह का अभियान छेड़ने का का आव्हान थोड़ा भारी कदम लगता है खासतौर से तब जब आपने अभी कहीं औपचारिक विरोध भी दर्ज न कराया हो।
इन पंक्तियेां के लेखक को ब्लाग लिखने से कोई आर्थिक लाभ नहीं है। गूगल का विज्ञापन खाता तो अगले दस साल तक भी एक पैसा नहीं दे सकता। उसके विज्ञापन इसलिये लगा रखे हैं कि चलो उसकी सेवाओं का उपयेाग कर रहे हैं कि तो उसे ही कुछ फायदा हो जाये। सबसे बड़ी बात यह है कि आजादी के बाद हिंदी की विकास यात्रा व्यवसायिक और अकादमिक मठाधीशों के कब्जे में रही है। देश में शायद चालीस से पचास प्रसिद्ध लेखक ऐसे हैं जिनको संरक्षण देकर चलाया गया। बजाय हिंदी लेखकों को उभारने के अन्य भाषाओं से अनुवाद कर हिंदी के मूल लेखन की धारा को बहने ही नहीं दिया गया। आज भी अनेक हिंदी अखबारों में ऐसे बड़े लेखक ही छपते हैं जो अंग्रेजी में लिखने की वजह से मशहूर हुए पर हिंदी में नाम बना रहे इसलिये अपने अनुवाद हिंदी में छपवाते हैं।
व्यवसायिक प्रकाशनों में हिंदी लेखक से लिपिक की तरह काम लिया गया। आज इस देश में एक भी ऐसा लेखक नहीं है जो केवल लिखे के दम ही आगे बढ़ा हो। ऐसे में अंतर्जाल पर गूगल ने ही वह सुविधा दी है जिससे आम लेखक को आगे बढ़ने का अवसर मिल सकता है। हम जैसे लेखकों के लिये तो इतना ही बहुत है कि लिख पा रहे हैं। ऐसे अनेक लेखक हैं जो बहुत समय से लिख रहे हैं पर देश में उनकी पहचान नहीं है और वह अंतर्जाल पर आ रहे हैं।
गूगल का प्रतिद्वंद्वी याहू हिंदी के लिये किसी भी तरह उपयोगी भी नहीं है जबकि भारत का आम आदमी उसी पर ही अधिक सक्रिय है। न वह लिखने में सहायक है न पाठक देने में। गूगल के मुकाबले याहू का प्रचार भी कम बुरा नहीं है वह भी ऐसे मामले में जिसके निराकरण का प्रयास अभी शुरु भी नहीं हुए। हमें याहू के प्रचार पर ही भारी आपत्ति है क्योंकि वह किसी देशभक्ति का प्रतीक नहीं है। इधर समाचारों में यह पता भी लगा कि आधिकारिक रूप से नक्शे का विरोध दर्ज कराया जायेगा-उसके बाद की प्रतिक्रिया का इंतजार करना होगा। उसके बाद भी ब्लाग लेखकों से ऐसे आव्हान करने से पहले अन्य बड़े व्यवसायिक तथा प्रतिष्ठित लोगों से भी ऐसी कार्यवाही करवानी होगी। अपना पैसा खर्च कर ब्लाग लिखने वाले ब्लाग लेखकों में यह देशभक्ति का भाव दिखाने का खौफ तभी पैदा करें जब उसे विज्ञापन देने वाले बड़े संस्थान पहले उसके पीछे से हट जायें। अपने कुछ पल लिखने में आनंद से गुजारने वाले ब्लाग लेखक यह अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके देशभक्ति दिखाने का वक्त कौनसा है? हालांकि यह जानकारी मित्र ब्लाग लेखक पर दर्ज है कि गूगल अपनी गलती स्वीकार कर चुका है।
वैसे मान लीजिये यह गलती अभी स्वीकार नहीं गयी होती तो भी तत्काल इस तरह के आव्हान करना ठीक नहीं है। यह देशभक्ति को सस्ता बनाने जैसा है। हम ब्लाग लेखक भले ही गूगल के समर्थक हैं पर आम प्रयोक्ता वैसे ही याहू समर्थक है। गूगल को भारत में अभी बहुत सफर तय करना है और उसे यह नक्शा बदलना ही होगा। यह लेखक अपने मिलने वालों से यही कहता है कि गूगल का उपयोग करो। आप यकीन करिये जिन लोगों ने गूगल का उपयोग हिंदी के लिये शुरु किया तो भले ही सभी ब्लाग लेखक नहीं बने पर वह उसका उपयोग करते हैं और याहू से फिर वास्ता नहीं रखते। सर्च इंजिन में हिंदी के विषय जिस तरह गूगल में दिखते हैं वह हिंदी के लिये आगे बहुत लाभप्रद होगा।
इस तरह के विवाद जिन पर हमारा निजी रूप से बस नहीं है उनके लिये इस तरह के आव्हान करना अतिआत्मविश्वास का परिचायक है। जब सभी लोग आपको बिना विवाद के अपना मुखिया मानते हैं तब आपको सोच समझकर ही कोई बात कहना चाहिये- खासतौर से जब देशभक्ति जैसा संवेदनशील विषय हो। इधर चीन का डर पैदा करने का प्रयास चल रहा है। आप भारतीय सेना की ताकत जानते हैं। भारत की एक इंच जमीन लेना भी अब आसान उसके लिये नहीं है। ऐसे कागजी नक्शे तो बनते बिगड़ते रहते हैं उनसे विचलित होना शोभा नहीं देता-खासतौर से जब आप लेखक हों और ऐसी कई घटनाओं पर लिख चुके हों।
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6 अगस्त 2009

