25 अगस्त 2009

चिंतन चितेरा-आलेख (chintan chitera-hindi lekh)

स्थापित प्रचार माध्यमों, लेखक, विद्वान और बुद्धिजीवियो का तिलिस्म टूटने लगा है। अंतर्जाल पर अनेक बार हिंदी और अंग्रेजी में पाठ पढ़कर ऐसा लगता है कि पिछले एक सदी से इस देश में भ्रम को सच कहकर बेचा गया है। यह प्रचार माध्यम, लेखक, विद्वान और बुद्धिजीवी-इनको हम संगठित प्रचारक भी कह सकते हैं- एक तरफ पश्चिमी विकास की तरफ देखते हुए भविष्य के विकास का सपना देखने के लिये प्रेरित करते हैं या फिर अतीत के कुछ चुने हुए मुद्दो पर ही अपनी राय रखते हैं-क्योंकि उनको अपनी संकीर्ण मानसिकता तथा संक्षिप्त बौद्धिक क्षमता के कारण अधिक मुद्दे चयन करने में असुविधा होती है। कभी कभी प्रचार पाने के लिये वह विवादास्पद मुद्दों को ही सामने लाते हैं।
अब यह कहना मुश्किल है कि यह योजनाबद्ध प्रयास है या अनजाने में प्रचार पाने का स्वभाविक मोह जिससे देश के मुख्य मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाया जाता है या उनको यह आम आदमी के लिये संदेश है कि उसकी समस्यायें कोई महत्व नहीं रखती। इधर अंतर्जाल पर जहां कुछ लेखक लीक से हटकर लिखते हुए दिख रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो इन्हीं संगठित प्रचारकों की छाया बन गये हैं।
एक तरफ आप देखें कि सामान्य भारतीय चैतरफा परेशानियों से घिरा है। पहले तो समस्या यह थी कि जेब में पैसा है पर सामान महंगा है पर अब तो यह भी समस्या है कि वह जेब का पैसा असली है या नकली। देश में नकली मुद्रा का प्रचलन फौजी हमले से अधिक खतरनाक है यह बात आज तक किसने लिखी है। आतंकवाद से लड़ना आसान है पर यह नकली मुद्रा उस देश का अस्तित्व ही खतरे में डाल रही है जिस पर हम गर्व करते हैं। इधर सूखे की मार है। देश में बीमारियों की संख्या कम नहीं है पर जंग लड़ी जा रही है केवल ‘स्वाइन फ्लू के खिलाफ!
अंतर्जाल पर कई बार अनेक पाठ संवेदनशील और वैचारिक पाठ पढ़कर मन चिंतन करने को तैयार हो जाता है पर वर्तमान सच्चाईयां बहुत जल्दी सामने खड़ा होकर बेबस करती हैं। लिखने वाले मित्रों के पाठ कभी कभी प्रभावित करते हैं पर बहुत जल्दी उनका प्रभाव समाप्त होने लगता है। कुछ अंतर्जाल लेखक तो संगठित प्रचाकरों द्वारा सुझाये गये उन विषयों को ढो रहे हैं जिनसे समाज का सीधा कोई सरोकार नहीं है।
आज ही एक खबर पढ़ी कि अनेक देशी आतंकवादी संगठनों के नेता बाहर जाने के लिये आसरा ढूंढ रहे हैं ताकि सुरक्षा भी मिले और वह हफ्ता वसूली का पैसा अन्य व्यवसायों में लगा सकें। कितनी अजीब बात है कि गरीबों और मजदूरों की रक्षा के नाम पर आतंक फैलाने वाले यह संगठन अपने उगाहे पैसे को उन्हीं पूंजीपतियों को सौंपना चाहते हैं जिनसे उन्होंने वसूला है। हैरानी की बात है कि प्रचार माध्यमों में उनके समर्थक लेखक उनके सैद्धांतिक आधार बताते हैं और अब अंतर्जाल पर भी यही होने लगा है।

इस प्रसंग में एक टिप्पणीकर्ता की याद आ रही है। प्रसंग था श्रीलंका में एक उग्रवादी नेता के मारे जाने का था। उस पर इस लेखक ने एक पाठ लिखा था। उस पर एक प्रतिक्रिया आयी कि ‘इस खेल को भारत के लोग समझ नहीं रहे। दरअसल चीन ने श्रीलंका ने को हथियार तथा सैनिक दिये हैं और श्रीलंका में उग्रवादियों के गुटों के सफाये के साथ ही भारत के दुश्मन चीन ने हिन्द महासागर में अपने पांव फैला दिये हैं।’
कुछ संगठित प्रचारकों ने भी यही विचार व्यक्त किया। उस दिन अखबार में पढ़ने को मिला कि श्रीलंका को आधुनिक हथियार ब्रिटेन ने दिये थे और अब उनको वापस मांग रहा है। सच क्या है यह पता नहीं पर ब्रिटेन और चीन एक साथ किसी मोर्च पर काम नहीं कर सकते और दूसरा यह कि चीन का तो केवल हौव्वा है जबकि उसके हथियारों की श्रेष्ठता उसके सामानों की तरह प्रमाणिक नहीं है।
कहने का तात्पर्य यह है कि तयशुदा मुद्दों में चीन भी शामिल है जिसका हौव्वा खड़ा किया जाता है। हम जब केवल अंतर्राष्ट्रीय खतरों की बात करते हैं तब आंतरिक खतरों की बात से मूंह छिपा रहे होते हैं। क्या अपना यह इतिहास भूल गये हैं कि इस देश को आक्रांतों ने कम अपने ही गद्दारों ने अधिक त्रस्त किया। नकली नोट, घी, दूध, तथा खून की बातें केवल समाचार का विषय नहीं है बल्कि उन पर आंतकवाद से अधिक विचार कर उसका मुकाबला करने की आवश्यकता है। देश की समस्याओं पर चाहे जिस धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र के आदमी का समर्थन चाहिए मिल जायेगा पर लगता है कि इसकी किसी को जरूरत नहीं है। सब एक विषय पर समर्थन देंगे तो एक समाज बन जायेंगे जबकि आतंकवाद के आधार पर उसमें विभाजन कर उस पर दैहिक और बौद्धिक रूप से शासन किया जा सकता है-यही प्रवृत्ति संगठित प्रचारकों की नजर आती है।
बड़े लेखक, बुद्धिजीवी और विद्वान देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता पर वाद और नारों के साथ बोलकर अपनी प्रसिद्धि हासिल कर रहे हैं पर उनका लाभ क्या है कोई नहीं बोलता? नकली मुद्रा उस देश को नष्ट करने जा रही है जिसकी स्वतंत्रता का दावा हम करते हैं और नकली घी, दूध, खून और खाद्य सामग्री इस देश के उन इंसानों के को संक्रमित करती जा रही है जिसको हम गौरवान्वित करना चाहते हैं। फिर यह गौरव और सम्मान का बखन किसलिये?
ऐसे में हिंदी ब्लाग पर ऐसे लेख देखकर तसल्ली होती है कि संगठित प्रचारकों के सतही विषयों से अधिक चिंतन क्षमता उनके लेखकों में है। वह संख्या में कम हैं। उनको पढ़ने वाले कम हैं। उनका नाम कोई नहीं जानता पर इससे क्या? जिनकी संख्या अधिक है, पढ़े भी अधिक जाते है। उनके नाम भी आकाश पर चमक रहे हैं पर उनका लिखा न तो समाज के किसी मतलब का है न ही भविष्य की पीढ़ी के लिये किसी काम का है। यह लेखक भी क्या करे? इधर इतिहास, साहित्य, और अन्य विषयों पर बिना मतलब का लेखन पढ़कर और उधर समाज की सच्चाईयां देखकर जो दूरी दिखाई देती है उसके बीच में जब चिंतन चितेरा फंस जाता है तब यह तय करना कठिन होता है कि हम किस पर लिखें?
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