क्रिकेट के व्यापार से जुड़े लोग इसमें खेलप्रेमियों में पहले राष्ट्रप्रेम
का दोहन करते थे। दो देशों की टीमों को
तयशुदा परिणाम मैच में लड़ाकर-इसे खिलाकर कहना गलत होगा-कमाई करते थे। अब क्षेत्रीय
प्रेम भी भुनाने लगे हैं। छह या आठ क्लब स्तरीय टीमें उतारकर बड़े शहर में
खेलप्रेमियों में उन्माद पैदा करते हैं-हम जैसे लोग अपने प्रदेश या शहर का नाम न
होने से इस प्रतियोगिता का प्रसारण देखने ही नहीं है। यह अलग बात है कि जिन शहरों या प्रदेश के लोगों
का इस प्रतियोगिता से सरोकार नहीं है वहां के लोग भी इसे देखते हैं। कहा जाता है कि सट्टेबाज इन मैचों में पर्दे के
पीछे अपना व्यवसायिक कौशन तथा प्रबंध भी दिखाते है जिससे यह क्लब स्तरीय प्रतियोगिता
भी प्रचार माध्यमों के सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो गयी है।
आज तक इस प्रतियोगिता का आर्थिक ढांचा हमारी समझ में नहीं आया। इस क्लब
स्तरीय प्रतियोगिता में खिलाड़ियों को अंतर्राष्ट्रीय मैचों से अधिक कमाई होती है।
इतनी कि अनेक खिलाड़ी भारी मन से देशभक्ति के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय मैचों में जाना
चाहते हैं। क्लब स्तरीय के व्यय देखकर नहीं लगता कि केवल दर्शकों की टिकटों की
राशि से यह खेल चल रहा हो। प्रसारण से
प्रचार माध्यम विज्ञापनों के कारण भुंगतान करते होंगे पर फिर भी इससे खेल व्यय की
भरपाई हो जाये यह लगता नहीं है। इससे भी
आश्चर्यजनक बात यह कि प्रतियोगिता में टीम की स्वामी संस्थायें स्वयं को घाटे में
बताती हैं। तब अनेक प्रकार के संदेह स्वाभाविक रूप से उठते हैं कि यह सब चल कैसे
रहा है?
ऐसे में इसके पीछे सट्टेबाजी का शक होता है तो
कोई बड़ी बात नहीं। सट्टेबाजी एक पाप कर्म
है पर यह अपराध माना जाये कि नहीं इस पर अलग बहस हो सकती है। कुछ लोगों मानना है
कि सट्टेबाज, जुआरी और व्यसनी अपनी हानि स्वयं करते हैं इसलिये उन्हें दूसरी सजा देना
ठीक नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि राज्य का काम है कि वह इसे रोके।
पहली विचारधारा के समर्थन में हमारा कहना तो यह है कि क्रिकेट खेलने वाले, खिलाने वाले और सिखाने
वाले यह मान लें कि वह इसका व्यापार कर रहे हैं।
वह ज्यादा पैसे मिलेगा तो हारेंगे,
जीतेंगे या फिर नहीं खेलेंगे-यह उनकी मर्जी है।
व्यापार में वस्तु या सेवा बेचने वाले पर आप यह आरोप नहीं लगा सकते कि एक कम दाम
में दे रहा है तो दूसरा ज्यादा दाम मांग रहा है। कोई अपनी वस्तु या सेवा किसी को मुफ्त में भी दे तो हमें क्या? क्रिकेट के व्यापारी यह
मानने को तैयार नहीं होते। वह कभी खेल के विकास तो कभी भावना की शुचिता की बात करते
हैं। इसी पाखंड के कारण उनके कर्म
विवादास्पद हो जाते हैं। वैसे भारतीय जनमानस यह जान चुका है कि इन क्रिकेट मैचों
के बहाने उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। अलबत्ता जिनके पास फालतू का पैसा या समय है
उनके पास बर्बाद करने की प्रवृत्ति होती है जो क्रिकेट को खेल को व्यापार की तरह
चला रही है। हमारा तो यह भी मानना है कि इससे सरकार को राजस्व अर्जित करने का भी
प्रयास करना चाहिये ठीक उसी तरह जैसे अन्य मनोरंजन व्यवसायों के किया जाता है।
--------------------
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें