30 जून 2009

अंतर्जाल का इश्क, आशिक और माशुका-हास्य व्यंग्य

आशिक और माशुका ने अपने प्यार के प्रचार के लिये एक ब्लाग संयुक्त ब्लाग इस आशा के साथ बनाया कि वह अगर हिट हो गया तो उससे उनको कमाई होगी जिसमें से पैसा जोड़कर अपना घर बसायेंगे। दोनों का संयुक्त ब्लाग था और उन्होंने तय कर रखा कि किसी दूसरे को टिप्पणी नहीं लिखने देंगे। इसी कारण उन्होंने टिप्पणी लिखने के विकल्प में ब्लाग लेखक ही दर्ज कर रखा था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अनाम और छद्म ब्लाग लेखकों की नजर में यह सब आ गया। हुआ यूं कि दोनों ही अंतर्जाल पर जाकर दूसरों के ब्लाग पर भी व्यंग्यतात्मक टिप्पणियां लगाने लगे। अगर यह काम वह धर्मवादी ब्लाग पर करते तो ठीक था पर उन मासूम प्रेमियों ने नारीवादी और विकासवादी ब्लाग लेखकों के ब्लाग पर यह काम किया।
कहने को वह भले लोग थे पर जिस तरह उनका प्रेमपाठ और टिप्पण उस ब्लाग पर चल रहा था वह उनसे टिप्पणी प्राप्त ब्लाग लेखकों को सहन नहीं हुआ।
एक अनाम ब्लाग लेखक ने छद्म पुरुष का नाम लिखकर आशिक को समझाया-अरे, भई इससे तुम्हें कोई फायदा नहीं होगा? लोग तुम्हें कमाई कराना चाहते हैं। इसलिये अपने ब्लाग पर संवाद सभी के लिये खुला रखो।’
आशिक ने लिख भेजा-
‘ऐसी तैसी में गयी कमाई
रोज देखता हूं दूसरे ब्लाग पर
कमाई के हजार नुस्खे
पर किसी की जेब भरी नजर नहीं आई।
बड़ी मुश्किल से
कोई माशुका हाथ आई।
पता लगा कि जैसे ही खोली
सभी के लिये टिप्पणियों की खिड़की
ले उड़ा मेरी माशुका को कोई अनाम भाई।’

वह बिचारा हास्य कवि था। उस मासूम को पता ही नहीं था कि उसने क्या कर डाला था। अब तो अनाम ब्लाग लेखक को गुस्सा आ गया। उसने फौरन लड़की का छद्म नाम लिखकर लड़की को ऐसा ही संदेश भेजा।
लड़की को केवल टिप्पणी लिखना ही आती थी। उसने जवाब में लिख भेजा कि ‘कोई टिप्पणी नहीं।’
अब तो अनाम ब्लाग लेखक का पारा चढ़ गया। उसने फौरन एक दूसरे छद्म लेखक को संदेश भेजा कि-‘यह कैसे हो सकता है कि हम इतने पुराने लोेग और नये ब्लाग लेखकों में इतनी हिम्मत आ गयी कि वह हमारी सुन नहीं रहे। अपनी प्रतिष्ठा के लिये इनके प्रेम पाठ में खलल डालना ही होगा। दोनों की प्यार भरी बातों को पढ़कर लोग मजे ले रहे हैं और अपने ब्लाग फ्लाप होते जा रहे हैं।’
इधर छद्मनामधारी ब्लाग लेखक भी किसी नये अभियान के लिये तैयार बैठा था।
उसने लड़की का नाम लिखकर लड़के को प्यार से संदेश भेजा और कहा-‘अरे जनाब आप यह क्या कर रहे हैं। हम आपका अमर प्रेम देखकर बहुत खुश हैं पर इसका लाभ तभी है कि जब दूसरे लोग आपके ब्लाग पर अपनी बात रखें। आपने तो अपने प्रोफाइल में ही लिखा हुआ है कि आप अपने प्यार के प्रचार से कमाना चाहते हैं फिर यह टिप्पणी से पर्दा क्यों? आप बेफिक्र रहिये। मैं एक तकनीक विशेषज्ञ ब्लाग लेखिका हूं। अगर किसी ने एैसी वैसी हरकत की तो उसका आई पी पता निकालकर आपको दूंगी। उसका नाम अपने ब्लाग पर छाप दूंगी। आप डरिये नहीं।
आशिक जाल में फंस गया। उधर ऐसा ही संदेश उसी दूसरे छद्म ब्लाग लेखक ने माशुका को पुरुष नाम से भेजा। साथ में लिखा कि ‘मैं तुम्हें बहुत स्नेह करता हूं पर हां, यहां भाई या अंकल के संबोधन से नहीं पुकारा जाता यह बात ध्यान रखना।’
आशिक माशुक ने अपने ब्लाग को सार्वजनिक रूप से टिप्पणियों के लिये खोल दिया। ब्लाग पर आशिक कवितायें लिखता। कभी कभी वह अपनी माशुका के नाम से भी कवितायें लिख देता। टिप्पणियां अलबत्ता उसकी माशुका ही देती थी। हालत यह थी कि आशिक जो कवितायें माशुका द्वारा लिखी बताकर प्रकाशित करता उसं पर भी वह लिख देती थी कि‘तुमने यह लिखकर मेरा दिल मोह लिया है।’
मगर अनाम और छदम नाम ब्लाग लेखकों का चैन कहां? एक दिन आशिक को संबोधित करते हुए अनेक छद्मनाम ब्लाग लेखक ने लड़कियों की तरफ से टिप्पणियां लिख दी।
‘अरे, जानू तुम कहां हो? तुमने क्या इतने दिन से अपना ईमेल नहीं खोला? कितने संदेश भेज चुकी हूं। आज तुम्हारा यह नया ब्लाग मेरी नजर में आ गया। यह किसके साथ बनाया है? कौन चुड़ैल है? उसको मैं छोड़ूंगी नहीं।’

‘अरे, धोखेबाज? अब पता लगा कि इतने दिन से तुम कहां हो? अगर तुम्हें मेरे साथ आगे संपर्क बनाना पसंद नहीं है तो कोई बात नहीं! प्लीज मेरा ब्लाग मुझे लौटा दो। उस पर में अब लिखकर तुम्हारी यादों के सहारे जिंदा रहूंगी।’
इस तरह के अनेक संदेश थे। माशुका ने पढ़ा तो तमतमा गयी। उसने आशिक से कह दिया कि‘मेरी सहेली पहले ही कहती थी कि कभी इंटरनेट पर इश्क न लड़ाना। वहां तो बस धोखे ही धोखे है।’
माशुक ने लिखा-‘अरे, यह सब झूठ है। मैं पता कर रहा हूं कि यह कौन लोग हैं। निश्चित रूप से यह फर्जी नाम हैं। मैं इनका पता कर लूंगा। ब्लाग जगत में मेरे कुछ मित्र हैं जो इसमें मेरी मदद करेंगे।’
माशुका ने कहा-‘एक सप्ताह के अंदर अगर तुमने इसकी जांच पड़ताल कर रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की तो मुझे भूल जाना। यह बदमाशी किसने की है उनके नाम पते मेरे को बताना। उसका प्रमाणीकरण करने के बाद ही हमारे प्रेम पाठ और उस पर टिप्पणियों का क्रम दोबारा शुरु होगा। वरना गुड बाय!
आशिक ने सोचा कि दोस्त मदद करेंगे। दोस्त के नाम पर भी उसके पास वही अनाम और छद्मनाम ब्लाग लेखक थे। उसने उनको ईमेल किया और अपनी दुर्दशा बयान की।
उसका ईमेल मिलते ही दोनों अपने घरों से एक दूसरे से मिलने भागे। इतनी तेज भागे कि रास्ते में टकरा कर गिर पड़े। वहां भीड़ जमा हो गयी कि पता नहीं यह हादसा कैसे हो गया। वह उठ खड़े हुए और लोगों को अपने पास से हटाते हुए बोले-‘हटो! क्या कभी ब्लागर नहीं देखा।’
उस दिन दोनों ने बैठकर शराब खाने में दारु पी। दारु के महंगी होने से लेकर बरसात न होने पर चिंतायें जाहिर की। इतने विषयों पर चर्चा की पर यह विषय भूल गये। अपनी चर्चा की अपने ब्लाग पर रिपोर्ट भी लिखी पर इस विषय को छूआ भी नहीं।
अनाम ब्लाग लेखक ने अगले दिन आशिक को इ्र्रमेल किया और लिखा‘तुम चिंता मत करो। हम उनका पता लगा रहे हैं। यह कौन लोग हैं जो तुम्हारे अमर प्रेम को शैशवास्था में ही नरक भेजने पर तुले हैं। हमने अपने से अधिक जानकार लोगों को सब बताया है। वह जल्दी रिपोर्ट करेंगे।
छद्म ब्लाग लेखक ने भी लिखा-‘अरे, तुम्हारे विरोधियों को नहीं मालुम किससे टक्कर ले रहे हैं? बस मैंने अपने एक दोस्त को लिखा है वह पता कर लेगा।’
दोनों का जवाब एक जैसा देखकर आशिक का माथा ठनका। इससे पहले तो दोनों ने यह आश्वासन दिया था कि वह स्वयं ही पता लगा लेने में सक्षम हैं पर अब दोनेां अपना दायित्व ऐसे लोगों पर डाल रहे थे जिनको वह जानता तक नहीं था।
इस तरह छह दिन हो गये। वह हर दिन कसमें देकर अनाम और छद्म नाम ब्लाग लेखकों को संदेश भेजता कि‘आज किसी तरह मेरा काम कर दो। बस अब कम दिन बचे हैं।’
सातवें दिन माशुका के अल्टीमेटम समाप्त होने के एक घंटे पहले अनाम ब्लाग लेखक का संदेश उस आशिक के पास आया-‘मेरे दोस्त ने कहा है कि इस तरह का पता लगाने के लिये व्यवसायिक संस्थायें हैं पर उसके लिये कुछ पैसा खर्च करना पड़ेगा।’
लगभग ऐसा ही जवाब छद्मनाम ब्लाग लेखक ने भी भेजा। हताश आशिक ब्लाग लेखक ने अपने ब्लाग पर यह कविता लिखी।
पता नहीं कैसे वह घड़ी आयी
जब मैंने वाह वाह सुनने के लिये
अपने ब्लाग पर टिप्पणी की खिड़की खुलवायी।
कभी कभी वहां से झांकती
कोई चिड़िया चहकी
पर मेरी माशुका की तरह नहीं महकी
फिर किस पर क्या फिदा होते
सूरत उसकी नजर न आई।
जिनके नाम नहीं है वह अनाम
अंदर क्या आते
जो अंदर थी चिड़िया वही
छोड़कर निकल गयी
हे ब्लाग बनाने वाले तू ने
यह टिप्पणी वाली खिड़की क्यों बनाई।’

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सातवां दिन भी बीत गया। तब तैश में आकर उसने अनाम और छद्मब्लाग नामधारी ब्लाग लेखकों को लानत भेजी। इससे वह और नाराज हो गये। तब इधर उधर हाथ मारकर देखा तो पाया कि वह लड़की और कोई नहीं उनका ही एक विरोधी छद्म ब्लाग लेखक था। अनाम ब्लाग लेखक ने तत्काल उठाकर उस कवि को यह संदेश भेजा-‘महाराज, लो यह पता कर लिया। वह लड़की थी ही नहीं जिसके चक्कर में तुम हमें लानत भेज रहे हो। हम तुम्हें बता रहे हैं यह उस ब्लाग लेखक की करतूत है जिससे हम भी बहुत चिढ़ते हो। तुम उस पर व्यंग्य कवितायें लिखो हम टिप्पणियां कर उसे रौशन करेंगे।’
मगर हास्य कवि चुप बैठ गया। उसने सोचा कि ‘अगर वह तीसरा भी कोई अनाम या छद्म ब्लाग लेखक होगा तो क्या फायदा? इससे तो अच्छा है अकेले बैठकर सिर धुनते रहें‘दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार न रहा।’
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नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक है तथा इसका किसी धटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
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26 जून 2009

समाज में व्याप्त लिंगभेद की धारणा-आलेख (hindi article)

भारतीय समाज की भी बड़ी अजीब हालत है। अच्छाई या बुराई में भी वह जाति, धर्म, लिंग और क्षेत्र के भेद करने से बाज नहीं आता। अनेक तरह के वाद विवादों में तमाम तरह के भेद ढूंढते बुद्धिजीवियों ने शायद उन दो घटनाओं को मिलाने का शायद ही प्रयास किया हो जो सदियों पुराने लिंग भेद का एक ऐसा उदाहरण जिससे पता लगता है कि गल्तियों और अपराधों में भी किस तरह हमारे यहां भेद चलता है।
दोनों किस्से टीवी पर ही देखने को मिले थे। एक किस्सा यह था कि कहीं किसी सुनसान सड़क से पुलिस वाले अपनी गाड़ी में बैठकर निकल रहे थे। रास्ते में एक स्थान पर एक मंदिर पड़ा। जब वह उसके पास से गुजरे तो उन्हें अंदर से एक बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। वह जगह सुनसान थी और इस तरह आवाज सुनाई देना उनको संदेहास्पद लगा। तब वह पूरी टीम अंदर गयी। वहां उनको एक बच्चा अच्छी चादर में लिपटा मिला। उन्होंने उसको उठाया और इधर उधर देखा पर कोई नहीं दिखाई दिया। पुलिस वालों को यह समझते देर नहीं लगी कि उस बच्चे को कोई छोड़ गया है।
अब पुलिस वालों के लिये समस्या यह थी कि उस बच्चे की असली मां को ढूंढे पर उससे पहले बच्चे की सुरक्षा करना जरूरी था। वह उसको अस्पताल ले गये। डाक्टरों ने बताया कि बच्चा पूरी तरह स्वस्थ है। मगर पुलिस वालों को समस्या यही खत्म होने वाली नहीं थी। वह सब पुरुष थे और उस बच्चे के लिये उनको एक अस्थाई मां चाहिये थी। वह भी ढूंढ निकाली और उसे बच्चा संभालने के लिये दिया और फिर शुरु हुआ उनके अन्वेषण का दौर। वह उसकी असली मां को ढूंढना चाहते थे। तय बात है कि इसके लिये उनको उन हालतों पर निगाह डालना जरूरी था जिसमें वह बच्चा मिला। ऐसी स्थिति में पुलिस वाले भी आम इंसानों जैसा सोचें तो कोई आश्चर्य नहीं होता। उन्होंने बच्चा उठाया था कोई अपराधी नहीं पकड़ा था जिससे पूछकर पता लगाते।
पुलिस का समाज से केवल इतना ही सरोकार नहीं होता कि वह इसका हिस्सा है बल्कि उसके लिये उनको समाज के आम इंसान आदतों, प्रवृत्तियों और ख्यालों को भी देखना होता है।
एक पुलिस वाले का बयान हृदयस्पर्शी लगा। उसने कहा कि -‘‘बच्चा किसी अच्छे घर का है शायद अविवाहित माता के गर्भ से पैदा हुआ है इसलिये उसे छोड़ा गया है। वरना लड़का कोई भला ऐसे कैसे छोड़ सकता है? लड़के को बहुत अच्छी चादर में रखा गया है। उसे अच्छे कपड़े पहनाये गये हैं।’;
एक जिम्मेदार पुलिस वाले के लिये यह संभव नहीं है कि वह कोई ऐसी बात कैमरे के सामने कहे जो लोगों को नागवार गुजरे। उनकी आंखों से बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतायें साफतौर से दिखाई दे रही थी। ऐसी स्थिति में पुलिस वालों ने बच्चे की सहायता करते हुए ऐसे व्यक्तिगत प्रयास भी किये होंगे जो उनके कर्तव्य का हिस्सा नहीं होंगे। उनकी बातों से बच्चे के प्रति प्रेम साफ झलक रहा था।
पुलिस अधिकारी यह शब्द हमें मर्मस्पर्शी लगे ‘वरना लड़का कौन ऐसे छोड़ता है’। ऐसे लगा कि इन शब्दों के पीछे पूरे समाज का जो अंतद्वद्व हैं वह झलक रहा हो जिसे वह व्यक्त करना चाहते हों।
लगभग कुछ ही देर बाद एक ऐसी ही घटना दूसरे चैनल पर देखने को मिली। वहां एक नवजात लड़की का शव एक कूड़ेदान में मिला। वहां भी पुलिस वालों का कहना था कि ‘संभव है यह लड़की अविवाहित माता के गर्भ से उत्पन्न हुई हो या फिर लड़की होने के कारण उसे यहां फैंक दिया हो।’

इन दोनों घटनाओं के पुलिस क्या कर रही है या क्या करेगी-यह उनकी अपनी जिम्मेदारी है। इसके बारे में अधिक पढ़ने या सुनने को नहीं मिला। जो लड़का जीवित मिला उसके लिये वह आगे भी ठीक रहे इसके निंरतर सक्रिय रहेंगे ऐसा उनकी बातों से लग रहा था। यहां हम इन दोनों घटनाओं में समाज में व्याप्त लिंग भेद की धारणा पर दृष्टिपात करें तो तो सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि लोग गल्तियां करने पर भी लिंग भेद करते हैं।
एक मां ने अपना लड़का इसलिये ही मंदिर में छोड़ा कि वह उसके काम नहीं आया तो किसी दूसरे के काम आ जायेगा-मंदिर है तो वहां कोई न कोई धर्मप्रिय आयेगा और उस लड़के को बचा लेगा। क्या उसने अच्छी चादर में लपेटकर इसलिये मंदिर में छोड़ा कि जो उसे उठाये उसके सामने बच्चे की रक्षा के लिये तात्कालिक रूप से ढकने के लिये कपड़े की आवश्यकता न हो। क्या उसके मन में यह ख्याल था कि आखिर लड़का है किसी के काम तो आयेगा? कोई तो लड़का पाकर खुश होगा? कोई तो लड़का मिलने पर जश्न मनायेगा?
लड़की को फैंकने वाले परिवारजनों ने क्या यह सोचकर कूड़ेदान में फैंका कि लड़की भला किस काम की? हम अपना त्रास दूसरे पर क्यों डालकर अपने ऊपर पाप लें? क्या उन्होंने सोचा कि लड़की उनके लिये संकट है इसलिये उसे ऐसी जगह फैंके जहां वह बचे ही नहीं ताकि कोई उसकी मां को ढूंढने का प्रयास न करे।
कभी कभी तो लगता है कि बच्चों को गोद लेने और देने की लोगों को व्यक्तिगत आधार पर छूट देना चाहिये। जिनको बच्चा न हो उन्हें ऐसे बच्चों को गोद लेने की छूट देना चाहिये जिनसे उनके माता या पिता छुटकारा पाना चाहते हैं। दरअसल निःसंतान दंपत्ति बच्चे गोद लेना चाहते हैं पर इसके लिये जो संस्थान और कानून है उनसे जूझना भी उनको एक समस्या लगती है। ऐसे में अगर कोई उनको अपना बच्चा देना चाहे तो उनके लिये किसी प्रकार की बाध्यता नहीं होना चाहिये। कहीं अगर किसी नागरिक को बच्चा पड़ा हुआ मिल जाये तो उसे कानून के सहारे वह बच्चा रखने की अनुमति मिलना चाहिये न कि उससे बच्चा लेकर कोई अन्य कार्रवाई हो। पता नहीं ऐसा क्यों लगता है कि बिना विवाह के बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति तो रोकी नहीं जा सकती पर ऐसे बच्चों को निसंतान दंपत्ति को लेने के लिये अधिक कष्टदायी नियम नहीं होना चाहिये। इन दोनों घटनाओं ने लेखक को ऐसी बातें सोचने के लिये मजबूर कर दिया जो आमतौर से लोग सोचते हैं पर कहते नहीं। बहरहाल लड़के और लड़की के परिवारजनों ने लिंग भेद के आधार पर ऐसा किया या परिस्थितियों वश-यह कहना कठिन है पर समाज में जो धारणायें व्याप्त हैं उससे इन घटनाओं में देखने का प्रयास हो सकता है क्योंकि यह कोई अच्छी बात नहीं है कि कोई अपने बच्चे इस तरह पैदा कर छोड़े। खासतौर से जब लड़का मंदिर में और लड़की कुड़ेदान में छोड़ी जायेगी तब इस तरह की बातें भी उठ सकती हैं।
पश्चिमी चकाचैंध ने इस देश की आंखों को चमत्कृत तो किया है पर दिमाग के विचारों की संकीर्णता से मुक्त नहीं किया। पश्चिम में अनेक लड़कियां विवाह पूर्व गर्भ धारण कर लेती हैं पर अपना गर्भ गिरा देती हैं या फिर बच्चा पैदा करती हैं। उनका समाज उन पर कोई आक्षेप नहीं करता इसलिये ही वहां इस तरह बच्चों को फैंकने की घटनायें होने के समाचार कभी भी सुनने को नहीं मिलते।
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23 जून 2009

