ताउम्र एड़ियां रगड़कर चलते रहे
सिंहासन पर बैठने की बात
कभी समझ ही नहीं आई।
यह तय रहा हमेशा
पैदा मजदूर की तरह हुए हैं
वैसे ही छोड़ जायेंगे दुनियां
जिसके लिये बहायेंगे पसीना
मिलेगी नहीं वह खुशियां
कभी चली ठंडी हवा तो
उसने ही दिया सुकून
दूसरे की चाहतें पूरी करते रहे
अपनी सोचकर आंखें भर आई।
फिर भी नहीं गम है
अपनी शर्तो पर जिये
यह भी नहीं कम है
गरीबों पर जग हंसा तो
बादशाहों की भी मखौल उड़ाई।
हमने पैबंद लगाये अपने कपड़ों में
उन्होंने सोने से अपनी देह सजाई।
जिंदगी का फलासफा है
वैसी होगी वह जैसी तुमने नजरें पाई।
दूसरे का खून निचोड़कर
जिन्होंने अमीरी पाई
बैचेनी की कैद हमेशा उनके हिस्से आई।
अपने ही पसीने में नहाये हम तो क्या
हमेशा चैन की बंसी बजाई।
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शब्द अर्थ समझें नहीं अभद्र बोलते हैं-दीपकबापूवाणी (shabd arth samajhen
nahin abhardra bolte hain-Deepakbapuwani)
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*एकांत में तस्वीरों से ही दिल बहलायें, भीड़ में तस्वीर जैसा इंसान कहां
पायें।*
*‘दीपकबापू’ जीवन की चाल टेढ़ी कभी सपाट, राह दुर्गम भाग्य जो सुगम पायें।।*
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5 वर्ष पहले
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