28 सितंबर 2014

आकाश पाने की चाहत-हिन्दी कविता(akasha pane ki chahat-hindi poem)



पंछी की तरह
जिंदगी के आकाश में
उड़ने की चाहत
किस इंसान में नहीं होती।

पंख नहीं दिये प्रकृति ने
फिर भी आकाश से तारे
तोड़ने की ख्वाहिश
किस इंसान में नहीं होती।

कहें दीपक बापू शिखर पर
चढ़ जाते लोग उड़ने के लिये
गिर जायेंगे जमीन पर
टूट जायेंगे हाथ पांव,
हंसेगा पूरा गांव,
चाहतों के साथ
शरीर के टूट जाने की आशंका भी
किसी इंसान में नहीं होती।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

22 सितंबर 2014

पूर्ण स्वस्थ रहने का नियम-हिन्दी कविता(poorn swath rahane ka niyam-hindi poem)



हर इंसान में
दूसरे पर राज्य करने की
इच्छा हमेशा रहती है।

कोई नहीं देखता
अपनी सूरत आईने में
वह वास्तव में क्या कहती है।

सिंहासन का प्रस्ताव
अस्पताल में भर्ती मरीज के लिये
करता दवा का काम
मृत हो रहे हृदय में
नयी सांस बहती है।

कहें दीपक बापू पूर्ण स्वस्थ
रहने का नियम कहीं
माना  नहीं जाता,
जिसके पास ओहदा
उसके पास ढेर सारे
चिकित्सक होते
इलाज करने के लिये
डर के मारे बादशाहों को
मरीज का ताना दिया नहीं जाता,
इतिहास गवाह है
आम जनता हिटलर जैसे
विकट मनोविकारी का राज्य भी
खामोशी से सहती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

14 सितंबर 2014

व्यापार कभी हिन्दी भाषा का सहायक नहीं हो सकता-14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष संपादकीय लेख(vyapa kabhe hindi bhasha ka sahayak nahin ho sakta--A Special editorial aritcle on 14 september on hindi day, hindi diwas ho hindi divas)



      14 सितम्बर हिन्दी दिवस के अवसर पर ऐसा पहली बार हुआ है जब हिन्दी टीवी चैनल इस पर उत्सव मनाकर अपने विज्ञापन प्रसारण का समय पार लगा रहे हैं।  एक टीवी चैनल ने तो अपना मंच फिल्मी अंदाज में तैयार कर हिन्दी भाषा के आधार पर व्यवसायिक करने वाले लोगों को आमंत्रित किया।  उसमें तमाम विद्वान अपने तर्क दे रहे थे।  एक विद्वान ने स्वीकार किया कि हिन्दी भाषा का आधार किसान और मजदूर हैं।  हम जैसे मौलिक लेखक मानते हैं कि हिन्दी सामान्य जनमानस की चहेती भाषा है और विशिष्ट लोगों के राष्ट्रभाषा या मातृभाषा बचाने के प्रयास दिखावटी हैं।  इस चर्चा में बाज़ार या व्यावसायिक क्षेत्रों में प्रचलित हिन्दी पर चर्चा हुई।  कुछ विद्वानों का मानना था कि बाज़ार हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ रहा है तो अन्य की राय थी ऐसा कुछ नहीं है और हिन्दी भाषियों को उदार होना चाहिये।
      हिन्दी दिवस पर इस तरह की चर्चायें होती रहती हैं पर पहली बार ऐसी चर्चा टीवी चैनल पर हुई।  इसमें समाचार पत्र पत्रिकाओं में शीर्षकों तथा विषय सामग्रंी के साथ  में अंग्रेजी शब्दों के उपयोग पर भी विचार हुआ।  इस तरह की प्रवृत्ति ठीक है या नहीं यह एक अलग विषय है पर इसका पाठकों पर जो प्रभाव हो रहा है उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अक्सर लोग यह शिकायत करते हैं कि अंग्रेजी अखबार हिन्दी से अधिक महंगे हैं।  अगर हम इसके पीछे के कारण जाने तो समझ में आयेगा कि चूंकि लोग अखबारों को अंग्रेजी भाषा ज्ञान बनाये रखने के लिये पढ़ते हैं इसलिये उनकी प्रसार संख्या मांग से कम होती है।  मांग आपूर्ति के नियमानुसार  वह  महंगे दाम पर भी बिक जाते हैं। जबकि हिन्दी प्रकाशनों की संख्या अधिक है तो पाठक संभवत उस मात्रा में उपलब्ध नहीं है। एक समय हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकायें लोकप्रिय थीं पर इसका कारण उनकी विषय सामग्री कम उसके अध्ययन से  हिन्दी भाषा को आत्मसात करने की प्रवृत्ति लोगों में अधिक थी।  लोग साहित्यक किताबों की बजाय समाचार पत्र पत्रिकाओं पर हिन्दी ज्ञान के लिये निर्भर रहना पंसद करे थे। अब अगर कोई व्यक्ति हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं के अध्ययन से हिन्दी भाषा आत्मसात करने की बात सोच भी नहीं सकता।  हिन्दी समाचार पत्र यह मानकर चल रहे हैं कि युवा वर्ग हिन्दी नहीं जानता इसलिये अपने विशिष्ट पृष्ठों में अंग्रेजी शब्दों का अनावश्यक  उपयोग करते हैं। हमें पता नहीं कि इसका उन्हें लाभ है या नहीं पर हम जैसे पाठक ऐसी सामग्री को पढ़ने में भारी असहजता अनुभव करते हैं।  हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाओं ने अपने पाठकों का मानस समझा नहीं जो कि अध्यात्म प्रवृत्ति का है। यही कारण है कि देश भर के प्रतिष्ठित धार्मिक संस्थाओं की पत्र पत्रिकायें आजकल लोगों के घरों में अधिक मिलती है और हिन्दी के व्यवसायिक प्रकाशनों को ग्राहक उसी तरह ढूंढने पर रहे हैं जैसे कि कपड़े वाला ढूंढता है। एक समय सामाजिक, राजनीतिक, महिला, बाल तथा मनोरंजन के विषयों वाली पत्रिकायें अक्सर लोगों के घर में मिल जाती थीं पर आजकल यह नहीं होता। कह सकते हैं कि इसके लिये आधुनिक संचार माध्यमों जिम्मेदार हैं पर सवाल उठता है कि आखिर अध्यात्मिक पत्र पत्रिकाओं पर यह नियम लागू क्यों नहीं होता? हिन्दी व्यवसायिक प्रकाशनों के प्रबंधकों को इसके लिये आत्म मंथन करना चाहिये कि इतना बड़ा जनसमूह होते हुए भी उनके प्रकाशनों से लोग क्यों मुंह मोड़ रहे हैं। कहीं यह भाषा के लिये आयी उनकी प्रतिबद्धता की कमी तो नहीं है?
      इतना ही नहीं यह प्रकाशन समूह देश में रचना के पठन पाठन तथा सृजन की नयी प्रवृत्तियों के संवाहक भी नहीं बन पाये और दूसरी भाषाओं के रचनाकारों तथा रचनाओं को हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत कर यह श्रेय तो लेते रहे हैं कि वह हिन्दी पाठक के लिये बेहतर विषय सामग्री प्रस्तुत की हैं पर आजादी के बाद एक भी लेखक का नाम इनके पास नहीं है जिसे उन्होंने अपने सहारे प्रतिष्ठा दिलाई हो।  क्या हिन्दी में बेहतर कहानियां नहीं लिखी जातीं या प्रभावी कविताओं की कमी है? यह सोच हिन्दी प्रकाशन समूहों के प्रबंधकों और संपादकों का हो सकता है पर यही उनके उस कम आत्मविश्वास का भी प्रमाण है जिसके कारण भारतीय जनमानस में हिन्दी प्रकाशनों की प्रतिष्ठा कम हुई है।
      आखिरी बात यह कि बाज़ार पर आक्षेप करना ठीक नहीं है। भाषा का संबंध भाव से और भाव का संबंध भूमि से होता है। भारत में हिन्दी ही सर्वोत्म भाषा है जो सहज चिंत्तन में सहायक होने के साथ ही उसके संवाद और उसके प्रेक्षण के लिये एक उचित माध्यम है। माने या माने पर इस सत्य से अलग जाकर हिन्दी के विकास पर बहस करना केवल औपचारिकत मात्र रह जाती है।


दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

5 सितंबर 2014

जब अंग्रेजी का भाव घट जाये-हिन्दी दिवस पर हास्य कविता(jab inglish ka bhav ghat jaye-hindi comedy poem on hindi diwas)



रास्ते में मिला फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू 14 सितंबर का दिन
आने वाला है,
हिन्दी का आकाश
ज़मीन पर छाने वाला है,
समाचारों पर नज़र रखना
शायद कोई सम्मान तुम्हारे लिये
कहीं से आ जाये,
तुम्हारे पर लगा फ्लॉप का
ठप्पा हट जाये।’’

सुनकर हंसे दीपक बापू और बोले
‘‘कभी साहित्य से तुमने दिल
लगाया नहीं,
मान सम्मान के विषय से
कभी दिमाग हटाया नहीं,
चाटुकारिता के कर्म का फल
उपाधियां और सम्मान है,
नहीं सोच सकते वह लेखक
इस बारे में
स्वांत सुखाय की
जिन्होंने  रखी ठान है,
एक कविता लिखकर
बहुत सारे चालाक
साहित्य बाज़ार में तर गये,
जिन्होंने नहीं दिखाया
बिकने का कौशल
उनके शब्द चौराहे पर आये
 फिर अपने घर गये,
हिन्दी अब हमें कहां सम्मान दिलायेगी,
उसका संघर्ष अब तोतली
हिंग्लिश भाषा से है
प्रश्न यह है कि वह स्वयं
अपनी जान कैसे बचायेगी,
भारतीय मुद्रा रुपया
डॉलर और पौंड से
सस्ता होता जा रहा है,
वैसे ही स्कूल का बस्ता
हिन्दी खोता जा रहा है,
पूर्व से उगता है सूरज
भारतीय समाज
पश्चिम में निहार रहा है,
पूर्व से कर ली पीठ
सत्य से हार रहा है,
जब हम जैसे लेखक
सम्मान देने वालों की
योग्यता पर सवाल उठायेंगे,
तक क्या पुरस्कार पायेंगे,
हिन्दी दिवस की हमें भी प्रतीक्षा है
14 सितंबर एक ही दिन होता
जब अंग्रेजी का भाव घट जाये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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