कलम अब तो चाटुकारों के हाथ में है, गुलाम अर्थ मालिक के साथ में है।
दाम में हंसी न मिले आंसु बिके नहीं, ‘दीपकबापू’ दिल अपने हाथ में है।।
पाने की चाह नहीं थी मोती कहां पाते, लोभ न था दौड़कर कहां जाते।
‘दीपकबापू’ पा लिया मौन का समंदर, जली हुई प्यास लेकर कहां जाते।।
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मौन सदा गूढ़ वक्तव्य नहीं होता, भय से बंद शब्द भव्य नहीं होता।
‘दीपकबापू’ कलुषित भाव छिपे नहीं, शुद्ध हृदय दृश्यव्य नहीं होता।।
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युद्ध देखना है या हाथ से करना है, ढूंढते कहां रक्त का झरना है।
‘दीपकबापू’ बुद्धि ने पाया हिंसक स्वाद, दूसरे के घाव से मन भरना है।।
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सिंहासन पर एक नहीं तो दूजा चढ़ेगा, लालची मान का त्यागी शब्द पढ़ेगा।
‘दीपकबापू’ बिसात पर खेल रहे शतरंज, पिटा वजीर एक कदम नहीं बढ़ेगा।।
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कभी यायावर होने का स्वांग रचते, फिर कभी मायावी महल में नचते।
‘दीपकबापू’ बहुरुपियों के बीच खड़े, अपने ही वास्तविक रूप से बचते।
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अपने स्वाद के लिये लोग बहाने ढूंढते हैं, मन ऊबा नये तराने ढूंढते हैं।
‘दीपकबापू’ खिलौने जैसे सपने संभाले हैं, ज़माने के लिये ताने ढूंढते हैं।।
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दिल बिक जाये तो इंसान क्या चीज है, सभी में कम दौलत की खीज है।
‘दीपकबापू’ छोटा बड़ा नहीं देखते कभी, स्वार्थ का सभी में लगा बीज है।
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बीते बिसारें नहीं आगे की बुहारें नहीं, सुधारक बने अपना चरित्र सुधारें नहीं।
‘दीपकबापू’ किताबों के शीर्षक रटे बैठे, नकली शब्दवीर रोयें कभी हुंकारें नहीं।।
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