भटकती आत्मा-व्यंग्य कविता

कभी इधर लटका
कभी उधर अटका
परेशान मन देह को
लेकर जब भटका
तब आत्मा ने कहा
‘रे, मन क्यों तू देह
को हैरान किये जा रहा है
बुद्धि तो है खोटी
अहंकार में अपनी ही गा रहा है
सम्मान की चाह में
ठोकरें खा रहा है
लेकर सर्वशक्तिमान का नाम
क्यों नहीं बैठ जाता
मेरे से बात कर
मैं हूं इस देह को धारण करने वाली आत्मा’
सुन कर मन गुर्राया और बोला
‘मैं तो इस देह का मालिक हूं
जब तक यह जिंदा है
इसके साथ रहूंगा
यह वही करेगी जो
इससे मैं कहूंगा
तू अपनी ही मत हांक
पहले अपनी हालत पर झांक
मैं तो देह के साथ ही
हुआ था पैदा
शरण तू लेने आयी थी
इस देह में
मूझे भटकता देख मत रो
ओ! भटकती आत्मा।’

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21 जून 2009

सफेद झंडा-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya)

नारी स्वतंत्रता समिति की बैठक आनन फानन में बुलाई गयी। अध्यक्षा का फोन मिलते ही कार्यसमिति की चारों सदस्य उनके घर बैठक करने पहुंच गयी। चारों को देखकर अध्यक्षा बहुत खुश हो गयी और बोली-‘इसे कहते हैं सक्रिय समाज सेवा! एक फोन पर ही कार्यसमिति की चारों सदस्यायें पहुंच गयी।’
एक ने कहा-‘क्या बात है? आपने अचानक यह बैठक कैसे बुलाई। मैं तो आटा गूंथ रही थी। जैसे ही आपका मोबाइल पर संदेश मिला चली आयी। जब से इस समिति की कार्यसमिति मैं आयी हूं तब से हमेशा ही बैठक में आने को तैयार रहती हूं। बताईये काम क्या है?’
अध्यक्षा ने कहा-‘हां आपकी प्रतिबद्धता तो दिख रही है। आपने अपने हाथ तक नहीं धोये। आटे से सने हुए हैं, पर कोई बात नहीं। दरअसल आज मुझे इंटरनेट पर पता लगा कि आज ‘पितृ दिवस’ है। इसलिये सोचा क्यों न आज पुरुषों के लिये कोई सहानुभूति वाला प्रस्ताव पास किया जाये।’
यह सुनते ही दूसरी महिला नाराज हो गयी और वह अपने हाथ में पकड़ा हुआ बेलन लहराते हुए बोली-‘कर लो बात! पिछले पांच साल से पुरुष प्रधान समाज के विरुद्ध कितने मोर्चे निकलवाये। बयान दिलवाये। अब यह सफेद झंडा किसलिये दिखायें। इससे तो हमारी समिति का पूरा एजेंडा बदल जायेगा। आपकी संगत करते हुए इतना तो अहसास हो गया है कि जो संगठन अपने मूल मुद्दे से हट जाता है उसकी फिल्म ही पिट जाती है।’
अध्यक्षा ने उससे पूछा-‘क्या तुम रोटी बेलने की तैयारी कर रही थी।’
उसने कहा -‘हां, पर आप चिंता मत करिये यह बेलन आपको मारने वाली नहीं हूं। इसके टूटने का खतरा है। कल ही अपने पड़ौसी के लड़के चिंटू की बाल छत पर आयी मैंने उस गेंद को गुस्से में दूर उड़ाने के लिये बेलन मारा तो वह टूट गया। अब यह पुराना अकेला बेलन है जो मैं आपको मारकर उसके टूटने का जोखिम नहीं उठा सकती। वैसे आपके प्रस्ताव पर मुझे गुस्सा तो खूब आ रहा है।’
अध्यक्षा ने कहा-‘देखो! जरा विचार करो। आजकल वह समय नहीं है कि रूढ़ता से काम चले। अपनी समिति के लिये चंदा अब कम होता जा रहा है इसलिये कुछ धनीमानी लोगों को अपने ‘स्त्री पुरुष समान भाव’ से प्रभावित करना है। फिर 364 दिन तो हम पुरुषों पर बरसते हैं। यहां तक वैलंटाईन डे और मित्र दिवस जो कि उनके बिना नहीं मनते तब भी उन्हीं पर निशाना साधते हैं। एक दिन उनको दे दिया तो क्या बात है? मुद्दों के साथ अपने आर्थिक हित भी देखने पड़ते हैं। अच्छा तुम बताओ? क्या तुम अपने बच्चों के पिता से प्यार नहीं करती?’
तीसरी महिला-जो फोन के वक्त अपने बेटे की निकर पर प्र्रेस कर रही थी-उसे लहराते हुए बोली-‘बिल्कुल नहीं! आपने समझाया है न! प्यार दिखाना पर करना नहीं। बस! प्यार का दिखावा करती हैं। वैसे यह निकर सफेद है पर हमसे यह आशा मत करिये कि ‘पितृ दिवस’ पर इसे फहरा दूंगी। पहले तो यह बताईये कि इस पितृ दिवस पर पुरुषों के लिए हमदर्दी वाला प्रस्ताव पास करने का विचार यह आपके दिमाग में आया कैसे?’
अध्यक्षा ने कहा-‘ पहली बात तो यह है कि तुम मेरे सामने ही मेरे संदेश को उल्टा किये दे रही हो। मैंने कहा है कि अपने बच्चों के पिता से प्यार करो पर दिखाओ नहीं। दूसरी बात यह कि आजकल हमारी गुरुमाता इंटरनेट पर भी अपने विचार लिखती हैं। उन्होंने ही आज उस पर लिखा था ‘पितृ दिवस पर सभी पुरुषों के साथ हमदर्दी’। सो मैंने भी विचार किया कि आज हम एक प्रस्ताव पास करेंगे।’
चौथी महिला चीख पड़ी। उसके हाथ मे कलम और पेन थी वह गुस्सा होते हुए बोली-‘आज आप यह क्या बात कर रही हैं। आपकी बताई राह पर चलते हुए मैंने एक वकील साहब के यहां इसलिये नौकरी की ताकि उनके सहारे अपने आसपास पीड़ित महिलाओं की कानूनी सहायता कर सकूं। देखिये यह एक पति के खिलाफ नोटिस बना रही थी।’
