कोई पैसे कोई पत्थर लेकर लड़े हैं, इंसानी समाज में पद से सब छोटे बड़े हैं।
‘दीपकबापू’ चाल चरित्र के नियम छोड़ चुके, आत्ममुग्धता का बोध लिये खड़े हैं।।
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पलकें बिछायें बैठे हैं कब आयें रुपये लाख, आशा की अग्नि में सपने होते राख।
‘दीपकबापू’ पुराने से उकताये नये में फंसे, हर चेहरा जल्दी गंवाता अपनी साख।।
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प्रेम की बात कर काटने लगते गला, अपने लगाई बुराई चाहें किसी का भला।
‘दीपकबापू’ ज़माने में लगायी घृणा की आग, किस्मत से कोई बचा कोई जला।।
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चलित दूरभाष यंत्र पर उंगलियां नचाते, पर्दा देख अकेलापन अपनी आंख से बचाते।
‘दीपकबापू’ बड़ी दुनियां जीवन छोटे दायरे में समेटा, अपना दर्दे भी स्वयं ही पचाते।।
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मस्तिष्क सुलाकर आंख से झांक रहे हैं, भाव भुलाकर अपनी देह में दर्द टांक रहे हैं।
‘दीपकबापू’ खेलते धर्म के नाम पर खेल, दागदार छवि प्रगतिशील नारे फांक रहे हैं।।
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