हमारे देश में आधुनिक व्यवस्था करीब करीब ऐसी
चरमर्राई अवस्था में है न तो हम अपनी स्थिति को खुशहाल कह सकते हैं न दर्दनाक होने
का रोना रो सकते हैं। देश में पाश्चात्य संस्कृति के घालमेल, असमंजस्यपूर्ण शिक्षा पद्धति तथा कथित
अव्यवस्थित विकास ने पूरे समाज को अस्त व्यस्त कर दिया है। शहरों में आलीशान मकान
बन गये हैं पर सड़कें जर्जर हैं। जनसंख्या
बढ़ी है पर रास्ते पर जाम कारों की वजह से लगता है। सबसे बड़ी बात यह है कि रोजगार क्षेत्र में अनिश्चितता
और अस्थिरता के वातावरण ने लोगों को मानसिक रूप से तनावग्रस्त कर दिया है। स्थिति यह है कि विभिन्न विद्वानों के भाषणों,
कवियों की कविताओं और फिल्मों के
कथानकों में धनवानों को क्रूर बताया जाता है पर अंततः सक्रिय लोग इन्हीं के दरबार
में मत्था टेकते हैं।
हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था के
सिद्धांत अपनाये गये हैं। उसमें करप्रणाली इस तरह रही कि अमीरों से अधिक कर वसूला
जा सके। इसका प्रभाव यह हुआ कि छोटे तथा
मध्यम वर्ग धनिक कभी अधिक धन नहीं बन सके पर जो अधिक धन हैं वह अपनी शक्ति के बल
पर करचोरी कर अपना स्तर बनाये रखने में सफल रहे। स्थिति यह है कि देश में गरीब और
अमीर के बीच खाई अधिक चौड़ी हो गयी है। देश की सामाजिक, आर्थिक, कला, पत्रकारिता,
खेल तथा सभी सार्वजनिक संस्थाओं पर धनिक
लोगों ने अपने शिखर पुरुष स्थापित कर दिये हैं। जहां भ्रष्टाचार और व्याभिचार की
घटनायें होना आम हो गया है। एक तरह से
धनिक लोग अब केवल व्यापारी नहीं रहे वरन्
राज्य से अधिक शक्तिशाली दिखते हैं। ऐसे
में गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों में निराशाजनक का भाव व्याप्त हो गया है।
देश की प्राकृतिक संपदा का दोहन अमीरों के
पक्ष में हो रहा है। गंगा और यमुना जैसी नदियां कारखानों के साथ ही शहरों की गंदगी
का बोझ ढोते ढोते अशुद्ध हो गयी हैं। इतना ही नहीं अनेक शीतल पेय उत्पाद कारखानों
ने तो जमीन के जल को भी सोखने के साथ ही विषाक्त भी कर दियया है। जिनसे बीमारियां फैलती है। उसके बाद चिकित्सा यह हाल है कि गरीब आदमी के
लिये राजकीय चिकित्सालयों में वैसी सुविधायें नहीं है जैसी कि अमीरों के निजी
चिकित्सालयों में है। चिकित्सक अब भगवान नहीं व्यवसायी हो गये हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत्।।
हिन्दी
में भावार्थ- धनवान, विद्वान, राजा, नदी
और वैद्य यह पांच लोग अपने क्षेत्र को प्रसन्न रखते हैं। जहां यह विद्यमान न हो वहां एक दिन भी नहीं
रुकना चाहिये।
लोकयात्रा भयं लज्जा दक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तत्र सिंस्थतिम्।।
हिन्दी
में भावार्थ-जहां भौतिक
उपलब्धियां, भय, लज्जा, दान तथा त्याग का भाव न हो वहां रहने का प्रयास नहीं
करना चाहिये।
सबसे हैरानी इस बात की है कि समाज कल्याण का
विषय राजकीय बना दिया गया है। राजसी मद
में डूबे आर्थिक शिखर पुरुषों ने समाज की स्थितियों से एकदम मुंह मोड़ लिया है। दान दक्षिणा जैसी बातें अब केवल कर्मकांड तक ही
सीमित रह गये हैं। ऐसा नहीं है कि निष्काम
दया करने वाले इस देश में कम हैं पर जनसंख्या जिस अनुपता में बड़ी है उस अनुपात में
दानदाता नहीं बढ़े। इसका कारण यह है कि राज्य जब समाज कल्याण करता दिखता है तो
सात्विक धनिक लोग भी यह मानकर मुंह फेर लेते हैं कि सब ठीक चल रहा है। इधर अपराध इतनी तेजी बढ़े हैं कि लगता है कि
जिनके पास धन, बल, और पद है उनके लिये एक कानून और आम इंसान के
लिये दूसरे हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हम देश की छवि को उज्जवल रखने वाले
तत्वों पर विचार करें तो निराशा हाथ लगती है।
इसके लिये राजसी कर्म में लगे लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिये कि देश
की व्यवस्था को किस तरह आदर्श मार्ग पर ले जाया जाये।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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