30 जनवरी 2009

सभी पियक्कड़ हो जाते, जो पहुंचे मधुशाला-व्यंग्य

हिंदी भाषा के महान कवि हरिबंशराय बच्चन ने मधुशाला लिखी थी। अनेक लोगों ने उसे नहीं पढ़ा। कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने उसे थोड़ा पढ़ा। कुछ लोगों ने जमकर पढ़ा। हमने उसके कुछ अंश एक साहित्यक पत्रिका में पढ़े थे। एक बार किताब हाथ लगी पर उसे पूरा नहीं पढ़ सके और लायब्रेरी में ं वापस जमा कर दी। मधुशाला के कुछ काव्यांश प्रसिद्ध हैं और देश की एकता के लिये उनका उपयेाग जमकर किया जाता है। उनका आशय यह है कि सर्वशक्तिमान के नाम पर बने सभी प्रकार के दरबार आपस में झगड़ा कराते हैं पर मधुशाला सभी को एक जैसा बना देती है। मधुशाला को लेकर उनका भाव संदेशात्मक ही था। एक तरह से कहा जाये तो उन्होने मधुशाला की आड़ में समाज को एकता का संदेश दिया था। हमने अभी तक उसके जितने भी काव्यांश देखे है उनमें मधुशाला पर लिखा गया है पर मद्यपान पर कुछ नहीं बताया गया। सीधी भाषा में कहा जाये तो मधुशाला तक ही उनका संदेश सीमित था पर मद्यपान में उसमें गुण दोषों का उल्लेख नहीं किया गया।
अब यह बताईये कि मधुशाला में मद्यपान नहीं होगा तो क्या अमृतपान होगा?बहुत समय तक लोग एकता के संदेशों में मधुशाला के काव्यांशों का उल्लेख करते हैं पर मद्यपान को लेकर आखें मींच लेते हैं। उनमें वह भी लोग हैं जो मद्यपान नहीं करते। नारों और वाद पर चलने का यह सबसे अच्छा उदाहरण है। मधुशाला पवित्र और एकता का संदेश देने वाली पर मद्यपान..............यानि देश में गरीबी का एक बहुत बड़ा कारण। इससे आंखें बंद कर लो। चिंतन के दरवाजे मधुशाला से आगे नहीं जाते क्योंकि वहां से मद्यपान का मार्ग प्रारंभ होता है ं।

चलिये मधुशाला को जरा आज के संदर्भ में देख लें। बीयर बार और पब भी आजकल की नयी मधुशाला हैं। जब से यह शब्द प्रचलन में आये हैं तब से मधुशाला की कविताओं का प्रंचार भी कम हो गया है। पिछले दिनों हमने पब का अर्थ जानने का प्रयास किया पर अंग्रेजी डिक्शनरी में नहीं मिला। तब एक ऐसे सभ्य,संस्कृत और आधुनिक शैली जीवन के अभ्यस्त आदमी से इसका अर्थ पूछा तब उन्होंने बताया कि ‘आजकल की नयी प्रकार की कलारी भी कह सकते हो।’ कलारी से अधिक संस्कृत शब्द तो मधुशाला ही है। दरअसल आजकल कलारी शब्द देशी शराब के संबंध में ही प्रयोग किया जाता है। बहरहाल मधुशाला का अर्थ अगर मद्यपान का केंद्र हैं तो पब का भी आशय यही है।

स्व. हरिबंशराय बच्चन की मधुशाला में कई बातें लिखी गयी हैं जिनमें यह भी है कि मधुशाला एक ऐसी जगह है जहां पर जाकर हर जाति,वर्ण,वर्ग,भाषा,धर्म और क्षेत्र का आदमी हम प्याला बन जाता है। उन्होंने यह शायद कहीं नहीं लिखा कि वहां स्त्रियों और पुरुष भी ं एक समान हो जाते है। अगर वह अपने समय में भी ऐसी बातें लिखते तो उनका जमकर विरोध हो जाता क्योंकि उस समय स्त्रियों के वहां जाने का कोई प्रचलन नहीं होता। मधुशाला प्रगतिवादियों की मनपसंदीदा पुस्तक है मगर मुश्किल है कि मद्यपान से आदमी का मनमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है और उस समय सारी नैतिकता और नारे एक जगह धरे रह जाते हैंं।

आजकल पब का जमाना है और उसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही जाने लगे हैं। मगर पब मेें ड्रिंक करने पर भी वहीं असर होता है जो कलारी में दारु और मधुशाला में मद्यपान करने से होता है। पहले लोग कलारियों के पास अपना घर बनाने ये किराये पर लेने से इंकार कर देते थे पर आजकल पबों और बारों के पास लेने में उनको कोई संकोच नहीं होता। मगर दारु तो दारु है झगड़े होंगे। पीने वाले करें न न पीने वाले उनसे करें। जिस तरह पबों का प्रचलन बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि आगे ‘आधुनिक रूप से’ फसाद होंगें। ऐसा ही कहीं झगड़ा हुआ वहां सर्वशक्तिमान के नाम पर बनी किसी सेना ने महिलाओं से बदतमीजी की। यह बुरी बात है। इसके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही होना चाहिये पर जिस तरह देश के बुद्धिजीवी और लेखक इस घटना पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं वह गंभीरता की बजाय हास्य का भाव पैदा कर रहा है। हमने देखा कि इनमें कुछ बुद्धिजीवी और लेखक मधुशाला के प्रशंसक रहे हैं पर उनको मद्यपान के दोषों का ज्ञान नहीं है। पहले भी कलारियों पर झगड़े होते थे पर उनमें लोग वर्ण,जाति,भाषा और धर्म का भेद नहीं देखते थे-क्योंकि मधुशाला के संदेश का प्रभाव था और सभी झगड़ा करने वाले ‘हमप्याला’ थे। मगर अभी एक जगह झगड़ा हुआ उसमें पब में गयी महिलाओं से बदतमीजी की गयी। यह एक शर्मनाक घटना है और उसके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही भी की जा रही पर अब इस पर चल रही निरर्थक बहस में ं दो तरह के तर्क प्रस्तुत किया जा रहे हैं।

1.कथित प्रगतिवादी लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग इसमें अपनी रीति नीति के अनुसार महिलाओं पर अनाचार का विरोध कर रहे हैं क्योंकि मधुशाला में स्त्रियों और पुरुषों के हमप्याला होने की बात नहीं लिखी।
2.गैरप्रगतिवादी लेखक और बुद्धिजीवी महिलाओं के शराब पीने पर सवाल उठा रहे हैं। कुछ दोनों का हमप्याला होने पर आपत्ति उठा रहे हैं।
हम दोनों से सहमत नहीं हैं।

जहां तक घटना का सवाल है तो हमें यह जानकारी भी मिली है कि वहां कुछ पुरुषों के साथ बदतमीजी की गयी थी। इसलिये केवल महिलाओं के अधिकारों की बात करना केवल सतही विचार है। महिलाओं को शराब नहीं पीना चाहिये तो शायद इस देश के कई जातीय समुदायों के लोग सहमत नहीं होंगे क्योकि उनमें महिलायें भी मद्य का अपनी प्राचीन परंपराओं के अनुसार सेवन करती हैं। किसी घटना पर इस तरह की सोच इस बात को दर्शाती हैं कि लोगों की सीमित दायरे में कुछ घटनाओं पर लिखने तक ही सीमित हो रहे हैं। मजे की बात यह है कि मधुशाला पढ़ने वाले हमप्यालों के एक होने पर तो सहमत हैं पर झगड़े होने पर तमाम तरह के पुराने भेद ढूंढ कर बहस करने लगते हैं। बहरहाल इस पर हमारी एक कुछ काव्य के रूप में पंक्तियां प्रस्तुत हैं।

किसी भी घर का बालक हो या बाला
पियक्कड़ हो जाते जो पहुंचे मधुशाला
मत ढूंढों जाति,धर्म,भाषा,और लिंग का भेद
सभी को अमृतपान कराती मधुशाला
नशे में टूट गया, एक जो था गुलदस्ता
हर फूल को अपने से उसने अलग कर डाला
जो खुश होते थे देखकर रोज वह मंजर देखकर
करने लगे आर्तनाद,भूल गये वह थी मधुशाला
मद्यपान की जगह होगी जहां, वहां होंगे फसाद
नाम पब और बार हो या कहें अपनी मधुशाला
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आदमी हो या औरत पीने का मन
किसका नहीं करता
यारों, चंद शराब के कतरों की धारा में
संस्कृति नहीं बहा करती
आस्था और संस्कारों की इमारत
इतनी कमजोर नहीं होती
टूट सकती है शराब की बोतल से
जो संस्कृति वह बहुत दिन
जिंदा रहने की हक भी नहीं रखती
अपने इरादों पर कमजोर रहने वाला इंसान ही
यकीन को जिंदा रखने के लिये जंग की बात करता

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25 जनवरी 2009

ऑस्कर से कोई फिल्म दीवार और अभिनेता अमिताभ बच्चन तो नहीं बन सकता-आलेख

भारत में अधिकतर लोगों को फिल्म देखने का शौक है और सभी की अपनी वय और समय के अनुसार पंसदीदा फिल्में और अभिनेता हैं। वैसे फिल्म शोले की अक्सर चर्चा होती है पर अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म दीवार वाकई एतिहासिक फिल्म है। शोले में हाथ काटने की घटना दिखाने के कारण अनेक लोग उसे पसंद नहीं करते हैं क्योंकि उसके बाद देश में क्रूरता की घटनायें बढ़ीं हैं। कुल मिलाकर लोगों के लिये फिल्में मनोरंजन का एक सशक्त और प्रिय माध्यम हैं।
फिल्मों के लेकर अनेक पुरस्कार बंटते हैं जिनमें राष्ट्रीय पुरस्कार भी शामिल हैं। अनेक व्यवसायिक फिल्मकार उनकी यह कहकर आलोचना करते हैं कि उन पुरस्कारों के वितरण में आम दर्शक की पसंद का ध्यान नहीं रखा जाता है। यही कारण है कि वह कभी राष्ट्रीय पुरस्कारोंं के समानांतर वह अपने लिये अलग से पुरस्कार कार्यक्रम आयोजित कर उनका खूब प्रचार भी करते हैं। अब तो टीवी चैनलों पर भी उनका प्रचार होता है। हिंदी फिल्मकार इसलिये विदेशी पुरस्कार आस्कर लेने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं और वहां अपनी फिल्मों का नामांकन होते ही यहां प्रचार भी शुरू कर देते हैं। वह इतना होता है कि जब पुरस्कार न मिलने पर भी उनको कोई अंतर नहीं पड़ता। वैसे आस्कर अवार्ड कुछ भारतीय फिल्मकारों को भी मिल चुका है पर उनकी फिल्में भी कोई इस देश में अधिक लोकप्रिय नहीं थीं। इसके बावजूद भारतीय फिल्मकार उसके पीछे लगे रहते हैं और कभी उसमें आम भारतीय दर्शक की उपेक्षा की चर्चा नहीं करते। हर साल आस्कर अवार्ड का समय पास आते ही यहां शोर मच जाता हैं। टीवी चैनल और अखबार उसमें नामांकित भारतीय फिल्मों की चर्चा करते हैं।

बहरहाल स्लमडाग मिलेनियर की चर्चा खूब हैं और उसके आस्कर मेंे ंनामांकित होने की चर्चा भी बहुत हैं। इस लेखक ने यह फिल्म नहीं देखी पर इसकी कहानी कुछ प्रचार माध्यमों में पढ़ी है उससे तो लगता है कि उसमें ं अमिताभ बच्चन की फिल्म दीवार और टीवी धारावाहिक ‘कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम की छाया है। इसके अलावा अन्य फिल्मों के नामांकित होने की चर्चा है। शोर इतना है कि जहां देखो आस्कर का नाम आता है। इस बारे में हम तो इतना ही कहते हैं कि ‘आस्कर मिलने से कोई फिल्म दीवार और अभिनेता अमिताभ बच्चन तो नहीं बन सकता।’ याद रहे दीवार फिल्में में एक गरीब घर का लड़का अमीर बन गया और उसने अपने पिता के कातिलों से बदला लिया। यह फिल्म बहुत सफल रही और उससे एक्शन फिल्मों को दौर शुरु हुआ और तो शोले तो उसके बाद में आयी

जैसे बाजार और प्रचार के माध्यमों का निजीकरण हुआ है आस्कर अवार्ड के कार्यक्रम यहां भी दिखाये जाते हैं जबकि उनसे भारतीय दर्शक को कोई लेनादेना नहीं है। हां, अब पढ़ा लिख तबका कुछ अधिक हो गया है जिसका विदेशों से मोह है वही इसमें दिलचस्पी लेता है बाकी फिल्म देखने वाले तो हर वर्ग के दर्शक हैं और उनकी ऐसे पुरस्कारों में अधिक दिलचस्पी नहीं होती। इस देश में अमिताभ बच्चन एक ऐसा सजीव पात्र हैं जिस पर कोई लेखक कहानी भी नहीं लिख सकता। विदेशी तो बिल्कुल नहीं। उनको अगर कोई पुरस्कार फिल्मोंं में योगदान पर मिल भी जाये तो उसकी छबि बढ़ेगी न कि अमिताभ बच्चन की। उनकी युवावस्था का दौर भारतीय फिल्मों का स्वर्णिम काल है। बहरहाल आशा है कुछ दिनों में आस्कर का शोर थम जायेगा पर हिंदी फिल्मों का रथ तो हमेशा की तरह आगे बढ़ता ही रहेगा।
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21 जनवरी 2009

अगले जन्म के लिये-हास्य कविता

कवि की हाजिरी पर प्रसन्न होकर
अपने दरबार में प्रकट हुए सर्वशक्तिमान
और बोले
‘दो मेंं से एक वर मांग ले
पहला इस जन्म में अपनी
कविताओं के हिट होने का वरदान
पर इससे नहीं पैसे के लिहाज से तुम धनवान
या अगले जन्म में किसी प्रकाशक का
चमचा बनकर दौलत कमायेगा
और पायेगा दुनियां भर का सम्मान
पर कविता की नहीं होगी लोगों में शान’
कवि तुरंत बोला-
‘अगर इस जन्म में नहीं अपने नसीब है
कविताऐं तो फ्लाप हम भी गरीब हैं
जितने हिट हैं उतने ही ठीक हैं
अब तो निकल गयी उमर
इसलिये सुरक्षित रख लो
अगले जन्म के लिये अपना वरदान
तब युवावस्था में ही सारी
कामयाबी दिलाना
चमचे बनने की पूरी शक्ति देना
भले ही कविता लिखने की कम कर लेना
साहित्यकारों में करना शुमार
भले ही किसी प्रकाशक का चमचा बना देना
लिखें चाहें जैसा भी पर बढ़ाना सम्मान
किसी हालत में न हो इस जन्म जैसा भान

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17 जनवरी 2009

एतिहासिक किस्से और खिताब-व्यंग्य शायरी

कोई पीठ हमारी नहीं थपथपाये तो
खुद ही थपथपा लो
क्यों यहां अपने को महान दिखाने के लिये
वहां जाकर अपने हाथ फैलाते हो।
एक दिन दुत्कार दिये जाते
दूसरे दिन सौदा कर लाते खिताब
यहां अपने को खास शख्स दिखाते हो।

यूं पहले हम भी सोचा करते थे
परदेस में कहीं होगा ईमान का राज
पर जब से देखा हो तुम्हारे सिर पर परदेस का ताज
यह वहम भी टूट गया है
सच बात यह कि पूरी दुनियां से
यकीन रूठ गया है
जो इनाम लेकर आये हो परदेस से
अब देश मे मत इतराना
पूरे विश्व का हो गया एकीकरण हो गया
बेईमानी और धोखे मे भी ं
जान गये हैं लोग
इसलिये अपनी बात को मजाक मत बनाना
नहीं छिपेगा चाहे कितनी कोशिश कर लो
सब जानते हैं कि
कई एतिहासिक किस्से हों या
खास लोगों को मिलने वाले खिताब
कहीं पैसे से तो कोई लट्ठ से तय किये जाते हैं
जिनको तुम रोमांच और असली दिखाते हो।


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11 जनवरी 2009

नहीं फैलाये हाथ उधार की आग के लिये-हिंदी शायरी

हमारे इम्तहान के लिये
उन्होंने कई सवाल दाग दिये
उत्तर सुनने से पहले ही
मैदान छोड़कर वह भाग लिये
हमारे जज्बातों का मखौल उड़ाते हैं
जिन सवालों का जवाब देना हैं हमें
वह भी खुद ही दिये जाते हैं
दूसरे के दिल से खेलने वाले
क्या समझें प्यार का मतलब
क्या जाने उस शख्स के जज्बात
जो घूम रहा हो जमाने में
नये ख्यालों की रौशनी जलाने के लिये
अपने पसीने की ऊर्जा जुटाई है
नहीं फैलाये किसी के आगे अपने हाथ
उधार की आग के लिये

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6 जनवरी 2009

नए टीवी लाने की गलती नहीं करना-हास्य कविता

एक सज्जन ने दूसरे से कहा
‘‘यार, क्या तुम्हारे घर में ळाह सास बहु का
रोज होता है झगड़ा
हमारे यहां तो रोज का है लफड़ा
पहले जब सास बहु पर आते थे
सामाजिक धारावाहिक
तब भी जमकर होता गाली गलौच के साथ घमासान
अब आने लगा है कामेडी धारावाहिक
तो भी मजाक ही मजाक में तानेबाजी से
मच जाती है जोरदार जंग
मेरा और पिताजी का मन होता है इससे तंग
इतने सारे टीवी चैनल
बने गये हैं हमारे घर के लिये लफड़ा’’

दूसरे सज्जन ने कहा-
‘‘नहीं मेरे यहां ऐसी समस्या नहीं आती
दोनों के कमरे में अलग अलग टीवी है
पर वह अपनी पसंद के कार्यक्रम भी
भी भला दोनों कब देख पाती
मेरी बेटी अपनी मां से लड़कर
सारा दिन कार्टून फिल्म देखती
बेटा उधम मचाकर मेरी मां से
रिमोट छीनकर देखता है फिल्म
सास बहु दिन भर बच्चों से
जूझते हुए थक जाती
बच्चों की झाड़ फूंक न करूं
इसलिये मुझे भी नहीं बताती
पर कभी कभी दो नये टीवी
घर में लाने की मांग जरूर उठाती
मेरे पिताजी कहते हैं मुझसे
कभी ऐसी गलती नहीं करना
नये टीवी आये घर में तो
अपने गले का फंदा बन जायेगा
इन दोनों सास बहू का लफड़ा’'

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3 जनवरी 2009

असली फिल्म के नायक और खलनायक-व्यंग्य

युद्ध और आंतक पर बहुत सारी सामग्री टीवी चैनलों, समाचार पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर पढ़ने को मिल जाती है। सभी में तमाम तरह के वाद विवाद और प्रतिवाद पढ़ने, देखने और सुनने को मिल जते हैं। मगर ऐसा लगता है कि कुछ छूट रहा है। विद्वान गण केवल जो दिख रहा है या दिखाया जा रहा है उसी पर ही ध्यान केंद्रित किये हुऐ है। अपनी तरफ से न तो कोई उनका अनुमान लगाते हैं और नहीं कोई राय रखते हैं। यह बात केवल हिंदी में दर्ज सामग्री पर हो रही है। इसलिये अंग्रेजी पढ़ने और लिखने वाले शायद इस बात से इतफाक न रखें कि सब कुछ प्रायोजित लग रहा हैं । ऐसा लग रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही सब कुछ ऐसा प्रायोजित किया जा रहा है कि विद्वान लोग उसे देखकर ही लिखते हैं।

इस लेखक को गुरूजी ने जो ज्ञान दिया था। वह यह था कि ‘जो तस्वीर दिखाई जा रही है उसके पीछे जाकर देखो। तस्वीर सामने से आकर्षक होती है इसलिये लोग उसे दिखाते है पर उसके पीछे जो पुट्ठा या कागज होता है वह नहीं दिखाते। अगर तुम लेखक बनना चाहते हो तो किसी समाचार, घटना या दृश्य को देखकर उस पर विचार तो करो पर फिर उसके पीछे क्या है या क्या हो सकता है इस पर भी नजर डालो।’

अब हम जैसा अल्पबुद्धि वाला आदमी जो हमेशा ज्ञान की तलाश में रहता है अगर उसे लगे कि यह बात ज्ञान की तो गांठ से बांध लेता है। सो बांध ली। अपने लिखे पर कई बार हास्यास्पद स्थिति का सामना भी करना पड़ता है। लोग कटाक्ष करते हैं कि ‘यार बहुत गहराई से सोचते हो।’
तब यह बात मजाक लगती है क्योंकि उस सोच में कहीं गहराई नहीं होती । बस! होता है जो सामने दिख रहा है उसके पीछे झांकने की कोशिश भर होती है। युद्ध और आंतक पर पढ़ पढ़ कर हमेशा ऐसा सोचते हैं आखिर कौनसी चीज है जो दिख नहीं रही और दिख रही हो तो फिर उसके पीछे और क्या हो सकता है। अपने साधन सीमित है सो कही उड़कर अमेरिका या इजरायल तो जा नहीं सकते। आम आदमी है सो बड़े संपर्क कुछ बताने के लिये उपलब्ध नहीं है। सो अपना दिमाग चल गया तो बस चल गया।

एक ब्लाग पर एक विद्वान महोदय का लेख पढ़ लिया। इजरायल और फलस्तीन संधर्ष पर था। नाम वगैरह इसलिये नहीं दे रहे क्योंकि जो लिख रहे हैं वह मूर्खतापूर्ण ही लग रहा है। उसमें लिखा गया था कि गाजापट्टी की पंद्रह लाख जनता परेशान है। वहां गरीबी है और उनकेत अपने संगठन हमास में दिलचस्पी न होने के बावजूद आम लोग इजरायल के हमले झेल रहे हैं। उसमें इजरायल और अमेरिका दोनों को कोसा गया है।

हम सोच रहे थे कि आखिर पूरे विश्व में आतंक के विरुद्ध यह दोनों देश ही क्येां आका्रमक होते दिख रहे है? दूसरा कोई होता है तो उनको सांप सूंघ जाता है। सो दिमाग धूमने लगा। अरे यह क्या? हमारी एक बात पर तो नजर गयी नहीं। अमेरिका और इजरायल दोनों आधुनिक हथियारों के निर्माता और विक्रेता हैं। जब अमेरिका की किसी से खटकती है या वह स्वयं ही खटकता है तो पचहत्तर हजार फीट ऊपर से बमबारी करता है। हजारों मील दूर से मिसाइलें फैंकता है। इजरायल भी गाहे बगाहे फलस्तीन पर बरसता है। कहीं यह तो नहीं कि यह अपने लिये हथियारों की प्रयोगशाला चुनते हों। अमेरिका तो इधर उधर परमाणुरहित देश ढूंढता है पर इजरायल को तो स्थाई रूप से प्रयोगशाला मिली हुई है।

शक की गुंजायश पूरी है। उस दिन एक हिंदी में बेवसाइट देखी। उसमें अमेरिका के कुछ प्रोफेसरों ने अपने विचार कुछ इसी तरह दिये थे। उस समय लगा कि वाकई वहां बोलने की आजादी है क्योंकि उनके विचार हमारे देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों से मेल खाते हैं। वह अपने ही देश की इराक की नीतियों से संतुष्ट नहीं थे। हमारे देश में देशभक्ति से ओतप्रोत होने के कारण बुद्धिजीवी ऐसे विचार रखने से कतराते हैं और जो रखते हैं तो उनसे लोग नाराज हो जाते है। हालांकि ऐसे नाराज लोगों में हम स्वयं भी होते हैं। उस लेख को पढ़कर लगा कि वाकई किसी के विचार लिखने पर उत्तेजित नहीं होना चाहिए। वैसे विश्व क अनेक विद्वान अमेरिका पर ऐसे आरोप लगाते हैं कि वह युद्ध के लिये वजहें बनाता है।

बहरहाल इन दोनों देशों की ताकत भी कम नहीं है। अपने देश में ही इन दोनों देशों के ढेर सारे समर्थक है। हम तो किसी के न विरोधी हैं न समर्थक पर जो दिख रहा है उसके पीछे जाकर देखते हैं तो पाते हैं कि जो देश हथियार निर्यातक देश हैं उनकी गतिविधियों पर दृष्टिपात करना चाहिये। इजरायल आतंकवाद से प्रभावित अनेक देशों को अपने हथियार और उपकरण बेच रहा है। उसकी तकनीकी क्षमता भी अब काफी प्रसिद्ध हो गयी है। इतनी कि हाल में अखबारों में एक चर्चा पढ़ने को मिली कहीं मृत आंतकवादियों के शव का परीक्षण कर यह बताया जा सकता है कि वह किस देश के किस प्रांत और शहर का है-ऐसी तकनीकी इजरायल ने बनाई है। तय बात है कि वह पहले परीक्षण कर बतायेगा और फिर उसे बेचेगां। अब अगर विश्व में आतंकवाद ही नहीं होगा तो उसके हथियार और तकनीकी कौन खरीदेगा? संभव है कि फलस्तीन में वह इसलिये उग्र होता हो कि पूरे विश्व में उसकी प्रतिक्रिया हो और लोग दूसरी जगह आतंकवाद फैलायें। प्रसंगवश दुनियां में आंतक का पहला शिकार इजरायल ही था और पहला आतंकवादी भी वहीं का था। ओलंपिक में इजरायल के फुटबाल टीम के सात सदस्यों की हत्या करने वाला कार्लोस कभी इजरायल के हाथ नहीं आया या उसने ऐसी कोशिश ही नहीं की-कहना मुश्किल है। मगर उसके बाद हम देख रहे हैं कि अमेरिका हो या इजरायल अपने जिन जाने पहचाने दुश्मनों से लड़ने निकलते हैं वह कभी उनक हाथ नहीं आते पर वह बढ़ते ही जाते हैं और मरते हैं उनके दुश्मनों के अनुयायी-अब वह होते हैं या नहीं यह अलग बात है।

यानि हम उनके दुश्मनों पर भी उतनी ही नजर डालें। उस लेख में चर्चा थी कि हमास ने अपने यहां ईरानी मिसाइलों का जमावड़ा किया और वह इजरायल पर बरसाईं। हमास एक मामूली संगठन है और अगर वह इजरायल पर हमला करता है तो उस पर भी शक तो होगा ही। मारे गये तो आम लोग पर हमास के नेताओं का क्या हुआ? क्या यह आंतकवाद और युद्ध किसी संाठगांठ का नतीजा है। ईरान की तकनीकी कोई अधिक प्रभावी हो ऐसी जानकारी नहीं है। उसकी मिसाइलें लेकर हमास ने अगर इजरायल पर हमला किया तो संदेह होता है कि कहीं दोनों तरफ से कमीशन तो नहीं खाया। एक तरफ ईरान ने कहा हो कि जरा हमारे उत्पाद का उपयोग कर देखो कि उनका क्या प्रभाव होता है। इजरायल तो खैर स्थाई दुश्मन( भले ही उसने फिक्स किया हो) है ही। शक इसलिये होता है कि नये साल में पूरे विश्व में इजरायल की आक्रामता की चर्चा होती रही। हमने कुछ ब्लाग पढे हैं जिनमें तमाम तरह की घटनाओं और दुर्घटनाओं की तारीख पर ही सवाल उठाया जाता है। ऐसा कहने वाले कहते हैं कि आप देखिये यह घटनायें तभी होती हैं जब अमेरिका में सुबह होती है दूसरा यह कि उनका अवकाश निकट होता है। वर्ष पुराना होने और नये पर आने के बीच कुछ ऐसा होता है जो अमेरिका और इजरायल के लोगों में चर्चा का विषय होता है-कहने का मतलब है कि यह ब्लाग लिखने वाले भी पता नहीं क्यों अमेरिका और इजरायल के लोगों को मानसिक खुराक देने के लिये समाचार प्रायोजित करने का संदेह व्यक्त करते हैं।
नहीं यह केाई आरोप नहीं हैं। समझ में यह बात नहीं आती कि आखिर क्या यह युद्ध और आतंक भी कहीं फिक्स तो नहीं होते? क्योंकि यहां जो खलनायक हैं वह अमरत्व प्राप्त कर लेते हैं और कहीं न दिखाई देते हैं न पकड़ाई आते हैं। अगर मर खप भी जायें तो कई वर्षों तक उनके अनुयायी उनको जीवित बताकर माल बटोरते रहेंगे। अगर कोई अन्य देश लड़ने को तैयार होता है तो यह उसकी मदद को भी नहीं जाते भले ही वह हथियार खरीदता हो। कहीं ऐसा तो नहीं यह दिखाते कोई हथियार हों और बेचते कोई और हों। अगर इनसे हथियार खरीदने वाला देश किसी अन्य देश से उलझ गया और हथियार तयशुदा गारंटी के अनुरूप कारगर नहीं हुए तो पोल खुल जाने का खतरा इनको सताता हों। इस देश में पूराने लोगों को आज भी कार्लोस की याद है और वह आखिरी तक फ्रंास में रहा। इजरायल ने उसे वापस लेने का कोई गंभीर प्रयास किया हो ऐसा याद नहीं आतां अमेरिका के शत्रू भी अभी तक पकड़ से बाहर हैं।

कभी कभी तो यह लगता है कि जिस तरह विश्व में पूंजीपति और हथियार कंपनियां ताकतवर है उनके लिये तो एक तरह से अपने व्यवसाय के लिये वास्तविक फिल्में बनाना आवश्यक हैं। इसलिये वह नायक और खलनायक प्रायोजित करती हैं और दुनियां भर के बुद्धिजीवी जो फिल्म नहीं देखते वही उनके लिये समीक्षक हो जाते हैं। कुछ लोग नायक के करतब देखकर ताली बजाते हैं तो कई खलनायक के प्रति सहानुभूति जताते हैं। सैट पर नायक और खलनायक का अभिनय करने के दौरान आपस में लडते हैं फिर एक हो जाते हैं। फिल्मी समीक्षक उनके अभिनय पर समीक्षायें लिखते हैं। अभी अमेरिका में नये नायक का आगमन हो रहा है कुछ विद्वान तो यही कह रहे हैं कि वह भी तयशुदा पटकथा के अनुरूप चले इसलिये ही यह सब हो रहा है। सच क्या है? कोई नहीं जानता। अब हमारा सोच पता नहीं विद्वतापूर्ण है कि मूर्खतापूर्ण यह नहीं जानते पर तस्वीर के पीछे जाकर द्रेखते हैं तो ऐसे ही ख्याल आते हैं।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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1 जनवरी 2009

अंतर्जाल पर हिंदी भाषा को लेकर चर्चा-आलेख

क्या लेखक केवल लिखने के ही भूखे होते हैं? अधिकतर लोग शायद यही कहेंगे कि ‘हां’। यह बात नहीं है। सच तो यह लेखक को अपने लिखते समय तो मजा आता है पर लिखने के बाद फिर वह उसका मजा नहीं ले पाता। वह किसी का दूसरा लिखा पढ़ना चाहता है। उसमें भी यह इच्छा बलवती होती है कि किसी दूसरे का लिखा पढ़कर वह मजा ले। ऐसे में जब उसे कहंी मनोमुताबिक नहीं पढ़ने को मिलता तो फिर उसके अंदर तमाम तरह के विचार आते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह नये विषयों पर नये ढंग से विचार करने की मांग नये लेखकों से करता है। कहीं कुछ लेखक पुराने साहित्य को आगे लाने की बजाय नये प्रकार का साहित्य रचने का आग्रह नयी पीढ़े से करता है। यह किसी लेखक की पाठकीय भूख का ही परिणाम होता है।

अक्सर कुछ मूर्धन्य लेखक संभवतः अपनी बात ढंग से नहीं कह पाते और आलोचना का शिकार हो जाते हैं। आप कहेंगे कि आखिर मूर्धन्य लेखक कैसे अपनी बात नहीं कह पाते? वह तो भाषा में सिद्धहस्त होते हैं। नहीं! मन की बात उसी तरह बोलना या लिखना हर किसी के लिये संभव नहीं होता पाता। अगर हो भी तो यह जरूरी नहीं है कि वह समय पर उसी तरह कहा गया कि नहीं जैसे उनके मन में हैं।

भारत में हिंदी भाषा एक आंदोलन की तरह प्रगति करती हुई आई है। मजेदार बात यह है कि शायद यह विश्व की एकमात्र भाषा है जिसमें अध्यात्म और साहित्य एक ही श्रेणी में आ जाते हैं। हिंदी भाषा का स्वर्णकाल तो भक्तिकाल को ही माना जाता है क्योंकि इस दौरान ऐसा साहित्य जो न केवल मनभावन था बल्कि अध्यात्म रूप से भी उसका बहुत बड़ा महत्व था। इसके बाद के साहित्य ने हिंदी भाषा के विकास में अपना योगदान तो दिया पर उसका विषय प्रवर्तन समसामयिक परिस्थतियों के अनुसार होने के कारण उसमें आगे इतना महत्व नहीं रहा। फिर भारत के अधिकतर लोग वैसे ही अध्यात्म प्रवृत्ति के होते हैं इसलिये उनकी जुबान और दिल में भक्तिकाल का ही साहित्य बसा हुआ है। सूर,कबीर,रहीम,मीरा,और तुलसी जैसे लेखकों को लोग संत की तरह आज भी सम्मान देते हैं। सच कड़वा होता है और इसका एक पक्ष यह भी हे कि जैसी रचनायें इन महान लोगों ने जीवन रहस्यों को उद्घाटित करते हुए प्रस्तुत कीं उससे आगे कुछ बचा भी नहीं रहता लिखने के लिये।

आधुनिक हिंदी में अनेक लेखक हुए हैं पर उनको वह सम्मान नहीं मिल सका। इसका कारण यह भी है कि कहानियां, कवितायें,व्यंग्य,निबंध जो लिखे जाते हैं उनको तत्कालीन समय और समाज को दृष्टिगत रखते हुए विषय प्रस्तुत किया जाता है। समय और समाज में बदलाव आने पर ऐसी रचनायें अपना महत्व और प्रभाव अधिक नहीं रख पातीं। ऐसे में जिन लेखकों ने अपना पूरा जीवन हिंदी साहित्य को दिया उनके अंदर यह देखकर निराशा का भाव आता है जिससे वह उन महाल संत साहित्यकारों की रचनाओं से परे रहने का आग्रह करते हैं। इसके पीछे उनका कोई दुराग्रह नहीं होता बल्कि वह नहीं चाहते कि नयी पीढ़ी लिखने की उसी शैली पर दोहे या सोरठा लिखकर स्वयं को उलझन में डाले। इसके पीछे उनकी पाठकीय भूख ही होती है। वह चाहते हैं कि नये लेखक लीक से हटकर कुछ लिखें। देखा यह गया है कि अनेक लेखक भक्ति काल से प्रभावित होकर दोहे आदि लिखते हैं पर विषय सामग्री प्रभावपूर्ण न होने के कारण वह प्रभावित नहीं कर पाते। फिर दोहे का उपयोग वह हास्य या व्यंग्य के रूप में करते हैं। एक बात यह रखनी चाहिये कि भक्ति काल में जिस तरह काव्य लिखा गया उसके हर दोहे या पद का एक गूढ़ अर्थ है और फिर उनको व्यंजना विधा में लिखा गया। हालांकि अनेक दोहे और पद अच्छे लिख लेते हैं पर पाठक के दिमाग में तो भक्तिकाल के दोहे और पद बसे होते हैं और वह इसलिये वह नवीन रचनाकारों के दोहों और पदों को उसी शैली में देखता है। इस तरह देखा जाये तो लेखक अपनी मेहनत जाया करते हैं। एक तो पाठक काव्य को लेकर इतना गंभीर नहीं रहता दूसरा यह है कि लेखक ने गंभीरता से महत्वपूर्ण विषय लिया होता है वह भी उसमें नहीं रह जाता। शायर अनेक बड़े लेखकों के दिमाग में यह बातें होती हैं इसलिये ही वह भक्ति काल के साहित्य से पीछा छुड़ाने की सलाह देते हैं। मगर हम यह जो बात कर रहें हैं वह अंतर्जाल के बाहर की बात कर रहे हैें

अंतर्जाल पर हिंदी का रूप वैसा नहीं रहेगा जैसा कि सामान्य रूप से रहा है। कुछ लोगों को काव्य लिखना बुरा लगता है पर अंतर्जाल पर अपनी बात कहने के लिये बहुत कम शब्दों का उपयोग करना पहली शर्त है। एक व्यंग्य या कहानी लिखने के लिये कम से कम पंद्रह सौ शब्द लिखने पड़ते हैं पर अगर अंतर्जाल पर लिखेंगे तो तो पढ़ने के लिये पाठक तैयार नहीं होंगे। सच तो यह है कि अंतर्जाल पर तुकबंदी बनाकर कविता लिखना ज्यादा बेहतर है एक बड़ा व्यंग्य में समय बर्बाद करने के। यहां बड़ी कहानियों की बजाय लघुकथा या छोटी कहानियों से काम चलाना पड़ेगा। फिर मौलिक लेखन कोई आसान काम नहीं है। इसलिये कुछ लेखक पुराने साहित्यकारों की बेहतर रचनाओं को यहां लाने का प्रयास करेंगे। तय बात है कि भक्तिकाल का साहित्य उनको इसके लिये एक बेहतर अवसर प्रदान करेगा क्योंकि कम शब्दों में अपनी बात कहने का जो सलीका उस समय था वह अंतर्जाल के लिये बहुत सटीक है।

ऐसे में अंतर्जाल पर हिंदी रचनाओं की शैली,भाषा,विषय और प्रस्तुतीकरण को लेकर अंतद्वंद्व या चर्चा का दौर हमेशा ही चलता रहेगा। किसी एक की बात को मानकर सभी उसी की राह चलें यह संभव नहंी है। फिर वाद विवाद तो हिंदी में अनेक हैं पर मुख्य बात है प्रभावी लेखन और यहां पाठक ही तय करेंगे कि कौन बेहतर है कौन नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि ब्लाग लेखन एक स्वतंत्र प्रचार माध्यम है और इसे नियंत्रित कर आगे बढ़ाने का प्रयास करना संभव नहीं है पर एक आशंका हमेशा रहती है कि जब यह लोकप्रिय होगा तब इस पर नियंत्रण करने का प्रयास होगा क्योंकि दावे तमाम किये जाते हैं पर बौद्धिक वर्ग पर अन्य वर्ग हमेशा नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास करते है और बौद्धिक वर्ग के ही स्वार्थी तत्व इसमें सहायता करते हैं इस आशय से कि उनका अस्तित्व बचा रहे बाकी डूब जायें।
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