अध्यक्षा ने एकदम चौंकते हुए कहा-‘अरे, क्या बात कर रही हो। पति तो एक ही होता है? उसे नोटिस क्यों थमा रही हो? मेरे हिसाब से तुम्हारा पति गऊ है।’
‘‘उंह...उंह....मैं अपने पति को बहुत प्यार करती हूं पर आपके कहे अनुसार दिखाती नहीं हूं। पर वह गऊ नहीं है। हां, यह नोटिस एक पीड़ित महिला के पति के लिये बना रही हूं।’चौथी महिला ने हंसते हुए कहा-‘खाना बनाते समय कई बार जब मेरे रोटी पकाते वक्त पीछे से बेलन दिखाते है और जब सामने देखती हूं तो रख देते है। मेरे बेटे ने एक बार उनकी अनुपस्थिति में बताया।’
अध्यक्षा ने कहा-‘पहले तो तुम रोटी पकाती थी न?’
चौथी वाली ने कहा-‘आपकी शिष्या बनने के बाद यह काम छोड़ दिया है। मेरे पति सुबह खाना बनाने और बच्चों को स्कूल भेजने के बाद काम पर जाते हैं और मैं सारा दिन समाज सेवा में आराम से बिताती हूं। आपने जो राह दिखाई उसी पर चलने में आनंद है पर यह आप आज क्या लेकर बैठ गयीं। हमें यह मंजूर नहीं है। अब अगर सफेद झंडे दिखाये तो मुझे रोटी पकानी पड़ेगी। नहीं बाबा! न! आप आज यह भूल जाईये। 364 दिन मुट्ठी कसी रही तो ठीक ही है। एक दिन ढीली कर ली तो फिर अगले 364 दिन तक बंद रखना कठिन होगा।’
अध्यक्षा ने कहा-‘तुम अपने घर पर यह मत बताना।’
पहली वाली ने कहा-‘पर अखबार में तो आप यह सब खबरें छपवा देंगी। हमारे पति लोग पढ़ लेंगे तो सब पोल खुल जायेगी।’
अध्यक्षा ने पूछा-‘कैसी नारी स्वतंत्रता सेनानी हो? क्या पति से छिपकर आती हो?’
दूसरी वाली ने कहा-‘नहीं! उनको पता तो सब है पर अड़ौस पड़ौस में ऐसे बताते हैं कि पतियों से छिपकर बाहर जाते हैं। अरे, भई इसी तरह तो हम बाकी महिलाओं को यह बात कह सकते हैं कि हम कितनी पीड़ित हैं और उनको अपने ही घरों में विद्रोह की प्रेरणा दे सकते हैं। अपना घर तो सलामत ही रखना है।’
अध्यक्षा ने कहा-‘भई, इसी कारण कह रही हूं कि आज पुरुषों के लिये संवेदना वाला प्रस्ताव करो। ताकि उनमें कुछ लोग हमारी मदद करने को तैयार हो जायें। यह सोचकर कि 364 दिन तो काले झंडे दिखाती हैं कम से कम एक दिन तो है जिस दिन हमारे साथ संवेदनाऐं दिखा रही हैं।’
तीसरी वाली ने अपनी हाथ में पकड़े सफेद नेकर फैंक दी और बोली-‘नहीं, हम आपकी बात से सहमत नहीं हैं।’
चौथी वाली ने कहा-‘आपके कहने पर इतना हो सकता है कि यह नोटिस आज नहीं कल बना दूंगी पर आप मुझसे किसी ऐसे प्रस्ताव पर समर्थन की आशा न करें।’
अध्यक्षा ने कहा-‘अच्छा समर्थन न करो। कम से कम कम एक प्रस्ताव तो लिखकर दो ताकि अखबार में प्रकाशित करने के लिये भेज सकूं। तुम्हें पता है कि मुझे केवल गुस्से में ही लिखना आता है प्रेम से नहीं।’
चौथी वाली महिला तैयार नहीं थी। इसी बातचीत के चलते हुए एक बुजुर्ग आदमी ने अध्यक्षा के घर में प्रवेश किया। वह उसके यहां काम करने वाली लड़की का पिता था। अध्यक्षा ने उसे देखकर अपने यह काम करने वाली लड़की को पुकारा और कहा-‘बेटी जल्दी काम खत्म करो। तुम्हारे पिताजी लेने आये हैं।’
वह लड़की बाहर आयी और बोली-‘मैडम मैंने सारा खत्म कर दिया है। बस, आप चाय की पतीली उतार कर आप स्वयं और इन मेहमानों को भी चाय पिला देना।’
लड़की के पिता ने कहा-‘बेटी, तुम सभी को चाय पानी पिलाकर आओ। मैं बाहर बैठा इंतजार करता हूं। आधे घंटे में कुछ बिगड़ नहीं जायेगा।’
लड़की ने कहा-‘बापू, आप भी तो मजदूरी कर थक गये होगे। घर देर हो जायेगी।’
लड़की के पिता ने कहा-‘कोई बात नहीं।
वह बाहर चला गया। लड़की चाय लेकर आयी। अध्यक्षा ने कहा-‘तुम एक कप खुद भी ले लो और पिताजी को भी बाहर जाकर दो।’
लड़की ने कहा-‘मैं तो किचन में चाय पीने के बाद कप धोकर ही बाहर जाऊंगी। मेरे बापू शायद ही यहां चाय पियें। इसलिये उनको कहना ठीक नहीं है। वह मुझसे कह चुके हैं कि किसी भी मालिक के घर लेने आंऊ तो मुझे पानी या चाय के लिये मत पूछा करो।’
लड़की और उसके पिताजी चले गये। उस समिति की सबसे तेजतर्रार सदस्या च ौथी महिला ने बहुत धीमी आवाज में अध्यक्षा से कहा-‘आप कागज दीजिये तो उस पर प्रस्ताव लिख दूं।’
फिर वह बुदबुदायी-‘पिता क्या कम तकलीफ उठाता है।’
ऐसा कहकर वह छत की तरफ आंखें कर देखने लगी। तीसरी वाली महिला ने वह सफेद निकर अपने हाथ में ले ली। दूसरी वाली महिला ने अपना बेलन पीछे छिप लिया और पहली वाली ग्लास लेकर अपना हाथ धोने लगी।
नोट-यह एक काल्पनिक व्यंग्य रचना है। इसका किसी व्यक्ति या घटना से कोई लेना देना नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा। यह लेखक किसी भी नारी स्वतंत्रता समिति का नाम नहीं जानता है न उसकी सदस्या से मिला है।
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15 जून 2009

