पहले करें हिंदी साहित्य और प्रचार जगत में फैली गुटबाजी की। उससे ऐसे अनेक लेखक-जिनमें इस ब्लाग/पत्रिका का लेखक भी-त्रस्त रहे हैं। यह त्रस्तता इतनी भयानक रही है कि कुछ लोगों ने तो लिखना ही बंद कर दिया और कुछ स्वांत सुखाय लिखते रहे पर उन्हें देश का एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग नहीं पढ़ सका। दरअसल लेखक और पाठक के बीच जो बाजार या संस्थान हैं उनके केंद्र बिंदू में सक्रिय पूंजीपति, मठाधीशों और उनके प्रतिनिधियों ने अपनी शक्ति के आगे नतमस्तक लोगों का वहां बनाये रखा। बाजार को पैसे की तो हिंदी संस्थानों को प्रचार की जरूरत थी और जिसने उनकी जरूरतों को पूरा किया वही उनका लाड़ला बना। बाजार के पूंजीपति और हिंदी संस्थानों के कर्णधार अपनी प्रतिभा का उपयोग हिंदी के लेखकों को आगे आने देने की बजाय उनको भेड़ की तरह हांकने में करना चाहते हैं। उनकी मानसिकता एक सभ्य व्यापारी से अधिक ग्वाले की तरह है जो बस अपने पालित पशुओं को हांकना ही जानता है। सच कहें तो लेखकों को एक तरह से लिपिक माना गया।
परिणाम सामने है। पिछले कई दशकों से हिंदी में एक भी ऐसी पुस्तक या रचना नहीं आयी जिसे सदियों तक याद रखा जा सके। हम ब्लाग लेखकों में कई ऐसे हैं जो अपनी नौकरी और व्यापार से जुड़े रहते हुए अपना लेखन सामान्य पाठक तक पहुंचाने में नाकाम रहे पर इसका हमें क्षोभ या दुःख नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसे में हम इसे भाग्य कहें या कर्म कि अंतर्जाल पर स्वतंत्र रूप से ब्लाग/पत्रिका लिखने का अवसर मिला। यहां अंतर्जाल पर ऐसे लेखकों को असफल लेखक कहकर मजाक भी उड़ाया जाता है ऐसा कहने वाले पुरानी प्रवृत्ति के लोग हैं और उनके लिये सफलता का पैमाना अधिक छपना और प्रसिद्ध होने से अधिक कुछ नहीं है। किसी लेखक के पाठ की मौलिकता, गुणवत्ता और कालजयित से उनको कोई मतलब नहीं है। ऐसी रचनायें अब अंतर्जाल पर ही आना संभावित हैं जिसके सामने प्रकाशन व्यवसाय और हिंदी संस्थानों की शक्ति अत्यंत सीमित है।
यहां भले ही कोई पूंजीपति कुछ ब्लाग लेखकों को खरीदकर उसमें अपने यहां के प्रकाशन की पुस्तकों का प्रचार कराये या कोई हिंदी संस्थान अपने निर्धारित लेखकों के प्रचार के लिये कुछ ब्लाग लेखकों को तैयार करे पर समूचे हिंदी ब्लाग जगत का कोई स्वामी नहीं बन सकता। यहां हर ब्लाग लेखक एक प्रकाशन और संस्थान स्वयं हैं। वह किसी सेठ या मठाधीश का मोहताज नहीं है। अपने की बोर्ड को वह एक तोप या मिसाइल लांचर की तरह उपयोग कर अपने पाठ कहीं भी बम या मिसाइल की तरह पहुंचा सकता है। ब्लाग स्पाट या वर्डप्रेस के ब्लाग किसी भारतीय की संपत्ति नहीं है इसलिये पूरा हिंदी ब्लाग जगत किसी एक का बंधुआ बनने की संभावना नहीं है। जहां तक आर्थिक उपलब्धियों का प्रश्न है तो उसकी संभावना स्वतंत्र एवं मौलिक लेखकों के लिये इस समय लगभग नहीं के बराबर है। फिर जो इस समय लिख रहे हैं वह संभवतः आत्मनिर्भर हैं और शौकिया तौर पर ही यहां सक्रिय हैं। जब