इश्क गुरु की सलाह काम न आई-हास्य कविता (ishq guru aur chela-hasya kavita)

आशिक शिष्य ने अपने इश्क गुरु से कहा
‘‘आदरणीय
फिर एक माशुका मेरी जिंदगी में आई
पर उसने मेरा इश्क का मामला
मंजूर करने से पहले
सच बोलने वाली मशीन के सामने
साक्षात्कार की शर्त लगाई।
आपसे सलाह लेकर अपने इश्क के मसले
सुलझाने में पहले भी
मदद नहीं मिली
इसलिये इस बार इरादा नहीं था
आपके पास आने का
पर क्या करता जो यह
एकदम नई समस्या आई।’’

इश्क गुरु ने कहा
‘‘कमबख्त! हर बार पाठ पढ़ जाता है
नाकाम होकर फिर लौट आता है
मेरे कितने चेले इश्क में इतिहास बना चुके हैं
पर केवल तेरी वजह से
मुझे असफल इश्क गुरु कहा जाता है
इस बार तुम घबड़ाना नहीं
सच का सामना करने के लिये
मैदान पर उतर जा
रख दे माशुका से भी
सच का सामना करने की शर्त
उसकी असलियत की भी उधड़ेगी पर्त
वह घबड़ा जायेगी
अपनी शर्त भूल जायेगी
तुम्हारी अक्लमंदी देखकर कर लेगी
जल्दी सगाई।’’

कुछ दिन लौटकर चेला
गुरु के सामने आया
चेहरे से ऐसा लगा जैसे पूरे जमाने ने
उस अकेले को सताया
बोला दण्डवत होकर
‘’गुरु जी, आपका पाठ इस बार भी
काम न आया
माशुका सुनकर मेरा प्रस्ताव
कुछ न बोली
बाद में उसने यह संदेश भिजवाया कि
‘भले ही न करना था
सच की मशीन का सामना
कोई बात नहीं थी
पर मुझ पर मेरी शर्त थोपकर
तुमने मेरा विश्वास गंवाया
इसलिये तय किया कि
किसी दूसरे से सच का सामना
करने के लिये नहीं कहूंगी
पर तुमने शर्त नहीं मानी
इसलिये आगे तुम्हारे इश्क को
अब दर्द की तरह नहीं सहूंगी
कर ली मैंने
अपने माता पिता के चुने लड़के से ही सगाई’
अफसोस! इस बार भी गुरु की सलाह
काम न आई’’

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2 अगस्त 2009

किश्तों में मिला सुख-हिंदी व्यंग्य कविताएँ (kisht men mila sukh-hindi sahitya kavita)

आंधी चलकर फिर रुक जाती है
धरती हिलती नहीं भले कांपती नजर आती है।
मौसम रोज बदलते हैं
उससे तेज भागते हैं, आदमी के इरादे
पर सांसें उसकी भी
कभी न कभी उखड़ जाती हैं
फिर भी जिंदगी वहीं खड़ी रहती है
भले अपना घर और दरवाजे बदलती जाती है।
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उधार के आसरे जीने की
ख्वाहिशें अपनी ही दुश्मन बन जाती हैं।
किश्तों में मिला सुख
भला कब तक साथ निभायेगा
किश्तें ही उसे बहा ले जाती हैं।

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hindi kavita, hindi poem, shayri, sher, मनोरंजन, शायरी, शेर, हिंदी साहित्य

1 अगस्त 2009

जैसे डाक्टर पीछे आया-हास्य कविता (hasya kavita in hindi)

एक आदमी ने सुबह-सुबह
दौड़ लगाने का कार्यक्रम बनाया
और अगले दिन ही घर से बाहर आया।
उसने अपने घर से ही
दौड़ लगाना शुरू की
आसपास के लड़के बडे हैरान हुए
वह भी उनके पीछे भागे
और भागने का कारण पूछा
तो वह बोला
"मैंने कल टीवी पर सुना
मोटापा बहुत खतरनाक है
कई बीमारियों का बाप है
आजकल अस्पताल और डाक्टरों के हाल
देखकर डर लगता है
जाओ इलाज कराने और
लाश बनकर लौटो
इसलिये मैने दौड़ने का मन बनाया।"

लड़कों ने हैरान होकर पूछा
" आप इस उम्र में दौडैंगे कैसे
आपकी हालत देखकर हमें डर समाया।
उसने जवाब दिया
"जब मेरी उम्र पर आओगे तो सब समझ जाओगे
लोग भगवान् का ध्यान करते हुए
योग साधना करते हैं
मैं यही ध्यान कर दौड़ता हूँ कि
जैसे कोई मुझे डाक्टर पकड़ने आया
अपनी स्पीड बढाता हूँ ताकि
उसकी न पड़े मुझे पर छाया।"

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31 जुलाई 2009

हिंदी में लिखा अन्य भाषाओं में पढ़ते देखना रोमांचित करता है-आलेख (translate toolbar and hindi article)

भले ही वह संख्या कम है पर हिंदी भाषा में अपने ब्लाग अन्य भाषाओं में पढ़े जाते देखकर अचरज तो होता है। स्पष्टतः यह लगने लगा है कि अंतर्जाल पर जब आप किसी भाषा में लिख रहे हैं तो केवल आप उस भाषा के लेखक नहीं हैं बल्कि उस समूह के भावों के प्रवर्तक भी हैं। इस लेखक ने गूगल के अनुवाद टूलों को में अपने ब्लागों को दूसरी भाषा में पढ़े जाते देखा है। यह प्रतीत होता है कि हिंदी से अन्य भाषाओं में अधिक शुद्ध अनुवाद हो रहा है क्योंकि कोई शब्द अनुवाद से परे नहीं रह गया। हिंदी के शब्दों को पहले दूसरी भाषा में अनुवाद करके देखा। फिर उस अनुवाद को अंग्रेजी में किया तो देखा तो पाया कि उनका अनुवाद ठीक हो रहा है।

जिन भाषाओं में अपने ब्लाग को पढ़े जाते देखा उनमें चीनी, जापानी और हिब्रू शामिल हैं। अब अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुवाद कैसे होगा इस पर भी काम करने का प्रयास करेंगे। भाषाई दृष्टि से सिकुड़ रहे विश्व में यह परिवर्तन देखने लायक होगा। यह लेखक आज भी भारत के ही उस अंग्रेजी ब्लाग लेखक को याद करता है जिसने यह भविष्यवाणी की थी कि विश्व में भाषाई दीवार अधिक समय तक नहीं चलेगी।

गूगल ने इस विश्व में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का प्रयास किया है जिसके परिणाम अब दृष्टिगोचर होने लगे हैं। इधर यह सुनने में आ रहा है कि गूगल को याहू और माइक्रोसोफ्ट चुनौती देने की योजना बना रहे हैं। पता नहीं उनकी क्या योजनायें होंगी पर इतना तय है कि याहू भारत के आम प्रयोक्ताओं में अधिक उपयोग में लाया जाता है जबकि गूगल रचनाधर्मी और व्यापारिक क्षेत्रो की पंसद है।

अंतर्जाल पर हिंदी लिखवाने के लिये जो गूगल ने योगदान दिया है उसे अनदेखा तो करना कठिन है। याहू भारतीय जनमानस में लोकप्रिय इसलिये बना हुआ है क्योंकि उसके बारे में यह भ्रम है कि एक भारतीय अभिनेता ने बनाया था जिसने अपनी फिल्म में याहू याहू कर गाना भी गया था। इसके बावजूद याहू की कोई हिंदी के लिये कोई खास भूमिका नहीं है। जो पाठक इस पाठ को पढ़ रहे हैं उन्हें यह पता होना चािहये कि इस हिंदी के पीछे गूगल के टूलों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
इधर ब्लागों के आवागमन पर दृष्टिपात करने से भी यह पता चलता है कि याहू से पाठ पठन /पाठक संख्या नगण्य है जबकि गूगल का योगदान अधिक है। याहू से अधिक तो वेबदुनियां तथा दूसरे सर्च इंजिनों से पाठक आ रहे हैं। इसका कारण भी है। याहू ने हिंदी में अपना वर्चस्व जमाने के लिये एक हिंदी प्रकाशन से तालमेल किया है। जब पाठक उसका मुख्य पृष्ठ खोलता है तो वहां उस प्रकाशन द्वारा लगाये गये हिंदी में स्तंभ दिख जाते हैं। पाठक उन्हीं में उलझकर रह जाता है। यह स्तंभ केवल पुराने स्थापित या प्रसिद्ध लेखकों से ही सुजज्जित है। पाठक वहां आकर शायद ही हिंदी में लिखा शब्द पढ़ने का प्रयास करे। उसे पता भी नहीं होगा कि हिंदी में अंतर्जाल पर लिखने वाले अन्य ऐसे लेखक भी हैं जो प्रसिद्ध न हों पर सार्थक लिखते हैं। सच बात तो यह है कि याहू कि अंतर्जाल पर हिंदी लाने में कोई अधिक भूमिका नहीं है। इसके विपरीत गूगल ने न केवल रोमन लिपि से हिंदी में लिखने का टूल दिया है बल्कि कृतिदेव को यूनिकोड में परिवर्तित करने वाला टूल स्थापित कर हिंदी को सहज भाव से लिखने की प्रेरणा भी दी है।
भारत से बाहर गूगल को अधिक महत्व मिल रहा है। इसका कारण यह है कि उसने सर्ज इंजिन से खोज कर आने वाले पाठकों को ब्लाग/ वेबसाईटों को पढ़ने के लिये वहीं अनुवाद टूल भी लगा दिया है। इसी कारण हिंदी में लिखे गये ब्लाग अन्य भाषाओं में तथा अन्य भाषाओं से हिंदी में पढ़ना सहज हो गया है। यही कारण है कि रचानाधर्मी तथा व्यवसायी गूगल को अधिक पसंद करते हैं। इतना ही नहीं गूगल ने अपने अनेक कार्यक्रमों का निर्माण इस तरह किया है कि लोग उसके साफ्टवेयरों का उपयोग सार्वजनिक रूप से कर सकते हैं। गूगल ग्रुप में हिंदी टूल भारतीय विद्वानों ने ही लगाये हैं जबकि याहू इस तरह की सुविधा नहीं देता। सबसे बड़ी बात यह है कि अनुवाद और हिंदी लिखने के लिये जो गूगल ने जो सुविधा दी है उसने हिंदी लेखकों को बहुत सहायता मिली है।
इस लेखक को जितने भी मित्र मिले उन्होंने अपना ईमेल सबसे पहले याहू पर बनाया। आपसी बातचीत में चर्चा होने के बाद ही उन्होंने जीमेल बनाया।
इस लेखक का स्पष्ट मानना है कि याहू की लोकप्रियता से हिंदी को कोई लाभ नहीं है। उसने हिंदी के लिये बस इतना ही किया है कि एक पुराने प्रकाशन संस्थान को उसका जिम्मा दे दिया है। इसके विपरीत गूगल आम आदमी के जज्बातों को बाहर लाने के लिये जोरदार प्रयास कर रहा है। अन्य भाषाओं में हिंदी ब्लाग पढ़े जा सकते हैं यह बात रोमांचित करती है। साथ ही यह भी कि हम अन्य भाषाओं का लिखा हम हिंदी में पढ़ सकते हैं।
एक हिंदी लेखक के नाते अब इस बात पर भी विचार करना होगा कि मामला अब केवल हिंदी लेखन तक ही सीमित नहीं है। आपके पाठ विश्व स्तर पर पढ़े और समझे जायेंगे। इसलिये हिंदी के मठाधीशों से सम्मान या इनाम की आशा की बजाय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात पहुंचाने के लिये इस ब्लाग सुविधा का उपयोग करें। उन्हें यह समझना चाहिये कि वह किसी सीमित समूह के लिये वह अपना पाठ नहीं लिख रहे बल्कि पूरे विश्व में उसे कहीं भी कोई किसी भाषा में भी पढ़ सकता है। लिखकर तत्काल वाह वाही या सम्मान पाने का मोह न हो तो ही यह बात रोमांचित कर सकती है।
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26 जुलाई 2009

असमंजस-हिंदी लघुकथा (hindi lagu katha)

पिता ने अपनी पूरी जिंदगी छोटी दुकान पर गुजारी और वह नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र भी इसी तरह अपनी जिंदगी बर्बाद करे। उन्होंने अपने पुत्र को खूब पढ़ाया। पुंत्र कहता था कि ‘पापा, मुझे नौकरी नहीं करनी!
पिता कहते थे कि-‘नहीं बेटे! धंधे में न तो इतनी कमाई है न इज्जत। बड़ा धंधा तो तुम कभी नहीं कर पाओगे और छोटा धंधा में करने नहीं दूंगा। नौकरी करोगे तो एक नंबर की तनख्वाह के अलावा ऊपरी कमाई भी होगी।’
पुत्र ने खूब पढ़ाई की। आखिर उसे एक कंपनी में नौकरी मिल गयी। जब पहले दिन वह लौटा तो पिता ने पूछा-‘कैसी है नौकरी? कमाई तो ठीक होगी न!’
पुत्र ने कहा-‘हां, पापा नौकरी तो बहुत अच्छी है। अच्छा काम करूंगा तो बोनस भी मिल जायेगा। थोड़ा अतिरिक्त काम करूंगा तो वेतन के अलावा भी पैसा मिल जायेगा।’
पिता ने कहा-‘यह सब नहीं पूछ रहा! यह बताओ कहीं से इसके अलावा ऊपरी कमाई होगी कि नहीं। यह तो सब मिलता है! हां, ऐसी कमाई जरूर होना चाहिये जिसके लिये मेहनत की जरूरत न हो और किसी को पता भी न चले। जैसे कहीं से सौदे में कमीशन मिलना या कहीं ठेके में बीच में ही कुछ पैसा अपने लिये आना।’
पुत्र ने कहा-‘नहीं! ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। यह सारा काम तो बड़े स्तर के अधिकारी करते हैं और फिर कंपनी में इस तरह की कोई कमाई नहीं कर सकता।’
पिता ने कहा-‘तुझे पढ़ाना लिखाना बेकार गया! एक तरह से मेरा सपना टूट गया। तुझे ऐसी ही कंपनी मिली थी नौकरी करने के लिये जहां ऊपरी कमाई करने का अवसर ही न मिले। मैं तो सोच रहा था कि ऊपरी कमाई होगी तो शान से कह सकूंगा। वैसे तुम अभी यह बात किसी से न कहना। हो सकता है कि आगे ऊपरी कमाई होने लगे।’
पुत्र ने कहा-‘इसके आसार तो बिल्कुल नहीं है।’
पिता ने कहा-‘प्रयास कर देख तो लो। प्रयास से सभी मिल जाता है। वैसे अब तुम्हारी शादी की बात चला रहा हूं। इसलिये लोगों से कहना कि ऊपरी कमाई भी होती है। लोग आजकल वेतन से अधिक ऊपरी कमाई के बारे में पूछते हैं। इसलिये तुम यही कहना कि ऊपरी कमाई होती है। फिर बेटा यह समय है, पता नहीं कब पलट जाये। हो सकता है कि आगे ऊपरी कमाई का जरिया बन जाये। इसलिये अच्छा है कि तुम कहते रहो कि ऊपरी कमाई भी होती है इससे अच्छा दहेज मिल जायेगा।’
पुत्र ने कहा-‘पर पापा, मैं कभी ऊपरी कमाई की न सोचूंगा न करूंगा।’
पिता ने कहा-पागल हो गया है! यह बात किसी से मत कहना वरना तेरी शादी करना मुश्किल हो जायेगा। हो भी गयी तो जीवन गुजारना मुश्किल है।
पुत्र चुप हो गया। पिता के जाने के बाद वह घर की छत की तरफ देखता रहा।
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24 जुलाई 2009

दिल के खेल का हिट फार्मूला- हास्य कविता ( hasya kavita)

एक अभिनेत्री के स्वयंबर
धारावाहिक से प्रभावित होकर
निर्देशक ने अपने लेखक से कहा
‘अपनी फिल्म की अभिनेत्री के लिये
कोई स्वयंबर का दृश्य लिखकर लाओ
भले ही कहानी का हिस्सा नहीं है
पर तुम उसके लिये सपना या ख्वाब बनाओ
मगर याद रखना अपनी फिल्म का हीरो ही
वह स्वयंबर जीते
साथ ही उसमें एक गाना भी हो
जिसमें लोग नजर आयें शराब पीते
मैंने समझा दिया तुम अब दृश्य लिख लाओ।’

लेखक ने कहा-
‘स्वयंबर का दृश्य ख्वाब में भी लिख देता
पर यह अभिनेता और अभिनेत्री
असल जिंदगी और फिल्म दोनों में
आशिक माशुका का रिश्ता बनाये हुए हैं
इसलिये लोगों को नहीं जमेगा।
स्वयंबर का दृश्य तो
प्यार और विवाह से पहले लिखा जाता है
इस कहानी में नायक पहले ही
गुंडों से बचाकर
नायिका का दिल जीत चुका है,
बस उसका काम
माता पिता की अनुमति पर रुका है,
फिर आप किस चक्कर में पड़े हो
अपनी फिल्मों में
नायक द्वारा नायिका को
गुंडों से बचाने का दृश्य
कभी स्वयंबर से कम नहीं होता
स्वयंबर में तो टूटता है धनुष
या मछली की आंख फूटती है,
अपने फिल्मी स्वयंबर में तो
एक साथ अनेक खलनायकों की
टांग टूटती है,
दूसरे का खून बहते देखकर
जनता असल मजा लूटती है,
आपको मजा नहीं आ रहा तो
नायक द्वारा नायिका को बचाने के दृश्य में
कुछ गुंडों की संख्या बढ़ाओ
दिल के खेल में यही हिट फार्मूला है
कोई नया न आजमाओ।

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20 जुलाई 2009

पूरब पश्चिम-आलेख(poorv aur pachshim-hindi lekh)

