छोड़ चुके हम सब चाहत,
मजबूरी से न समझना आहत।
कहें दीपकबापू खुश होंगे हम
ढूंढ लो अपने लिये तुम राहत।
----
बुझे मन से न बात करो
कभी दिल से भी हंसा करो।
बिना मतलब भी चला करो
सदा धनजाल में न फंसा करो।
-----
भ्रमजाल फैलाकर सिंहासन पा जाते
नाम शेर पर जनधन चूहे जैसे खाते।
‘दीपकबापू’ प्रजातंत्र में भी हम मजबूर
ठगों को राजपद पर बैठा पाते।।
----
भ्रष्टाचारी करते सबका बेड़ा पार
झूठे चलाते भलाई का व्यापार।
बेबस जन ‘दीपकबापू’ क्या करें
उठाये कंधों पर राजकर का भार।
---
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें