25 अप्रैल 2009

इंसानों के भेष में कीड़े मकोड़े-आलेख

सच बात तो यह है कि सट्टा एक विषय है जिस पर अर्थशास्त्र में विचार नहीं किया जाता। पश्चिमी अर्थशास्त्र अपराधियों, पागलों और सन्यासियों को अपने दायरे से बाहर मानकर ही अपनी बात कहता है। यही कारण है कि क्रिकेट पर लगने वाले सट्टे पर यहां कभी आधिकारिक रूप से विचार नहीं किया जाता जबकि वास्तविकता यह है कि इससे कहीं कहीं देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिति प्रभावित हो रही है।
पहले सट्टा लगाने वाले आमतौर से मजदूर लोग हुआ करते थे। अनेक जगह पर सट्टे का नंबर लिखा होता था। सार्वजनिक स्थानों-खासतौर से पेशाबघरों- पर सट्टे के नंबर लिखे होते थे। सट्टा लगाने वाले बहुत बदनाम होते थे और उनके चेहरे से पता लग जाता था कि उस दिन उनका नंबर आया है कि नहीं। उनकी वह लोग मजाक उड़ाते थे जो नहीं लगाते थे और कहते-‘क्यों आज कौनसा नंबर आया। तुम्हारा लगा कि नहीं।’
कहने का तात्पर्य यह है कि सट्टा खेलने वाले को निम्नकोटि का माना जाता था। चूंकि वह लोग मजदूर और अल्प आय वाले होते थे इसलिये अपनी इतनी ही रकम लगाते थे जिससे उनके घर परिवार पर उसका कोई आर्थिक प्रभाव नहीं पड़े।

अब हालात बदल गये हैं। दिन ब दिन ऐसी घटनायें हो रही हैं जिसमें सट्टा लगाकर बरबाद हुए लोग अपराध या आत्महत्या जैसे जघन्य कार्यों की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। इतना ही नहीं कई जगह तो ऐसे सट्टे से टूटे लोग अपने ही परिवार के लोगों पर आक्रमण कर देते हैं। केवल एक ही नहीं अनेक घटनायें सामने आयी हैं जिसमें सट्टे में बरबाद हुए लोगों ने आत्मघाती अपराध किये। होता यह है कि यह खबरें आती हैं तो सनसनी कुछ यूं फैलायी जाती है जिसमें रिश्तों के खून होने की बात कही जाती है। कहा जाता है कि ‘अमुक ने अपने माता पिता को मार डाला’, अमुक ने अपनी पत्नी और बच्चों सहित जहर खा लिया’, ‘अमुक ने अपनी बहन या भाई के के घर डाका डाला’ या ‘अमुक ने अपने रिश्ते के बच्चे का अपहरण किया’। उस समय प्रचार माध्यम सनसनी फैलाते हुए उस अपराधी की पृष्ठभूमि नहीं जानते पर जब पता लगता है कि उसने सट्टे के कारण ऐसा काम किया तो यह नहीं बताते कि वह सट्टा आखिर खेलता किस पर था।’
सच बात तो यह है कि सट्टे में इतनी बरबादी अंको वाले खेल में नहीं होती। फिर सट्टे में बरबाद यह लोग शिक्षित होते हैं और वह पुराने अंकों वाले सट्टे पर शायद ही सट्टा खेलते हों। अगर खेलते भी हों तो उसमें इतनी बरबादी नहीं होती। बहुत बड़ी रकम पर सट्टा संभवतः क्रिकेट पर ही खेला जाता है। प्रचार माध्यम इस बात तो जानकर छिपाते हैं यह अनजाने में पता नहीं। हो सकता है कि इसके अलावा भी कोई अन्य प्रकार का सट्टा खेला जाता हो पर प्रचार माध्यमों में जिस तरह क्रिकेट पर सट्टा खेलने वाले पकड़े जाते हैं उससे तो लगता है कि अधिकतर बरबाद लोग इसी पर ही सट्टा खेलते होंगे।
अनेक लोग क्रिकेट खेलते हैं और उनसे जब यह पूछा गया कि उनके आसपास क्या कुछ लोग क्रिकेट पर सट्टा खेलते है तो वह मानते हैं कि ‘ऐसा तो बहुत हो रहा है।’
सट्टे पर बरबाद होने वालों की दास्तान बताते हुए प्रचार माध्यम इस बात को नहीं बताते कि आखिर वह किस पर खेलता था पर अधिकतर संभावना यही बनती है कि वह क्रिकेट पर ही खेलता होगा। लोग भी सट्टे से अधिक कुछ जानना नहीं चाहते पर सच बात तो यह है कि क्रिकेट पर सट्टा खेलना अपने आप में बेवकूफी भरा कदम है। सट्टा खेलने वालों को निम्न श्रेणी का आदमी माना जाता है भले ही वह कितने बड़े परिवार का हो। सट्टा खेलने वालों की मानसिकता सबसे गंदी होती है। उनके दिमाग में चैबीसों घंटे केवल वही घूमता है। देखा यह गया है कि सट्टा खेलने वाले कहीं से भी पैसा हासिल कर सट्टा खेलते हैं और उसके लिये अपने माता पिता और भाई बहिन को धोखा देने में उनको कोई संकोच नहीं होता। इतना ही नहीं वह बार बार मरने की धमकी देकर अपने ही पालकों से पैसा एैंठते हैं। कहा जाता है कि पूत अगर सपूत हो तो धन का संचय क्यों किया जाये और कपूत हो तो क्यों किया जाये? अगर धन नहीं है तो पूत ठीक हो तो धन कमा लेगा इसलिये संचय आवश्यक नहीं है और कपूत है तो बाद में डांवाडोल कर देगा पर अगर सट्टेबाज हुआ तो जीते जी मरने वाले हालत कर देता है।
देखा जाये तो कोई आदमी हत्या, चोरी, डकैती के आरोप में जेल जा चुका हो उससे मिलें पर निकटता स्थापित नहीं करे पर अगर कोई सट्टेबाज हो तो उसे तो मिलना ही व्यर्थ है क्योंकि इस धरती पर वह एक नारकीय जीव होता है। एक जो सबसे बड़ी बात यह है कि क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा अनेक बड़े चंगे परिवारों का नाश कर चुका है और यकीनन कहीं न कहीं इससे देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है। देश से बाहर हो या अंदर लोग क्रिकेट पर सट्टा लगाते हैं और कुछ लोगों को संदेह है कि जिन मैचों पर देश का सम्मान दांव पर नहीं होता उनके निर्णय पर सट्टेबाजों का प्रभाव हो सकता है। शायद यही कारण है कि देश की इज्जत के साथ खेलकर सट्टेबाजों के साथ निभाने से खिलाड़ियों के लिये जोखिम भरा था।
इसलिये अंतर्राष्ट्रीय मैचों के स्थान पर क्लब स्तर के मैचों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। क्लब स्तर की टीमों मे देश के सम्मान का प्रश्न नहीं होता। सच क्या है कोई नहीं जानता पर इतना तय है कि क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा देश को खोखला कर रहा है। जो लोग सट्टा खेलते हैं उन्हें आत्म मंथन करना चाहिये। वैसे तो पूरी दुनियां के लोग भ्रम में जी रही है पर सट्टा खेलने वाले तो उससे भी बदतर हैं क्योंकि वह इंसानों के भेष में कीड़े मकौड़ों की तरह जीवन जीने वाले होते हैं और केवल उसी सोच के इर्दगिर्द घूमते हैं और तथा जिनकी बच्चे, बूढे, और जवान सभी मजाक उड़ाते हैं।
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13 अप्रैल 2009

