30 अक्तूबर 2013

मुफ्त के लिये खोज-हिन्दी क्षणिकायें(muft ke liye khoj-hindi short poem's)



सर्वशक्तिमान से इश्क करना भी
वह सिखायेंगे,
सोने के छिपे खजाने का रास्ता भी दिखायेंगे,
खुश रहे योगी के साथ भोगी भी
धर्म के ठेकेदार के रूप में वह
अपना नाम इसी तरह लिखायेंगे।
कहें दीपक बापू
मुख से लेते सर्वशक्तिमान का नाम,
अपनी इज्जत बढ़ाने के  साथ  लेते दाम,
जिंदगी के हर पल में
स्वर्णिम सुख लेने की कला वह क्या सिखायेंगे।
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दिल और दिमाग से
सोचता है कौन,
हर कोई चीखने को आतुर
कोई रहता नहीं मौन,
हर कोई फायदों के पीछे पड़ा है,
ढूंढता है कहां खजाना गड़ा है।
कहें दीपक बापू
मेहनत से डर इंसान
मुफ्त सोना पाने पर हर जगह अड़ा है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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17 अक्तूबर 2013

खजाने की आशायें-हिन्दी चिंत्तन लेख(khazane ki aashyaen-hindi chinttan lekh,hindi thought article)



                                                एक बार फिर जमीन में गढ़े खजाने की बात सामने आयी। उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले में डोंडिया खेड़ा गांव में एक हजार टन सोने का खजाना मिलने की संभावना बन रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पुरातत्व विभाग एक संत से मिले नक्शे के आधार पर यह खुदाई कर रहा है पर इसके आधार पर यह नहीं मान लेना चाहिये कि वहां खजाना मिल ही जायेगा।  बहरहाल वहां लोगों को एक अस्थाई मेला लग गया है।  लोग खजाने की खुदाई देखने आ रहे हैं पर पुलिस की जैसी व्यवस्था है उनका खुदाई के स्थान तक जाना कठिन है।  फिर भी मेला लग रहा है।  लोग पिकनिक मनाने के लिये वहां खजाना देखने आ रहे हैं। दुकाने लग गयी है। खजाना मिल भी गया तो भी सरकारी लोग उसे वहां सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित नहीं कर पायेंगे क्योंकि संभवत उन्हें ऐसा करने की अनुमति ऊपर से नहीं मिलेगी
                        परिणाम का हमें इंतजार है पर फिलहाल यह देखकर हैरानी हो रही है कि एक खजाना जो अभी दिख नहीं रहा वहां लोग अपने ख्वाबों को साथ लेकर लोग मेला लगाने पहुंच गये हैं।  हम बात कर रहे हैं भीड़ की। भारत में किसी भी तरह कहीं भी भीड़ जुटानी हो तो किसी चमत्कार का प्रचार कर दीजिये।  अक्सर लोग यह सवाल करते हैं कि आखिर कथित संतों और तांत्रिकों के पास लोग जाते क्यों है? जवाब है कि लोग मेहनत के बिना कुछ पाना चाहते हैं।  ऐसा नहीं है कि लोग अज्ञानी है मगर लालच उन्हें अक्ल का अंधा बना देती है।  लोग कहते हैं कि भारत में अंधविश्वास बहुत है पर हम इसे नहीं मानते। उल्टा हमारा मानना है कि भारत के हर आदमी में ज्ञान है यह अलग बात है कि लोभ और लालच उस पर पर्दा डाल देती है।  भगवान के प्रति जो विश्वास है वह लालच के कारण अंधविश्वास में बदल जाता है लोग जानते हैं कि इस तरह कुछ होगा नहीं पर सोचते हैं कि चलो अजमाने में हर्ज क्या है?
                        खजानों पर लिखा गया यह तीसरा लेख है। इसका मतलब यह है कि हम भारत के खजानों पर दो लेखक पहले भी लिख चुके हैं।  यह लेख हम नहीं लिखते अगर एक पाठक ने पुराने एक लेखक पर टिप्पणी नहीं की होती।  उस पाठिका की टिप्पणी के बाद हमने अपने वही लेख पढ़ डाले। उस पाठिका का धन्यवाद! उसकी टिप्पणी ने  उन पाठों को  याद दिलाया तब हमने सोचा कि  कुछ दूसरा लिखो उससे पहले वाला पढ़ लो। प्रस्तुत हैं वही दोनों लेख।

सोने का खज़ाना और भारत का अध्यात्मिक ज्ञान-हिन्दी लेख (sone ka khazana aur bharat ka adhyatmik gyan-hindi lekh)
              केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में अभी तक एक लाख करोड़ का खजाना बरामद हुआ है। यह खजाना त्रावणकोर या ट्रावनकोर के राजाओं का है। जहां तक हमारी जानकारी है भारत में इस तरह खजाना मिलने का यह पहला प्रसंग है।
           अलबत्ता बचपन से अपने देश के लोगों को खजाने के पीछे पागल होते देखा हैं। कई लोग कहीं कोई खास जगह देख लेते हैं तो कहते हैं कि यहां गढ़ा खजाना होगा। अनेक लोग सिद्धों के यहां चक्कर भी इसी आशा से लगाते हैं कि शायद कहीं किसी जगह गढ़े खजाने का पता बता दे। कुछ सिद्ध तो जाने ही इसलिये जाते हैं कि उनके पास गढ़े खजाने का पता बताने की क्षमता या सिद्धि है।
        ऐसे भी किस्से देखे हैं कि किसी ने पुराना मकान खरीदा और उसे बनवाना शुरु किया। भाग्य कहें या परिश्रम वह अपने व्यवसाय में अमीर हो गया तो लोगों ने यह कहना शुरु कर दिया कि खुदाई में उनको खजाना मिला है।
बहरहाल केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिले सोने और हीरे जवाहरात ने भले ही किसी को चौंकाया हो पर इतिहासविद् और तत्वज्ञानियों ने लिये यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं हो सकता।
अभी हाल ही में पुट्टापर्थी के सत्य सांई बाबा के मंदिर में तो मात्र दो सौ ढाई करोड़ का खजाना मिला था तब अनेक लोगों की सांसें फूल गयी थी। अब केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिले खजाने ने उसके एतिहासिक महत्व पर धूल डाल दी है।
          बता रहे हैं कि केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिला यह खजाना तो मात्र एक कमरे का है और अभी ऐसे ही छह कमरे अन्य भी हैं। न हमने खजाना देखा है न देख पायेंगे। न पहुंचेंगे न पहुंच पायेंगे। इस खजाने का क्या होगा यह भी नहीं पता पर जिन्होंने उसका संग्रह किया उन पर तरस आता है। यह राजाओं का खजाना है और इसका मतलब यह है कि उन्होंने अपनी प्रजा के दम पर ही इसे बनाया होगा। नहीं भी बनाया होगा तो अपने उस राज्य के भौतिक या उसके नाम का ही उपयोग किया तो होगा जो बिना प्रजा की संख्या और क्षमता के संभव नहीं है।
             राजा हो या प्रजा सोना, हीरा, जवाहरात तथा अन्य कीमती धातुओं इस देश के लिये हमेशा कौतुक का विषय रही हैं। पेट की भूख शांत करने के लिये इसका प्रत्यक्ष कतई नहीं हो सकता अलबत्ता चूंकि लोगों के लिये आकर्षण का विषय है इसलिये उसका मोल अधिक ही रहता है। हमारे देश में सोना पैदा नहीं होता। इसे बाहर से ही मंगवाया जाता है। जब हम प्राचीन व्यापार की बात करते हैं तो यही बात सामने आती है कि जीवन उपयोगी वस्तुऐं-गेंहूं, चावल, दाल, कपास और उससे बना कपड़ा तथा अन्य आवश्यक वस्तुऐं-यहां से भेजी जाती थी जिनके