चौराहे पर खड़े पत्थर के बुत पर
कंकड़ लगने पर भी लोग
भड़क जाते हैं।
अगला निशाना खुद होंगे
यह भय सताता है
या पत्थर के बुत से भी
उनको हमदर्दी है
यह जमाने को दिखाते हैं।
कहना मुश्किल है कि
लोग ज्यादा जज्बाती हो गये हैं
या पत्थरों के बुतों के सहारे ही
खड़े हैं उनके घर
जिनके ढहने का रहता है डर
जिसे शोर कर वह छिपाते हैं।
यह मासूमियत है जिसके पीछे चालाकी छिपी
जो लोग कंकड़ लगने से कांप जाते हैं।
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बुतों के पेट से ही
बुत बनाकर वह बाजार में सजायेंगे।
समाज में विरासत मिलती है
जिस तरह अगली पीढ़ी को
उसी तरह खेल सजायेंगे।
जज्बातों के सौदागर
कभी जमाने में बदलाव नहीं लाते
वह तो बेचने में ही फायदा पायेंगे।
करना व्यापार है
पर लोगों के जज्बातों की
कद्र करते हुए सामान सजायेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
शब्द अर्थ समझें नहीं अभद्र बोलते हैं-दीपकबापूवाणी (shabd arth samajhen
nahin abhardra bolte hain-Deepakbapuwani)
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*एकांत में तस्वीरों से ही दिल बहलायें, भीड़ में तस्वीर जैसा इंसान कहां
पायें।*
*‘दीपकबापू’ जीवन की चाल टेढ़ी कभी सपाट, राह दुर्गम भाग्य जो सुगम पायें।।*
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5 वर्ष पहले
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