ज्ञान किसी समाज की पूंजी नहीं होता-आलेख

इस बार गुडफ्राइडे के अवसर पर वैटिकन सिटी में आयोजित एक प्रार्थना में हिन्दू धर्म के महान ग्रंथ श्रीगीता सार भी उल्लेख किया गया। इसके साथ ही वहां भारत के अन्य महानपुरुषों के संदेशों पर चर्चा हुई। श्रीगीता के निष्काम भाव तथा महात्मा गांधी के अहिंसा संदेश का भी उल्लेख किया गया। दरअसल इसका श्रेय भारत के ही एक पादरी को जाता है जिनको उनके प्रभावी भाषण बाद उनको खास प्रार्थना के लिये चुना गया था।
कुछ लोग इसे ईसाई धर्म के नजरिए में अन्य धर्म के प्रति बदलाव के संकेत के रूप में देख रहे हैं। यह एक अलग से चर्चा का विषय है पर इतना जरूर है कि भारत विश्व में अध्यात्मिक गुरु के रूप में जाना जाता है और श्रीगीता के मूल तत्वों को विश्व का कोई अन्य धर्मावलंबी अपने हृदय में स्थान देता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुख्य बात यह है कि इसे उनकी सदाशयता माने या विद्वता? यकीनन दोनों ही बातें हैं। सदाशयता इस मायने में कि वह भारतीय विचारों के मूल तत्वों को पढ़ने और समझने में अपनी कट्टरता को आड़े आने नहीं देते। विद्वता इस मायने में कि वह उसे समझते हैं।
यहां ईसाई और हिंदूओं समाजों के आपसी एकता से अधिक यह बात महत्वपूर्ण है कि पूरा विश्व अब पुरानी धार्मिक परंपराओं पर अंधा होकर चलने की बजाय तार्किक ढंग से चलना चाहता है। विश्व में आर्थिक उदारीकरण ने जहां बाजार की दूरियां कम की हैं वही प्रचार माध्यमों ने भी लोगों के विचारों और विश्वासों में आपस समझ कायम करने में कोई कम योगदान नहीं दिया है-भले ही उसमें काम करने वाले कुछ लोग कई विषयों में लकीर के फकीर है।
वैसे देखा जाये तो आज जो आधुनिक भौतिक साधन उपलब्ध हैं उनके अविष्कारों का श्रेय पश्चिम देशों के वैज्ञानिकों को ही जाता है जो कि ईसाई बाहुल्य है। ईसाई धर्म को आधुनिक सभ्यता का प्रवर्तक भी माना जा सकता है पर उसका दायरा केवल भौतिकता तक ही सीमित है। हम यहां किसी धर्म के मूल तत्वों की चर्चा करने की बजाय उनके वर्तमान भौतिक स्वरूप की पहले चर्चा करें। अगर हम पूरे विश्व के खान पान रहन सहन और सोचने विचारने का तरीका देखें तो वह अब पश्चिम से प्रभावित है। आज भारत के किसी भी शहर में चले जायें वहा आपको पैंट शर्ट और जींस पहने लोग मिल जायेंगे और यकीनन वह भारत की पहचान नहीं है। खान पान में भी आप देखें तो पता लगेगा कि उस पर पश्चिमी प्रभाव है। इसे ईसाई प्रभाव कहना संकुचित मानसिकता होगी पर यह भी सच है कि पश्चिम की पहचान इसी धर्म के कारण ही यहां अधिक है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे समाज पर भौतिक रूप से विदेशी प्रभाव हुआ है पर इसके बावजूद हमारी मूल सोच आज भी अपने प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ी हुई है। भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आधुनिक विश्व में भारत को पहचान दी यह भी एक बहुत बड़ी सच्चाई है-इसका विरोध करना रूढ़वादिता से अधिक कुछ नहीं है। अन्य धार्मिक ग्रंथों से श्रीगीता सबसे छोटा ग्रंथ है पर जीवन और सृष्टि के ऐसे सत्य उसमें वर्णित हैं जो कभी नहीं बदल सकते। इस संसार में समस्त जीवों का दैहिक रूप और उसके पोषण के साधन कभी नहीं बदल सकते -हां उसके वस्त्र, वाहन और व्यापर में बदलाव आ सकता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि सृष्टि द्वारा प्रदत्त देह में मन, बुंद्धि अहंकार तीन ऐसी प्रवृत्तियों हैं जो हर जीव को पूरा जीवन नचाती हैं। इन पर नियंत्रण करना ही एक बहुत बड़ा यज्ञ है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीगीता का सत्य सार कभी बदल नहीं सकता।
कुछ लोग इतिहास की बातें कर अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए दूसरे धर्म की आलोचना करने लगते हैं। ऐसे लोग हर धर्म में हैं ऐसे में ईसाई धार्मिक स्थान पर श्रीगीता की चर्चा एक महत्वपूर्ण घटना है। विश्व में अनेक ऐसे धार्मिक संगठन है जो धर्म के नाम पर भ्रांति फैलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और धार्मिक सिद्धांतों से उनका वास्ता बस इतना ही होता है कि उनके पास पोथियां होती है।
एक पश्चिमी विद्वान ने ही कहा था कि भारतीय की असली शक्ति श्रीगीता का ज्ञान और ध्यान है। उसने यह बात धर्म से ऊपर उठकर प्रमाण के साथ यह बात कही थी। इतिहास लिखने में गड़बड़ियां होती हैं-लेखक अपने नायकों और खलनायकों की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। इसलिये उसके साथ चिपक कर बैठना पौंगेपन के अलावा कुछ नहीं है।
आखिरी बात श्रीगीता के उल्लेख पर हमें अधिक प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है। सच बात तो यह है कि हमारा समाज उससे दूर होकर चल रहा है। कहने को सभी कहते हैं कि ‘हमारे लिये वह पावन ग्रंथ हैं’पर उसका ज्ञान कितने लोग धारण करते हैं यह अलग से शोध का विषय है। पश्चिम के लोग भौतिकता से ऊब गये हैं इसलिये वह अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखते हैं और उसका महान स्त्रोत श्रीगीता है। पश्चिम के अनेक लोग अपने धर्म से उठकर श्रीगीता के संदेश को सर्वोत्तम मानते हैं। भारत में भी हिंदुओं के अलावा अन्य धर्म के वह लोग श्रीगीता को समझते हैं जो कट्टरता छोड़कर इसका अध्ययन करते हैं। इतना ही नहीं कबीर और रहीम जैसे महापुरुषों के संदेशों में में भी पूरा विश्व रुचि ले रहा है जिनको हम पुरानी बातें कहकर भूलना चाहते हैं। श्रीगीता का संदेश हो या कबीर दर्शन उस पर अपना अधिकार इसलिये जताते हैं क्योंकि उनका सृजन हमारे देश में हुआ पर याद रखें कि ज्ञान किसी की पूंजी नहीं होता और उसका उपयोग कोई भी कर सकता है। हमने परमाणु तकनीकी इसलिये तो नहीं छोड़ी कि उसका पश्चिम में हुआ है-उसकी बिजली बनाने के अनेक संयंत्र हमारे देश में हैं-उसी तरह पश्चिम भी इसलिये तो हमारे अध्यात्म से मूंह नहीं फेरेगा कि उनका सृजक भारत है। ऐसे में उस भारतीय पादरी की प्रशंसा करना जरूरी है जिसने ईसाई धर्म के लोगों को भारतीय अध्यात्म के मूल तत्वों से परिचय कराने का निष्काम प्रयास किया है।
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8 अप्रैल 2009