उनमें से कुछ लोग प्रसिद्धि पा लेंगे तो संभावना है कि बाजार उसका लाभ उठाना चाहे-उसमें भी इस देश से अधिक विदेश से ही संभावना है क्योंकि देशी बाजार के लिये हिंदी लेखक कोई मायने नहीं रखता, अगर स्वतंत्र और मौलिक है तो बिल्कुल नहीं। अनुवाद टूलों के जरिये हिंदी की रचनायें अन्य भाषाओं में पढ़ी जा रही हैं और हिंदी में मौलिक और स्वतंत्र लेखकों के प्रसिद्ध होने का यही एक मार्ग दिखता है। यही वह मार्ग है जहां हिंदी प्रकाशनों और संस्थानों के कर्णधारों की इच्छा और सहयोग के बिना हिंदी लेखकों का प्रसिद्धि के शिखर पर जाने का अवसर मिल सकता है।
हो सकता है कि कुछ लेखक पुरानी प्रवृत्ति के चलते अंतर्जाल पर सक्रिय आर्थिक और सामाजिक शक्तियों के केंद्र बिन्दू में स्थित लोगों की चाटुकारिता करते हों और उनको लाभ भी मिले पर इसका आशय यह बिल्कुल नहीं है कि स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के लिये कोई संभावना नहीं है। कई मायनों में स्वतंत्र और मौलिक लेखकों को तो एक नया खुला आकाश मिला है विचरण करने के लिये-जहां वह अपनी कविताओं, कहानियों और हास्य व्यंग्यों को कबूतर की तरह उड़ाने के लिये जिससे उनका नाम भी चमकता नजर आयेगा। जो कथित रूप से गुटबाजी में व्यस्त हैं उनके लिये तो सीमित संभावनायें रहेंगी पर जो स्वतंत्र और मौलिक रूप से लिखने वाले हैं उनके लिये प्रसिद्धि के मोती प्रदान करने वाला विशाल सागर है।
ऐसे में स्वतंत्र लेखक अंतर्जाल की व्यापाकता के साथ बाहर मौजूद प्रकाशनों और संस्थाओं की सीमित उपलब्धियों को समझें। वहां सीमित उपलब्धियां थी और इसलिये उनमें से अपना भाग पाने की प्रतियोगिता ने वहां गुटबाजी पैदा की जिससे हिंदी साहित्य में बेहतर लेखक और रचनाओं का लगभग टोटा पड़ गया। अंतर्जाल पर अपनी सक्रियता को अपना भाग्य मानते हुए स्वतंत्र और मौलिक लेखक अपने रचनाकर्म से जुड़े रहें और कथित गुटबाजी देखने में वह अपनी ऊर्जा को नष्ट करना उनके लिये ठीक नहीं है। वह स्वयं ही लेखक, संपादक और प्रकाशक हैं और उसी स्वाभिमान के अनुरूप उनको व्यवहार करना चाहिये। जो लोग ऐसा नहीं करते और निरंतर गुटबाजी पर ही दृष्टिपात करते हैं उनको यह बात समझ लेना चाहिये कि इस स्वतंत्र आकाश में उनको पुरानी गुलाम मानसिकता का प्रतीक माना जा सकता है।
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1 टिप्पणी:
पूर्णतह सहमत हूं दीपक !
हर ब्लोग एक स्वतन्त्र संस्थान है .........सही .
मोहताज़ है कि नहीं ..............यहीं तो मामला बनता है कि कोई बेंच रहा है , बिक रहा है .बेंचा जा रहा है , या बिकने के ही लिये बैठा है ? इसमे मैं कोई बुराई भी नहीं मानता . सवाल है कि ’ बेंचा ’ क्या जा रहा है ?
क्या उसमे ’ सत्यम शिवम सुन्दरम ’ है ? बस.
अब साधुवाद कहूं तो पुराने ’ कल्ट ’ का शिकार बनूं इस शब्द को सस्ता बना दिया गया है . लेकिन कहा यही जा सकता है . आपको पढकर .
तो
साधुवाद !
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