9 अगस्त 2009

मसला भेदभाव का-आलेख (bhedbhav ka masla-hindi article)

जहां तक नस्ल, जाति, भाषा और धर्म के आधार पर भेदभाव का प्रश्न है तो यह एक विश्वव्यापी समस्या है। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि यह एक मानवीय स्वभाव है कि मनुष्य समय पड़ने पर अपनी नस्ल, जाति, भाषा और धर्म से अलग व्यक्ति पर प्रतिकूल टिप्पणी करता है और काम पड़े तो उससे निकलवाता भी है। भारत के बाहर नस्लवाद एक बहुत गंभीर समस्या माना जाता है पर जाति, भाषा और धर्म के आधार पर यहां भेदभाव होता है-इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि किसी भी व्यक्ति के साथ यह भेदभाव सामयिक होता है और इसका शिकार कोई भी हो सकता है। मुश्किल यह है कि इस देश में अग्रेजों ने जो विभाजन के बीज बोये वह अब अधिक फलीभूत हो गये हैं। फिर स्वतंत्रता के बाद भी जाति, धर्म और भाषा के नाम पर विवाद चलाये गये ताकि लोगों का ध्यान उनमें लगा रहे-यह इस लेखक के सोचने का अपना यह तरीका हो सकता है। इसके साथ ही बुद्धिजीवियों का एक वर्ग विकास का पथिक तो दूसरा वर्ग परंपरारक्षक बन गया। दोनों वर्ग कभी गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पाये और जमीन वास्तविकताओं से परे होकर केवल नारे और वाद के सहारे चलते रहे। प्रचार माध्यमों में भी यही बुद्धिजीवी हैं जिनके पास जब कोई काम या खबर नहीं होता तो कुछ खबरें वह फिलर तत्वों से बनाते हैं। फिलर यानि जब कहीं अखबार में खबर न हो तो कोई फोटो या कार्टून छाप दो। इनमें एक जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव का भी है।
अभी एक अभिनेता ने शिकायत की थी कि उसको धर्म के कारण मकान नहीं मिल पा रहा। सच तो वही जाने पर उसकी बात पर शुरु से ही हंसी आयी। यकीन नहीं था कि ऐसा हो सकता है-इसके बहुत सारे तर्क हैं पर उनकी चर्चा करना व्यर्थ है।
आज से 22 वर्ष पूर्व जब हम अपना मकान छोड़कर किराये के मकान में गये तो यह सोचकर परेशान थे कि समय कैसे निकलेगा? बहरहाल दो साल उस किराये के मकान में गुजारे। फिर एक दिन मकान मालिक से एक रात झगड़ा हुआ। हमने घोषणा कर दी कि परसों शाम तक मकान खाली कर देंगे।
हमने यह घोषणा की थी झगड़ा टालने के लिये पर मकान मालिक ने कहा कि-‘ अगर नहीं किया तो..............’’
हमने मकान ढूंढ लिया। हम मकान देखने गये वहां मालकिन से बात हुई। जातिगत या कहें कि भाषाई दृष्टि से अलग होने के बावजूद एक समानता थी कि दोनों के पूर्वज विभाजन के समय इधर आये थे-भारत पाकिस्तान विभाजन पर हमारी राय कुछ अलग है उस पर फिर कभी। यह हमारी किस्मत कहें कि मकान मिल गया। अगले दिन हम मकान खाली कर सामान गाड़ी से लेकर उस मकान में पहुंचे। सामान उतारने से पहले हमने उस मकान का दरवाजा खटखटाया तो मकान मालिक बाहर निकले। हमने कहा-‘ हम सामान ले आयें हैं।’
पीछे मकान मालकिन भी आ गयी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ लग रहा था। मकान मालिक ने कहा-‘भाई साहब हम आपको जानते नहीं है। इसलिये.....’’
इसी बीच एक अन्य सज्जन भी बाहर आये और मुझे देखकर बोले-’’अरे, तुम यहां कैसे? अरे, भई यह तो बहुत बढ़िया लड़का है।’
वह उस मकान मालिक के बहनोई थे और व्यापारिक रिश्तों की वजह से हमें जानते थे। यह अलग बात है कि तब हम व्यापार से अलग हो चुके थे।
बहरहाल हम मकान के अंदर पहुंच गये। माजरा कुछ समझ में नहीं आया।
बाद में मकान मालिक ने बताया कि ‘आपको तो हमारे पति वापस भेजने वाले थे। वह तो हमारे ननदोई जी ने आपको अच्छी तरह पहचान लिया इसलिये इन्होंने नहीं रोका। यह आपके आने से चिंतित थे इसलिये अपने बहनोई को बुला लिया था कि किसी तरह आपको वापस भेज दें। हमारे पति कह रहे थे कि ‘उनकी जाति/भाषा वाले लोग झगड़ालू होते हैं।’
हम उनके मकान में दो किश्तों में चार साल रहे। पहले वह मकान खाली किया और फिर लौटकर आये। वह मकान मालिक मुझे आज भी अपना छोटा भाई समझते हैं। मान लीजिये उस दिन उनके बहनोई नहीं आते या पहचान के नहीं निकलते तो...................हमें उस मकान से बाहर कर दिया जाता। तब हम कौनसे और क्या शिकायत करते।
अपने मकान के बाद फिर अपने मकान पहुंचने में हमें बारह बरस लगे। चार मकान खाली किये। चार मकान देखे। कुछ मकान मालिकों ने प्याज खाने की वजह से तो कुछ लोगों ने जाति की वजह से मकान देने से मना किया। हर हाल में रहे हम लेखक ही। जानते थे कि यह सब झेलने वाले हम न पहले हैं न आखिरी! हमारा जीवन संघर्ष हमारा है और वह हमें लड़ना है।
हो सकता है कई लोग मेरी इस बात से नाराज हो जायें कि हमने बचपन से बकवास बहुत सुनी है जैसे जनकल्याण, प्रगति, सामाजिक धार्मिक एकता, संस्कार और संस्कृति की रक्षा, समाज का विकास और भी बहुत से नारे जो सपनों की तरह बिकते हैं। इस देश में आम आदमी का संघर्ष हमेशा उसकी व्यक्तिगत आधार पर निर्भर होता है। अपने जीवन संघर्ष में हमने या तो अपनी भाषा और जाति से बाहर के मित्रों से सहयोग पाया या फिर अपने दम पर युद्ध जीता। एक जाति के आदमी ने सहयोग नहीं दिया पर उसी जाति के दूसरे आदमी ने किया। सभी प्रकार की जातियों और अलग अलग प्रदेशों के लोगों से मित्रता है-इस लेखक जैसे इतने विविध संपर्क वाले लोग इस देश में ही बहुत कम लोग होंगे भले ही विविधता वाला यह देश है। लेखक होने के नाते सभी से सम्मान पाया। जिस तरह धर्म और भक्ति एकदम निजी विषय हैं वैसे ही किसी व्यक्ति का व्यवहार! आप एक व्यक्ति के व्यवहार के संदर्भ में पूरे समाज पर उंगली उठाते हैं तो हमारी नजर में आप झूठ बोल रहे हैं या निराशा ने आपको भ्रमित कर दिया है।
मुश्किल यही है कि बुद्धिजीवियों का एक तबका इसी भेदभाव को मिटाने की यात्रा पर निकलकर देश में प्रसिद्ध होता रहा है तो बाकी उनकी राह पर चलकर यही बात कहते जाते हैं। इधर विश्व स्तर पर कुछ ऐसे लेखक पुरस्कृत हुए हैं तो फिर कहना ही क्या? आप ऐसे विषयों पर रखी बातें इस लेखक के सामने रख दीजिये तो बता देगा कि उसमें कितना झूठ है। पांचों उंगलियां कभी बराबर नहीं होती। एक परिवार में नहीं होती तो समाज में कैसे हो जायेंगी? फिर एक बात है कि सामाजिक कार्य में निष्क्रिय लोगों की संख्या अधिक हो सकती है पर मूर्खों और दुर्जनों की नहीं। भेदभाव करने वाले इतने नहीं है जितना समभाव रखने वाले।
अभी एक ब्लाग लेखक ने लिखा कि एक हिन्दू ने मूंह फेरा तो दूसरे ने मदद की। अब उसका लिखना तो केवल मूंह फेरने वाले पर ही था। वह उसी परिप्रेक्ष्य में भेदभाव वाली बात कहता गया। हम आखिर तक यही सोचते रहे कि उस मदद करने वाले की मदद कोई काम नहीं आयी। यह नकारात्मक सोच है जो कि अधिकतर बुद्धिजीवियों में पायी जाती है। हमने सकारात्मक सोच अपनाया है इसलिये यही कहते हैं कि सभी एक जैसे नहीं है। हां, अगर लिखने से नाम मिलता है तो लिखे जाओ। हम भी तो अपनी बात लिख ही रहे हैं।
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