अगर किसी व्यक्ति ने अपना जीवन का श्रमिक के रूप में प्रारंभ किया हो और फिर लेखक भी बना हो तो उसके लिये इस देश में चल रही बहसों पर लिखने के लिये अनेक विषय स्वतः उपलब्ध हो जाते हैं। बस! उसे अपने लेखन से किसी प्रकार की आर्थिक उपलब्धि या कागजी सम्मान की बात बिल्कुल नहीं सोचना चाहिये। वैसे यह जरूरी नहीं है कि सभी लेखक कोई आरामगाह में पैदा होते हैं बस अंतर इतना यह है कि कुछ लोग ही अपने संघर्षों से कुछ सीख पाते हैं और उनमें भी बहुत कम उसे अपनी स्मृति में संजोकर उसे समय पड़ने पर अभिव्यक्त करते हैं।
इस समय देश में टीवी धारावाहिको और इंटरनेट की यौन सामग्री से सुसज्जित वेबसाईटों पर जमकर बहस चल रही है। इस देश में बुद्धिजीवियों की दो विचाराधारायें हैं। इनमें एक तो वह है जो मजदूरों और गरीबों को भला करने के के लिये पूंजीपतियों पर नियंत्रण चाहती है दूसरी वह है जो उदारीकरण का पक्ष लेती है। यह उदारीकरण वाली विचाराधारा के लोग संस्कृति संस्कार प्रिय भी हैं। वैसे तो दोनों विचारधाराओं के बीच हमेशा संघर्ष चलता रहता है पर दोनों एक मामले में सहमत हैं वह है राज्य से नियंत्रण की चाहत।
इंटरनेट पर सविता भाभी बैन हुई। दोनों विचाराधाराओं के लोग एकमत हो गये। इसका कारण यह था कि एक तो सविता भाभी देशी नाम था और उससे ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी भारतीय नारी के नाम का दोहन हो रहा है। पहली विचारधारा वालों को उससे कोई लेनादेना नहीं था क्योंकि उनका तो केवल पाश्चात्य विचारों और पात्रों पर नजर रखकर अपनी बात कहना ही लक्ष्य होता है। उदारीकरण और संस्कृति प्रिय बुद्धिजीवियों के लिये देशी और हिंदी नाम होने से सविता भाभी वेबसाईट पर प्रतिबंध लगना अच्छी बात रही।
आजकल सच का सामना चर्चा का विषय है। किसी काम को सोचना तब तक सच नहीं होता जब तक उसे किया न जाये। यही सोच सच के रूप में बिक रही है।
पता चला कि यह किसी ब्रिटिश और अमेरिकी धारावाहिकों की नकल है। वहां भाग लेने वाले पात्रों ने अपने राजफाश कर तहलका मचा दिया। इसी संबंध में लिखे एक पाठ पर इस लेखक को टिप्पणीकर्ता ने बताया कि ब्रिटेन में इस वजह से अनेक परिवार बर्बाद हो गये। उस सहृदय सज्जन ने बहुत अच्छी जानकारी दी। हमारा इस बारे में सोचना दूसरा है।
भारत और ब्रिटेन के समाज में बहुत बड़ा अंतर है। यह तो पता नहीं कि ब्रिटेन में कितना सोच बोला जाता है पर इतना तय है कि भारत में पैसे कमाने के लिये कोई कितना भी झूठ बोला जा सकता है-अगर वह सोचने तक ही सीमित है तो चाहे जितने झूठ बुलवा लो। इससे भी अलग एक मामला यह है कि अपने देश में ‘फिक्सिंग का खेल’ भी होता है। अभी एक अभिनेत्री के स्वयंबर मामले में एक चैनल ने स्टिंग आपरेशन किया था जिसमें एक भाग लेने वाले ने असलियत बयान की कि उसे पहले से ही तय कर बताया कि क्या कहना है?
अपने देश में एक मजेदार बात भी सामने आती है। वह यह है कि जिनका चरित्र अच्छा है तो बहुत है और जिनका नहीं है तो वह कहीं भी गिर सकते हैं। सच का सामना में भाग लेने वाले कोई मुफ्त में वहां नहीं जा रहे-याद रखिये इस देश में आदमी नाम तो चाहता है पर बदनामी से बहुत डरता है। हां, पैसे मिलने पर बदनाम होना भी नाम होने जैसा है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह एक व्यवसाय है। बस अंतर इतना है कि ठगी के मामले में कोई शिकायत करता है पर इसमें पैसा होने के कारण कोई शिकायत नहीं करता।
इन मामलों में बुद्धिजीवियों का अंर्तद्वंद्व देखने लायक है। दोनों विचाराधाराओं के बुद्धिजीवियों ने बस एक ही राह पकड़ी है कि प्रतिबंध लगाओ।
मजदूरों और गरीबों के लिये मसीहाई छबि रखने वालों का तो खैर ठीक है पर उदारवादियों का रवैया थोड़ा हैरान करने वाला है। यही उदारवादी देश मे अमेरिका और ब्रिटेन जैसे आर्थिक प्रारूप की मांग करते रहे हैं। उन्होंने सरकारी नियंत्रण का जमकर विरोध किया। धीरे धीरे सरकारी नियंत्रण कम होता चला गया और निजी क्षेत्र ने हर उस जगह अपना काम शुरु किया जहां आम आदमी की नजर जाती है। नतीजा सामने हैं! अगर समाचारों के लिये कोई सबसे बेहतर चैनल लोगों को लगता है तो वह दिल्ली दूरदर्शन!
देश के समाचार चैनल केवल विज्ञापन चैनल बन कर रह गये हैं जिनमें खबरें कम ही होती हैं। हिंदी फिल्म उद्योग बहुत बड़ा है और उसके लिये 365 दिन भी कम हैं। हर दिन किसी न किसी अभिनेता या अभिनेत्री का जन्म दिन होता है। फिर इतने अभिनेता और अभिनेत्रियां हैं कि उनके निजी संपर्क भी इन्हीं समाचारों में स्थान पाते हैं।
मुद्दे की बात तो यह है कि नियंत्रणवादी हो या उदारवादी व्यवस्था दोनों में अपने दोष और गुण हैं। नियंत्रणवादी व्यवस्था में कुछ बौद्धिक मध्यस्थों के द्वारा पूंजीपति समाज पर नियंत्रण स्थापित करते हैं तो उदारवादी में बौद्धिक मध्यस्थ उनका निजी कर्मचारी बन जाता है। दरअसल राज्य को सहज विचारधारा पर चलना चाहिये। यह सहज विचाराधारा अधिक लंबी नहीं है। राज्य को अपने यहां स्थित सभी समाजों पर नियंत्रण करना चाहिये पर उनकी आंतरिक गतिविधियों से परे रहना ही अच्छा है। पूंजीपतियों को व्यापार की हर तरह की छूट मिलना चाहिये पर आम आदमी को ठगने से भी बचाना राज्य का दायित्व है। व्यापार पर बाह्य निंयत्रण रखना जरूरी है पर उसमें आंतरिक दखल करना ठीक नहीं है।
दोनों ही विचारधारायें पश्चिम से आयातित हैं इसलिये आम भारतीय का सोच उनसे मेल नहीं खाता। सच बात तो यह है कि नारे और वाद की चाल से चलता यह देश दुनियां में कितना पिछड़ गया है यह हम सभी जानते और मानते हैं। इस देश की समस्या अब संस्कार, संस्कृति या धर्म बचाना नहीं बल्कि इस देश में इंसान एक आजाद इंसान की तरह जी सके इस बात की है। पूरे देश के समलैंगिक होने की बात करने वालों पर केवल हंसा ही जा सकता है। इस पर इतनी लंबी च ौड़ी बहस होती है कि लगता नहीं कि कोई अन्य समस्या है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस देश मेें लोग सच से भागते हैं और उसकी पर्दे पर ईमानदारी से अभिव्यक्ति करेंगे इसमें संदेह है।
दूसरी बात यह है कि आधी अधूरी विचाराधाराओें से व्यवस्थायें कहीं भी नहीं बनती। अगर नियंत्रणवादी हो तो पूरी तरह से सब राज्य के नियंत्रण में होना चाहिये। उदारवादी हैं तो फिर यह सब देखना पड़ेगा। सहज विचारधारा अभी किसी की समझ में नहीं आयेगी। हम इस पर लिखें भी तो बेकार लगता है। बुद्धिजीवियों के पूर्वाग्रहों को भी भला कोई मिटा सकता है। अमेरिका और ब्रिटेन की संस्कृति और संस्कारों का हम पर बहुत प्रभाव है और धीरे धीरे वह सभी बुराईयां यहां आ रही हैं जो वहां दिखती हैं। हां, हमें उनसे अधिक बुरे परिणाम भोगने पड़ेंगे। वजह यह कि पश्चिम वाले भौतिकता के अविष्कारक हैं और उसकी अच्छाईयों और बुराईयों को जानते हुए समायोजित करते हुए चलते हैं और हमारे यहां इस प्रकार के नियंत्रण की कमी है। शराब पश्चिम में भी पी जाती है पर वहां शराबी के नाम से कोई बदनाम नहीं होता क्योंकि उनके पीने का भी एक सलीका है। अपने यहां कोई नई चीज आयी नहीं कि उससे चिपट जाते हैं। उससे अलग तभी होते हैं जब कोई नई चीज न आ जाये। इसके अलावा पश्चिम में व्यायाम पर भी अधिक ध्यान दिया जाता है जिस पर हमारे लोग कम ही ध्यान देते हैं। ढेर सारी बुराईयों के बावजूद वहां हमारे देश से बड़ी आयु तक लोग जीते हैं वह भी अच्छे स्वास्थय के साथ। अपने यहां एक उम्र के बाद आदमी चिकित्सकों के द्वार पर चक्कर लगाने लगता है।
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15 जुलाई 2009

अपने ही पसीने से नहाये हम-हिंदी शायरी (apna pasina-hindi shayri)

ताउम्र एड़ियां रगड़कर चलते रहे
सिंहासन पर बैठने की बात
कभी समझ ही नहीं आई।
यह तय रहा हमेशा
पैदा मजदूर की तरह हुए हैं
वैसे ही छोड़ जायेंगे दुनियां
जिसके लिये बहायेंगे पसीना
मिलेगी नहीं वह खुशियां
कभी चली ठंडी हवा तो
उसने ही दिया सुकून
दूसरे की चाहतें पूरी करते रहे
अपनी सोचकर आंखें भर आई।

फिर भी नहीं गम है
अपनी शर्तो पर जिये
यह भी नहीं कम है
गरीबों पर जग हंसा तो
बादशाहों की भी मखौल उड़ाई।
हमने पैबंद लगाये अपने कपड़ों में
उन्होंने सोने से अपनी देह सजाई।
जिंदगी का फलासफा है
वैसी होगी वह जैसी तुमने नजरें पाई।
दूसरे का खून निचोड़कर
जिन्होंने अमीरी पाई
बैचेनी की कैद हमेशा उनके हिस्से आई।
अपने ही पसीने में नहाये हम तो क्या
हमेशा चैन की बंसी बजाई।

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11 जुलाई 2009

मशहूरी का राज-व्यंग्य कविता (mashahuri ka raz-vyangya kavita)