रात के पिटे मोहरे-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya)

गुजु उस्ताद सुबह ही दिख गया। पहले हम उसके मोहल्ले में रहते थे अब कालोनी में मकान बना लिया सो उससे दूर हो गये, मगर हमारे काम पर जाने का रास्ता उसी मोहल्ले से जाता है। गुजु उस्ताद को भी हमारी तरह क्रिकेट देखने का शौक था पर इधर क्रिकेट मैचों पर फिक्सिंग वगैरह के आरोप लगे तो हम इससे विरक्त हो गये पर गुजु उस्ताद का शौक लगातार बना रहा।
हम रास्ते पर खड़ा देखकर कई बार उसे नमस्कार कर निकलते तो कई बार वही कर लेता। कई बार दोनों ही एक दूसरे को देखकर मूंह फेर लेते हैं। हां, क्रिकेट मैच के दिन हम अगर जरूरी समझते हैं तो रुक कर उससे बात कर लेते हैं। आज भी रुके।
वह देखते हुए बोला-‘हां, मुझे पता है कल भारत हार गया है और तुम जरूर जले पर नमक छिड़कने का काम करोगे। देशभक्ति नाम की चीज तो अब तुम में बची कहां है?’
हमने कहा-‘क्या बात करते हो? हम तुम्हें पहले भी बता चुके हैं क्रिकेट खेल में हमारी देशभक्ति को बिल्कुल नहीं आजमाना। हां, यह बताओ कल हुआ क्या?’
गुजु उस्ताद ने कहा-‘तुमने मैच तो जरूर देखा होगा। चोर चोरी से जाये पर हेराफेरी से न जाये। आंखें कितनी बूढ़ी हो जायें सुंदरी देख कर वही नजरें टिकाने से बाज नहीं आती।’
हमने कहा-‘नहीं मैच तो हम देख रहे थे। पहले लगा कि भारतीय टीम है पर जब तीसरा विकेट गिरा तो ध्यान आया कि यह तो बीसीसीआई की टीम है। अब काहे की देशभक्ति दिखा रहे हो? इस तरह मूंह लटका घूम रहे हो जैसे कि तुम्हारा माल असाबब लुट गया है। क्या यह पहला मौका है कि बीसीसीआई की टीम हारी है?’
गुजु उस्ताद-‘यार, पिछली बार बीस ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में अपनी टीम विश्व विजेता बनी थी और अब उसकी यह गत! देखते हुए दुःख होता है।’
हमने चैंकते हुए कहा-‘अपनी टीम! इससे तुम्हारा क्या आशय है? अरे, भई अपना राष्ट्रीय खेल तो हाकी है। यह तो बीसीसीआई यानि इंडियन क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की टीम है। हार गयी तो हार गयी।’
गुजु उस्ताद-‘काहे को दिल को तसल्ली दे रहे हो कि हाकी राष्ट्रीय खेल है। हमें पता है तुम कभी हाकी खेलते थे पर साथ ही यह भी कि तुम ही लंबे समय तक क्रिकेट खेल देखते रहे। 1983 में विश्व कप जीतने पर तुमने ही अखबार में इसी भारतीय टीम की तारीफ में लेख लिखे थे। बोलो तो कटिंग लाकर दिखा दूं। हां, कुछ झूठे लोगों ने इस खेल को बदनाम किया तो तुम बरसाती मेंढक की तरह भाग गये। मगर यह क्रिकेट खेल इस देश का धर्म है। हां, इसमें तुम जैसे हाकी धर्म वाले अल्पसंख्यक जरूर हैं जो मजा लेने के लिये घुस आये और फिर बदनाम होता देखकर भाग खड़े हुए।’
हमने कहा-‘यह किसने कहा क्रिकेट इस देश का धर्म है?’
गुजु उस्ताद ने हमसे कहा-‘क्या टीवी देखते हो या नहीं। एफ. एम. रेडियो सुनते हो कि नहीं? सभी यही कह रहे हैं।
हमने कहा-‘सच बात तो यह है कि कल हमने बीसीसीआई टीम का तीसरा विकेट गिरते ही मैच बंद कर दिया। सोचा सुबह अखबार में परिणाम का समाचार देख लेंगे। मगर आजकल थोड़ी पूजा वगैरह कर रहे हैं इसलिये सोचा कि क्यों सुबह खराब करें। अगर बीसीसीआई की टीम हार गयी तो दुःख तो होगा क्योंकि यह देश से भाग लेने वाली अकेली टीम थी। पिछली प्रतियोगिता में तो अपने देश से चार पांच टीमें थी जिसमें भारत के खिलाड़ी भी शामिल थे तब देखने का मन नहीं कर रहा था। इस बार पता नहीं क्यों एक ही टीम उतारी।’
गुजु उस्ताद-‘महाराज, यह विश्व कप है इसमें एक ही टीम जाती है। यह कोई क्लब वाले मैच नहीं है। लगता है कि क्रिकेट को लेकर तुम्हारे अंदर स्मृति दोष हो गया है। फिर काहे दोबारा क्रिकेट मैच देखना काहे शुरु किया। लगता है तुम विधर्मी लोगों की नजर टीम को लग गयी।’
हमने कहा-‘वह कल टीवी में एक एंकर चिल्ला रही थी ‘युवराज ने लगाये थे पिछली बार छह छक्के और आज उस बालर को नींद नहीं आयी होगी‘। हमने यह देखना चाहा कि वह बालर कहीं उनींदी आंखों से बाल तो नहीं कर रहा है पर वह तो जमकर सोया हुआ लग रहा था। गजब की बालिंग कर रहा था। फिर युवराज नहीं आया तो हमने सोचा कि शायद टीम में नहीं होगा। इसलिये फिर सो गये। चलो ठीक है!’
गुजु उस्ताद ने घूर कर पूछा-‘क्या ठीक है। टीम का हारना?’
हमने कहा-‘नहीं यार, सुना ही बीसीसीआई की टीम अब प्रतियोगिता से बाहर हो गये इसलिये अब नींद खराब करने की जरूरत नहीं है। कल भी बारह बजे सोया था। आज देर से जागा हूं। वैसे तुम ज्यादा नहीं सोचना। तुम्हारी उम्र भी बहुत हो चली है। यह क्रिकेट तो ऐसा ही खेल है। कुछ नाम वाला तो कुछ बदनाम है।’
गुजु उस्ताद ने कहा-‘देखो! अब आगे मत बोलना। मुझसे सहानुभूति जताने के लिये रुके हो?मुझे पता है कि बाहर से क्रिकेट का धर्म निभाते नजर आते हो पर अंदर तो तुम अपनी हाकी की गाते है। अगर कोई शुद्ध क्रिकेट खेलने वाला होता तो उसे बताता मगर तो तुम हाकी वाले और कुछ कह दिया तो हाल ही कहोगे कि ‘हम हाकी खेलने वाले अल्पसंख्यक हैं इसलिये क्रिकेट वाले हम पर रुतबा जमाते हैं।’
हमने कहा-‘यार, सभी खेल धर्म तो एक ही जैसे है। सभी खेल स्वास्थ्य और मन के लिये बहुत अच्छे हैं। हम तो खेल निरपेक्ष हैं। आजकल तो शतरंज भी खेल लेते हैं।’
गुजु उस्ताद ने कहा-‘मैं तुम्हारी बात नहीं मानता। मुझे याद है जब क्रिकेट की बात मेरा तुम्हारा झगड़ा हुआ था तब मैं तुम्हें मारने के लिये बैट लाया तो तुम हाकी ले आये। इसलिये यह तो कहना ही नहीं कि क्रिकेट से तुम्हारा लगाव है।’
हमने सोचा गुजु उस्ताद बहुत अधिक अप्रसन्न होकर बोल रहे थे। तब हमने विषयांतर करते हुए कहा-‘पर अपनी टीम तो बहुत अच्छी है। हारी कैसे?’
गुजु उस्ताद बोले-‘तुम जाओ महाराज, हमने रात खराब की है और तुम दिन मत खराब करो। अभी तो नींद से उठे हैं और फिर हाकी धर्म वाले की शक्ल देख ली।’
हमने चुपचाप निकलने में वहां से खैर समझी। हमने सोचा रात के यह पिटे हुए पैदल कहीं चलते चलते वजीर जैसे आक्रामक बन गये तो फिर झगड़ा हो जायेगा। सच बात तो यह है कि गुजु उस्ताद ही वह शख्स हैं जिन पर हम क्रिकेट से जुड़ी कटोक्तियां कह जाते हैं बाकी के सामने तो मुश्किल ही होता है। लोग गुस्सा होने पर देशभक्ति का मामला बीच में ले आते हैं। हालांकि यह सब बाजार का ही कमाल है जो क्ल्ब के मैचों के वक्त देशभक्ति की बात को भुलवा कर बड़े शहरों के नाम पर भावनायें भड़काते हुए अपना माल बेचता है तो विश्व कप हो तो देश के नाम पर भी यही करता है। मगर भावनायें तो भावनायें हैं। हम ठहरे हाकी वाले-जहां तक देश का सवाल है तो उसमें भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है फिर काहे झगड़ा लेते फिरें।
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7 जून 2009