इंटरनेट अभी आम जीवन का हिस्सा नहीं बन पाया-आलेख

देश में इंटरनेट कनेक्शन की संख्या बढ़ती जा रही है। टेलीफोन कंपनियों का इससे राजस्व बढ़ रहा है। यह कंपनियां ग्राहक जुटाने के लिये विज्ञापन पर जमकर खर्च कर रही हैं। मंदी के बावजूद लोग इंटरनेट कनेक्शन लगा रहे हैं। मगर एक समस्या जो आ रही है और उसका समाधान नहीं किया तो यह दौर थमने लगेगा और फिर कनेक्शन कम होना शुरु हो सकते हैं।
इंटरनेट कनेक्शन जो लोग लगवा रहे हैं वह इसके बहुद्देशीय उपयोग और लिखने पढ़ने के लिये जो सुविधायें उपलब्ध हैं उसके बारे में बहुत कम जानते हैं। हिंदी में लिखा और पढ़ा जा सकता है इसकी जानकारी तक उन लोगों को नहीं है। वह जानकार आदमी से कहते हैं कि ‘यार, एक दिन आकर हमें इंटरनेट के बारे में बता जाओ।’
ऐसा लगता है कि इंटरनेट विशेषज्ञों ने यह मान लिया है कि यह इंटरनेट केवल छात्रों और युवाओं के उपयोग के लिये है और वह भी केवल शैक्षणिक ज्ञान और मनोरंजन के लिये। यही कारण है कि इसके बहुद्देशीय उपयोग का प्रचार करने के लिये युद्धस्तर पर कोई प्रयास उन्होंने नहीं किया।
अपना अपना नजरिया है। प्रबंध में कमजोर हम भारतीयों के बारे में क्या कहा जा सकता है। इतने सारे इंटरनेट कनेक्शन हिंदी भाषी क्षेत्रों में है पर हिंदी में लिखना पढ़ना एक आदत नहीं बन पाया। यह आदत बनने में कम से कम बीस बरस लग जायेंगे तब तक इन कनेक्शनों का आकर्षण भी समाप्त हो जायेगा यह बात समझ लेना चाहिये। एक बात तय रही कि केवल छात्रों और युवाओं के शैक्षणिक ज्ञान और मनोरंजन प्राप्त करने की दम पर इतना बड़ा अंतर्जाल लंबे समय तक लोकप्रिय नहीं रह पायेगा। अब सवाल यह है किया क्या जाये?
अधिकतर लोग अपने बच्चों की शिक्षा और मनोरंजन के लिये कनेक्शन ले रहे हैं पर उनकी यह इच्छा होती है कि वह भी इसका उपयोग करें। वह जाने कि यहां पर क्या अनोखा देखने, पढ़ने और समझने को मिल रहा है। वह इस विश्व से सीधे जुड़ना चाहते हैं। मगर उनकी इच्छायें अधूरी रह जाती हैं जब इसके लिये उनको कार्यसाधक ज्ञान नहीं होता।
याद रखने वाली बात यह है कि इस देश में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो इंटरनेट से जुड़ना चाहता है पर कार्यसाधक ज्ञान न होने के कारण वह कुछ नहीं कर पाता। फिर सीखने के लिये वह प्रतिदिन इतना समय बरबाद नहीं करना चाहता कि उससे उसकी दिनचर्या प्रभावित हो। कार्यसाधक ज्ञान के लिये उसे साइबर कैफ या कंप्यूटर ट्रैनिंग सेंटरों के भरोसे छोड़ने का मतलब है कि लंबे समय तक इंतजार करना।
इस लेखक के आसपास अनेक लोगों ने इंटरनेट कनेक्शन लिये हैं। यह पता चलने पर कि यह लेखक हिंदी में ब्लाग लिखता है लोग यह आग्रह करते हैं कि ‘घर आकर इंटरनेट पर काम करना सिखाओ।’
कुछ लोगों ने अपने ईमेल तक नहीं बनाये। कहते हैं कि ‘फुरसत नहीं मिल पा रही। शाम को घर जाता हूं तो बच्चे काम करते हैं और छुट्टी के दिन मैं दूसरे काम करता हूं। किसी दिन घर आओ तो कुछ सीख लूंगा। इंटरनेट पर पर पढ़ने और समझने की इच्छा है।’
