30 अगस्त 2014

युवा कंधे-हिन्दी कविता(yuva kandhe-hindi poem)




युवा कंधे अपने ऊपर
भविष्य के सपनों का
बोझ उठाये हैं।

फिसल गयी उम्र जिनकी
अपनी नाकाम जिंदगी  के आसरे
उन्हीं के दम पर जुटाये हैं।

नौनिहालों का लगा दिया
आकाश में उड़ने के
सपने देखनें में
स्वयं अपनी जिंदगी के पल
मौजमस्ती में लुंटाये हैं।

कहें दीपक बापू मार्गदर्शन का अभाव
हर पीढ़ी में दिखता
सभी बचते  परिवर्तन के युद्ध से
सौंपते हथियार नये योद्धा के हाथ
देकर बहादुरी दिखाने का संदेश
भले ही हवाओं के डर से भी
हमेशा अपना मुंह छुपाये हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

22 अगस्त 2014

सांई भगवान के दर्शन में आम और विशिष्ट भक्त-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन(sai bhagwan ke darshan mein aam aur vishisht bhakt)



    
      सांई बाबा के मंदिर में आम और विशिष्ट दर्शकों के वर्ग बन गये हैं।  जो दर्शक तीन सौ रुपये देंगे उन्हें आमजनों की तरह पंक्ति में नहीं लगना पड़ेगा और वह विशिष्ट भक्त होकर सांई के निकट जा सकेंगे।  सांई बाबा के स्थाई सेवक इसके पीछे दो तर्क दे रहे हैं-एक तो यह कि इससे प्राप्त आमदनी से मंदिर का रखरखाव होगा दूसरा यह कि इससे भीड़ पर नियंत्रण रखने में सुविधा होगी। दोनों ही तर्क समझ से परे हैं।  आमदनी से मंदिर के रखरखाव का जवाब यह है कि वहां चढ़ाव इतना आता रहा है कि सामान्य मंदिर अब भव्य बन गया है। दूसरी बात यह है कि सांईबाबा के अनेक शहरों में मंदिर हैं और वह चढ़ावे से ही चल रहे हैं।  कई भक्त अगर पैसा नहीं डालते तो कई सांई बाबा के चमत्कार का लाभ मिलने पर बहुत सारा धन दे ही देते हैं।  भीड़ नियंत्रण की बात हास्यास्पद ही है। इससे आमजनों की पंक्ति को बीच बीच में व्यवधान झेलना पड़ेगा।
      हम सांई बाबा के स्थाई सेवकों के फैसले का विरोध नहीं कर रहे। हम तो यह सलाह देंगे कि वह आम भक्तों से भी सौ रुपया लेने लगें।  इससे भीड़ कम हो जायेगी और आय भी बढ़ेगी।  मगर वह कभी नहीं मानेंगे।  वजह यही है कि यही फोकटिया भक्तों की भीड़ ही सांईबाबा की प्रचलित भक्ति की शक्ति है।  अगर आमजन कम हो गये तो विशिष्ट भक्त भी कम हो जायेंगे। हमारे यहां दिखावे की भक्ति कम नहीं है।  विशिष्ट भक्त दिखने की चाह कुछ ऐसे लोगों में ज्यादा होती है जो भक्ति कम अपनी शक्ति ज्यादा दिखाना चाहते हैं।  दौलत, शौहरत और ऊंचे ओहदे वालों को इस बात से चैन नहीं मिलता कि उनके पास शक्ति है। वह उसका भौतिक सत्यापन चाहते हैं और यह केवल भीड़ में अकेले चमकने से ही मिलता है।  वैसे तो हमारे यहां दक्षिण के एक दो मंदिर में भी यह पंरपरा रही है कि पैसा देकर विशिष्टता के साथ भगवान की मूर्ति के दर्शन किये जायें पर सांईबाबा मंदिर में इस तरह की नयी परंपरा थोड़ा चौंकाने वाली है।
      अभी हाल ही में एक महान ज्ञानी ने सांईबाबा को भगवान मानने को चुनौती दी थी।  इस पर लंबी बहस चली। निष्कर्ष न निकलना था न निकला। अलबत्ता इस बहस के बीच में विज्ञापन की धारा खूब चलती दिखाई।  हम जैसे योग तथा अध्यात्म साधकों के लिये ऐसी बहसों में कुछ नहीं होता और न ही पैसा देकर दर्शन करने के निर्णयों से कोई परेशानी होती है।  समस्या हम जैसे लोगों के साथ यह है कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों में कही गयी बातों को तोड़मरोड़ कर पेश करने पर थोड़ी निराशा होती है जो कि कुछ न कुल बोलने या लिखने को प्रेरित करती है।
      अगर हम श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करें तो योग, तप और ध्यान एकांत में किये जाने वाली क्रियायें हैं और परमात्मा से आत्मा का संयोग न केवल वाणी वरन् समस्त इंद्रियों के  मौन से ही संभव है।  निष्काम तथा निराकार भक्ति का श्रेष्ठ रूप एकांत में ही दिख सकता है। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ इस बात को मानते हैं पर साथ ही सकाम तथा भक्ति को भी स्वीकार करते है। सकाम तथा साकार भक्ति की आस्था का प्रवाह बाहर रहता है और धर्म के ठेकेदार इसी में अपने हाथ धोते हैं।
      सकाम तथा साकार भक्ति को इसलिये मान्य किया गया है क्योंकि सभी लोग एकांतवास का आनंद नहीं उठा सकते। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसे स्वीकार किया है कि हजार में कोई एक मुझे भजता है और उनमें भी हजार में से एक मुझे प्राप्त करता है।  उन्होंने संकेतों में सकाम भक्ति का रूप भी बताया है और यह माना कि अंततः वह भी वास्तव में उनके ही भक्त हैं।  इसका मतलब सीधा यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के साधकों को कभी दूसरे की भक्ति पर आक्षेप नहीं करना चाहिये।  जो लोग श्रीमद्भागवत गीता में आस्था रखने का दावा करते हुए दूसरे की भक्ति पर आक्षेप करते हैं तो इसका आशय यह है कि वह कहीं न कहीं अज्ञान के अंधेरे में हैं।
      सकाम भक्ति का भाव बाहर आकर्षित रहता है यही कारण है कि मूर्तियों में भी भगवान का रुप देखा जाता है। दरअसल हमारा मन चंचल है। वह आकर्षण ढूंढता है और भगवान की मूर्तियां दिखने में आकर्षक होती है इसलिये वह मन का मोह लेती है। इस तरह भक्त का भाव मनोरंजन, आस्था तथा श्रद्धा की त्रिवेणी में नहा लेता है।  हमारे यहां रामलीला तथा कृष्ण रास के प्रदर्शन की परंपरा रही है। उनमें यह तीनों तत्व प्रवाहित रहे थे।  यह अलग बात है कि उनके कलाकार सीधे कभी दर्शकों से धन नहीं मांगते बल्कि आयोजक श्रद्धालू उनको दान दक्षिण देकर तृप्त कर देते हैं।
      सांईबाबा की मूतियों के दर्शन की धारा में भी यह तीन तत्व प्रवाहित हैं।  ऐसे में हम मनोरंजन तत्व का विचार आता हैं। जिस तरह सिनेमाघरों में दर्शकों के वर्ग होते हैं उसी तरह अब भगवान के दर्शन में भी बन रहे हैं तो इसके पीछे यही तत्व माना जा सकता है। हमें याद आ रहे हैं वह दिन जब हम फिल्में बॉलकनी का टिकट स्टूडेंट कंसेशन में लेकर देखते थे।  इतना ही नहीं मध्यांतर में भी हम बॉलकनी की ही कैंटीन में चाय पीते थे।  नीचे फर्स्ट या थर्ड क्लास वाली कैंटीन में जाने की सोचना भी उस समय स्तरहीनता लगती थी। कभी वह टिकट नहीं मिला तो नीचे भी फिल्म देखी पर जब ऊपर देखते थे तो मन में अहंकार आ ही जाता था।  उस समय हम उन दोस्तों पर अपना रौब झाड़ते थे जो इस सुविधा का लाभ उठाने योग्य नहीं थे-मतलब यह महाविद्यालयीन शिक्षा से परे थे।
      अब अंतर्जाल पर अध्यात्मिक साधना करते हुए इस अहंकार को पहचान लिया है।  इसलिये कहीं भी विशिष्ट व्यवहार मिले तो भी उसका प्रभाव हम पर नहीं पड़ता।  अलबत्ता गुण और कर्म विभाग के अध्ययन से हमें इस संसार और यहां के जीवों का व्यवहार समझ में आ गया है।  विशिष्ट भक्त, दर्शक या सहायक बनने का अवसर मिलने पर लोग फूल जाते हैं पर अंततः उनको नीचे उतरना ही पड़ता है। यह अलग बात है कि ऊंचाई पर जब वह रहते हैं तब लोग उनको बेचारगी के भाव से देखते हैं।  सांई बाबा के आम भक्तों के सामने भी यह भाव तब दिखाई देगा जब वह विशिष्ट भक्तों को अपने से प्रथक होकर दर्शक करते देखेंगे।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

