27 जुलाई 2010

हमराह-हिन्दी शायरी (hamrah-hindi shayri

दोस्ती जैसा कोई रिश्ता नहीं,
मिल सकती है बस वफा यहीं।
तुम प्यार भरी बातें यूं ही करते रहो
हम सबूत ढूंढने नहीं जायेंगे कहीं।
कभी मौके पर खरे उतरो या मुंह फेर लो
कभी मतलब तुममें फंसाकर आजमायेंगे नहीं।
देखा है वक्त बदल देता है इंसानों को
तुम बदलोंगे तो कभी शिकायत करेंगे नहीं।
दोस्त के पराये होने पर क्या रोयेंगे
जब दगा भी किसी का सगा हुआ नहीं।
बेवफाईयां भी हमारी जिंदगी डुबो नहीं सकीं
वफा कर गये अनजाने लोग, जो मिले न थे कहीं।
कभी उठे आकाश में, कभी गिरे जमीन पर
चले अपने आसरे, मिले या न हमराह कहीं।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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22 जुलाई 2010

प्रसिद्ध होने का भय-हास्य कविता (mashahoor hone ka bhay-hasya kavita)

आशिक ने माशुका से कहा
‘एक टीवी चैनल वाले ने अपने कार्यक्रम में
मेरे को स्वयंवर का प्रस्ताव दिया है,
मैंने भी उससे तुम्हें ही चुनने का
पक्का वादा लिया है,
चलो इस बहाने देश में लोकप्रिय हो जायेंगे
अपना ‘फिक्स स्वयंवर’ रचायेंगे।’
माशुका बोली
‘क्या पगला गये हो,
यह टीवी और फिल्म वाले
भले ही हिन्दी का खाते हैं
शब्द सुनते जरूर पर अर्थ नहीं समझ पाते हैं,
बन गये हैं सभी उनके दीवाने,
इसलिये भाषा से हो गये वीराने,
स्वयंवर में वधु चुनती है वर,
और स्वयंवधु की कोई प्रथा नहीं है मगर,
फिर कहीं मिल गया कोई क्रिकेटर
या भा गया कोई एक्टर
तब तुम्हें भूल जायेंगे,
बिना पैसे मिले प्रचार की वजह से
हम यूं ही बदनाम हो जायेंगे,
वैसे भी लगता है तुम झांसा दे रहे हो,
मेरा इम्तहान ले रहे हो,
क्योंकि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं,
विवाह तुमसे करूंगी यह आस नहीं है,
इसलिये शायद मुझे फंसा रहे हो,
दिखाने के लिये हंसा रहे हो
यह बाज़ार और प्रचार है जुड़वां भाई,
मेल इनका ऐसा ही है जैसे फरसा और कसाई
हम जैसे लाखों हैं आशिक माशुकाऐं,
मिले टीवी पर मौका तो
बदल दें सभी अपनी आज की आस्थाऐं,
झूठा है तो ठीक
पर अगर सच्चा है तुम्हारा दावा
होगा दोनों को पछतावा
प्रसिद्ध हो जाने पर हम कभी
साथ नहीं चल पायेंगे।’
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19 जुलाई 2010

धर्मार्थ कर-लघु हास्य व्यंग्य (dharmarth kar-laghu hasya vynagya)

