21 नवंबर 2010

ईश निंदा रोकने के कानून से धर्म के ठेकेदारों की रक्षा-हिन्दी लेख (dharma ki ninda aur aur abhivyakti-hindi lekh)

पाकिस्तान में एक ईसाई महिला ने राष्ट्रपति से क्षमादान की अपील की है। उस पर ईश निंदा के तहत मामला दर्ज था और जाहिर है सजा मौत से कम क्या हो सकती है? उस पर तरस आया क्योंकि उसकी स्थिति इस दुनियां के शर्म की बात है? आखिर यह ईश निंदा का मामला क्या है? पाकिस्तान तो मज़हबी राष्ट्र होने के कारण बदनाम है पर दुनियां के सभ्य देश भी धार्मिक आलोचना को लेकर असंवेदनशील है। जब अपने देश में देखता हूं तब यह सोचता हूं कि किसी भी धर्म की आलोचना किसी को भी करने की छूट होना चाहिए! अगर किसी धर्म की आलोचना या व्यंग्य से बवाल फैलता है तो रचनाकार पर नहीं बल्कि उपद्रव करने वालों पर कार्यवाही करना चाहिए। कुछ लोग शायद इसका विरोध करें कि अभिव्यक्ति की सुविधा का लाभ इस तरह नहीं उठाना चाहिए कि दूसरे की धाार्मिक आस्था आहत हो।
जिन लोगों ने इस लेखक के ब्लाग पढ़े हैं उनको पता होगा कि उन पर हिन्दू धर्म से संबंधित बहुत सारी सामग्री है। महापुरुषों के संदेश वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या सहित अनेक पाठ प्रकाशित हैं! सामान्य भाषा में कहें कि यह लेखन धार्मिक प्रवृत्ति का है और आस्था इतनी मज़बूत है कि इंटरनेट पर हिन्दू धर्म की निंदा पढ़कर भी विचलित नहीं होती। वजह साफ है कि अपने धर्म के मूल तत्व मालुम है और यह भी कि आलोचक तो छोड़िये धर्म के प्रशंसक भी उनको नहीं समझ पाते। आलोचक भारतीय धर्मग्रंथों के वही किस्से सुनाकर बदनाम कर रहे है जिनको पढ़ते सुनते भी तीस बरस हो गये हैं। मुख्य बात तत्व ज्ञान की है जिसे भारतीय क्या विदेशी तक भागते नज़र आते हैं।
ईश या धर्म निंदा पर हमला या कार्यवाही करना इस बात का प्रमाण है कि हमारी आधुनिक सभ्यता पहले से कहीं अधिक असहिष्णु हुई है। अगर आज कबीरदास जी होते तो पता नहीं उन पर कितने मुकदमे चलते और शायद ही उनको कोई वकील मुकदमा लड़ने के लिये नहीं मिलता। स्थिति यह है कि हम उनके कई दोहे इसलिये नहीं लिखते क्योंकि असहिष्णुता से भरे समाज में ऐसी लड़ाई अकेले लड़ना चाणक्य नीति की दृष्टि से वर्जित है।
आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में धर्म के ठेकेदारों के माध्यम से समाज को नियंत्रित किया जा रहा है। वह समाज की बजाय राज्य से अधिक निकट हैं और उसकी वजह से उनको अपना नियंत्रण करना आसान लगता है। सर्वशक्तिमान के किसी भी स्वरूप के नाम का दरबार बना लो, चंदा आयेगा, राज्य भी सहायता देगा और जरूरत पड़ी तो बागी पर ईश निंदा का आरोप लगा दो। सच बात तो यह है कि महापुरुषों के नाम पर धर्म चलाने वाले ठेकेदार अपनी राजनीति कर रहे हैं। आखिर ईश निंदा को खौफ किसे है? हमें तो नहीं है। मनुस्मृति पर इतनी गालियां लिखी जाती हैं पर इस लेखक ने उनके बहुत सारे संदेशों को पढ़ा है जो आज भी प्रासांगिक है उनको छांटकर व्याख्या सहित प्रकाशित किया जाता है। मनुस्मृति के समर्थकों का कहना है कि उसमें वह सब बातें बाद में जोड़ी गयी हैं जिनकी आलोचना होती है। इसका मतलब साफ है कि किसी समय में राज्य की रक्षा की खातिर ही विद्वानों से वह सामग्री बढ़ाई गयी होगी।
यह आश्चर्य की बात है कि जो पश्चिमी देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं वह उसे इस कानून को हटाने का आग्रह नहीं करते क्योंकि उनको भी कहीं न कहीं उसके धर्म की सहायता की आवश्यकता है। उसके सहधर्मी देशों में तेल के कुऐं हैं जो इस तरह के कानूनों के हामी है और पश्चिमी देशों के तेल तथा धन संपदा के मामले में सहायक भी हैं। इतना ही नहीं पश्चिमी देश भी अपने ही धर्म की आलोचना सहन नहीं  कर पाते। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि वह आधुनिक सभ्यता के निर्माण के बहाने अपना धर्म बाज़ार के माध्यम से ला रहे हैं।
आखिर धर्म के ठेकेदार ऐसा क्यों करते हैं? अपने धर्म की जानकारी किसी ठेकेदार को नहीं है। समयानुसार वह अपनी व्याख्या करते हैं। अगर बागी कोई माफिया, नेता या दौलत वाला हुआ तो उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं पर आम आदमी हुआ तो उस राज्य का दंडा चलवाते हैं। यह अलग बात है कि आज समाज के शिखर पुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं धर्म के ठेकेदारों को समाज पर लादते हैं जो उनके हितैषी हैं। दूसरी बात यह भी है कि भारतीय अध्यात्म को छोड़ दें तो विश्व की अधिकतर विचाराधारायें नये संदर्भों के अप्रसांगिक होती जा रही हैं। भारतीय अध्यात्म में श्रीमद्भागवत गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है जो आज भी निर्विवाद है। उसके बाद आता है पतंजलि योग दर्शन का नंबर। रामायण, वेद, उपनिषद, पुराण, रामचरित मानस तथा अन्य बहुत सारे ग्रंथ हैं पर अपने रचनाकाल के परिप्रेक्ष्य में उनकी संपूर्ण सामग्री भले ही श्रेष्ठ रही हो पर कालांतर में समाज के बदलते स्वरूप में उनमें वर्णित कई घटनायें तथा दर्शन अजीब लगता है। संभव है कि रचना के बाद कुछ ग्रंथों में बदलाव हुआ हो या फिर उनका भाव वैसा न हो जैसा हम समझते हैं, पर उनकी आलोचना होती है। होना चाहिए और इसका उत्तर देना आना चाहिए। वेदों की आलोचना पर तो इस लेखक का स्पष्ट कहना है कि श्रीमद्भागवत गीता में सभी ग्रंथों का उचित सार शामिल हो गया है इसलिये उसके आधार पर वेदों का अध्ययन किया जाये। मज़े की बात यह है कि हिन्दू धर्म का कोई भी आलोचक श्रीमद्भागवत गीता को नहीं पढ़ता जिसमें भेदात्म्क बुद्धि को अज्ञान का प्रतीक माना गया है। मतलब मनुष्य में जाति, धर्म, लिंग, भाषा, धन तथा शिक्षा के आधार पर भेद करना और देखना ही तामस बुद्धि का प्रमाण है।
भारत में ऐसे सारे कानूनों पर भी विचार होना चाहिए जो धार्मिक आलोचना को रोकते हैं। यह जरूरी भी नहीं है कि किसी धर्म की आलोचना उस धर्म का ही आदमी करे दूसरे को भी इसका अधिकार होना चाहिए। दंगे फैलने की आशंका का मतलब यह है कि कहींे न कहीं हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि राज्य ऐसे झगड़ों से निपटने के लिये तैयार नहीं है। धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर मलाई तो खाते हैं पर आलोचना का प्रतिकार करने की क्षमता उनमेें नहीं है। इस समय देश में जो वातावरण है वह दमघोंटु बना दिया गया है। कहीं किसी को तस्वीर से एतराज है तो कहीं किसी को निबंध से चिढ़ होती है। जो दावा करते हैं कि हमारा समाज नयापन और खुलापन ले रहा है वह इस बात को भूल जाते हैं कि संत कबीर और रहीम ने बहुत पहले ही सभी धर्मो और उनके ठेकेदारों पर उंगली उठाई है। आज की पीढ़ी खुलेपन वाली है तो फिर यह धार्मिक आलोचना पर रोक लगाने का काम क्यों और कौन कर रहा है? हमारा मानना है कि जो धार्मिक ठेकेदार मलाई खा रहे हैं उनको इन आलोचनाओं के सामने खड़ा कर उसका मुकाबला करने के लिये प्रेरित या बाध्य करो। यह क्या हुआ कि शंाति भंग की आशंका से ऐसे मामलों में कार्टूनिस्टों, लेखकों और पत्रकारों पर कार्यवाही की जाये?
भारत के बुद्धिजीवी पाकिस्तान की कार्यप्रणाली पर टिप्पणियां तो करते हैं पर अपने देश की स्थिति को नहीं देखते जहां धर्म के नाम पर आलोचना रोककर अभिव्यक्ति को आतंकित किया जा रहा है। पाकिस्तान में तो यह आम हो गया है। अगर समाचार पत्रों में छपी विभिन्न खबरों को देखें तो ऐसा लगता है कि लोग अपनी धार्मिक किताब को कबाड़ी के यहां बेच देंगे। उसमें अगर अपने धर्म का आदमी सेव बेचे तो कोई बात नहीं अगर दूसरा बेचे तो लगा दो ईश निंदा का आरोप। मज़े की बात यह कि यह खबर भारत में पढ़ी है पर उसमें ईश निंदा लिखी है पर यह नहीं बताया कि वह किस तरह की है। स्पष्टतः डर की वजह से यह छिपाया गया है। यह खौफ खुलेपन के दावे की पोल खोलकर रख देता है। क्या यह माना जाये कि इस देश में दो तरह के लोग रहते हैं एक असहिष्णु और दूसरे डरपोक।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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5 नवंबर 2010

बाज़ार का शिखर सम्मेलन-हिन्दी हास्य व्यंग्य (bazar ka shikhar sammelan-hindi hasya vyangya)

दो इंसानी बुत शिखर पर बैठे थे। नीचे तलहटी में बाज़ार चल रहा था। छोटे और बड़े व्यापारियों के बीच जगह को लेकर खींचतान तेज हो गयी थी। बड़े व्यापारियों के एक प्रतिनिधि ने छोटे व्यापारियो के प्रतिनिधि से कहा कि ‘देखो उधर शिखर पर बैठे दो महान लोग इसी विषय पर चर्चा कर रहे हैं और जब कोई समझौता हो जायेगा तब इस बाज़ार में तुम्हें कहां जगह दी जाये इसका फैसला होगा।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘पर यह दोनों बूढ़े महानुभाव कौन है? हम तो इनको जानते भी नहीं।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘यह बाज़ार दो हिस्सों में बंटा है। दोनों हीे अपने अपने हिस्से के मालिक हैं। वह दोनों चर्चा कर रहे हैं कि बड़े और छोटे व्यापारियों में कैसे जगह का बंटवारा हो।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘यह बाज़ार तो सार्वजनिक है। इसके मालिक कहां से आ गये। लगता है कि तुम बड़े व्यापारियों की सोची समझी साजिश है! यह कोई छद्म मालिक हैं जो तुमने बनवाये हैं। छोटे व्यापारियों को निपटाने की तुम्हारी योजना हम सफल नहीं होने देंगे!
