समझ में नहीं आता क्या कहें और क्या नहीं! कुछ न कहें या चुप रहें। चारों तरफ द्वंद्व देखकर मन को दुःख होता है-‘अरे, यार यह लोग क्यों आपस में शाब्दिक युद्ध कर रहे हैं।’
मुद्दा क्या है, तर्क क्या है? समझ में नहीं आता। कुछ मसले तो कभी हल होने वाले नहीं है क्योंकि वह समाज को व्यस्त रखने के लिये बनाये गये हैं।’
एक मुद्दे पर बरसों हो गये एक तर्क देते हुए! दूसरे को भी वही वितर्क करते हुए बरसों हो गये। मामला सुलझने की बात आये तो लोग नाकभौं सिकोड़ते हैं क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो आगे बहस किस बात पर करेंगे।
हवा मे तीर चला रहे हैं क्योंकि अहिंसक प्रवृत्ति के हैं। दुश्मन कौन है, कोई दूसरा देश, समाज, परिवार या कोई पशु! बस लड़ रहे हैं! जिंदगी में मनोरंजन के लिये यह जरूरी है। कोई देश को दुश्मन बताता है कोई वहां के लोगों को! अनेक बार भ्रम होता है कि कोई देश बुरा है तो उसके लोग कैसे अच्छे हो सकते हैं और अगर लोग अच्छे हैं तो देश कैसे अच्छा हो सकता है।
इस देश में आजादी के बाद जितने भी मुद्दे पैदा हुए वह फिर कभी खत्म नहीं हुए। उन पर बहस नित्य चलती हैं। मुद्दे पैदा करने अपनी जगहों से हट गये पर उनकी चर्चा बराबर होती रही। अनेक लोग उन मुद्दों पर लिखते पढ़ते स्वर्ग सिधार गये और अब उनकी पीढ़िया उन मुद्दों की चर्चा में व्यस्त हैं। कही बेटा तो कही भतीजा वारिस तो कहीं बेटी वारिस-धन के साथ उनको मुद्दे भी विरासत में मिलते हैं। मुद्दा कोई भौतिक स्वरूप नहीं लेता पर वंशवादी इस देश में वह भी एक विरासत बन गया है।
ऐसे में किनारे पर खड़ा आदमी जानता है कि वह मुद्दा केवल दिखावा है। मगर वह भी वहीं ध्यान लगाये खड़े हैं। क्या करें, उनको कहीं ध्यान लगाना है। वह सोचता है कि इसके अलावा क्या करे? मुद्दा बिना मतलब का है पर है तो! अगर न होता तो किसे देखते, किस पर चर्चा करते? एक खास वर्ग है जो चाहता है कि आम इंसान का ध्यान उस पर न जाये और उसका काम चलता रहे। उसका एक चाटुकार वर्ग है जो चाहता है कि उसका बौद्धिक विलास बना रहे और आम इंसान के ध्यान को अपनी तरफ खींचकर खास वर्ग का लक्ष्य पूरा करे। इसकी उसे कीमत मिलती है और वही मुद्दे बनाता है और बेचता है। एक आम इंसान का वर्ग है जिसे मनोरंजन चाहिये। मनोरंजन यानि दिल बहलाने वाला मुद्दा।
मुद्दा बेचने वाले भी खूब हैं। यह अखबार, टीवी और फिल्म हैं ही इसलिये। गरीब का कल्याण, महिलाओं का उद्धार, देशभक्ति, क्रिकेट, और भक्ति जैसे अंतहीन मुद्दे। जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर झगड़े के मुद्दे। बाजार के सौदागर मुद्दो को नवीन बनाये रखने के लिये उसका उठाने वाले चेहरे बदल लेते हैं। इसमें पूरी तरह ईमानदार हैं। बाप ने अगर मुद्दा बनाया तो बदले चेहरे के रूप में बेटा लाते हैं। आपसी झगड़ा हो तो बेटी भी लाते हैं। कहीं बहु, कहीं भतीजा-बस रक्त से उत्पन्न होने का आभास होना चाहिये। भांजा या भांजी नहीं चलेगी।
मुद्दों की महिमा अपरंपार है। गरीबी कभी खत्म नहीं होगी। महिलाओं के साथ बदतमीजी पूरी तरह बंद नहीं होगी। मजदूर का शोषण कभी खत्म नहीं होगा। इस धरती पर कहीं स्वर्ग तो कहीं नरक हमेशा रहेगा क्योंकि इंसान खुद ही अपने कर्म से यह बनाता है। योगी जहां भी है स्वर्ग बनायेगा। भोगी जहां जायेगा नरक का निर्माण करेगा। भोगी का कल्याण तब तक नहीं होगा जब तक योगी नहीं होगा मगर कुछ लोग हैं जो रोगियों को मद्दों की दवा पिला कर ठीक कर रहे हैं-यकीनन वह न चिकित्सक न चिंतक। वह स्वयं ही रोगियों से भी बड़े रोगी हैं जो हमेशा रहने वाले मुद्दों के हल होने के ख्वाब देखते और दिखाते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियरमुद्दा क्या है, तर्क क्या है? समझ में नहीं आता। कुछ मसले तो कभी हल होने वाले नहीं है क्योंकि वह समाज को व्यस्त रखने के लिये बनाये गये हैं।’
एक मुद्दे पर बरसों हो गये एक तर्क देते हुए! दूसरे को भी वही वितर्क करते हुए बरसों हो गये। मामला सुलझने की बात आये तो लोग नाकभौं सिकोड़ते हैं क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो आगे बहस किस बात पर करेंगे।
हवा मे तीर चला रहे हैं क्योंकि अहिंसक प्रवृत्ति के हैं। दुश्मन कौन है, कोई दूसरा देश, समाज, परिवार या कोई पशु! बस लड़ रहे हैं! जिंदगी में मनोरंजन के लिये यह जरूरी है। कोई देश को दुश्मन बताता है कोई वहां के लोगों को! अनेक बार भ्रम होता है कि कोई देश बुरा है तो उसके लोग कैसे अच्छे हो सकते हैं और अगर लोग अच्छे हैं तो देश कैसे अच्छा हो सकता है।
इस देश में आजादी के बाद जितने भी मुद्दे पैदा हुए वह फिर कभी खत्म नहीं हुए। उन पर बहस नित्य चलती हैं। मुद्दे पैदा करने अपनी जगहों से हट गये पर उनकी चर्चा बराबर होती रही। अनेक लोग उन मुद्दों पर लिखते पढ़ते स्वर्ग सिधार गये और अब उनकी पीढ़िया उन मुद्दों की चर्चा में व्यस्त हैं। कही बेटा तो कही भतीजा वारिस तो कहीं बेटी वारिस-धन के साथ उनको मुद्दे भी विरासत में मिलते हैं। मुद्दा कोई भौतिक स्वरूप नहीं लेता पर वंशवादी इस देश में वह भी एक विरासत बन गया है।
ऐसे में किनारे पर खड़ा आदमी जानता है कि वह मुद्दा केवल दिखावा है। मगर वह भी वहीं ध्यान लगाये खड़े हैं। क्या करें, उनको कहीं ध्यान लगाना है। वह सोचता है कि इसके अलावा क्या करे? मुद्दा बिना मतलब का है पर है तो! अगर न होता तो किसे देखते, किस पर चर्चा करते? एक खास वर्ग है जो चाहता है कि आम इंसान का ध्यान उस पर न जाये और उसका काम चलता रहे। उसका एक चाटुकार वर्ग है जो चाहता है कि उसका बौद्धिक विलास बना रहे और आम इंसान के ध्यान को अपनी तरफ खींचकर खास वर्ग का लक्ष्य पूरा करे। इसकी उसे कीमत मिलती है और वही मुद्दे बनाता है और बेचता है। एक आम इंसान का वर्ग है जिसे मनोरंजन चाहिये। मनोरंजन यानि दिल बहलाने वाला मुद्दा।
मुद्दा बेचने वाले भी खूब हैं। यह अखबार, टीवी और फिल्म हैं ही इसलिये। गरीब का कल्याण, महिलाओं का उद्धार, देशभक्ति, क्रिकेट, और भक्ति जैसे अंतहीन मुद्दे। जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर झगड़े के मुद्दे। बाजार के सौदागर मुद्दो को नवीन बनाये रखने के लिये उसका उठाने वाले चेहरे बदल लेते हैं। इसमें पूरी तरह ईमानदार हैं। बाप ने अगर मुद्दा बनाया तो बदले चेहरे के रूप में बेटा लाते हैं। आपसी झगड़ा हो तो बेटी भी लाते हैं। कहीं बहु, कहीं भतीजा-बस रक्त से उत्पन्न होने का आभास होना चाहिये। भांजा या भांजी नहीं चलेगी।
मुद्दों की महिमा अपरंपार है। गरीबी कभी खत्म नहीं होगी। महिलाओं के साथ बदतमीजी पूरी तरह बंद नहीं होगी। मजदूर का शोषण कभी खत्म नहीं होगा। इस धरती पर कहीं स्वर्ग तो कहीं नरक हमेशा रहेगा क्योंकि इंसान खुद ही अपने कर्म से यह बनाता है। योगी जहां भी है स्वर्ग बनायेगा। भोगी जहां जायेगा नरक का निर्माण करेगा। भोगी का कल्याण तब तक नहीं होगा जब तक योगी नहीं होगा मगर कुछ लोग हैं जो रोगियों को मद्दों की दवा पिला कर ठीक कर रहे हैं-यकीनन वह न चिकित्सक न चिंतक। वह स्वयं ही रोगियों से भी बड़े रोगी हैं जो हमेशा रहने वाले मुद्दों के हल होने के ख्वाब देखते और दिखाते हैं।
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