हर इंसान खड़ा है हाथ में लिए ताज
कोई आकर पहना दे
इस इंतजार में।
विरला ही कोई बेताज बादशाह होता
जो रखता सभी के सिर पर ताज
बिना सौदा किये निकल जाता
हाथ उठाकर कुछ नहीं मांगता
चलता है मस्त हाथी की तरह
इस बाजार में।
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सजे संवरे चेहरे
हाथ में पकड़े हैं ताज।
अपने ही सिर पर पहन लेते हैं
या कर लेते हैं
एक दूसरे के साथ सौदा
चमकाते हैं एक दूसरे का चरित्र
बना लेते हैं कामयाबी का
काल्पनिक चित्र
यही है उनकी मशहूरी का राज।

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7 जुलाई 2009

बजट का कटु सत्य-हास्य व्यंग्य (hindi vyangya on budget)

उन्होंने जैसे ही दोपहर में बजट देखने के लिये टीवी खोला वैसे ही पत्नी बोली-‘सुनते हो जी! कल तुमने दो हजार रुपये दिये थे सभी खर्च हो गये। अब कुछ पैसे और दो क्योंकि अभी डिस्क कनेक्शन वाला आने वाला होगा। कुछ देर पहले आया तो मैंने कहा कि बाद में आना।’
उन्होंने कहा-‘अरे, अब तो बैंक से पैसे निकालने पड़ेंगे। अभी तो मेरी जेब में पैसा नहीं है। अभी तो टीवी परबजट सुन लूं।’
पत्नी ने कहा-‘इस बजट की बजाय तुम अपने घर का ख्याल करो। अभी डिस्क कनेक्शन वाले के साथ धोबी भी आने वाला है। मुन्ना के स्कूल जाकर फीस जमा भी करनी है। आज आखिरी तारीख है।’
वह टीवी बंदकर बाहर निकल पड़े। सोचा पान वाले के यहां टीवी चल रहा है तो वहां पहुंच गये। दूसरे लोग भी जमा थे। पान वाले ने कहा-‘बाबूजी इस बार आपका उधार नहीं आया। क्या बात है?’
उन्होंने कहा-‘दे दूंगा। अभी जरा बजट तो सुन लूं। घर पर लाईट नहीं थी। अपना पर्स वहीं छोड़ आया।’
उनकी बात सुनते ही पान वाला खी खी कर हंस पड़ा-‘बाबूजी, आप हमारे बजट की भी ध्यान रखा करो।’
दूसरे लोग भी उनकी तरफ घूरकर देखने लगे जैसे कि वह कोई अजूबा हों।
वह अपना अपमान नही सह सके और यह कहकर चल दिये कि‘-अभी पर्स लाकर तुमको पैसा देता हूं।’
वहां से चले तो किराने वाले के यहां भी टीवी चल रहा था। वह वहां पहुंचे तो उनको देखते ही बोला-‘बाबूजी, अच्छा हुआ आप आ गये। मुझे पैसे की जरूरत थी अभी थोक दुकान वाला अपने सामान का पैसा लेने आता होगा। आप चुका दें तो बड़ा अहसान होगा।’
उन्होंने कहा-‘अभी तो पैसे नहीं लाया। बजट सुनकर चला जाऊंगा।’
किराने वाले ने कहा-‘बाबूजी अभी तो टीवी पर बजट आने में टाईम है। अभी घर जाकर ले आईये तो मेरा काम बन जायेगा।’
वहां भी दूसरे लोग खड़े थे। इसलिये तत्काल ‘अभी लाया’ कहकर वह वहां से खिसक लिये।
फिर वह चाय के होटल की दुकान पर पहुंचे। वहां चाय वाला बोला-‘बाबूजी, क्या बात इतने दिन बाद आये। न आपने चाय पी न पुराना पैसा दिया। कहीं बाहर गये थे क्या?’
दरअसल अब उसकी चाय में मजा नहीं आ रहा था इसलिये उन्होंने दो महीने से उसके यहां चाय पीना बंद कर दिया था। फिर इधर डाक्टर ने भी अधिक चाय पीने से मना कर दिया था। चाय पीना बंद की तो पैसा देना भी भूल गये।
वह बोले-यार, अभी तो पैसा नहीं लाया। हां, बजट सुनकर वापस घर जाकर पर्स लेकर तुम्हारा पैसा दे जाऊंगा।’
चाय वाला खी खी कर हंस पड़ा। एक अन्य सज्जन भी वहां बजट सुनने वहां बैठे थे उन्होंने कहा-‘आईये बैठ जाईये। जनाब! पुराना शौक इसलिये छूटता नहीं इसलिये बजट सुनने के लिये घर से बाहर ही आना पड़ता है। घर पर बैठो तो वहां इस बजट की बजाय घर के बजट को सुनना पड़ता है।’
यह कटु सत्य था जो कि सभी के लिये असहनीय होता है। अब तो उनका बजट सुनने का शौक हवा हो गया था। वह वहां से ‘अभी लाया’ कहकर निकल पड़े। जब तक बजट टीवी पर चलता रहा वह सड़क पर घूमते रहे और भी यह बजट तो कभी वह बजट उनके दिमाग में घूमता रहा।
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