फिर होने लगी क्रिकेट मैच की चर्चा-आलेख

बंदर चाहे कितना भी बूढ़ा हो जाये गुलाट लगाना नहीं भूलता यही कुछ हालत हम भारतवासियों की है। कोई व्यसन या बुरी आदत बचपन से पड़ जाये तो उससे पीछा नहीं छुड़ा सकते। ऐसी आदतों में क्रिकेट मैच देखना भी शामिल है। 2007 में इस बात का भरोसा नहीं था कि भारत की क्रिकेट टीम एक दिवसीय विश्व कप मैच जीतेगी फिर भी लोग देखते रहे और जब वहां बुरी तरह हारी तब विरक्त होने लगे। मगर पिछले वर्ष बीस ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता भारत ने जीती तो बच्चे, बड़े और बूढ़े फिर क्रिकेट मैच देखने लगे।
1983 तक भारत में एक दिवसीय मैच को महत्व नहीं दिया जाता था बल्कि पांच दिवसीय मैचों में ही दिलचस्पी लेते थे। उस वर्ष भारत ने एक दिवसीय क्रिकेट प्रतियोगिता क्या जीती? भारत में उसे देखने का फैशन चल पड़ा-यहां खेल खेलना और देखना भी अब फैशनाधारित हो गये हैं-जिसे देखो वही एक दिवसीय मैचों को देखना चाहता था। उस समय जो बाल्यकाल में थे वह पूरी युवावस्था और जो युवावस्था में थे वह वृद्धावस्था तक क्रिकेट मैच टीवी पर देखकर आखें खराब करते रहे। खिलाड़ियों पर जमकर दौलत और शौहरत बरसी। जब दौलत और शौहरत आती है तो अपने साथ विकार और अहंकार भी लाती है। यही हुआ। क्रिकेट का नाम हुआ तो वह बदनाम भी हुआ। देखने वालों में कुछ ऐसे भी तो जो मुफ्त में मजा लेते थे तो कुछ लोगों ने दांव लगाकर पैसे कमाने चाहे। खेल बदनाम हुआ। इधर अपने देश की टीम के सदस्य कमाते रहे पर खेल में पिछड़ते गये। 2007 में बंग्लादेश से हारे तो लोगों का इस खेल से विश्वास ही उठ गया।
एक समय ऐसा लगने लगा कि अब लोग अब इस खेल से विरक्त हो जायेंगे मगर ऐसा नहीं हुआ। लोगों के पास पैसा भी आया तो समय भी फालतू बहुत था। भीड़ फिर मैदान में रहने लगी। टिकिटों की मारामारी यथावत थी मगर इस देश में फालतू लोगों की संख्या को देखते हुए भी यह लोकप्रियता यथावत होने का प्रमाण नहीं था। इस खेल को बचपन और युवावस्था से केवल देख रहे लोग इससे विरक्त होते जा रहे थे। क्रिकेट की चर्चा ही एकदम बंद हो गयी।
पिछले साल भारत ने बीस ओवरीय क्रिकेट का विश्व कप क्या जीता लोगों के मन मस्तिष्क की वापसी इस खेल के प्रति हो गयी। जब भारत बीस ओवरीय प्रतियोगिता में खेल रहा था तब लोगों का आकर्षण इसके प्रति बिल्कुल नहीं था पर जैसे ही वह जीता सभी नाचने लगे। भारतीय टीम जो एक खोटा सौ का नोट हो गयी थी और पचास में भी नहीं चल रही थी बीस में क्या चली फिर सौ की हो गयी। लोग पुरानी टीम की चाल और चरित्र भूल गये। पहले प्रेमी रहे लोग जो अब क्रिकेट से चिढ़ने लगे थे फिर उसकी तरफ आकर्षित हो गये। भारत के लोगों में आकर्षण दोबारा पैदा हुआ तो क्रिकेट के व्यवसायियों की बाछें खिल गयीं। अब तो क्लब स्तर की टीमें बनाकर वह मैचा करवा रहे हैं जिसमें उनको भारी आय हो रही है।
इससे क्या जाहिर होता है? यही कि इस देश में लोग विजेता को सलाम करते हैं। जीत का आकर्षण भारतीयों की चिंतन क्षमता का हर लेता है। भारतीयों की मानसिकता अब विश्व में व्यवसायियों से छिपी नहीं है। दुनियां का सबसे लोकप्रिय खेल फुटबाल हैं। उसमें भारतीय टीम की उपस्थिति नगण्य है। वैसे कुछ फुटबाल व्यवसायियों ने क्रिकेट के संक्रमण काल में यह प्रयास किया था कि भारत में भी फुटबाल लोकप्रिय हो ताकि यहां के लोगों के जज्बातों का आर्थिक दोहन किया जा सके मगर उसके सफल होने से पहले ही बीस ओवरीय क्रिकेट मैचों के विश्व कप जीतने से भारतीय खेल प्रेमी (?) उसी तरफ लौट आये।
अब हालत यह है कि हम जैसा आदमी जो कि क्रिकेट मैचों से अलविदा कह चुका था वह भी मैच तिरछी नजर से देख लेता है। ऐसे में जब देश की टीम जीत रही हो तो फिर नजरें जम ही जाती हैं। यह इसलिये हुआ कि कहीं चार लोगों में उठना बैठना होता है तो वह अब फिर से क्रिकेट की चर्चा करने लगे हैं। इतना ही नहीं भाई लोग क्लब स्तर के मैच भी देखने लगे हैं। उमरदराज हो गये हैं पर क्रिकेट खेल से लगाव नहीं खत्म हुआ। पहले तो चलो देश की टीम की चर्चा करते थे पर अब क्लब स्तर के मैच-वह भी इस देश से बाहर हो रहे हों तब-देखकर विदेशी खिलाड़ियों की चर्चा करते हैं। मतलब यह बीस ओवरीय प्रतियोगिता की जीत ने भारत के बूढ़े और अधेड़ क्रिकेट प्रेमियों को फिर खींच लिया है। तब यही कहना पड़ता है कि ‘बंदर कितना भी बूढ़ा हो जाये गुलाट खाना नहीं भूलता’, वही हालत इस देश की भी है। जब चर्चा चारों तरफ हो रही हो तो भला कब तक कोई आदमी निर्लिप्त भाव से रह सकता है।
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2 जून 2009

कौन किसको ठग रहा है-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya in hindi)