कंप्यूटर सीखे हुए बच्चे हैं पर उनको हिंदी टूलों और ब्लाग बनाने के बारे में नहीं पता। हां कई बार ऐसा प्रयास अंतर्जाल पर दिखाई देते हैं कि लोगों को ब्लाग बनाने के लिये प्रेरित किया जाये। मतलब उनके लिये आज के ब्लाग लेखक एक प्रयोक्ता है। सच तो यह है कि अनेक बड़े और प्रतिष्ठत लोगों से ब्लाग बनवाकर अखबारों और टीवी में प्रचार किया गया ताकि लोग इसकी तरफ आकर्षित हों। यह ठीक है मगर जमीनी स्तर का सच यह है कि यह संदेश भी जा रहा है कि केवल बड़े लोग ही ब्लाग बनायेंगे तो उसे कोई पढ़ेगा। कहीं कहीं सेमीनार होने की खबर तो आती है पर उससे नहीं लगता कि कोई हल निकल पायेगा।
अगर इंटरनेट विशेषज्ञ सोचते हैं कि इस देश में कभी साढ़े सात करोड़ लेखक ऐसे रहने वाले है जो कि कनेक्शनों के व्यय का भार उठाकर इसे चलायेंगे तो गलती पर है। इसके लिये पाठक ही हो सकते हैं जो कुछ नया और तत्काल पढ़ने केे लिये इसे जारी रख सकते हैं। यानि यह जरूरी नहीं कि ब्लाग लिखने के लिये लोग लायें तभी काम चलेगा बल्कि दरवाजे दरवाजे जाकर लोगों को इस तकनीकी की जानकारी देनी होगी कि किसी विषय पर नया तथा तत्काल पढ़ने और देखने के लिये उनको स्वयं भी हाथ अजमाना होंगे। यह कोई टीवी या रेडियो नहीं है कि बटन प्रारंभ किया और शुरु।
एक बात और अगर यह समझा जा रहा है कि यौन साईटें, साहित्य, फोटो और अन्य मनोरंजक सामग्रंी से ही इंटरनेट का रथ लंबा खिंचेगा तो यह भ्रम भी निकाल दें। अभी लोग टीवी और पत्र पत्रिकाओं पर ऐसी सामग्री से ऊब गये हैं इसलिये इस तरफ आकर्षित हो रहे हैं। बाद के दौर में लोग इसे एक अखबार और किताब के रूप में देखना चाहेंगे। अभी तो लोगों को इंटरनेट कनेक्शन पर सर्च इंजिनों तथा बेवसाईटों पर खोज के लिये प्रारम्भिक जानकारी देने के साथ हिंदी टूलों के लिये व्यक्तिगत रूप से बताना होगा। केवल इंटरनेट पर लिंक देने से काम नहीं चलने वाला। सबसे बड़ी बात यह है कि कई लोग ईमेल का उपयोग ही पूरी तरह सीख लें यह भी बहुत है। उनके आपसी संवाद हिंदी में हों यही बहुत है। जो हालत हैं उससे देखते हुए अभी हिंदी में एक लाख ब्लाग लेखकों के होने की संभावना तो है नहीं।
वह आम ब्लाग लेखक भाग्यशाली हैं जो हिंदी में लिख रहे हैं-अनेक इंटरनेट प्रयोक्ताओं की इस मामले में लाचारी देखकर यही कहा जा सकता है। टेलीफोन कंपनियां अगर उनको प्रयोक्ता मानकर भुलाना चाहती हैं तो अलग बात है पर यह लोग इंटरनेट को सामान्य प्रयोग की चीज बनाने में बहुत सहायक हो सकते हैं। इन लोगों ने जो सीखा है उसे वह बड़े बड़े साफ्टवेयर इंजीनियर भी नहीं जान पाये जो कंप्यूटर बेचने के व्यवसाय में हैं-या फिर सिखाने के लिये पेशेवर या गैरपेशेवर रूप से सक्रिय हैं। अगर टेलीफोन कंपनियां आज के सक्रिय ब्लाग लेखकों का उपयोग नहीं करना चाहती तो वह अपने यहां के कर्मचारियों को ही ब्लाग लिखने पढ़ने का प्रशिक्षण देकर हर शहर में ऐसे सेमीनार आयोजित करें जहां सभी आयु वर्ग के लोगों को प्रचार कर प्रशिक्षण के लिये बुलाया जायें। जिसमें हर प्रशिक्षु को अपने लक्ष्य के अनुसार प्रशिक्षण दिया जाये-आशय यह कि अगर कोई केवल पढ़ने और समझने के लिये ही इसे सीखना चाहता है तो उसे केवल ईमेल हिंदी में लिखने और हिंदी में पढ़ने के लिये सामग्री प्रदान करने वाली बेवसाईटों का पता दिया जाये और जो ब्लाग या बेवसाईटों पर लिखने का तरीका समझाया जाये।

