कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये कार्बन उत्सर्जन को लेकर एक
महासम्मेलन हो रहा है। पश्चिम के विकसित देश दुनियां की फिक्र बहुत करते
हैं। उनके न केवल फिक्र करना चाहिये बल्कि करते हुए दिखना भी चाहिये।
आखिर दुनियां के यह छह सात मुल्क ही पूरी सारे विश्व समुदाय रहनुमा बन
गये हैं। गरीब, विकासशील और एशियाई देशों के शिखर पुरुष हों या आम आदमी
उनकी तरफ आकर्षित होकर देखता रहता है। उनकी तूती बोलती है। चो जैसा
सम्मेलन बुलाओ। जब बुलाओ सभी देशों के प्रतिनिधि पहुंच जाते हैं। बहुत कम
लोगों को पताहोगा कि यह पश्चिमी देश भले ही औपचारिक रूप से अलग अलग हों
पर उनका ऐजेंडा एक ही है कि गरीब, विकासशील देशों के आर्थिक और प्राकृतिक
साधनों का दोहन इस तरह किया जाये कि उनकी खुद की अमीरी और ताकत बनी रहे।
इन देशों के नागरिकों को एक दूसरे के यहां आने जाने के लिये बहुत सारी छूट
है जबकि गरीब, विकासशील और एशियाई देशों के लिये ढेर सारे प्रतिबंध है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि ब्रिटेन और अमेरिका इन देशों के नेता है तो कभी
यह भी लगता है कि बाकी पश्चिमी राष्ट्र उनकी आड़ में अपनी ताकत दिखाते
हैं। कम से कम डेनमार्क के प्रस्ताव से-जिसमें विकसित राष्ट्रों को
कार्बन गैस उत्सर्जन के लिये तमाम छूटें देने और गरीब और विकासशील देशों
पर इस आड़ में अपना फंदा कसने वाली शर्ते शामिल हैं-यही लगता है। एक दम
व्यंग्य जैसा! इस प्रस्ताव को न केवल भारत ने बल्कि उसके साथ जुड़े जी 77
देशों के प्रतिनिधियों ने खारिज भी किया बल्कि यह भी बता दिया कि अगर यह
प्रस्ताव दोबारा उसने रखा तो वह इस बात को भूल जाये कि कोपेनहेगन का यह
सम्मेलन आगे भी जारी रहेगा।
चीन की प्रतिक्रिया थोड़ी आक्रामक हैं पर उसमें भी मजाक लगता है। उसने कहा
कि ‘वह आखिरी दम तक विकासशील देशों की हितों के लिये लड़ेगा।’
चीन की सदाशयता पर हम कोई आपत्ति नहीं कर रहे पर यह कमजोर व्यक्ति या देश
की प्रतिक्रिया लगती है जिसे मालुम है कि सामने वाला आखिर उसकी दम निकाल
सकता है। दूसरा यह भी कि अगर उसके पास को अंतिम समय रोकेगा पर अगर पास हो
गया तो वह सिर झुकाकर मान लेगा। इसकी जगह यह भी कहा जा सकता कि अगर
डेनमार्क इस प्रस्ताव को दोबारा रखेगा तो उसे काली सूची में डाल दिया
जायेगा, पर यह करने की ताकत किसी एशियाई देश में नहीं लगती भले ही वह इस
महाद्वीप का रहनुमा होने का दावा करता हों। यह एशियाई देशों की कमजोरी
है कि वह इन पश्चिमी देशों द्वारा आयोजित सम्मेलनों में उनके प्रस्तावों
पर ही विचार करते हुए समर्थन या विरोध करते हैं। अपनी तरफ से कोई नयी सोच
या समस्या वह सामने नहीं रखते। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्रसंध जैसी
संस्था जो कि केवल पश्चिमी देशों के वर्चस्व का बढ़ावा देती है उसकी
संस्थाओं में शामिल होकर अपने को गौरवान्वित समझते हैं। संयुक्त राष्ट्र
की सुरक्षा परिषद पिछले कई सालों से कोई उल्लेखनीय रूप से कार्य नहीं कर
पायी। अमेरिका चाहे जैसा प्रस्ताव पास करा लेता है और अगर विवादास्पद विषय
हो तो वह बिना प्र्रस्ताव के ही अपना काम करता है। इराक और अफगानिस्तान
युद्ध में सुरक्षा परिषद कोई भूमिका नहीं निभा पाया। इसके पांच स्थाई
सदस्य-अमेरिका, ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस और चीन हैं। जर्मनी, इजरायज
और जापान जैसे देश इसके स्थाई सदस्य नहीं है और न इसकी परवाह करते हैं।
पता नहीं अपने भारत देश के लो्ग इसका स्थाई सदस्य बनने के लिये क्यों
बेताब हैं। सुनने में यह भी आया कि अगर नये स्थाई सदस्य बने होंगे तो
उनके पास वीटो पावर नहीं होगा। अगर यह वीटो पावर नहीं है तो समझ लो कि
स्थाई सदस्य होना या न होना बराबर है। ऐसे में सुरक्षा परिषद की स्थाई
सदस्यता भीख की तरह लेना ही बेमानी है।
बहरहाल पश्चिम के देशों की अर्थव्यस्था का वजूद अपने आंतरिक आधारों पर कम
बाह्य आधारों पर अघिक टिका है इसलिये वह अन्य देशों को ऐसे कामों में
व्यस्त रखते हैं। कभी पर्यावरण पर सम्मेलन करेंगेतो कभी आतंकवाद पर!
जबकि इन समस्याओं के लिये वही अधिक जिम्मेदार हैं। आप पता कर लें एशिया
के उग्रपंथियों के ठिकाने किन देशों में हैं तो पश्चिमी देशों के नाम ही
सामने आयेंगे जो मानवाधिकार के पैरोकार होने का दावा करते हैं। कभी जलवायु
परिवर्तन का मामला उठायेंगे तो कभी व्यापार का ताकि दूसरे देशों पर रुतवा
जमा सकें।
विश्व भर में आतंकवाद, पर्यावरण प्रदू्रषण तथा अन्य अनेक संकट हैं। इन पर
विचार करना चाहिये पर यह भी देखना चाहिये कि पह किस वजह से हैं। बीमारी का
इलाज करने की बात समझ में आती है पर वह किस वजह से है यह जानना भी जरूरी
है। उस वजह से परे होने का उपाय करना भी जरूरी है। आतंकवाद और पर्यावरण
के साथ एक विश्वव्यापी समस्या है वह है भ्रष्टाचार। अनेक विद्वान कहते
हैं कि विकासशील देशों में भ्रष्टाचार चरम पर है। ऐसा नहीं है कि विकसित
राष्ट्र इससे अछूते हैं पर फिर भी वह इसका विचार नहीं करते न कोई सम्मेलन
करते हैं। विकासशील देशों का बहुत सारा पैसा इन देशों की बैंकों में
गुप्त रूप से पहुंचता है-गाहे बगाहे इसकी चर्चा समय समय पर होती है। कुछ
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि इसी पैसे से पश्चिम के विकसित राष्ट्र
अपना काम चला रहे हैं। वैसे अमेरिका में सरकारी रूप से चंदा लेना और देना
वैध माना जाता है कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि अंततः चंदा देने वालों को कोई
न कोई लाभ मिलता है। अधिक नहीं तो इतना तो मिल ही जाता है कि बाह्य
व्यापार करने वाले पूंजीपति अपनी सरकार के सहारे संबंधित देशोें का प्रभाव
डालते है-कहीं कहीं भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी देते हैं।
एक समय ब्रिटेन के बारे में कहा जाता था कि उसके राज्य में कभी सूर्य अस्त
नहीं होता है। इसका कारण यह था कि एशियाई देशों के एक बहुत बड़े भूभाग पर
उसका राज्य चलता था। धीरे धीरे वह छोटा होता गया। अलबत्ता अंग्रेजों ने
अपनी शिक्षा पद्धति कायम की। अंग्रेजों ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि
वह जो शिक्षा पद्धति इन देशों में स्थापित कर रहे हैं वह सदियों से उनके
लिये इस तरह गुलाम उपलब्ध करायेगी कि सब कुछ होते हुए भी यह देश कमजोर की
तरह ललकारेंगे ‘आखिरी दम तक लड़ेंगे।’
चीन एक ताकतवर मुल्क हैं वह धमका भी सकता था । वह यह भी डेनमार्क से पूछ
सकता था कि ‘यह प्रस्ताव तुमने रखा यह तो बाद की बात पहले यह बताओं कि इस
पर सोचा भी कैसे?’
कहने का तात्पर्य यह था कि भाषा कड़क भी हो सकती है। सुनने मे यह भी आया है
कि इस प्रस्ताव के पीछे ब्रिटेन की सोच काम कर रही थी। संभवतः ब्रिटेन को
यह लगा होगा कि आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से वह आज भाी इतना
ताकतवर है कि अन्य देश स्वतंत्र जरूर हैं पर उनका विवेक तथा पैसा तो उसका
गुलाम है इसलिये चाहे जैसा प्रस्ताव पास करा लेगा।
आतंकवाद, पर्यावरण प्रदूषण, मादक द्रव्य पदार्थों का व्यापार तथा अन्य
अनेक ऐसी समस्यायें हैं जिनकी जड़ में भ्रष्टाचार है। यह भ्रष्टाचार जब तब
नहीं मिटेगा तब कोई समस्या हल नहीं होगी मगर इसके विरुद्ध कोई सम्मेलन
नहीं करेगा। ब्रिटेन तो कभी नहीं क्योंकि उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था
से ही भ्रष्टाचार पनपा है और जिसके पास भी देश तथा समाज के प्रबंध का छोटा
भी अंश है वह अपने को राजा समझता है और बाकी को गुलाम। उनके लिये बैंकों
में जमा अपनी राशि इष्ट देवी है जिससे बढ़ते देख वह प्रसन होते हैं। फिर
जिस तरह अंग्रेजों ने इन एशियाई देशों से पैसा कमाकर अपने देश भेजा आज
उनके गुलाम यही काम रहे हैं। देखा जाये जो ब्रिटेन और अमेरिका ने आज तक
भी किसी परमाणु संपन्न राष्ट्र के खिलाफ युद्ध नहीं जीता पर फिर उसके चीन
जैसा प्रतिद्धंदी उसके सामने नम्र भाषा में बात करता है तब संदेह होता
है। यही कारण है कि इन विकसित राष्ट्रों ने भारत के प्रस्ताव को भी उसी
तरह खारिज किया जबकि वह विचारणीय था और उसमें व्यंग्य जैसा कुछ भी नहीं
था। बहरहाल विकासशील देशों के भ्रष्टाचार से अमीर हुए मुल्कों से यह आशा
करना ही बेकार है कि वह भ्रष्टाचार पर कभी कोई महासम्मेलन करेंगे।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
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5 वर्ष पहले
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