मीडिया यानि टीवी चैनल और समाचार पत्र-जिनकों हम संगठित प्रचारतंत्र भी कह सकते हैं-बिना सनसनी के नहीं चल सकते कम से कम उनमें काम करने वाले लोगों की मान्यता तो यही है। राई का पहाड़ और पहाड़ से निकली चुहिया को हाथी बनाने की कला ही प्रचारतंत्र का मूल मंत्र है। अब यह कहना कठिन है कि कितनी सनसनी खबरें प्रायोजित या स्वघटित हैं।
अभी कुछ दिनों पहले एक विदेशी चैनल का एक पत्रकार लोगों की हत्या कराकर उनके समाचारों को सनसनी ढंग से प्रसारित करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। वह अपने व्यवसाय के सफलता के लिये ऐसी हरकतें कर रहा था। अभी हमारे देश के प्रचार तंत्र के लोगों की आत्मा मरी नहीं है कि वह ऐसी हरकतें करें पर ऐसी खबरें तो प्रायोजित करने के साथ प्रसारित कर ही सकते हैं जिससे किसी को शारीरिक हानि न पहुंचे न ही अपराध हो।
आखिर यह चल तो विदेशी ढर्रे पर ही रहे हैं। हो सकता है ऐसा न हो पर इधर चीन को लेकर जो सनसनी फैली है उसका तो न ओर मिल रहा है न छोर।
प्रचारतंत्र ने कह दिया कि घुसपैठ हुई। उसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई तो अनेक तरह के कथित प्रमाण लाये गये। आधिकारिक रूप से खंडन होते रहे हैं पर प्रचार तंत्र है कि बस अड़ा ही हुआ है कि घुसपैठ हुई। करीब दो सप्ताह से सनसनी फैली रही तब जाकर चीन की नींद खुली। मुश्किल यह है कि चीनी अपनी भाषा के अलावा दूसरी भाषा सीखते नहीं है इसलिये हिंदी के प्रचारतंत्र का उनको पता नहीं कि क्या चल रहा है?
किसी हिंदी भाषी ने ही उनको चीनी भाषा में लताड़ते हुए इन खबरों के बारे में पूछा होगा तब चीन ने आधिकारिक तौर पर भारतीय प्रचारतंत्र पर दुष्प्रचार का आरोप जड़ा। अभी तक भारत के रणनीतिकारों पर आक्रमण करने वाला चीन इतना बदहवास हो गया कि उसने सीधे ही प्रचारतंत्र को घेरे में ले लिया।
भारत की परवाह न करने वाला चीन पहली बार इतने तनाव में आया इस बात पर भारतीय प्रचारतंत्र को कुछ श्रेय दिया ही जाना चाहिए। इस प्रचारतंत्र को लेकर चीन भारतीय रणनीतिकारों से यह तो कह नहीं सकता कि इन पर नियंत्रण करो क्योंकि यह प्रचारतंत्र सरकारी नहीं है। भारत चीन से कह सकता है कि तुम अपने प्रचारतंत्र पर नियंत्रण करो क्योंकि वहां पर सरकार ही उसकी मालिक है। चीन का प्रचारतंत्र भी तो भारत के विरुद्ध विषवमन करता है और उसका सीधा आशय यही है कि वहां की सरकार यही चाहती है।
मगर इस बार चीन को भारतीय प्रचारतंत्र के रूप में जो असंगठित प्रतिद्वंद्वी मिला है उससे उसका पार पाना संभव नहीं है। सरकारी तौर पर नियंत्रण से परे इस प्रचारतंत्र की खूबी यह है कि कहता ही रहता है सुनता कुछ नहीं देखता है। एक शब्द देख लिया उस पर पूरा कार्यक्रम बना डाला। कहते हैं कि चीनी सुनते अधिक परबोलते कम हैं जबकि हमारा यह स्वतंत्र प्रचारतंत्र बोलता अधिक है सुनता कम। चीनी भी आखिर कुछ बोलेंगे पर उनका एक ही शब्द उनको परेशान कर डाल सकता है अगर भारतीय प्रचारतंत्र ने उसका नकारात्मक अर्थ लिया।
जब भारतीय प्रचारतंत्र उसके खिलाफ आग उगल रहा है तब कोई वहां के प्रचारतंत्र चुप बैठा हों यह संभव नहीं है मगर वह भारतीय प्रचारतंत्र का प्रसारण तो देखेंगे पर भारतीय प्रचारतंत्र उनकी तरफ नहीं देखेगा। यह उपेक्षासन का गुण भारतीय प्रचारतंत्र को विजेता बनाये हुए है। अपने विरुद्ध ऐसा प्रचार देख और सुनकर चीनी आग बबूला होकर कार्यक्रम बनायेंगे पर यहां देखेगा कौन? इससे उनकी आग और बढ़ जाती होगी।
इस प्रचार का ही नतीजा है कि दिल्ली में चीन के राजनयिक इधर उधर भागदौड़ करते रहे। एक तरह से चीन इस प्रचारतंत्र को लेकर भारत पर दबाव डाल रहा है पर यह उसके लिये परेशानी का कारण ही बनने वाला है। हो सकता है कि अभी यह प्रचारतंत्र चुप हो जाये पर अब चीन को आगे यह सब झेलना पड़ सकता है।
अपने प्रचारतंत्र का एक विषय पाकिस्तान तो बना ही हुआ है। उसके यहां अपने देश तथा विदेश के जो खुराफाती तत्व सक्रिय हैं उन पर हमारा प्रचारतंत्र अपनी बहुत सारी रील और शब्द खर्च कर चुका है। लोग उससे उकता गये हैं। लोगों को व्यस्त रखने के लिये एक दुश्मन तो चाहिये न! मुश्किल यह है कि चीन बहुत खौंचड़ी है पर उसने अपने यहां अपराधियों को पनाह नहीं दी है जिसको प्रचारतंत्र हीरो बना दे। वहां की हीरो तो बस सरकार ही है! अमेरिकी आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि उसकी विकासदर में अपराध के पैसे का भी योगदान है। ऐसे में वहां के किसी अपराधी का महिमामंडन तो यहां हो नहीं सकता। लेदेकर एक ही विषय बचता है ‘सीधा हमला’। भारतीय सैन्य विशेषज्ञ स्वयं मानते हैं कि सीमा का आधिकारिक अभिलेख न होने के कारण दोनों के सामने ऐसी समस्या आती है। जब भारत को समस्या आयी तो उसे इस तरह सीधा हमला प्रसारित कर प्रचारतंत्र ने जो गजब की फुर्ती दिखाई उसके लिये वह प्रशंसा के काबिल है क्योंकि उसने उस देश को हिला दिया जो किसी से डरता नहीं है। इसका यह भी नतीजा आ सकता है कि आगे चीन ऐसी गल्तियां न करे जिससे तिल का ताड़ बने।
वैसे एक खबर एक चैनल ने दूसरी खबर भी चलाई कि भारतीय बाघ का दुश्मन चीन। दरअसल वहां शेर की खाल से शराब बनती है और आरोप लग रहा है कि नेपाल के तस्करी के जरिये भारत से खाल चीन जाती है। शेरों का शिकार करने कोई चीनी नहीं आते बल्कि अपने ही देश के लोग यह काम करते हैं। इसमें चीन का पूरा दोष नहीं है पर तस्करी के द्वारा इस तरह शेरों की खाल जाने की जिम्मेदारी से वह बच भी नहीं सकता। फिलहाल दोस्ताना रूप से यह बात तो चैनल वाले मान भी रहे हैं पर यह दोस्ताना आगे जारी रहेगा-यह चीनियों को सोचना भी नहीं चाहिए। अपने देश में शेरों की हत्या कर देना कोई सामान्य मामला नहीं है पर जिस तरह चीन को लक्ष्य कर यह कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया उससे तो लग रहा है कि चीन पर प्रचारतंत्र की नजर पड़ गयी है। आने वाले समय में ऐसे बहुत सारे कार्यक्रम आ सकते हैं जिस पर चीन बौखला सकता है। इसकी वजह यह है कि वहां की हर गतिविधि के लिये सरकार सीधे जिम्मेदार मानी जाती है। अभी कुछ दिनों पहले भारत के नाम से नकली दवाईयां नाइजीरिया में भेजने के मामले में चीन फंस चुका है। भारतीय प्रचारतंत्र अभी तक चीन को समझता नहीं था पर अब उसे लगने लगा कि वहां की सरकार भारत को परेशान करने के लिए अपराध की हद तक जा सकती है। अपराध की भनक भी प्रचारतंत्र के कान खड़े कर सकती है क्योंकि सनसनी तो उसी ही फैलती है न! यहीं से चीन भी अब उसके दायरे में आ गया है क्योंकि उसके साफसुथरे और संपन्न होने का तिलिस्म भारतीय प्रचारतंत्र के सामने खत्म हो गया है। अब चीन के सामने एक केवल एक मार्ग है वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष से भारत के विरुद्ध अपराध होने को रोक दे नहीं तो जितना वह करेगा उससे अधिक तो भारतीय प्रचारतंत्र बतायेगा। इसे रोकना किसी के लिये संभव नहीं है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
शब्द अर्थ समझें नहीं अभद्र बोलते हैं-दीपकबापूवाणी (shabd arth samajhen
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*एकांत में तस्वीरों से ही दिल बहलायें, भीड़ में तस्वीर जैसा इंसान कहां
पायें।*
*‘दीपकबापू’ जीवन की चाल टेढ़ी कभी सपाट, राह दुर्गम भाग्य जो सुगम पायें।।*
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5 वर्ष पहले
2 टिप्पणियां:
वस्तुस्थिति को सही ढंग से निरूपित करने के लिए साधुवाद...
सटीक विश्लेषण है आपका !!
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