पिछले अनेक दिनों से कई लोग इस लेखक से ऐसा आग्रह कर चुके हैं कि इंटरनेट पर काम करने का तरीका समझाओ। कई लोगों को सिखाया और कई इंतजार करते रहते हैं। बहरहाल इंटरनेट के कनेक्शन बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं पर उनको टीवी चैनलों और मोबाइल फोनों की तरह बिना प्रशिक्षण के लिये लंबे समय जारी नहीं रखा जा सकता क्योंकि इतने वर्षों बाद भी यह आम जीवन का हिस्सा नहीं बना। आखिर आप बताईये कि लोग किसी ब्लाग लेखक का इसलिये सम्मान नहीं करते कि वह कुछ लिख रहा है बल्कि लिखना जानता है यह सोचकर सम्मान करते हैं तब यह बात भी तो आती है कि उन्हें पढ़ना चाहिये। यह बिना प्रशिक्षण के संभव नहीं है। यही कारण है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में इतने सारे इंटरनेट कनेक्शन होते हुए भी हिंदी में पढ़ना लिखना लोगों की आदत नहीं बन पाया। यह इस लेखक का विचार है और यह जरूरी नहीं कि दूसरे लोग सहमत हों। इतना तो सभी मानेंगे कि अगर किसी घर में एक टीवी है तो चार लोग उसे देख सकते हैं पर इंटरनेट कनेक्शन के बारे में यह बात लागू नहीं होती और इसके लिये ही प्रयास करना चाहिये।
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5 अप्रैल 2009

धोखे की कहाँ शिकायत लिखाएँगे-हिन्दी शायरी

उनकी अदाओं को देखकर
वफाओं का आसरा हमने किया.
उतरे नहीं उम्मीद पर वह खरे
फिर भी कसूर खुद अपने को हमने दिया.
दिल ही दिल में उस्ताद माना उनको
अपनी बेवफाई से उन्होंने
वफ़ा और यकीन को मोल हमें बता दिया.
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अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए
कदम कदम पर जंग लड़ते लोग
किसी को भरोसा कैसे निभाएँगे.
मयस्सर नहीं जिनको चैन का एक भी पल
किसी दूसरे की बेचैनी क्या मिटायेंगे.
वादे कर मुकरने की आदत
हो गयी पूरे ज़माने की
नीयत हो गयी दूसरे के दर्द पर कमाने की
ऐसे में कौन लोग किसके खिलाफ
धोखे की कहाँ शिकायत लिखाएंगे.
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2 अप्रैल 2009

तुम्हारा सिक्का भी चल निकलेगा-हिन्दी शायरी

भेड़ की तरह चले किसी के पीछे
तो आम इंसान कहलाओगे
भीड़ जुटा लो तो तुम भी
खास इंसान हो जाओगे

मुश्किल नहीं हैं इंसान को भेड़ बनाना
उनको अपने पीछे भीड़ की तरह चलाना
जेब में रखकर लोहे के टुकड़े
उनको बजाने लगो
ऐसा लगे जैसे चांदी के सिक्के रखे हुए हैं
उनकी आवाज से लोगों के कान खड़े हो जायेंगे
जो बहरे होंगे वह भी पास चले आयेंगे
किसी की जेब से निकालो
किसी को बांटो
तुम्हारे नाम का सिक्का भी चल निकलेगा
बिना खर्च किये तुम
दरियादिल कहलाओगे

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