29 जनवरी 2010

चुटकुले और हास्य कविताऐं भी साहित्य होती हैं-आलेख (chutkule aur sahitya-hindi lekh)

पता नहीं कुछ लोग चुटकुलों को साहित्य क्यों नहीं मानते, जबकि सच यह है कि उनके सृजन में वैसे ही महारथ की आवश्यकता होती है जैसी कि कहानी या व्यंग लिखने में। चुटकुलों में ही एक अधिक पात्र सृजित कर उनसे ऐसी बातें कहलायी जाती हैं जिनसे स्वाभाविक रूप से हंसी आती है और पाठक इस बात की परवाह नहीं करता कि वह साहित्य है या नहीं।
चुटकुलों की तरह हास्य कविताओं को भी अनेक लोग साहित्य नहीं मानते जबकि उनकी लोकप्रियता बहुत है। ऐसे में सवाल यह है कि साहित्य कहा किसे जाता है?
क्या उन बड़ी बड़ी किताबों को ही साहित्य माना जाये जिनको एक सीमित वर्ग का पाठक वर्ग पढ़ता है और बहुतसंख्यक वर्ग उनका नाम तक नहीं जानता। अनेक पुस्तकें तो ऐसी होती हैं कि किसी मध्यम रुचि वाले पाठक को सौंप दी जाये तो वह उसे हाथ में लेकर एक तरफ रख देता है। क्या साहित्य उन पुस्तकों को माना जाये जिनमें अनेक पात्रों वाली उलझी हुई निष्कर्ष से पर कहानी हो या जिनको पाठक पढ़ते हुए यही याद नहीं रख पाता कि कौन से पात्र की भूमिका क्या थी? क्या साहित्य उन निबंधों को माना जाये जिसका आम आदमी की बजाय केवल समाज के एक खास वर्ग के आचार विचार से संबंधित सामग्री होती है?
पता नहीं साहित्य की क्या परिभाषा हो सकती है, पर हमारी नज़र में जो रचना अधिक से अधिक पाठक वर्ग को प्रभावित करे वह साहित्य है। दरअसल हमारे देश के सम्मानों को लेकर विरोधाभासी परंपरा रही है। भारत का व्यवसायिक सिनेमा ही देश की जनता की पंसद है पर जब पुरस्कार की बात आती है तो कथित कलात्मक फिल्मों को ही पुरस्कृत किया जाता है जो कि देश की गरीबी बेरोजगारी या अन्य समस्याओं को सीधे सीधे प्रस्तुत कर दर्शक के सामने प्रश्न चिन्ह प्रस्तुत करती हैं। उनसे न तो समस्यायें हल होती हैं न आदमी का मनोरंजन होता है। सवाल यह है कि एक आम आदमी के सामने प्रश्न आयें तो भी वह क्या करे? देश की सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक समस्याओं की उसकी कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती। अब भले ही पुरस्कार देने वाले आत्ममुग्धता की स्थिति में हों पर सच यही है कि व्यवसायिक सिनेमा ही इस देश के लोगों की दिल की धड़कन है।
यही स्थिति साहित्य से संबंधित पुरस्कारों की है। जब किसी लेखक की किताब छपी हो उसे ही पुरस्कार दिया जाता है जबकि सच तो यह है कि इस देश के हजारों ऐसे लेखक हैं जो अपनी रचनाओं से साहित्यक प्रवाह की निरंतरता बनाये हुए हैं-उनकी रचनायें अखबारों में छपती हैं या फिर वह मंच पर सुनाते हैं। इनमें अनेक चुटकुले और हास्य कविता लिखने वाले लेखक भी हैं। दरअसल हुआ यह है कि सम्मान आदि प्रदान करने वाली संस्थाओं पर कुछ रूढ़िवादी लेखक काबिज हो जाते हैं-यकीनन यह पद उनको चाटुकारिता लेखन के कारण ही मिलता है-जो चुटकुले या हास्य कवितायें नहीं लिख सकते वही उनकी गौण भूमिका मानते हैं जबकि इस देश का एक बहुत बड़ा वर्ग चुटकुले और हास्य कविताओं ही सुनता और पढ़ता है। इस देश में ऐसे अनेक कवि हैं जो अपनी हास्य रचनाओं के कारण ही लोगों के हृदय में छाये हुए हैं। यकीनन वह भी साहित्यकार ही हैं। प्रश्न चिन्ह खड़े करने वाली या समस्याओं को रूबरू कर पाठक के मन को चिंताओं के वन में छोड़ने वाली रचनायें ही साहित्य नहीं होती बल्कि जो लोगों के मन को मनोरंजन के साथ शिक्षा भी दें भले ही हास्य कविता या चुटकुले ही क्यों न हों साहित्य ही कही जा सकती हैं। वैसे हमारे यहां अब कुछ लोगों द्वारा क्षणिकाओं को भी साहित्य माना जाता है तब चुटकुलों और हास्य कविताओं की उपेक्षा करना ठीक नहीं लगता। अब लंबी रचनायें लिखने का समय नहीं रहा। थोड़े में अपनी बात कहने की आवश्यकता सभी जगह महसूस की जा रही है तब चुटकुलों और हास्य कविताओं का महत्व कम नहीं माना जा सकता।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

दीपक जी अपने एकदम उचित बात कही है क्योंकि हास्य रस का भी अपना अलग महत्व होता है कृपया मेरे नवीन ब्लॉग जिसमे मैंने कोशिश की है Hindi Jokes पर आप पधारें

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