धरती पर अपने कदम दर कदम
चलते हुए जब
नजर करता हूं नीचे की तरफ
तब जहां तक देखता हूं
वहीं तक ख्याल चलते हैं
दुनियां बहुत छोटी हो जाती है।
आंखें उठाकर देखता हूं जब आकाश में
चारों तरफ घुमते हुए
उसके अनंत स्वरूप के दृश्य से
इस दुनियां के बृहद होने की
अनुभूति स्वतः होने लग जाती है।
ख्यालों को लग जाते हैं पंख
सोचता हूं मेरे पांव भले ही
नरक में चलते हों
पर कहीं तो स्वर्ग होगा
तब अधरों पर मुस्कान खेल जाती है।
दृष्टि से बनता जैसा दृष्टिकोण
वैसा ही दृश्य सामने आता है
मगर दृष्टिकोण से जब बनती है दृष्टि
तब हृदय को छू लें
ऐसे मनोरम दृश्य सामने आते हैं
शायद यही वजह है
इस संसार में रहते दो प्रकार के लोग
एक जो बनाते हैं अपनी दुनियां खुद
दूसरे वह जिनको दूसरी की
बनी बनायी लकीर चलाती है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
शब्द अर्थ समझें नहीं अभद्र बोलते हैं-दीपकबापूवाणी (shabd arth samajhen
nahin abhardra bolte hain-Deepakbapuwani)
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*एकांत में तस्वीरों से ही दिल बहलायें, भीड़ में तस्वीर जैसा इंसान कहां
पायें।*
*‘दीपकबापू’ जीवन की चाल टेढ़ी कभी सपाट, राह दुर्गम भाग्य जो सुगम पायें।।*
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5 वर्ष पहले
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