26 दिसंबर 2013

ज़माने के दिल में नफरत की आग-हिन्दी व्यंग्य कविता(zamane ke dil mein nafarat ki aag-hindi vyangya kavita)



दर्द जमाने में बहुत है
बगावत हर दिल में बसी है,
फरिश्तों का मुखौटा लगा लिया
जिन इंसानों ने
उनकी नीयत शैतानियत में फसी है।
कहें दीपक बापू
पैसे की भूख जिनकी कभी मिटी नहीं
वही लोगों को रोटी देने का
भरोसा दे रहे हैं,
दान के लिये ठेका लेकर
चंदा उगाही की दौड़ में भाग ले रहे हैं,
किसी  बीमारी का इलाज
जिनके पास नहीं है
वही दवा देने के दावे करते हैं,
भलाई के व्यापार में
दरियादिल वही मशहूर हुए
अपने घर के खजाने जो भरते हैं,
अपनी शान-ओ-शौकत में
मशगूल लोगों समझ
आम इंसानों को बुजदिल और बेजुबान
नहीं मालुम उनको
ज़माने के दिलों में
नफरत की कितनी आग बसी है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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10 दिसंबर 2013

परतंत्रता और स्वतंत्रता का मूल अर्थ समझना होगा-हिन्दी चिंत्तन लेख(gulami aur aazadi ka matlab samajhana hoga-hindi chinnttan lekh)



            हमारा देश अंग्रेजों की राजनीतिक दासता से तो मुक्त हो गया पर जीवनशैली, भाषा, रहन सहन तथा वैचारिक शैली की दृष्टि से हमारा पूरा समाज आज भी उनका गुलाम है। स्थिति यह है कि हिन्दी भाषा का उपभोक्ता बाज़ार इतना बड़ा हो गया है पर उसका आर्थिक दोहन वह लोग कर रहे हैं जो अंग्रेजी के गुलाम है। स्थिति यह है अंग्रेजी भाषा तथा जीवनशैली अपनाने वालों को हमारे यहं सभ्रांत माना जाता है। इतना ही नहीं हिन्दी धारावाहिकों, फिल्मो तथा साहित्य में प्रसिद्धि पाये अनेक लोगों को अपने टीवी साक्षात्कारों में अंग्रेजी भाषा बोलते देखना पड़ता है।  अंग्रेजी भाषा तथा जीवनशैली  का वर्चस्व चारों ओर दिखाई देता है। पहनावे के लिये पश्चिमी परिधानों को अपनाया जा रहा है तो खानपान में भी यही फास्ट फूड जैसे पदार्थों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है।  उससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि समाज  अपने सांस्कारिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक कार्यक्रमों में अंग्रेजी प्रक्रिया का पालन करने की प्रवृत्ति को सहजता से मान्यता दी है।  यह सब तो चल सकता है पर मुख्य विषय यह है कि हमारे यहां अब लोग अपने छोटे व्यवसायों से अलग होकर नौकरी यानि गुलामी  पर आश्रित हो रहे हैं।  जो आदमी योग्यता की दृष्टि से निम्न या मध्यम स्तर का है वह देश में तो जो उच्च है वह विदेश में नौकरी की प्रतीक्षा कर रहा है। एक तरह से देश का जनमानस ही परतंत्रता के भाव में सांस ले रहा है।  स्वतंत्र चिंत्तन, कर्म, विचार तथा अभिव्यक्ति का मतलब ही लोग नहीं समझ पा रहे।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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द्वधीभावौ द्वियाः प्रोक्तःस्वतन्त्रपरतन्त्रयो।
स्वतंन्त्र उक्ते द्वान्यस्तु यः स्वादुभववेतनः।।
            हिन्दी में भावार्थ-स्वतंत्र और परतंत्र के भाव में भेद बस इतना ही है कि अपनी अधीन स्वतंत्र व्यक्ति होता है दूसरे के अधीन आसरा ढूंढता है
            15 अगस्त को मनाया जाने वाला स्वतंत्रता दिवस केवल राजनीतिक और प्रशासनिक दासता से मुक्ति का प्रतीक हो सकता है पर वह मानसिक स्वतंत्रता का परिचायक कतई नहीं है। हम यह भी देख रहे हैं कि अनेक व्यवसायिक परिवारों के लोग नौकरियों में घुस गये है। सबसे ज्यादा हंसी महिलाओं के हितों के संरक्षण की बात करने वालों पर आती है। वह घर गृहस्थी में कार्यरत महिलाओं को पुरुष की दासता से मुक्त करने की बात कहते हैं। उनको लगता है कि अपने परिवार के लिये खाना बनाना, बर्तन मांजना या घर मे झाड़ू लगाना उनकी गुलामी का प्रमाण है। वह घर के बाहर नौकरी करने वाली महिलाओं को स्वतंत्र कहते हैं। सीधी बात कहें तो परंपरागत ढंग से मजदूरी, छोटे व्यवसाय तथा उद्यम करने वाले पुरुष तथा घर परिवार संभालने वाली स्त्रियां इन विदुषकनुमा बुद्धिजीवियों के लिये परंतत्रता का परिचायक है।  कंपनियों की अस्थाई नौकरी करने वाले लोग उनके लिये स्वतंत्र और सभ्य हैं। अपने परिवार से सदैव हमदर्दी रखने वाली स्त्री उनके लिये एक गुलाम है और बाहर जाकर दूसरों की नौकरी करने वाली एक स्वतंत्र स्त्री है।  जबकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि दूसरे की नौकरी करना या पराये घर में अपना आसरा ढूंढना एक तरह से परतंत्रता है। स्वतंत्र व्यक्ति को अपना जीवन, कर्म, विचार तथा व्यवहार हमेशा स्वतंत्र भाव से करना चाहिये।  इसी स्वतंत्र भाव से मनुष्य के अंदर आत्मविश्वास भी पैदा होता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
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