सांई बाबा के मंदिर में आम और विशिष्ट
दर्शकों के वर्ग बन गये हैं। जो दर्शक तीन
सौ रुपये देंगे उन्हें आमजनों की तरह पंक्ति में नहीं लगना पड़ेगा और वह विशिष्ट
भक्त होकर सांई के निकट जा सकेंगे। सांई
बाबा के स्थाई सेवक इसके पीछे दो तर्क दे रहे हैं-एक तो यह कि इससे प्राप्त आमदनी
से मंदिर का रखरखाव होगा दूसरा यह कि इससे भीड़ पर नियंत्रण रखने में सुविधा होगी।
दोनों ही तर्क समझ से परे हैं। आमदनी से
मंदिर के रखरखाव का जवाब यह है कि वहां चढ़ाव इतना आता रहा है कि सामान्य मंदिर अब
भव्य बन गया है। दूसरी बात यह है कि सांईबाबा के अनेक शहरों में मंदिर हैं और वह
चढ़ावे से ही चल रहे हैं। कई भक्त अगर पैसा
नहीं डालते तो कई सांई बाबा के चमत्कार का लाभ मिलने पर बहुत सारा धन दे ही देते
हैं। भीड़ नियंत्रण की बात हास्यास्पद ही
है। इससे आमजनों की पंक्ति को बीच बीच में व्यवधान झेलना पड़ेगा।
हम सांई बाबा के स्थाई सेवकों के फैसले का
विरोध नहीं कर रहे। हम तो यह सलाह देंगे कि वह आम भक्तों से भी सौ रुपया लेने
लगें। इससे भीड़ कम हो जायेगी और आय भी
बढ़ेगी। मगर वह कभी नहीं मानेंगे। वजह यही है कि यही फोकटिया भक्तों की भीड़ ही
सांईबाबा की प्रचलित भक्ति की शक्ति है।
अगर आमजन कम हो गये तो विशिष्ट भक्त भी कम हो जायेंगे। हमारे यहां दिखावे
की भक्ति कम नहीं है। विशिष्ट भक्त दिखने
की चाह कुछ ऐसे लोगों में ज्यादा होती है जो भक्ति कम अपनी शक्ति ज्यादा दिखाना
चाहते हैं। दौलत, शौहरत और ऊंचे ओहदे वालों को इस बात से चैन नहीं मिलता कि उनके पास शक्ति
है। वह उसका भौतिक सत्यापन चाहते हैं और यह केवल भीड़ में अकेले चमकने से ही मिलता
है। वैसे तो हमारे यहां दक्षिण के एक दो
मंदिर में भी यह पंरपरा रही है कि पैसा देकर विशिष्टता के साथ भगवान की मूर्ति के
दर्शन किये जायें पर सांईबाबा मंदिर में इस तरह की नयी परंपरा थोड़ा चौंकाने वाली
है।
अभी हाल ही में एक महान ज्ञानी ने सांईबाबा
को भगवान मानने को चुनौती दी थी। इस पर
लंबी बहस चली। निष्कर्ष न निकलना था न निकला। अलबत्ता इस बहस के बीच में विज्ञापन
की धारा खूब चलती दिखाई। हम जैसे योग तथा
अध्यात्म साधकों के लिये ऐसी बहसों में कुछ नहीं होता और न ही पैसा देकर दर्शन
करने के निर्णयों से कोई परेशानी होती है।
समस्या हम जैसे लोगों के साथ यह है कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों में कही गयी
बातों को तोड़मरोड़ कर पेश करने पर थोड़ी निराशा होती है जो कि कुछ न कुल बोलने या
लिखने को प्रेरित करती है।
अगर हम श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करें तो
योग, तप और ध्यान एकांत में किये जाने वाली क्रियायें हैं और परमात्मा से आत्मा
का संयोग न केवल वाणी वरन् समस्त इंद्रियों के
मौन से ही संभव है। निष्काम तथा
निराकार भक्ति का श्रेष्ठ रूप एकांत में ही दिख सकता है। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ
इस बात को मानते हैं पर साथ ही सकाम तथा भक्ति को भी स्वीकार करते है। सकाम तथा