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘बकवास बंद करो। यह दोनों बाज़ार के सदस्यों के वोट से बने हैं। यहां आने वाले ग्राहकों, सौदागरों, और दलालों ने इनको बनाया है।’
छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘हम भी तो यहां आते हैं, पर हमने वोट नहीं दिया।’
बड़े व्यापारियों ने कहा-‘यह तुम जानो! तुमने वोटर लिस्ट में नाम नहीं लिखाया होगा। वैसे भी तुम सात दिन में एक बार यहां आते हो, पर हम तो यहां रोज चक्कर लगा जाते हैं कि कहीं बाज़ार पर किसी ने कब्जा तो नहंी कर लिया। कई बार बाहरी लोग भी आकर यहां जमने का प्रयास करते हैं हम ही उनको भगाते हैं। अब अधिक विवाद न करो, वरना तुम्हें भी बाहरी घोषित कर देंगे। अशांति फैलाने और अतिक्रमण के आरोप में बंद करवा सकते हैं। हां, तुम अपने साथियों से अलग होकर कोई फायदा लेना चाहो तो इसके लिये हम तैयार हैं। उन सबको तो तलहटी में भी दूर नाले के पास जगह देंगे। तुम्हें जरूर अच्छी जगह सहयोग देने पर प्रदान कर सकते हैं।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने छोटे व्यापारियों के प्रतिनिधि को कुछ धमकाया और कुछ समझाया। वह वापस लौट आया।
उसने वापस आकर अपने साथियों को अपनी बात अपने तरीके से समझाई। अलबत्ता अपने फायदे वाली बात वह छिपा गया। अब छोटे व्यापारी शिखर की तरफ देखने लगे। कुछ तो शिखर पर चढ़कर यह देखने चले गये कि दोनों कर क्या कर रहे हैं? कुछ को ख्याल आया कि चलकर उनसे सीधी बात कर लें।
वहां जाकर देखा तो दोनों चाय पी रहे थे। वहां खड़े सुरक्षा कर्मियों ने उनको घेर रखा था। इसलिये छोटे व्यापारी उनके पास जा नहीं सकते थे। अलबत्ता दूर से उनको कुछ दिखाई और सुनाई दे रहा था।
एक इंसानी बुत कह रहा था ‘यार, चाय तो हमारे घर के नीचे होटल वाला बनाता है। मैं तो उससे मंगवाकर पीता हूं। समोसा तो तुम्हारे वाले हिस्से में एक हलवाई बनाता है और मेरा सारा परिवार उसका प्रशंसक है।’’
दूसरा बोलने लगा-‘अच्छा! वैसे तुम्हारे हिस्से में एक कचौड़ी वाला भी है जो इतनी खस्ता बनाता है कि जब तक मेरी पत्नी सुबह मंगवाकर खाती नहीं है तब तक उसको चैन नहीं पड़ता। मेरी बेटी भी उसकी फैन है।’
वह तमाम तरह की बातें कर रहे थे, पर नहीं हो रही थी तो छोटे व्यापारियों की जगह की बात! बहुत सारी इधर उधर की बातें करने के बाद दोनों  उस मार्ग से निकल गये जहां लोगों की उपस्थित नगण्य थी।
इधर छोटे व्यापारी लौटकर आये तो बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने उनको बताया कि समझौता हो गया है और जल्दी घोषित हो जायेगा।
छोटे व्यापारियों ने कहा-‘यह तो बताओ, समझौता हुआ कब! हमने तो दोनों की बातें सुनी थी। दोनों यहां के बूढ़े बाशिंदे हैं जो अभी बहुत दिन बाहर रहने के बाद यहां लौटे हैं और बाज़ार के मालिक कैसे बन गये हमें पता नहीं! अलबत्ता दोनों के बीच बाज़ार के बारे में नहीं बल्कि दुकानों पर मिलने वाले सामान की चर्चा हुई।
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा-‘देखो, अधिक बकवास मत करो। दोनों महान हैं! इसलिये ही तो शिखर पर बैठ कर बात करते हैं। तुम्हारी तरह नहीं कि चाहे जहां बकवास करने लगे।’’
छोटे व्यापारियों में से एक ने कहा-‘तुम चाहे कुछ भी करो, हम तो बाज़ार के मुख्य द्वार पर ही दुकानें लगायेंगे जैसे कि पहले लगाते थे।’
बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि ने कहा कि ‘ज्यादा गलतफहमी नहीं पालना! यहां के रखवाले भी हमारे से चंदा पाते हैं इसलिये उनका लट्ठ भी तुम पर ही चलेगा। वह इंसानी बुत हमारे कहने से शिखर पर चढ़े थे और उतर गये। तुम इस शिखर सम्मेलन का मतलब तब समझोगे जब इसका नतीजा सुनने को मिलेगा।’
इतने में छोटे व्यापारियों का प्रतिनिधि भी वहां आया और बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि के गले मिला। दोनों के बीच में दो नये लोग थे जो शायद प्रवक्ता थे। उन दोनों ने घोषणा की कि ‘शिखर सम्मेलन में समझौते के अनुसार छोटे व्यापारियों को एकदम पीछे जगह दी जायेगी। सबसे पहले बड़े व्यापारी, फिर उनके मातहतों तथा उसके बाद उनके ही दलालों को दुकान लगाने की अनुमति मिलेगी। इसके बाद जो जगह सबसे पीछे बचेगी वह छोटे व्यापारियों को देने का अनुग्रह स्वीकार कर लिया गया है और यह इस सम्मेलन की उपलब्धि है।’
बड़े व्यापारियो, उनके मातहतों तथा दलालों ने जोरदार तालियां बजाई। छोटे व्यापारी चिल्लाने लगे कि ‘हम आग्रह नहीं हक मांग रहे थे। वैसे भी यह बाज़ार सार्वजनिक है और इस सभी का हक है। हम नहीं मानेंगे इस समझौते को!’
छोटे व्यापारियों का प्रतिनिधि अपने साथियों ने बोला-‘देखो भई, भागते भूत की लंगोटी ही सही। अगर इस बाज़ार में बने रहना है तो कोई भी जगह ले लो वरना बड़े व्यापारी उसे भी हड़प लेंगे।’
छोटे व्यापारियों का गुस्सा अपने प्रतिनिधि पर फूट पड़ा। वह उसे मारने के लिये पिल पड़े तो बड़े व्यापारियों के लट्ठधारी रक्षकों ने उसको बचाया। बाहर से पहरेदार भी आ गये। तब छोटे व्यापारी सहम गये। उस समय सारा माज़रा देख रहे एक बुद्धिमान ने छोटे व्यापारियों से कहा-‘तुम लोगों ने इस बाज़ार को बसाया पर अब इसे बड़े व्यापारियों ने हथिया लिया है। तुम तो जानते ही हो कि इस संसार में बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। यही हाल है। यह तो तुम मगरमच्छ बन जाओ या घास की तरह झुकने सीख लो।’
एक छोटे व्यापारी ने उससे पूछा-‘यह शिखर सम्मेलन क्या हुआ? हम तो कुछ समझे ही नहीं। वहां हमने इंसानी बुतों को कोई समझौता करते हुए नहीं देखा। एक बोलता तो दूसरा सोता था और दूसरा बोलता तो पहला सोता था।’
बुद्धिमान ने कहा-‘मित्र, वह इंसानी बुत इन बड़े व्यापारियों ने ही वहां भेजे थे। जो इन्होंने तय किया उसमें उनकी दिलचस्पी नहीं थी! वह तो इस बारे में कुछ नहीं  जानते थे। मालिक तो वह नाम के हैं, वास्तव में तो वह इन बड़े व्यापारियों के प्रायोजित इंसानी बुत थे।
एक छोटे व्यापारी ने कहा-‘पर इन दोनों की मुलाकात को शिखर सम्मेलन क्यों कहा गया।’
बुद्धिमान ने कहा-‘बड़े लोगों की आदत है कि वह महान होते नहीं  पर दिखना चाहते हैं। तलहटी में भी जिनको कोई नहीं पूछता उनको शिखर पर बैठकर ही इज्ज़तदार बनाकर लाभ उठाया जा सकता है। लोगों से दूरी उनको बड़ा बनाती है और शिखर पर बैठने से उनकी बात में वज़न बढ़ जाता है भले ही फैसले सड़कछाप लोग सड़क पर प्रायोजित कर लेते हैं।’
छोटे व्यापारियों के पास कोई मार्ग नहीं था। शिखर सम्मेलन ने उनको तलहटी में भी बहुत नीचे दूर नाले के पास पहुंचा दिया था।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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