28 फ़रवरी 2010

बाघ बचाओ अभियान-हिन्दी व्यंग्य (tiger save mission-hindi satire)

जहां तक हमारी जानकारी है सिंह, बाघ तथा चीता एक ही प्रजाति के जीव माने जाते हैं और इनकी नस्ल अब समाप्ति की तरफ बढ़ रही है। आजकल ‘बाघ बचाओ का नारा’ अनेक बार हमारे सामने आ रहा है। कहीं लेख वगैरह छप रहे हैं तो कहीं अंतर्जाल पर ऐसी सामग्री दिखाई दी। सच तो यह कि हमने कोई लेख पढ़ा ही नहीं क्योंकि नारों के पीछे लोगों की सोच भी उतनी ही होती है जिसे ‘वाद’ भी कहा जाता है। एक पंक्ति का नारा और उस पर वाद प्रस्तुत करते हुए अनेक बातों के दोहराव से सजे लेख पढ़कर बोरियत होती है।
नारा पढ़कर हमारे समझ में यह नहीं आया कि केवल बाघ ही बचाना है या शेर और चीतेे के बचाव की भी सोचना है। मान लिया कि इन तीनों को ही बचाना है। फिर सोचा कि बचाना कहां जाकर है? वह संकट में कहां हैं, जहां जाकर उनकी रक्षा की जाये। पिछले कई बरसों से एक नारा लगाया रहा है ‘कन्या भ्रण बचाओ’। एक नारा आजकल दूसरा भी चल रहा है‘पेट्रोल बचाओ।’ गर्मी के दिनों में एक नारा सामने आता है कि ‘पानी बचाओ’। कोपेनहेगन में एक सम्मेलन हुआ था जिसमें नारा लगा था कि ‘प्रथ्वी को गर्म होने से बचाओ’। कुछ नारे तो समय के साथ स्वयं ही गायब हो जाते हैं। बरसात प्रारंभ होते ही ‘पानी बचाओ’ का नारा नदारत होता है। उसी तरह कोपेनहेगेन में ‘प्रथ्वी को गर्मी से बचाओ’ का नारा भी पूरे विश्व में बर्फबारी और ठंड के प्रकोप के चलते गायब हो गया। मजे की बात यह है कि इधर वह सम्मेलन खत्म हुआ उधर सर्दी ने अपना रंग दिखाया ।
‘बाघ बचाओ अभियान’ का एक आम आदमी हिस्सा कैसे हो सकता है? बाघ कोई पालतु पशु नहीं है कि वह सड़क पर घूमता हो और बच्चे वगैरह उसे पत्थर मारते हों। यह भी नहीं होता कि आम आदमी शेर, बाघ या चीते की खाल खरीदकर अपने घर में बिछाता है और इसलिये शेर या बाघ मारे जाते हों। यह तो अमीरों का शौक है।
सुना है चीन में शेर, बाघ और चीते के मांस और खालों की खपत बहुत है इसलिये भारत में उनका शिकार कर नेपाल के जरिये वहां उनका शव भेज दिया जाता है।
हवा में नारे उछालकर प्रचार माध्यमों से लोगों को दिमागी विलासिता में व्यस्त रखने का यह तरीका पुराना है। नारे लगाओ और लोग सुनते रहें। रोज कोई नारा सामने आ ही जाता है। जहां तक उस पर काम होने का सवाल है उस पर क्या लिखें? सभी जानते हैं। हमारे देश के अनेक धार्मिक प्रवृत्ति के लोग बरसों से ‘गाय बचाओ’ का नारा लगाते आ रहे हैं। अनेक संत और साधु अपने प्रवचनों में भक्तों से बहुत मार्मिक भाव से इसके लिये अपीलें करते हैं। कुछ संतों ने केवल इसी उद्देश्य को लेकर अभियान छेड़ा हुआ है। इधर जब उसकी जमीन सच्चाई को देखते हैं तो हैरानी होती है। जो लोग रोज उन संतों की बात सुनते हैं पर उस अमल नहीं करते। हमारे यहां धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि भोजन ग्रहण करने से पहले रोटी गाय के लिये जरूर निकालना चाहिये। इस पर कितने लोग अमल करते हैं? रोटी और पानी के लिये इधर उधर भटकती गायों का झुंड कहीं भी देखा जा सकता है। यह हालत तो तब है जब गाय की सेवा हमारी धाार्मिक पंरपरा का अटूट हिस्सा है। ऐसे में सिंह या बाघ की रक्षा आम आदमी कैसे करेगा?
प्रसंगवश सिंह माता की सवारी माना जाता है। फिर भी आम आदमी जब प्रतिदिन सामने दिखने वाली गाय के प्रति लापरवाह है तो बाघ की रक्षा करने की कैसे सोच सकता है जिसका प्रत्यक्ष दर्शन भी उसके लिये किसी पर्यटन स्थल या चिड़िया घर में पैसे खर्च करने पर ही हो सकता है।
शेर, बाघ या चीता संविधान द्वारा संरक्षित क्षेत्रों में ही पाये जाते हैं। समाचार माध्यमों के अनुसार अनेक शिकारी अवैध रूप से वहां प्रवेश कर उनका शिकार करते हैं। हमने टीवी चैनलों पर पुलिस द्वारा पकड़े गये अनेक शिकारियों पर अनेक बाघों की हत्या का अपराधी होने के आरोपों को देखा है। अनेक जगह संरक्षण करने वालों पर संदेह जताया जाता रहा है। कई बार तो ऐसे भी समाचार देखे हैं कि जितने सिंह बाघ बताये जा रहे हैं उतने वास्तव में कथित संरक्षित क्षेत्रों में मौजूद ही नहीं है।
दरअसल यह संकट वनों के सिकुड़ते दायरे की वजह से पैदा हुआ है। असम के कुछ इलाकों में हाथियों के आतंक के समाचार आते हैं तब लगता है कि जैसे वह खलनायक हों, पर ऐसा नहीं है। दरअसल इंसान उनके इलाकों में दाखिल हो गया है। हाथी को एक मस्त शाकाहारी जीव माना जाता है पर उसके लिये हरित प्रदेश कम होते जा रहे हैं। यह कमी शेर बाघ तथा चीत के अस्तित्व का भी संकट बन रही है। यह सच है कि शेर या बाघ घास नहीं खाते पर वह मासांहारी जीव हैं और उनके भोज्य जीव घास ही खाते हैं। सिंह प्रजाति के इन जीवों का संकट इसलिये खतरे में हैं क्योंकि उनके भोजन का भोजन कम होता जा रहा है। सिंह और बाघ अपने इलाके के ऐसे राजा माने जाते हैं जिनका अस्तित्व प्रजा के कारण ही होता है। वनों के हरिण, खरगोश, लोमड़ी, बंदर, तथा अन्य ढेर सारे पशु पक्षी सिंह प्रजाति के जीवों की प्रजा की तरह होते हैं। यह प्रजा ही लापता हो रही है तो राजा कहां से बचेगा?
ऐसे अभियान केवल प्रचार के लिये ही चलाये गये लगते हैं। वन संपदा पर संकट की चर्चा गाहे बगाहे अनेक पर्यावरण्विद् करते रहते हैं पर उनका कुछ होता नहीं। ऐसा लगता है कि यह हमारी आदत हो गयी है कि संकट आने से पहले सतर्कता नहीं रखेंगे जब आयेगा तब नारे लगायेंगे। वह भी ऐसे ही जिनको अमली जामा पहनाने की कोई खास योजना नहीं होती। दरअसल वंन संपदा की कमी तथा पर्यावरण प्रदूषण हमारी बहुत बड़ी समस्या है। उसके बाद शेर, बाघ और चीते को मारने वाले कोई आम आदमी नहीं है और न ही विदेश से आने वाले लोग हैं। अनेक लालची, लोभी, और दुष्ट प्रवृत्ति के लोग जल्दी और ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में उनकी हत्या करते हैं और उनका कड़ी सजा देने के साथ ही जिम्मेदार लोगों को अधिक सतर्कता से काम करने के लिये दबाव डालना चाहिए।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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22 फ़रवरी 2010

इल्जाम से डरते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (ilzam-hindi satire poem)

विश्वास तो करते हैं
पर साथ में धोखे की
गुंजायश भी रखते हैं।
वफा का आसरा करते हमेशा
पर घाव की मरहम भी साथ रखते हैं।
टूटे और बिखरे हैं कई बार
फिर भी कभी इरादा नहीं बदला
कोई हम पर धोखे और बेवफाई का इल्जाम लगाए
इस बात से डरते हैं।
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अपने गुस्से और घमंड से
लोगों को जिंदगी में हारते देखा है,
लूट के सामान से सजाया जिन्होंने घर अपना
बंद अंधेरी कोठरी में उनको रोते देखा है।
मेहनतकशों और ईमानदारों का
पसीना गिरते देखा जमीन पर
मगर आंसु बहाते किसी को नहीं देखा है।

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19 फ़रवरी 2010

तलवार और शायरी-हिन्दी काव्य (talvar aur shayri-hindi poem)

तलवार से एक कत्ल करोगे,
पर खुद भी कभी उसके वार से मरोगे।
अपनी शायरी से जीत लो दुनियां
अपना नाम अक्लमंदों की सूची में भरोगे।
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तलवारें है जिनके हाथ में
उन पर क्या भरोसा करना
कब कर बैठें वह अपने आदमी पर वार,
गरदना काटने पर बहादुरी
और कट जाने पर शहीद का दर्जा
भले ही जमाना देता है
पर शायरी से जीते हैं दिल जिन्होंने
उनको इतिहास अपने पन्नों में
हमदर्दों के रूप में दर्ज कर लेता है
सच कहा है कि किसी ने
लफ्ज़ों करते हैं जितना प्रहार
कर नहीं सकती वैसा तलवार।

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15 फ़रवरी 2010

अब वैसी नहीं रही मधुशाला-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (madhu shala-hindi comic poem)

बात हो गयी पुरानी,

नहीं लगती अब दिल को सुहानी,

कि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे

कराते आपस में बैर

जबकि मिलाती है मधुशाला।

अब तो मंदिर, मस्जिद और गुरुदारों की

जंगों के लिये योजनायें

बनाने के लिये सजती है मधुशाला।

पीने वाले भले ही

एकता के नारे लगाते हों

जमाने के जगाने के लिये

फिर वही जंग कराते हैं,

जिनको लोग भूल जाते हैं,

भला क्या लोगों को आपस में मिलायेंगी

अब वैसी नहीं रही मधुशाला।

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जमाने में ईमानदारी को लग गया जंग

वफादारी का रास्ता हो गया तंग

रिश्तों पर लग चुका दौलत का ताला।

महंगी गयी हो गयी मधु,

क्या ईमान जगायेगी,

कैसे वफादारी निभायेगी

हर साल ठेके पर टिकी

महंगे भाव बिकी

रोज मालिक बदलती, मधुशाला।

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12 फ़रवरी 2010

लोग खुद ही हंसते हैं-हास्य कवितायें (velantinday-hindi hasya kavita)

वैलेंटाइन डे पर वह

कुछ प्रेम इस तरह जताते हैं।

होली से पहले ही अपने इष्ट को

सरेराह मसखरी बनाते हैं।

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आया फंदेबाज और बोला

‘दीपक बापू,

आ रहा है वैलंटाईन डे

कोई जोरदार श्रृंगार रस से भरी

कविता कागज पर लिखकर

ब्लाग पर सजाना,

शायद लग जाये हिट का खजाना,

यह हास्य कवितायें लिखना

पुराने जमाने की बात है,

प्रेम के लिये रौशन है सभी के दिल

हास्य के लिये तो बस अंधेरी रात है,

तुम भी वही राह चलो

जिस पर चल रहा है जमाना।’

सुनकर पहले गंभीर हुए और फिर

मुस्कराते हुए कहें दीपक बापू

‘मुश्किल यह है कि

इस नये जमाने के प्रेम पर

हमको तो बस हंसी ही आती है

सरेराह गले में हाथ डालकर

घूमने में

या बार में बीयर पीने के

प्रेम से रिश्ते की बात हमारे

समझ में नहीं आती है।

खामोशी बोलती है

बंद आंखें भी राज खोलती हैं

प्रेम कोई ऐसी शय नहीं

जिसे बाजार में बेचने के लिये सजाना,

ऐसा करके बस यूं ही 

मुफ्त में जमाने को हंसाना।

फिर छोटे पर्दे पर

हर साल देखकर हमें होली की याद आती है

दृश्यों में कुछ भाग रहे हैं प्रे्रम करते हुए

पीछे विरोधी दौड़ रहे

आशिक माशुका भाग रहे डरते हुए,

इस धींगामुश्ती में होली की याद आती है

जो एक पखवाड़े बाद रंग दिखाती है,

कुछ लोग प्रेम पर बंदिश को लेकर करते स्यापा,

शब्दों के चयन में खो बैठते अपना आपा,

यह देखकर लोग खुद ही हंसते हैं

उन्हें भला क्या हंसाना।’

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6 फ़रवरी 2010

सपने ही सच के गवाह हो गए-हिंदी व्यंग्य कविताएँ (sapne aur sach-hindi hasya kavitaen)

कुछ मुद्दे हल ही नहीं हुए
पर हवा हो गये,
क्योंकि नये मुद्दों ने जन्म लिया
जो इंसान की दिमागी फितरतों की दवा हो गये।
ज़माना चला है ख्वाबों की राह
जहां सपने ही सच के गवाह हो गये।
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वादा कर वह भूल जाते हैं,
देने की लिए नया जो लाते हैं।
सुनने वाले भी भला कहाँ याद रखते
नए में मशगूल हो जाते हैं।
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2 फ़रवरी 2010

अंतहीन मुद्दे-हिन्दी आलेख (antahin mudde-hindi lekh)

समझ में नहीं आता क्या कहें और क्या नहीं! कुछ न कहें या चुप रहें। चारों तरफ द्वंद्व देखकर मन को दुःख होता है-‘अरे, यार यह लोग क्यों आपस में शाब्दिक युद्ध कर रहे हैं।’

मुद्दा क्या है, तर्क क्या है? समझ में नहीं आता। कुछ मसले तो कभी हल होने वाले नहीं है क्योंकि वह समाज को व्यस्त रखने के लिये बनाये गये हैं।’

एक मुद्दे पर बरसों हो गये एक तर्क देते हुए! दूसरे को भी वही वितर्क करते हुए बरसों हो गये। मामला सुलझने की बात आये तो लोग नाकभौं सिकोड़ते हैं क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो आगे बहस किस बात पर करेंगे।

हवा मे तीर चला रहे हैं क्योंकि अहिंसक प्रवृत्ति के हैं। दुश्मन कौन है, कोई दूसरा देश, समाज, परिवार या कोई पशु! बस लड़ रहे हैं! जिंदगी में मनोरंजन के लिये यह जरूरी है।  कोई देश को दुश्मन बताता है कोई वहां के लोगों को!  अनेक बार भ्रम होता है कि कोई देश बुरा है तो उसके लोग कैसे अच्छे हो सकते हैं और अगर लोग अच्छे हैं तो देश कैसे अच्छा हो सकता है।

इस देश में आजादी के बाद जितने भी मुद्दे पैदा हुए वह फिर कभी खत्म नहीं हुए।  उन पर बहस नित्य चलती हैं।  मुद्दे पैदा करने अपनी जगहों से हट गये पर उनकी चर्चा बराबर होती रही।  अनेक लोग उन मुद्दों पर लिखते पढ़ते स्वर्ग सिधार गये और अब उनकी पीढ़िया उन मुद्दों की चर्चा में व्यस्त हैं। कही बेटा तो कही भतीजा वारिस तो कहीं बेटी वारिस-धन के साथ उनको मुद्दे भी विरासत में मिलते हैं।  मुद्दा कोई भौतिक स्वरूप नहीं लेता पर वंशवादी इस देश में वह भी एक विरासत बन गया है।

ऐसे में किनारे पर खड़ा आदमी जानता है  कि वह मुद्दा केवल दिखावा है। मगर वह भी वहीं ध्यान लगाये खड़े हैं।  क्या करें, उनको कहीं ध्यान लगाना है।  वह सोचता है कि इसके अलावा क्या करे?  मुद्दा बिना मतलब का है पर है तो!  अगर न होता तो किसे देखते, किस पर चर्चा करते? एक खास वर्ग है जो चाहता है कि आम इंसान का ध्यान उस पर न जाये और उसका काम चलता रहे। उसका एक चाटुकार वर्ग है जो चाहता है कि उसका बौद्धिक विलास बना रहे और आम इंसान के ध्यान को अपनी तरफ खींचकर खास वर्ग का लक्ष्य पूरा करे। इसकी उसे कीमत मिलती है और    वही मुद्दे बनाता है और बेचता है। एक आम इंसान का वर्ग है जिसे मनोरंजन चाहिये। मनोरंजन यानि दिल बहलाने वाला मुद्दा।

मुद्दा बेचने वाले भी खूब हैं। यह अखबार, टीवी और फिल्म हैं ही इसलिये।  गरीब का कल्याण, महिलाओं का उद्धार, देशभक्ति, क्रिकेट, और भक्ति जैसे अंतहीन मुद्दे।  जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर झगड़े के मुद्दे।  बाजार के सौदागर मुद्दो को नवीन बनाये रखने के लिये उसका उठाने वाले चेहरे बदल लेते हैं।  इसमें पूरी तरह ईमानदार हैं। बाप ने अगर मुद्दा बनाया तो बदले चेहरे के रूप में बेटा लाते हैं। आपसी झगड़ा हो तो बेटी भी लाते हैं।  कहीं बहु, कहीं भतीजा-बस रक्त से उत्पन्न होने का आभास होना चाहिये। भांजा या भांजी नहीं चलेगी।

मुद्दों की महिमा अपरंपार है।  गरीबी कभी खत्म नहीं होगी। महिलाओं के साथ बदतमीजी पूरी तरह बंद नहीं होगी।  मजदूर का शोषण कभी खत्म नहीं होगा।  इस धरती पर कहीं स्वर्ग तो कहीं नरक हमेशा रहेगा क्योंकि इंसान खुद ही अपने कर्म से यह बनाता है। योगी जहां भी है स्वर्ग बनायेगा। भोगी जहां जायेगा नरक का निर्माण करेगा।  भोगी का कल्याण तब तक नहीं होगा जब तक योगी नहीं होगा मगर कुछ लोग हैं जो रोगियों को मद्दों की दवा पिला कर ठीक कर रहे हैं-यकीनन वह न चिकित्सक न चिंतक।  वह स्वयं ही रोगियों से भी बड़े रोगी हैं जो हमेशा रहने वाले मुद्दों के हल होने के ख्वाब देखते और दिखाते हैं।
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