बदले यह सोना और उससे बनी वस्तुओं जिनका जीवन में कोई उपयोग नहीं है यहां आता होंगी। कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने। सोना दूर पैदा होता है उससे देश का प्रेम है पर प्रकृति की जो अन्य देशों से अधिक कृपा है उसकी परवाह नहीं है। हम कई बार लिख चुके हैं और आज भी लिख रहे हैं कि विश्व के प्रकृतिक विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में जलस्तर सबसे बेहतर है। जी हां वह जल जो जीवन का आधार है हमारे यह अच्छा है इसलिये गेंहूं, चावल, दाल, कपास और सब्जियों की बहुतायत होने के कारण हम उनका महत्व नहीं समझते वैसे ही जैसे कहा जाता है कि घर का ब्राह्मण बैल बराबर। यह बात भी कह चुके हैं कि निरुपयोगी पर आकर्षक चीजों के मोह में हमारा समाज इस तरह भ्रमित रहता है कि उस पर हंसा ही जा सकता है। वैसे तो विश्व में सभी जगह अंधविश्वास फैला है पर हम भारतीय तो आंकठ उसमें डूबे रहे हैं। यहां इतना अज्ञान रहा है कि हमारे महान ऋषियों को सत्य का अनुसंधान करने के अच्छे अवसर मिले हैं। कहा जाता है कि कांटों में गुलाब खिलता है तो कीचड़ में कमल मिलता है। अगर यह समाज इतना अज्ञानी नहीं होता तो सत्य की खोज करने की सोचता कौन? मूर्खों पर शोध कर ही बुद्धिमता के तत्व खोजे जा सकते हैं। हम विश्व में अध्यात्मिक गुरु इसलिये बने क्योंकि सबसे ज्यादा मोहित समाज हमारा ही है। भौतिकता को पीछे इतना पागल हैं कि अध्यात्म का अर्थ भी अनेक लोग नहीं जानते। इनमें वह भी लोग शामिल हैं जो दावा करते हैं कि उन्होंने ग्रंथों का अध्ययन बहुत किया है।
           कहा जाता है कि सोमनाथ का मंदिर मोहम्मद गजनबी ने लूटा था। उसमें भी ढेर सारा सोना था। कहते हैं कि बाबर भी यहां लूटने ही आया था। यह अलग बात है कि वहां यहीं बस गया यह सोचकर कि यहां तो जीवन पर सोने की डाल पर बैठा जाये। बाद में उसके वंशज तो यहीं के होकर रह गये। यकीनन उस समय भारत में सोने के खजाने की चर्चा सभी जगह रही होगी। उस समय भगवान के बाद समाज में राजा का स्थान था तो राजा लोग मंदिरों में सोना रखते थे कि वहां प्रजा के असामाजिक तत्व दृष्टिपात नहीं करेंगे। उस समय मंदिरों में चोरी आदि होने की बात सामने भी नहीं आती।
इतना तय है कि अनेक राजाओं ने प्रजा को भारी शोषण किया। किसी की परवाह नहीं की। यही कारण कि कई राजाओं के पतन पर कहीं कोई प्रजा के दुःखी होने की बात सामने नहीं आती। यहां के अमीर, जमीदार, साहुकार और राजाओं ने प्रजा के छोटे लोगों को भगवान का एक अनावश्यक उत्पाद समझा। यही कारण है विदेशियों ने आकर यहां सभी का सफाया किया। राजा बदले पर प्रजा तो अपनी जगह रही। यही कारण है यहां कहा भी जाता है कि कोउ भी नृप हो हमें का हानि। कुछ लोग इस भाव यहां के लोगों की उदासीनता से उपजा समझते हैं पर हम इसे विद्रोह से पनपा मानते हैं। खासतौर से तत्वज्ञान के सदंर्भ में हमारा मानना है कि जब आप स्वयं नहीं लड़ सकते तो उपेक्षासन कर लीजिये।
जिसके पास कुछ नहीं रहा उसे लुटने का खतरा नहीं था और जिन्होंने सोने के ताज पहने गर्दने उनकी ही कटी। जिनकी जिंदगी में रोटी से अधिक कुछ नहीं आया उन्होंने सुरक्षित जिंदगी निकाली और जिन्होंने संग्रह किया वही लुटे।
          अब यह जो भी खजाना मिला है यह तब की प्रजा के काम नहीं आया तो राजाओं के भी किस काम आया? ऐसे में हमारा ध्यान श्रीमद्भागवत् गीता के संदेशों की तरफ जाता है। जिसमें गुण तथा कर्मविभाग का संक्षिप्त पर गुढ़ वर्णन किया गया है। उस समय के आम और खास लोग मिट गये पर खजाना वहीं बना रहा। अब यह उन लोगों के हाथ लगा है जिनका न इसके संग्रह में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई हाथ नहीं है। सच है माया अपना खेल खेलती है और आदमी समझता है मैं खेल रहा हूं। वह कभी व्यापक रूप लेती है और कभी सिकुड़ जाती है। कभी यहां तो कभी वहां प्रकट होती है। सत्य स्थिर और सूक्ष्म है। सच्चा धनी तो वही है जो तत्वज्ञान को धारण करता है। वह तत्वज्ञान जिसका खजाना हमारे ग्रंथों में है और लुटने को हमेशा तैयार है पर लूटने वाला कोई नहीं है। बहरहाल वह महान लोग धन्य हैं जो इसे संजोए रखने का काम करते रहे हैं इसलिये नहीं कि उसे छिपाना है बल्कि उनका उद्देश्य तो केवल इतना ही है कि आने वाली पीढ़ियों के वह काम आता रहे।
      इस विषय पर लिखे गये एक व्यंग्य को अवश्य पढ़ें
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भारत आज भी सोने की चिड़िया है-हास्य व्यंग्य(bharat aaj bhi sone di chidiya hai-hasya vyangya)
          कौन कहता है कि भारत कभी सोने की चिड़िया थी। अब यह क्यों नहीं कहते कि भारत सोने की चिड़िया है। कम से कम देश में जिस तरह महिलाओं और पुरुषों के गले से चैन लूटने की घटनायें हो रही हैं उसे तो प्रमाण मिल ही जाता है। हमें तो नहीं लगता कि शायद का देश कोई भी शहर हो जिसके समाचार पत्रों में चैन खिंचने या लुटने की घटना किसी दिन न छपती हो। अभी तक जिन शहरों के अखबार देखे हैं उनमें वहीं की दुर्घटना और लूट की वारदात जरूर शामिल होती है इसलिये यह मानते हैं कि दूसरी जगह भी यही होगा।
          खबरें तो चोरी की भी होती हैं पर यह एकदम मामूली अपराध तो है साथ ही परंपरागत भी है। मतलब उनकी उपस्थिति सामान्य मानी जाती है। वैसे तो लूट की घटनायें भी परंपरागत हैं पर एक तो वह आम नहीं होती थीं दूसरे वह किसी सुनसान इलाके में होने की बात ही सामने आती थी। अब सरेआम हो लूट की वारदात हो रही हैं। वह भी बाइक पर सवार होकर अपराधी आते हैं।
         हमारे देश मूर्धन्य व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखा था कि हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि हमें मारने की फुरसत नहीं है। उनका मानना था कि हमसे अधिक अमीर इतनी संख्या में हैं कि लुटने के लिये पहले उनका नंबर आयेगा और लुटेरे इतनी कम संख्या में है कि उनको समझ में नहीं आता कि किसे पहले लूंटें और किसे बाद में। इसलिये लूटने से पहले पूरी तरह मुखबिरी कर लेते हैं। यह बहुत पहले लिखा गया व्यंग्य था। आज भी कमोबेश यही स्थिति है। हम ख्वामख्वाह में कहते है  कि अपराध और अपराधियों की संख्या बढ़ गयी हैं। आंकड़ें गवाह है कि देश में अमीरों की संख्या बढ़ गयी है। अब यह तय करना मुश्किल है कि इन दोनों के बढ़ने का पैमाना कितना है। अनुपात क्या है? वैसे हमें नहीं लगता कि स्वर्गीय शरद जोशी के हाथ से व्यंग्य लिखने और आजतक के अनुपात में कोई अंतर आया होगा। साथ ही हमारी मान्यता है कि अपराधी और अमीरों की संख्या इसलिये बढ़ी है क्योंकि जनसंख्या बढ़ी है। विकास की बात हम करते जरूर है पर जनसंख्या में गरीबी बढ़ी है। मतलब अपराध, अमीरी और गरीबी तीनों समान अनुपात में ही बढ़ी होगी ऐसा हमारा अनुमान है।
          सीधी बात कहें तो चिंता की कोई बात नहीं है। सब ठीकठाक है। विकास बढ़ा, जनंसख्या बढ़ी, अमीर बढ़े तो अपराध भी बढ़े और गरीबी भी यथावत है। तब रोने की कोई बात नहीं है। फिर हम इस बात को इतिहास की बात क्यों मानते हैं  कि भारत कभी सोने की चिड़िया थी। हम यह क्यों गाते हैं कि कभी कभी डाल पर करती थी सोने की चिड़िया बसेरा, वह भारत देश है मेरा। हम थे की जगह हैं शब्द क्यों नहीं उपयोग करते। अभी हमारे देश के संत ने परमधाम गमन किया तो उनके यहां से 98 किलो सोना और 307 किलो चांदी बरामद हुई। टीवी और अखबारों के समाचारों के अनुसार कई ऐसे लोग पकड़े गये जिनके लाकरों से सोने की ईंटे मिली।
          वैसे तो सोना पूरे विश्व के लोगों की कमजोरी है पर भारत में इसे इतना महत्व दिया जाता है कि दस हजार रुपये गुम होने से अधिक गंभीर और अपशकुन का मामला उतने मूल्य का सोना खोना या छिन जाना माना जाता है। बहु अगर कहीं पर्स खोकर आये तो वह सास को न बताये कि उसमें चार पांच हजार रुपये थे। यह भी सोचे सास को क्या मालुम कि उसमें कितने रुपये थे पर अगर पांच हजार रुपये की चैन छिन जाये तो उसके लिये धर्म संकट उत्पन्न हो जाता है क्योंकि वह सास के सामने हमेशा दिखती है और यह बात छिपाना कठिन है।
           एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के अनुसार भारत के लोगों के पास सबसे अधिक सोना है। इसमें शक भी नहीं है। भारत में सोने का आभूषण विवाह के अवसर पर बनवाये जाते हैं। इतने सारे बरसों से इतनी शादिया हुई होंगी। उस समय सोना इस देश में आया होगा। फिर गया तो होगा नहीं। अब कितना सोना लापता है और कितना प्रचलन में यह शोध का विषय है पर इतना तय है कि भारत के लोगों के पास सबसे अधिक सोना होगा यह तर्क कुछ स्वाभाविक लगता है।
            भारत के लोग दूसरे तरीके से भी सबसे अधिक भाग्यशाली हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ कहते हैं कि भूजल स्तर भारत में सबसे अधिक है। यही कारण है कि हमारा देश अन्न के लिये किसी का मुंह नहीं ताकता। हमारे ऋषि मुनि हमेशा ही इस बात को बताते आये हैं पर अज्ञान के अंधेरे में भटकने के आदी लोग इसे नहीं समझ पाते। कहा जाता है कि भारत का अध्यात्मिक ज्ञान सत्य के अधिक निकट है। हमें लगता है कि ऋषि मुनियों के लिये तत्व ज्ञान की खोज करना तथा सत्य तत्व को प्रतिष्ठित करना कोई कठिन काम नहीं रहा होगा क्योंकि मोह माया में फंसा इतना व्यापक समाज उनको यहां मिला जो शायद अन्यत्र कहीं नहीं होगा। अज्ञान के अंधेरे में ज्ञान का दीपक जलाना भला कौनसा कठिन काम रहा होगा?
             वैसे देखा जाये तो सोना तो केवल सुनार के लिये ही है। बनना हो या बेचना वही कमाता है। लोग सोने के गहने इसलिये बनवाते हैं वक्त पर काम आयेगा पर जब बाज़ार में बेचने जाते हैं तो सुनार तमाम तरह की कटौतियां तो काट ही लेता हैं। अगर आप आज जिस भाव कोई दूसरी चीज खरीदने की बजाय सोना खरीदें  और कुछ वर्ष बाद खरीदा सोना बेचें तो पायेंगे कि अन्य चीज भी उसी अनुपात में महंगी हो गयी है। मतलब वह सोना और अन्य चीज आज भी समान मूल्य की होती है। अंतर इतना है कि अन्य चीज पुरानी होने के कारण भाव खो देती है और सोना यथावत रहता है। हालांकि उसमें पहनने के कारण उसका कुछ भाग गल भी जाता है जिससे मूल्य कम होता है पर इतना नहीं जितना अन्य चीज का। संकट में सोने से सहारे की उम्मीद ही आदमी को उसे रखने पर विवश कर देती है।
          जब रोज टीवी पर दिख रहा है और अखबार में छप रहा है तब भी भला कोई सोना न पहनने का विचार कर रहा है? कतई नहीं! अगर महिला सोना नहीं पहनती उसे गरीब और घटिया समझा जाता है। सोना पहने है तो वह भले घर की मानी जाती है। भले घर की दिखने की खातिर महिलायें जान का जोखिम उठाये घूम रही है। धन के असमान वितरण ने कथित भले और गरीब घरों में अंतर बढ़ा दिया है। वैसे कुछ घर अधिक भले भी हो गये हैं क्योंकि उनकी महिलाऐं चैन छिन जाने के बाद फिर दूसरी खरीद कर पहनना शुरु देती हैं। बड़े जोश के साथ बताती हैं कि सोना चला गया तो क्या जान तो बच गयी।
        भारत में वैभव प्रदर्शन बहुत है इसलिये अपराध भी बहुत है। वैभव प्रदर्शन करने वाले यह नहीं जानते कि उनके अहंकार से लोग नाखुश हैं और उनमें कोई अपराधी भी हो सकता है। पैसे, प्रतिष्ठा और पद के अहंकार में चूर लोग यही समझते हैं कि हम ही इस संसार में है। वैसे ही जैसे बाइक पर सवार लोग यह सोचकर सरपट दौड़ते हुए दुर्घटना का शिकार होते हैं कि हम ही इस सड़क पर चल रहे हैं या सड़क पर नहीं आसमान में उड़ रहे हैं वैसे ही वैभव के प्रदर्शन पर भी अपराध का सामना करने के लिये तैयार होना चाहिए। टीवी पर चैन छीनने की सीसीटीवी में कैद दृश्य देखकर अगर कुछ नहीं सीखा तो फिर कहना चाहिए कि पैसा अक्ल मार देता है।
        कुछ संस्थाओं ने सुझाव दिया है कि देश में अनाज की बरबादी रोकने के लिये शादी के अवसर पर बारातियों की संख्या सीमित रखने का कानून बनाया जाये। इस पर कुछ लोगों ने कहा कि अनाज की बर्बादी शादी से अधिक तो उसके भंडारण में हो रही है। अनेक जगह बरसात में हजारों टन अनाज होने के साथ कहीं ढूलाई में खराब होकर दुर्गति को प्राप्त होता है और उसकी मात्रा भी कम नहीं है। हम इस विवाद में न पड़कर शादियों में बारातियों की संख्या सीमित रखने के सुझाव पर सोच रहे हैं। अगर यह कानून बन गया तो फिर इस समाज का क्या होगा जो केवल विवाहों के अवसर के लिये अपने जीवन दांव पर लगा देता है। उस अवसर का उपयोग वह ऐसा करता है जैसे कि उसे पद्म श्री या पद्मविभूषण  मिलने का कार्यक्रम हो रहा है। बाराती कोई इसलिये बुलाता कि उसे उनसे कोई स्नेह या प्रेम है बल्कि अपने वैभव प्रदर्शन के लिये बुलाता है। यह वैभव प्रदर्शन कुछ लोगों को चिढ़ाता है तो कुछ लोगों को अपने अपराध के लिये उपयुक्त लगता है। ऐसा भी हुआ है कि शादी के लिये रखा गया पूरा सोना चोरी हो गया। सोने से जितना सामान्य आदमी का प्रेम है उतना ही डकैतों, लुटेरों और चोरों को भी है। सौ वैभव प्रदर्शन और चोरी, लूट और डकैती का रिश्ता चलता रहेगा। पहले बैलगाड़ी और घोड़े पर आदमी चलता था तो अपराधी भी उस पर चलते थे। अब वह पेट्रोल से चलने वाले वाहनों का उपयोग कर रहा है तो अपराधी भी वही कर रहे हैं। जो भले आदमी की जरूरत है वही बुरे आदमी का भी सहारा है। सोना तो बस सोना है। हम इन घटनाओं को देखते हुए तो यह कहते है कि भारत आज भी सोने की चिड़िया है।



लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
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10 अक्तूबर 2013

दूसरे की निंदा सुनकर हम खून क्यों जलाते हैं-हिन्दी लेख(doosre ki ninda sunkar ham apna khoon kyon jalate hain-hindi lekh,editorial, article



                       
                        समाचार सुनना बुरी बात नहीं है पर दूसरे के लिये निंदात्मक प्रचार से प्रभावित होना कभी मानसिक रूप से स्वस्थ होने का लक्षण नहीं है। हम देख रहे हैं कि भारतीय समाचार माध्यम-टीवी और समाचार पत्र पत्रिकायें-किसी भी क्षेत्र विशेष के शिखर पुरुष के प्रति जब आक्रामक होते हैं तो इस तरह की सामग्री प्रस्तुत करते हैं जैसे कि वह कोई समाज सुधार की महान भूमिका अदा कर रहे हैं। हम तो यह मानते हैं कि समाज पर नियंत्रण करने वाली जितने भी क्षेत्र हैं उनमें शिखर पर दो ही लोग पहुंचते हैं-एक तो वह जो केवल बुत होते हैं जिनको पूंजीपतियों, प्रचार प्रबंधकों और पदाभिमानी लोग अपनी अपनी स्थिति बनाये रखने के लिये आमजनों के सामने प्रस्तुत करते हैं, दूसरे वह जो आर्थिक, सामाजिक, राजकीय तथा धार्मिक क्षेत्रों में अपनी प्रतिष्ठा तथा धवल छवि बनाये रखने के लिये प्रयासरत रहते हुए शिखर का पद धारण करते हैं ताकि राजकीय संस्थाओं की वक्र दृष्टि उन पर न पड़े।  होनी होनहार है उसे कोई नहीं रोक सकता।  ऐसे में किसी भी क्षेत्र के शिखर पुरुष पर जब प्रकृति का डंडा चलता है तो प्रचार माध्यमों में उसकी छवि खराब होते देर नहीं लगती।  आमतौर से प्रचार माध्यमों के कार्यकर्ता अपने ही स्वामियों की हितों की रक्षा के लिये आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा राजकीय क्षेत्रों के अनेक ऐसे शिखर पुरुषों के कारनामों का विश्लेषण नहीं करते जिनके हाथ में पद, पैसे और प्रतिष्ठा का दंड है।  अपने ही स्वामी पर वह दंड न चले इसलिये वह उससे बचते हैं। सच तो यह है कि प्रचार माध्यमों के कार्यकर्ता स्वयं कोई समाचार खोज नहीं लाते। जब किसी शिखर पुरुष पर प्रकृति का दंड चलता है तो उस पर प्रचार माध्यमों के कार्यकर्ता भी हाथ साफ करने लगते हैं।
                        हमारे यहां अब राजनीति, समाज, धर्म, व्यापार, कला तथा साहित्य के क्षेत्र में अंग्रेजी व्यवस्था का पालन किया जाता है। इसी व्यवस्था के आधार पर प्रसिद्ध अंग्रेजी साहित्यकार जार्ज बर्नाड शॉ ने कहा था कि इस समाज में बिना गलत काम के कोई भी धनवान नहीं बन सकता।  हम यहां अपने देश के विद्वानों के कथन नहीं सुनायेंगे बल्कि जार्ज बर्नाड शा के कथन पर ही विचार करें तो यह बात तय है कि जिनके पास धन आया है उनकी भले ही प्रचार माध्यमों में छवि धवल हो पर उनके कारनामों के बारे में यही बात दावे से नहीं कही जा सकती।  बहरहाल भारत के समाचार चैनलों ने यह नीति बना रखी है कि जिसकी छवि खराब करनी हो उसे लेकर धारावाहिक रूप से समाचार चलायें जायें।
                        आजकल एक कथित व्यवसायिक संत की छवि को लेकर यह प्रचार माध्यम अत्यंत सक्रिय हैं।  हम जैसे अध्यात्मिक साधकों के लिये अब ऐसे समाचारों का कोई महत्व नहीं है पर जिन लोगों का धर्म के प्रति रुझान ज्यादा है वह इन समाचारों को देखते हैं और आह भरकर रह जाते हैं।
                        उस दिन हमारे एक मित्र कह रहे थे कि-‘‘यार, हमने तो अब समाचार चैनल देखना ही बंद कर दिये हैं। यह लोग उस संत के बारे में सुना सुनाकर बोर कर रहे हैं।’’
                        हमने कहा-‘‘यह समाचार चैनल वाले भी क्या करें? हमारे देश में निंदात्मक समाचारों के प्रति रुझान हो तो उसका वह आर्थिक दोहन तो करेंगे। वैसे तुम्हारी उस संत से हमदर्दी क्यों है?’’
                        वह बोला-‘‘नहीं, मैं उसका शिष्य नहीं हूं पर इस तरह हमारा हिन्दू धर्म बदनाम हो रहा है उसे देखकर दुःख होता है।  जब उस संत ने अपराध किये हैं तो उसकी सजा उसे मिलेगी पर उस पर इस तरह समाचार देखकर ऐसा लगता है कि हमारे धर्म का मजाक उड़ाया जा रहा है। यह सब देखा नहीं जाता।’’
                        हमने कहा-‘‘तुंम भावुक हो, इसलिये ऐसा सोचते हो, पर सामान्य लोग रुचि लेते होंगे इसलिये तो यह सब चल रहा है।’’
                        वह बोला-‘‘नहीं, तुम्हें यह लग रहा है मेरे अनेक मित्रों ने यही विचार दिया है।  अनेक लोग तो कहते हैं कि हमारे चैनलों में अपने ही धर्म के विरुद्ध कोई समूह सक्रिय है। वह संत एक प्रकरण में पकड़ा गया है और यह अब उस पर आठ और दस साल पूर्व के मामले उछाल रहे हैं। अगर यह चैनल वाले इतने ही दमदार हैं तो पहले कहां थे? दूसरी बात आरोप लगाने वाले चुप क्यों थे? तुम मानो या न मानो सच यह है कि इस प्रकरण में कोई फिक्सिंग लगती है।’’
                        हमने उससे कहा-नहीं यह बात नहीं है! तुम्हारे अंदर भी कहीं निंदा सुनने की प्रवृत्ति मौजूद है पर चूंकि धर्मभीरु और इससे  तुम्हारी भावना आहत हो रही है इसलिये ऐसा सोचते हो।
                        वह हमसे सहमत नहीं हुआ। सच बात तो यह हे कि हम विभिन्न समाचार सुनने के आदी हैं पर इस तरह की धारावाहिक प्रस्तुति हमें दुःखी नहीं वरन् बोर करती है।  एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर आक्षेप हमेशा न्याय का विषय होता है उस समाचारों में इस तरह बहस चलाना यकीनन इस  संदेह को जन्म देता है कि कहीं न कहीं दाल में काला है।  इस देश में धर्म, कला, साहित्य, फिल्म, और समाजसेवा में अनेक काले कारनामे होते हैं और किसी एक का काला कारनामा जब इस तरह चलेगा तो यकीनन कुछ लोगों को यह शक तो होगा ही कहीं यह व्यक्ति विशेष  के विरुद्ध अभियान किसी अन्य कारण से तो नहीं है।
                        बहरहाल हमारी दिलचस्पी न इस तरह के समाचारों में अधिक देर तक रहती है और न ही हमें इस बात का दुःख है। हम तो घर्मभीरुओं और अध्यात्मिक साधकों से यही कहना चाहेगे कि हमेशा उस विषय से जुड़े जो हृदय में प्रसन्नता उत्पन्न करे।  दूसरे के प्रति ग्लानि का भाव आने पर यह नहीं समझना चाहिये कि वह कोई अच्छी बात है वरन् उससे हमारा स्वयं की खून जलता है।  हम दूसरे के दोषों को देखें यह अच्छी बात नहीं है वरन् हम उन समाचारों की तरफ देखें जो हृदय को अच्छे लगें। आजकल टीवी पर बाल बुद्धिमानों की प्रस्तुति भारी प्रसन्नता देती है।  इसे हम देखना  छोड़ते नहीं है अलबत्ता निंदात्मक धारावाहिक आने पर चैनल बदल लें और फिर ध्यान छूट जाये तो यह बात अलग है। श्रीमद्भागवत गीता पर एक बालिका का ज्ञान बहुत अच्छा लगा।  सच तो यह है कि एक ग्लानिपूर्ण प्रसंग के बाद प्रचार माध्यमों ने बाल बुद्धिमानों का प्रसारण कर एक तरह से प्रचार योग किया है।  यह लगभग ऐसा ही जैसा कि हम सूर्य नमस्कार के बाद शवासन करते हुए आनंद प्रांप्त करते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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1 अक्तूबर 2013

भलमानस-हिन्दी व्यंग्य कविता (bhalmanas-hindi vyangya kavita)



अपनी घर की छत के नीचे
उदास मन रहता है जिनका
वही खिड़कियों से बाहर
दूसरों के घर में झांकते हैं,
हम ज्यादा दुःखी है या पड़ौसी
दिल ही दिल में आंकते हैं।
कहें दीपक बापू
अपनी अमीरी पर इतराते लोग
एकदम झूठे हैं,
जेब हैं भरी पर दिल टूटे हैं,
पैसा खर्च कर श्रद्धा दिखाते हैं,
दौलतमंद के साथ दरियादिल के रूप में
अपना नाम लिखाते हैं,
अपने बदचलनी पर उनकी सफाई यही होती
हमसे तो बड़ी और बुरी दूसरे की भूल होती,
अपने घर से उकताये लोग
बाहर व्याकुलता फैलते  देखने को तैयार हैं,
दूसरों की खुशी के रस में
गम की बूंद डालने वाले यार हैं,
कभी न की किसी की भलाई
अपने भलमानस की बात खुद ही हांकते हैं
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