साकार भक्ति की आस्था का प्रवाह बाहर रहता है और धर्म के ठेकेदार इसी में अपने हाथ
धोते हैं।
सकाम तथा साकार भक्ति को इसलिये मान्य किया
गया है क्योंकि सभी लोग एकांतवास का आनंद नहीं उठा सकते। श्रीमद्भागवत गीता में
भगवान श्रीकृष्ण ने इसे स्वीकार किया है कि हजार में कोई एक मुझे भजता है और उनमें
भी हजार में से एक मुझे प्राप्त करता है।
उन्होंने संकेतों में सकाम भक्ति का रूप भी बताया है और यह माना कि अंततः
वह भी वास्तव में उनके ही भक्त हैं। इसका
मतलब सीधा यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के साधकों को कभी दूसरे की भक्ति पर आक्षेप
नहीं करना चाहिये। जो लोग श्रीमद्भागवत
गीता में आस्था रखने का दावा करते हुए दूसरे की भक्ति पर आक्षेप करते हैं तो इसका
आशय यह है कि वह कहीं न कहीं अज्ञान के अंधेरे में हैं।
सकाम भक्ति का भाव बाहर आकर्षित रहता है यही
कारण है कि मूर्तियों में भी भगवान का रुप देखा जाता है। दरअसल हमारा मन चंचल है।
वह आकर्षण ढूंढता है और भगवान की मूर्तियां दिखने में आकर्षक होती है इसलिये वह मन
का मोह लेती है। इस तरह भक्त का भाव मनोरंजन, आस्था तथा श्रद्धा की
त्रिवेणी में नहा लेता है। हमारे यहां
रामलीला तथा कृष्ण रास के प्रदर्शन की परंपरा रही है। उनमें यह तीनों तत्व
प्रवाहित रहे थे। यह अलग बात है कि उनके
कलाकार सीधे कभी दर्शकों से धन नहीं मांगते बल्कि आयोजक श्रद्धालू उनको दान दक्षिण
देकर तृप्त कर देते हैं।
सांईबाबा की मूतियों के दर्शन की धारा में
भी यह तीन तत्व प्रवाहित हैं। ऐसे में हम
मनोरंजन तत्व का विचार आता हैं। जिस तरह सिनेमाघरों में दर्शकों के वर्ग होते हैं
उसी तरह अब भगवान के दर्शन में भी बन रहे हैं तो इसके पीछे यही तत्व माना जा सकता
है। हमें याद आ रहे हैं वह दिन जब हम फिल्में बॉलकनी का टिकट स्टूडेंट कंसेशन में
लेकर देखते थे। इतना ही नहीं मध्यांतर में
भी हम बॉलकनी की ही कैंटीन में चाय पीते थे।
नीचे फर्स्ट या थर्ड क्लास वाली कैंटीन में जाने की सोचना भी उस समय
स्तरहीनता लगती थी। कभी वह टिकट नहीं मिला तो नीचे भी फिल्म देखी पर जब ऊपर देखते
थे तो मन में अहंकार आ ही जाता था। उस समय
हम उन दोस्तों पर अपना रौब झाड़ते थे जो इस सुविधा का लाभ उठाने योग्य नहीं थे-मतलब
यह महाविद्यालयीन शिक्षा से परे थे।
अब अंतर्जाल पर अध्यात्मिक साधना करते हुए
इस अहंकार को पहचान लिया है। इसलिये कहीं
भी विशिष्ट व्यवहार मिले तो भी उसका प्रभाव हम पर नहीं पड़ता। अलबत्ता गुण और कर्म विभाग के अध्ययन से हमें
इस संसार और यहां के जीवों का व्यवहार समझ में आ गया है। विशिष्ट भक्त, दर्शक या सहायक
बनने का अवसर मिलने पर लोग फूल जाते हैं पर अंततः उनको नीचे उतरना ही पड़ता है। यह
अलग बात है कि ऊंचाई पर जब वह रहते हैं तब लोग उनको बेचारगी के भाव से देखते
हैं। सांई बाबा के आम भक्तों के सामने भी
यह भाव तब दिखाई देगा जब वह विशिष्ट भक्तों को अपने से प्रथक होकर दर्शक करते
देखेंगे।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें