दिखाने के लिये नाटक बहुत हैं,
सिखाने के लिये दाव बहुत हैं।
कहें दीपकबापू कमअक्लों से की यारी
लिखाने के लिये दर्द बहुत हैं।
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भूत के भय से भीड़ बुला लेते,
झाड़फूंक का मंत्र बेचकर सुला देते।
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आओ उनके इंतजाम पर तालियां बजायें,
डरकर हंसिये मन में चाहे गालियां सजायें।
अपनी पहचान से लुटे हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता
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इतिहास गवाह कि
आमजनों के खजाने
ताकत की दम पर लुटे हैं।
बहीखाते कौन देखे
पहरेदार अपनी नाकामी
दर्द से छिपाने में जुटे हैं।
कहें दीपकबापू
बंद तहखानों में झांकने की
कोशिश बेकार
अंधेरों में स्वर्णिम सिक्के
अपनी पहचान से लुटे हैं।
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सपने हसीन बहुत दिखाते,
सबका भला करना सिखाते।
कहें दीपकबापू स्वयं न होता कुछ
भीड़ की उंगली पर आसरा टिकाते।
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नारों का पुलिंदा हुआ लोकतंत्र,
खोखले वादों का सजा हर मंत्र।
‘दीपकबापू’ तांत्रिक हुए आधुनिक
हवन के बदल चले विद्युतीय यंत्र।
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सिंह खत्म हुए राजा अब सियार हैं।
रक्षक नाम पर कातिलों का यार है।
कहें दीपकबापू पत्थरों के वन में
दिल नहीं अब दौलत हथियार हैं।
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बेबसों को रोज बेचो वह भरोसा लेंगे,
टूटा तो भाग्य कोसा करेंगे।
कहें दीपकबापू सेवा में जुटे मारीचि
न आलू होगा न समोसा भरेंगे।
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शहीदों की याद अपने नाम दीप जलायें।
श्रद्धांजलि में अपने शब्द चलायें।
कहें दीपकबापू हमदर्द बने व्यापारी
दर्द की दवा में दुआ रस चलायें।
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गरीब के सपने पर महल खड़े,
मिली मदद पर कागजों के ताले जड़े।
कहें दीपकबापू मूर्ख हैं वह
बाज़ार में ढूढें ईमानदार खड़े।
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भलाई का वादा कर साथ मांगा था,
अब भूली यादों में उसे टांगा था।
कहें दीपकबापू हमारा जिस्म घोड़ा
उनका इरादा अपना तांगा था।
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