हर इंसान खड़ा है हाथ में लिए ताज
कोई आकर पहना दे
इस इंतजार में।
विरला ही कोई बेताज बादशाह होता
जो रखता सभी के सिर पर ताज
बिना सौदा किये निकल जाता
हाथ उठाकर कुछ नहीं मांगता
चलता है मस्त हाथी की तरह
इस बाजार में।
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सजे संवरे चेहरे
हाथ में पकड़े हैं ताज।
अपने ही सिर पर पहन लेते हैं
या कर लेते हैं
एक दूसरे के साथ सौदा
चमकाते हैं एक दूसरे का चरित्र
बना लेते हैं कामयाबी का
काल्पनिक चित्र
यही है उनकी मशहूरी का राज।
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शब्द अर्थ समझें नहीं अभद्र बोलते हैं-दीपकबापूवाणी (shabd arth samajhen
nahin abhardra bolte hain-Deepakbapuwani)
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*एकांत में तस्वीरों से ही दिल बहलायें, भीड़ में तस्वीर जैसा इंसान कहां
पायें।*
*‘दीपकबापू’ जीवन की चाल टेढ़ी कभी सपाट, राह दुर्गम भाग्य जो सुगम पायें।।*
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5 वर्ष पहले
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