बाग के माली ही
फल फूल लूट जाते हैं।
हिस्से लेते पहरेदार
नज़रों से बेईमानी के किस्से
यूं ही छूट जाते हैं।
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कभी प्रजा थे
अब राजा बन गये हैं।
आदतें पुरानी रहीं
विज्ञापन में ताजा बन गये हैं।
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सूरज चांद से
अपनी देह की
दूरियां क्या नापेंगे।
दिल की काली नीयत
छिपाने वाले
सच का हाल क्या छापेंगे।
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जाम की महफिल में
दोस्त तभी तक रहते
जब तक ग्लास भरे हैं।
बेहोशी के वादे पर
कमअक्ल ही आस करे हैं।
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सिंहासन पर बैठे
उन्हें हमदर्दी के
दो शब्द ही तो कहने हैं।
बाकी शिकारी के दिये दर्द
शिकार को ही सहने हैं।
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जिंदगी में कदम कदम पर
हमसफर बदल जाते हैं।
साथ रहे तो अपने
छूटे गैर में बदल जाते हैं।
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वीरता की पहचान
शब्द विदुषक नहीं करते।
दाम में बेचते वाणी
किसी के दर्द पर
कभी आह नहीं भरते।
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उनके कारनामों पर
अब हंसने से भी
खून नहीं बढ़ता है।
धोखे का व्यापारी
ऊंचे तेजी से चढ़ता है।
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नाचे मयूर
फिर पांव देखकर रोये है।
इंसान भी मस्ती के बाद
फिर उधार चुकाने में खोये है।
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आंखें अपनी
पर नज़र के लिये
चश्मा पराया लेते हैं।
सोच गिरवी रखकर
गुलामी बकाया लेते हैं।
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शातिर सौदागर
इंसानों को भी
बैलों जैसा लड़वाते हैं।
दौलत की खातिर
जंगखोरों के दरवाजे
सोने से जड़वाते हैं।
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अपने पिटारे से
सामान निकालकर
जादूगर वाहवाही लूटता।
पर हाथ की सफाई से
अक्लमंद कभी नहीं टूटता
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बोलते अनापशनाप
अपनी जुबान पर काबू नहीं है।
मुरझाये चेहरा
अपने ही शब्दों से
सोच जब लागू नहीं है।
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निकम्मों से भी यारी
करते यह सोच
शायद कभी कम आयें।
भ्रम में जीते रहें वह भी
शुभकाम में न सतायें।
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