आंखें देखें दिल चाहे न क्या फायदा, एक राह प्रेम चले यह नहीं कायदा।
‘दीपकबापू’ जुबां से चाहे जो शब्द बोलें, यकीन से दूर ही समझें वायदा।।
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लक्ष्य सबका महल की सीढ़ियां चढ़ना है, कुचलकर पायदान आगे बढ़ना है।
‘दीपकबापू’ बादशाहों को देते सलामी, कौन उनकी नज़र में रोज पड़ना है।।
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महंगा है सोना जो पेट न भर सके, सजते नकली फूल जो सुगंध न कर सके।
‘दीपकबापू’ बेजान प्रतिमा पर चढ़ाते फूल, जज़्बात कभी दिल में जो भर न सके।।
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मिलावट से सामान पर भरोसा नहीं है, कौन कहे अशुद्ध खाना परोसा नहीं है।
‘दीपकबापू’ बीमारों की फौज में खड़े, किसने अपने पेट को कभी कोसा नहीं है।।
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गुणीजन भी पराये के ढेर दोष बताते, पर अपना गुण दिखाने में लजाते।
‘दीपकबापू’ अपनी बड़ी रेखा खींचते नहीं, पहले खींची पर थूक लगाते।।
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अपना काम निकालना सभी जाने, मतलब निकलते ही मुंह फेरें सयाने।
अनचाहे नेकी दरिया में ही जाती, ‘दीपकबापू’ लगते अपना पुण्य बताने।।
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इंतजार है कि वह शहर अपना सजायेंगे, वरना फिर कोई नया सपना बतायेंगे।
‘दीपकबापू’ सच से रोज होता सामना, वादों के सौदागर महल अपना बनायेंगे।।
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बेईमानों ने ईमान लाने की मुहिम चलाई, पानी का सौदा बेच चाटी मलाई।
‘दीपकबापू’ समाज सेवा का धंधा चलाते, मशाल जलाते लूटकर दियासलाई।।
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रंकों की भीड़ में राजा पाये सम्मान, भिखारी खुश जब पाये रुपये का दान।
‘दीपकबापू’ रखें श्रद्धा फलहीन बुत में, फूल कैसे आकर दें सुगंध का वरदान।।
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इंसान पटाने में उनके अपने गुणा भाग हैं, बोलने से अलग करने के राग हैं।
‘दीपकबापू’ चरित्रवान का लगाते हिसाब, वही जिस पर लगे काम दाग हैं।।
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पहले नतीजा लिखकर तय कर लेते हैं, नाम खेल या जंग धर लेते हैं।
‘दीपकबापू’ पर्दे पर लगाये बैठे आंखें, कभी डरते कभी हंसी भर लेते हैं।।
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ईंट पत्थर के शहर रंग से सजाये हैं, सड़क पर लोहे के पिंजरे भंग से चलाये हैं।
‘दीपकबापू’ चोर सेठ की पहचान खोकर, दोस्ती पाखंडियों के संग से सजाये हैं।।
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ढूंढते रोज गम से बचने के नये बहाने, पर्दे पर डाले आखें कभी जायें मयखाने।
‘दीपकबापू’ चाहतों के बेलगाम घोड़े पर सवार, निकले घर से मन की शांति पाने।।
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लोकतंत्र में लाश जिंदा भाव बिकती हैं, घृणा की आग पर चुपड़ी रोटी सिकती हैं।
‘दीपकबापू’ अंग्रेजी पढ़की हुई तंग बुद्धि, पर्दे का चलते दृश्य देखकर ही टिकती है।।
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ईमानदारी का दावा लोग सभी करते है, बेईमानों से रिश्ते का दंभ भी भरते हैं।
‘दीपकबापू’ खोई लालच में अपनी पहचान, अपना गरीब नाम अमीर भी धरते हैं।।
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चहुं ओर सौदागर सिंहासन पर सजे हैं, बैठने के लेते दाम बिना काम के मजे हैं।
‘दीपकबापू’ वाहन पर सवार खिलौने जैसे, नाम सेवक पर स्वामी जैसे स्वर बजे हैं।।
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मुंह में राम नाम हाथ में सेवा का काम, पाखंडी गुरु भक्तों से वसूल करते दाम।
‘दीपकबापू’ बौरा जाते हैं इर्दगिर्द भीड़ देख, पैसे बटोरते हुए बुद्धि भी होती जाम।।
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