15 अगस्त 2014

फेसबुक पर दिखने लगा है विचारधारा के लेखकों का युद्ध-चिंत्तन लेख(facebook par vichardhara ka lekhkon ka dwandwa-hindi thought article)



         भारत में हम जिन विचाराधाराओं के बीच द्वंद्व परंपरागत प्रचार माध्यमों में बरसों से देखते रहे थे वह अब अंतर्जाल पर भी दिखने लगा है। पिछले कुछ दिनों से लव जिहाद, धर्मांतरण कर विवाह, बलात्कार तथा  आतंकवाद को लेकर जिस तरह के पाठ आ रहे हैं उनको देखकर यह लगता है कि अंतर्जाल पर भी विचाराधाराओं के लेखक उसी तरह ही अपनी प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं जैसे पंरपरागत साधनों पर दिखाते हैं।  खासतौर से धर्मनिरपेक्षता तथा राष्ट्रवाद के बीच यह द्वंद्व हम जैसे पाठकों को दिलचस्प लगता है।  अभी कुछ दिनों से पहले धर्मांतरण कर जबरन विवाह और बलात्कार के प्रसंग चल रहे थे। उन पर एक वर्ग अपनी प्रतिक्रियाओं के साथ सक्रिय था।  आज फेसबुक  पर एक पाठ के साथ जुड़े लिंक में  धर्मांतरण कर विवाह का समाचार देकर  अपनी सक्रियता दूसरे समुदाय के लिये दिखाई गयी।  यह समाचार पढ़कर सबसे पहले तो हमारे दिमाग में यह आया कि फेसबुक पर यह किसने डाला है।  पता लगा कि यह एक लिंक था जो उसी समुदाय पर कथित अनाचार को बताने वाले समाचार वाले पाठ से जुड़ा था। जिस लेखक का यह पाठ है वह पुराने ब्लॉग लेखक होने के साथ हमारे मित्र भी रहे हैं।  आजकल उनके तथा हमारे बीच संवाद नहीं होता पर जब था तब हम यह नहीं जानते थे कि वह भी किसी विचारधारा में प्रवाहित जीव हैं। 
      अंतर्जाल पर लिखते हुए हमें सात वर्ष हो गये।  भारत में प्रारंभिक दौर में ब्लॉग ही लोकप्रिय था। आज भी है पर फेसबुक ने उसका प्रभाव कम कर दिया हैं पुराने ब्लॉग लेखक आज भी लिख रहे हैं पर उनके दर्शन अब हम फेसबुक पर ही कर लेते हैं। पहले नारद और फिर ब्लॉगवाणी पर इन ब्लॉगलेखकों से आत्मीयता का भाव रहा पर अब वह समाप्त हो गया है।  इसमें कोई संदेह नहीं है सभी ब्लॉग लेखक अच्छे लेखक भी हैं पर अब उनका विचाराधाराओं से जुड़ा होना हमें हैरान करता है। दूसरी बात यह भी है कि अब अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन ज्यादा हो रहा है तो इस भीड़ में लोगों को अपने साथ बनाये रखना संभव नहीं है।  यह भी सच है कि  उन्मुक्त विचारधारा को हमारे यहां अभी कोई सम्मान नहीं मिल पाया। इस पर हम हम जैसे फोकटिया लेखक को कोई क्यों साथ रखना चाहेगा।
      बहरहाल फेसबुक में अभी तक हम एक समुदाय के बारे में पढ़ रहे थे आज दूसरे समुदाय पर पढ़ा तो आश्चर्य हुआ।  लेखक का प्रमाणीकरण करने की तब इच्छा जाग्रत हुई। हमारा अनुमान है कि कम से कम दो वर्ष बाद उनके किसी पाठ को पढ़ने का अवसर आया।  विचारधारा से प्रतिबद्ध लेखकों के लिये प्रायोजक मिलना सहज होता है इसलिये इन लेखकों ने अपना लेखक सतत बनाये रखा है। हम जैसे फोकटिया लेखक के लिये लंबे समय तक स्वप्रेरणा से लिखते रहना केवल माता सरस्वती की कृपा से ही हो सकता है। प्रारंभिक दौर में हमें लगता था कि हमारा उल्लेख कहीं न कहीं होगा पर अब जल्दी यह लगा कि प्रायोजन के इस युग में हमारी स्थिति एक अंतर्जालीय प्रयोक्ता से अधिक नहीं रहने वाली है।  इसलिये टिप्पणियों की परवाह छोड़ ही दी है। अलबत्ता दूसरे लेखकों की रचनाओं का अध्ययन करते रहते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान इन विचाराधाराओं के लेखकों ने सतत द्वंद्वरत रहकर जिस तरह दिलचस्पी पैदा की वह हमारे लिये एक नया अनुभव था।   
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

7 अगस्त 2014

योग तो सभी करते ही हैं-श्रीमद्भागवतगीता पर विशेष लेख(special hindi article on shrimadbhagwat geeta in hindi)




      श्रीमद्भागवत गीता की चर्चा बहुत होती है पर इसके ज्ञान की समझ और फिर उसकी बताई राह पर चलने वाले कितने हैं इस पर कोई विचार नहीं करता। अभी हमने टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में श्रीमद्भागवत गीता पर बहुत चर्चा देखी और सुनी।  एक माननीय न्यायाधीश ने श्रीमद्भागवत गीता के विषय को शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव दिया।  उस पर देश में कोहराम मच गया है।  इस बहस में कुछ सवाल ऐसे उठे जिन पर हंसी आई तो कुछ जवाब ऐसे आये जिन पर आश्चर्य हुआ। जैसा कि हम जानते हैं कि टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में केवल प्रायोजित तथा धनिकों से सम्मानित बुद्धिजीवियों की बात को ही महत्व मिलता है।  अंतर्जाल पर हम जैसे असंगठित, मौलिक तथा फोकटिया लेखकों का अपने पैसे खर्च कर भड़ास निकालने का अवसर मिलता है यही कम नहीं है मगर पंरपरागत प्रचार माध्यमों में आये विद्वान नाम के साथ नामा पाने के लिये कृत्रिम भड़ास से सजे हुए आते हैं। इस तरह की बहसों में एक बात मुख्य रूप से मानी गयी कि यह केवल हिन्दूओं का ही  ग्रंथ है।
      हम जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये श्रीमद्भागवत गीता का महत्व इतना है कि वह इसके शब्दों के शाब्दिक, लाक्षणिक तथा व्यंजनात्मक तीनों विधाओं के अर्थ को न केवल सहजता से समझते हैं वरन् उसे आत्मसात करने का प्रयास भी करते हैं।  कम से कम यह लेखक तो यह अनुभव करता है कि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों को लेकर लोग इतने गंभीर नहीं लगते जितनी इसकी पवित्रता को स्वीकार करने के पाखंड में व्यस्त हैं।
      जिन लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता को आत्मसात किया है या प्रयास कर रहे हैं वह जानते हैं कि श्रीमद्भागवत गीता जीवन जीने की वैसी ही कला है जैसी कि योग साधना को माना जाता है।  पतंजलि योग सूत्र के रूप में हमारे पास देह, मन और विचारों के विकार निकालने की विद्या है।  अगर कोई सांसरिक विषयों से संपर्क न रखकर पूर्ण सन्यासी जीवन बिताये तो पतंजलि योग उसके लिये महान विज्ञान है। श्रीमद्भागवत गीता में यह बताया जाता है कि सांसरिक विषयों के साथ जुड़कर भी सहज भाव से जीवन जी सकते हैं। कहा जाता है कि  श्रीमद्भागवत गीता में वेदों का पूर्ण सार है। ठीक उसी तरह पतंजलि योग के भी सूत्रों का सार उसमें हैं।  श्रीमद्भागवत गीता कुछ सिखाती नहीं है वरन्  सांसरिक विषयों का सच बताती है।  यह विश्व का अकेला ऐसा  ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान भी है।  इस लेखक की मान्यता यह है कि इस संसार में योग जाने अनजाने हर व्यक्ति कर रहा है।  कुछ लोग अज्ञान के अभाव में सांसरिक विषयों का सत्य मानकर उनसे जुड़ते हैं। यह जुड़ना योग ही है पर उससे इंसान असहज होता है।  जहां विषय आकर्षित कर मनुष्य को अपने साथ संयोग कराते हैं वह वह विवश होता है पर योग का ज्ञान रखने वाले अपनी आवश्यकता के अनुसार चलते हैं।  वह विषयों से जुड़ते हैं फिर अपन मन वहां से हटा लेते हैं।  इसके विपरीत अज्ञानी मनुष्य विषयों का बोझ उठाये सारी जिंदगी रोते हुए गुजारते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता पर चलने वाले सहज योग के पथ पर चलते हैं और जो नहीं समझते वह असहज पथ पर चल ही रहे हैं।
      श्रीमद्भागवत गीता की विषय सामग्री को पढ़ने और पढ़ाने से अधिक समझने की आवश्यकता है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि इस संसार में असहज पथ पर चलने वाले लोगों को ज्ञान देना कठिन है और जो सहज हैं उन्हें उसकी आवश्यकता ही नहीं है। दूसरे को तो तब सुधारें जब स्वयं सिद्धि प्राप्त कर लें मगर श्रीमद्भागवत गीता के रम जाने पर होता यह है कि जितनी बार उसे पढ़ो लगता है कि नित्य कोई नयी बात निकल रही है।  एक बात तय रही जिसने श्रीमद्भागवत गीता को आत्मसात कर लिया वह कभी प्रचार नहीं करेगा।  इसका पहले हमें अनुमान नहीं था पर जैसे जैसे प्रचार माध्यमों में चर्चा देखते हैं तो इस देश में श्रीमद्भागवत के महत्व का जिस तरह बखान होता है तब यह लेखक उन लोगों को देखना चाहता है जिन्हें सिद्धहस्त कहा जा सके। अभी तक यह लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सका। छोटे शहर का  होने का कारण इस देश में कला, धर्म, साहित्य, पत्रकारित तथा अन्य विषयों का मार्ग दर्शन करने वाले बड़े शहरों जैसे विद्वानों का दर्जा इस लेखक को मिलना संभव नहीं है यह बात निराशा पैदा करने वाली लगती है पर श्रीमद्भागवत गीता का ऐसा प्रभाव है कि यही बात आत्मविश्वास पैदा भी करती है कि किसी प्रकार भौतिक उपलब्धि न होने की संभावना अध्यात्मिक साधना की सच्ची प्रेरणा बनती है।  इस विषय पर लेखक ने पहले भी अपने ब्लॉग पर लिखा है।  आगे भी लिखेंगे।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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