सुबह घर से निकलते समय पत्नी ने अपने पति से कहा-‘मैं सर्वशक्तिमान के दरबार के निर्माण कार्य के लिये चंदा देने का वादा करके आयी हूं। अब तो आपकी तनख्वाह बहुत अच्छी है इसलिये कुछ पैसे देना तो मैं वहां दे आऊंगी।’
पति ने कहा-‘कितनी बात कहा है कि तनख्वाह की बात मत किया करो। अपना घर तो ऊपरी कमाई से ही चलता है। आजकल प्रचार माध्यम बहुत ताकतवर हो गये हैं इसलिये ऊपरी कमाई आसान नहीं रही है। इधर तुम धर्मार्थ काम के लिये पैसा मांगने लगी हो। आज इस दरबार में तो कल उस दरबार में चंदा देना बंद कर दो।
पत्नी ने कहा-‘कैसी बात करते हो? सर्वशक्तिमान की कृपा से इतनी अच्छी तनख्वाह हो गयी है...................’’
पति ने कहा-‘फिर वही बात! सर्वशक्तिमान की कृपा से तनख्वाह नहीं मिलती। वह तो अपनी मेहनत का फल है। उसकी कृपा से तो बस ऊपरी कमाई हो सकती है, जिसमें आजकल कमी हो गयी है फिर दफ्तर में अब नज़र भी रखी जाने लगी है। खतरा बढ़ गया है।
पत्नी उदास हो गयी तो पति ने कहा-‘ठीक है! देखता हूं आज कोई मुर्गा फंसा तो उससे अपनी कमाई के साथ ही सर्वशक्तिमान के नाम पर धर्मार्थ कर भी मांग लूंगा। अगर तुम इसी तरह धर्म का काम करती रही तो मुझे पता नहीं कितने लोगों से यह धर्मार्थ कर मांगना पड़ेगा। अब मैं चलता हूं और सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करो कि आज ऊपरी कमाई के साथ धर्मार्थ कर भी वसूल हो जाये।’
पत्नी खुश हो गयी और बोली-‘अच्छा! आप जाओ मैं सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करती हूं कि आज आपको कोई धर्मार्थ कर देने वाला मिल जाये।’
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15 जुलाई 2010

महंगाई, पीतल और सोना-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (mahangai,peetal aur sona-hindi vyangya kavitaen)

महंगाई यूं बड़ी तो
पीतल सोने के भाव बिक जायेगा।
चांदी के भाव लोहा लिख जायेगा,
मोटे पेट वाले सेठ
कपड़े की गांठों पर बैठे रहेंगे,
गरीब हर जगह नंगा दिख जायेगा।
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पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर
देश भक्ति के गीत गाना
हास्यास्पद दिखता है,
जिन्होंने हथिया लिये दौलत और शौहरत के शिखर
वह हर शख्स
दौलत भक्ति करता दिखता है,
बातें कर चाहे कोई भी कितनी आदर्श की
मौका पड़े तो वह शख्स
देश को बेचने का सौदा भी लिखता है।
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महंगाई न केवल कमर तोड़ गयी
बल्कि पांव में पत्थर भी जोड़ गयी,
जिंदा रहना तो मुश्किल हो गया
मौत भी इंसान से मुंह मोड़ गयी।
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10 जुलाई 2010

कागज पर सड़क-हिन्दी हास्य कविताएँ kagaz par sadak-hindi comic poems)

देशभक्ति और गरीब की भलाई तो बस नारे हैं
जो लोकतंत्र के बाज़ार में
हमेशा बिक जाते हैं।
अमीर जताते दिखावे की मज़दूरों से हमदर्दी
भलमानस कहलाते, चाहे लूटने में दिखाते बेदर्दी
तो गद्दार भी नारे लगाकर
यहां वफादार का सम्मान पाते हैं।
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घोषणा है तो सड़क बन ही जायेगी,
तय बजट में से कुछ तो जरूर खायेगी।
लोग चल पायें या नहीं,
मगर कागज पर सड़क चकाचक नज़र आयेगी।

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4 जुलाई 2010

हंसी सूखकर कंकाल हो गयी-हिन्दी नज़्म (hansi sookhkar kakal ho gayi-hindi nazma)

आमदनी बढ़ाने की फिक्र में, जिंदगी बदहाल हो गयी,
पैसों से रिश्ते निभते हैं, संस्कृति एक बवाल हो गयी।
सुबह से शाम तक ताक रहे मतलब निकालने के रास्ते,
उतरे फ़र्ज तो चढ़े कर्ज, कौड़ी में भी महंगी इंसानी खाल हो गयी।
पसीना बहाकर अमीर होने के ख्वाब कोई नहीं देखता,
ईमान बेचकर दौलतमंद होना, हर इंसान की चाल हो गयी।
कहें दीपक बापू, रोने से बचने के लिये लोग ढूंढ रहे बहाने
दिल के जज़्बात मर गये, हंसी सूखकर कंकाल हो गयी।
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