11 फ़रवरी 2018

सिंहासन पर बैठे उनकी हर बात मानो-दीपकबापूवाणी (Sinhasan par Baithe unki baat mano-DeepakBapuwani)


धोखा की कला चालाकी कहते,
मजाक के दौर गाली में बहते।
‘कहें दीपकबापू’ बेकार व्यंग या कविता
चिंतित लोग बिचारे तस्वीरों में रहते।
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‘दीपकबापू’ भावनाओं का व्यापार करते, 
भक्त करें इष्ट के दूत होने का दावा, 
भक्तों को पाखंड पर इष्ट करे पछतावा।
‘दीपकबापू’ परोपकार में भी चले व्यापार,
सबके कल्याण क है बड़ा छलावा।।
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क्या हुआ सड़कों पर गड्ढे पड़े हैं,
दोनों ओर सुंदर भवन भी तो खड़े हैं।
‘दीपकबापू’ ताजा हवा ढूंढते 
कई ठूंठ बरगद भी नाम के बड़े हैं।
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सिंहासन पर बैठे उनकी हर बात मानो,
जब बोलें तब ही सुबह रात मानो।
कहें दीपकबापू वीर रस हुआ फीका
आनंद तो भक्ति रस के साथ मानो।
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जिंदादिल अब मिलते नहीं है,
अपने दर्द पर भी हिलते नहीं है।
‘दीपकबापू’ फूल अब भी दे सुगंध
फिर भी लोगों के प्राण खिलते नहीं है।
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घर भरे पर शहर में सन्नाटा-हिन्दी व्यंग्य कविता
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शहर के सुंदर घर भरे 
मगर सड़कों पर सन्नाटा है।
ताकतवर दीवारों ने चीखों को
बाहर आने से पहले ही काटा है।
कहें दीपकबापू आओ गर्व करें
अपनी सभ्यता में पलते संस्कारों पर
अंधविश्वास में छिपाते डर
जहां बेहरमी से
नयी तकदीर को बूढ़ी सोच से पाटा है।।
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