‘एक के तीन’, और ‘दो के छह’ की आवाज कहीं भी सुन लें तो हम भारतीयों के कान खड़े हो जाते हैं यह सोचकर कि कहीं यह सच तो नहीं है कि हमारा रुपया तिगुना हो जायेगा।’
भले ही कोई एक रुपये की तीन माचिस या दो रुपये की पेन की छह रिफिल बेचने के लिये आवाज क्यों नहीं लगा रहा हो पर हम उसकी तरफ देखना जरूर चाहेंगे भले ही बाद में निराशा हो। अगर कोई वाकई रुपये तिगुने की बात कर रहा हो तो......................हर देखने वाले आदमी और औरत के मूंह में पानी जरूर आ जायेगा।
अगर सामान्य आदमी हुआ तो भी उस पर विश्वास करने का मन जरूर होगा। विचार करेंगे और और हो सकता है कि उसके बाद न करें। अगर उस सामान्य आदमी की ईमानदारी की सिफारिश कोई अपना मित्र या रिश्तेदार करे तो तब विश्वास करने की संभावना पचास से पचहत्तर और फिर सौ फीसदी हो जाती है। पुरुष हुआ तो एकाध प्रतिशत कम हो सकती है पर अगर महिला हुई तो सौ फीसदी अपना कदम उस ठगी की तरफ बढ़ा देती है जिसके बाद रोने के अलावा और कुछ नहीं रह जाता। आदमी द्वारा विश्वास करने की एकाध प्रतिशत संभावना इसलिये कम हो जाती है क्योंकि उसकी आंख में रोने के लिये गुंजायश कम होती है और अगर ठग जाने पर वह रोए तो लोग कहेंगे कि ‘कैसा मर्द है रोता है। अरे, ठग गया तो क्या? मर्द है फिर कमा लेना।’
औरत अगर ठग जाती है तो रोती है-उसे यह अधिकार प्रकृति से उपहार के रूप में मिला है। उसकी आंख में आंसुओं का खजाना होता है और रोने पर उसके साथ सहानुभूति जताने वाले भी उसे कम बिगड़ते जमाने को अधिक बुरा कहते हैं।
अगर ठगने वाला साधु हुआ तो? फिर तो पुरुष और स्त्रियों के लिये इस बात की बहुत कम ही संभावना है कि वह अपने को बचा पायेंगे। जिस व्यक्ति ने धर्म का प्रतीक बाना पहन लिया उसे सिद्ध मान लेना इस समाज की कमजोरी है और यही कारण है कि ठग इसी भेष में अधिक घूमा करते हैं।
सोना, चांदी, या रुपया कभी कोई तिगुना नहीं कर सकता यह सर्वमान्य तथ्य है और सर्वशक्तिमान से तो यह आशा करना भी बेकार है कि वह अपने किसी दलाल को ऐसी सिद्धि देगा कि वह माया को तिगुना कर देगा। सर्वशक्तिमान का माया पर बस नहीं है पर इसके बावजूद माया में भी ऐसी शक्ति नहीं कि वह अपने को तिगुना कर ले। माया की लोग निंदा करते हैं पर उसके भी उसूल हैं-वह असली सोना, चांदी और रुपये में बसती है और नकली से उसे भी नफरत है। माया को सर्वशक्तिमान से इतना डर नहीं लगता जितनी नकली माया से लगता है। सर्वशक्तिमान ने माया को नहीं बनाया पर फिर भी वह उसके बंदों के बनाये कानूनों के अनुसार ही रचे तत्वों में बसती है और जो उससे बाहर है उसमें वह नहीं जाती। मगर बंदों में भी कुछ ऐसे हैं जो नकली सोना, चांदी और रुपये बनाकर नकली माया खड़ी करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि माया बहुत शक्तिशाली है पर इतनी नहीं कि वह अपने को तिगुना कर ले। अगर गले का हार एक तोले का है तो वह दो तोले का तभी होगा जब उसमें दूसरा सोना लगेगा। एक रुपया तभी दो होगा जब उसके साथ दूसरा असली जुड़ेगा। यह रुपया और सोना भी एक इंसान के द्वारा दूसरे को दिया जायेगा तभी बढ़ेगा। यह संभव नहीं है कि किसी बैंक में पड़ा रुपया किसी के घर बिना किसी लिये दिये पहुंच जाये।
मगर उस साधु ने लोगों को माता का चमत्कार बताया और रुपया और जेवर यह कहता हुआ लेता गया कि उसका वह तीन गुना कर देगा। लोग दौड़ पड़े। एक शहर से दूसरे शहर और फिर तीसरे और फिर चैथे...........इस तरह यह संख्या दस तक पहुंच गयी। लोग टेलीफोन के जरिये अपने परिचितों को संदेश भेजने लगे कि‘आओ भई, साथ में रुपया और जेवर लेकर आओ और तिगुना पाओ।’
साधु होने पर बिना पैसे खर्च किये अपना विज्ञापन हो जाना भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हम लोग दावा करते है कि अपने देश में अखबार और टीवी चैनल से भारी जागरुकता आ रही है मगर ऐसे समाचार इस दावे की पोल खोल देते हैं। वह साधु पकड़ा गया और अब रोती हुई औरतों की सूरतें देखकर यह लगता है कि आखिर किसने किसको ठगा है? वह कहती हैं कि साधु ने ठगा है।’
साधु कहता है कि ‘मैने तो लोगों से कहा तो वह विश्वास करते गये।’
जो ठगे गये वह कहते हैं कि ‘साधु ने ठगा है’। क्या उनकी बात मान लें। साधु से तो कानून निपटेगा पर उन लोगों से कौन निपटेगा जो स्वयं अपने को ठगते गये। अगर उन्होंने साधु को पैसा दिया तो क्या उन्होंने सोचा कि रिजर्व बैंक द्वारा बनाये गये नोट बकायदा नंबर डालकर सतर्कता से जारी किये जाते हैं। वह बिना किसी इंसानी हाथ के इधर से उधर नही जा सकते फिर उस साधु के पास वह कैसे आयेंगे। आ सकते हैं पर वह नकली हो सकते हैं।
अब ठगे गये लोग रो रहे हैं। हमें भी बहुत रोना आ रहा था पर वह इस बात पर नहीं कि साधु ने उनको ठगा बल्कि उन्होंने स्वयं को ठगा। इस देश में ठगों की संख्या कम नहीं है। यह देश हमेशा ठगने के लिये तैयार बैठा रहता है। पहले आंकड़ों का सट्टा लगाकर अपढ़ और मजदूर को ठगा जाता था अब खेलों और रियल्टी शो पर सट्टा लगाकर पढ़े लिखे लोगों को ठगा जा रहा है।
मजे की बात यह है कि अनेक बर्बाद लोग इस बात को मानते हैं कि आजकल सभी जगह ठगी है मगर जेब में पैसा आते ही उनका दिमाग फिर जाता है और चल पड़ते हैं ठगे जाने के लिये यह सोचकर कि शायद दाव लग जाये।
हम सब यह देखते हुए सोचते है कि कौन किसको ठग रहा है। कोई ठग किसी सामान्य आदमी के साथ ठगी कर रहा है या आदमी खुद अपने आपको उसके समक्ष प्रस्तुत कर स्वयं को ठग रहा है।
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